Sunday, December 7, 2008

मुंबई, धर्मशाला और मै

[ एक हास्य व्यंग]
आज मोहन लाल मिले। बहुत प्रसन्न नजर आ रहे थे। राजे महाराजों के समय की एक धर्मशाला के मैनेजर हैं। बहुत दिनों बाद उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि धर्मशाला में आना । आज कल उसके मोड्रनाईजेशन का काम रहा चल रहा है। मोहन लाल को अंग्रेजी बोलते देख मुझे कुछ अटपटा लगा, पर सबसे ज्यादा आश्चर्य हुआ धर्मशाला में मोड्रनाइजेशन की बात सुनकर। मै 25 साल से ज्यादा से मोहन लाल के संपर्क में हूं। मोहन लाल एवं उसकी धर्मशाला के प्रबंधकों से मैने एवं मेरे जैसे लोगो ने धर्मशाला में सुधार करवाने का अनेक अनुरोध किया ,पर उनके कानों पर कभी जूं नही रेंगी। धर्मशाला शहर के प्रमुख स्थान पर स्थित हैं, यदि इसका प्रबंधन थोडा़ सा परिवर्तन करा लेता, तो उसकी आय बहुत बढ़ सकती थी, किंतु कभी हुआ नहीं,।


एक बार किसी प्रकार ईंट आ गई तो वह तबसे ऍसे ही रखी जगह घेर रही हैं। धर्मशाला का प्रबंधन बनाने वालों को वह रेट देने की बबात कर रहा था जो कभी बीस साल या उससे पहले रहे होंगे । इसी कशमकशा में धर्मशाला में कुछ नया नहीं हुआ।


मोहन लाल की बातों से मै आश्चर्यचकित था, सो अपने को न रोक सका एवं मोहन लाल को अपनी बाइक के पीछे बैठाकर धर्मशाला का मोड्रनाइजेशान होता देखने चला गया। मोहन लाल ने मुझे धर्मशाला मे हो रहा कार्य दिखाया। उन्होंने बताया कि सभी कमरों को हवादार बनाया जा रहा है। कमरों में पंखे ही नही अब कूलर लगेंगे। कुछ में एेसी भी लगाए जाने है। जिस धर्मशाला के कमरों में कभी पंखे तक न लगे हों। शोचालय सामूहिक रहा हो बाबा आदम के जमाने का, उसमे यह परिवर्तन होते देख मै आशचर्य में था, एक दो बार मुझे लगा कि मै सपना तो नही देख रहा ।


मै मोहन लाल से बात करही रहा था कि इतनी देर में धर्मशाला का चौकीदार भी आ गया।वह शराबी के फिल्म के मांगे लाल की भांति छोटे कद का था एवं मूछ बिल्कुल मांगे लाल की तरह रखता था। उसका नाम रामू था किंतु हम उसे मांगे लाल कहकर चिड़ाते थे। हम कहते थे,मूछ हो तो मांगे लाल जैसी आैर वह कहा करता था नही सर आप गलत कह रहे हैं सुधार करें आैर कहें कि मूछ हो तो रामू जैसी।आज उसकी मूछों मे मुझे कुछ ज्यादा ही चमक नजर आई। बालों को भी काला कराया हुआ था।रामू ने बाल भी बड़े स्टाइल से बा रखे थे।


मै अब तक मोहन लाल की ही बातों से आश्चर्य में था कि रामू को देखकर मुझे लग गया कि हाल में कोई बडा़ परिर्वतन जरूर हो गया जो ,पुराने जमाने के इन दोनो में इतना परिवर्तन आ गया है। मै सोचने लगा कि कहीं इनके हाथ कारू का खजाना तों नही लग गया।


उनकी बातों से मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। मैनू पूछा माजरा क्या है। मोहन लाल बोले कैसे अखबार वाले हों , तुमने सुना नही कि मुंबई के ताज जैसे बड़े होटलों पर आंतकवादियों ने हमला कर वहां रह रहे 20 से ज्यादा विदेशी नागरिकों का कत्ल किया है। इस घटना के बाद अब विदेशी नागरिक वहां तो जाकर रूकेंगे नहीं, उन्हें ठहरने को सुरक्षित जगह चाहिए तो हमारी धर्मशाला से सुरक्षित जगह थोडा़ई होगी किसी आंतकवादी को भनक तक नही लगेगी कि विदेशी कहां टिके हैं। अब तक तो एेरा गैरा नत्थूखेरा हमारी धर्मशाला में आकर टिकते थे, इसलिए हमने कभी ध्यान नही दिया,अब विदेशी मेहमान आने वाले हैं। आराम से सस्ते मे रहेंगें। अब तक हमे कभी कभाक कोई ग्राहक एक दो पैग देशी पिला देता था, अब तो रोज अंग्रेजी बढ़िया वाली मिलेगी।


उनकी बातों को मै सुनकर चकरा रहा था कि रामू ने अपनी मूछो को ताव देते हुए जेब से पास्पोर्ट निकाल कर दिखाते हुए कहा कि देख लेना अब कोई अंग्रेज मेम अपनी भी मूछो पर फिदा हो जाएगी।अभी से पास्पोर्ट बनवा लिया है कि एेसा मौका आया तो छोडूंगा नही, यदि वह अपने साथ ले जाने कौ तैयार हो गई, तो तुंरत उसके साथ उड़ जाउगां। उनकी बातो में मुझे मजा तो बहुत आ रहा था कितु आफिस का टाइम होते देख मैने वहां से खिसकना ही बेहतर समझा।

8 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

मूछ हो तो नत्थूलाल जैसी और ख्वाब हो मुंगेरीलाल जैसे!

Unknown said...

बहुत सुंदर रचना है!http:pinturaut.blogspot.com/"janmaanas.blogspot.com/

समयचक्र said...

bahut badhiya vyangy . dhanyawaad.

P.N. Subramanian said...

हमें लग रहा है कि यह केवल व्यंग नहीं है. ऐसी संभावनाएँ तो बन रही हैं.
इस सुंदर व्यंग लेख के लिए आभार.

सचिन मिश्रा said...

Bahut badiya.

क्षितीश said...

'मधुप' जी... उम्मीद है की आपकी रचना से मुंबई के धर्मशाला समिति वाले जरूर फायदा उठाएंगे...!!! हा-हा-हा..!!!

और अब अपने बारे में... पहले तो प्रोत्साहन का शुक्रिया... और फ़िर एक बात कहना चाहूँगा- कि हिन्दी कविता तो कब की नियमों के बंधन से निकल चुकी है.. फ़िर ग़ज़ल से ही अब तक यह उम्मीद क्यों? मुक्त-छंद के पीछे दलील यह थी कि नियमों को ध्यान में रखते-रखते कहीं भावनाएं बंधित ना हो जाएं... और कई रिवाज़ बदलने भी तो चाहिए... उर्दू में भी नई चीजों का प्रचलन हो चुका है, और तो और wikipedia भी कहती है...

"In modern Urdu poetry, there are a few ghazals which do not follow the restriction that the same beher(meter) must be used in both the lines of a sher. But even in these ghazals, qaafiyaa and, usually, radif are present."

आपकी क्या राय है...??? अवगत करायेंगे...

moomal said...

पत्रकारिता के पेशे में होने का एक लाभ यह भी समझ में आया की वरिष्ट अखबार वाला न्यूज में सटायर देता है तो सटायर में समाचार और संभावनाएं भी समाहित कर सकता है। वाह........ ।

Smart Indian said...

अच्छा व्यंग्य है. मौका हो या न हो, फायदा उठाने वाले पहले से तैयार बैठे हैं!