Monday, September 6, 2010

नार्मल के बीटीसी बनने का सफर


जब मैने जूनियर हाई स्कूल यानी कक्षा
आठ की परीक्षा जूनियर हाई स्कूल
झालू से पास की तो मेरे बाबा
(ग्रांड फादर) ने मुझ से कहा था, जा
नार्मल की ट्रेनिंग कर ले। मास्टर बन
जाएगा। पंडित केशव शारण शर्मा जी जिला परिषद के
चैयरमैन है, तो तेरा चयन भी हो
जाएगा। मैने उनकी बात मानी और
नार्मल की ट्रेनिंग के होने वाले
साक्षात्कार में गया। पंडिंत जी उस
साक्षात्कार में बैठे किंतु मेरी उम्र
कम होने के कारण मेरा चयन न हो
सका और मै प्राइमरी स्कूल का
मास्टर बनते बनते रह गया। पंडित
जी रिश्ते के मेरे बाबा
लगते थे, वे जिला पंचायत के चैयरमैन
होते थे पर मेरा नार्मल की ट्रेनिंग
में चयन न हो सका। हां एम. ए करने के बाद
में मैने बीएड किया पर शिक्षण का
व्यवसाय रास न आया और तीन साल बाद
उसे अलविदा कह पत्रकार बन गया।
      आज जिस बीटीसी की परीक्षा के लिए
इतनी मारामारी मची हुई है, और
बीटैक ,एमबीए , एमसीए, पीएचडी
डिगरीधारक तक इसे करने के लिए
आवेदन कर रहे हैं,प्राय मैरिट भी
सत्तर प्रतिशत से ज्यादा रही है। मेरी
किशोरावस्था के समय इसमें प्रवेश की
योग्यता मात्र कक्षा आठ पास थी। उस समय
बीटीसी को नार्मल की ट्रेनिंग कहते
थे। इस ट्रेनिंग को कराने वाले
स्कूलों को नार्मल स्कूल कहा जाता था।
क क्षा आठ तक की शिक्षा जिला पंचायत
के अधीन थी। वही शिक्षकों को
प्रशिक्षण दिलाती और उनकी नियुक्ति
करती थी। बाद में लडक़ों के लिए
नार्मल करने की योग्यता हाई स्कूल
हो गई जबकि लड़कियों की योगयता कक्षा
आठ पास ही रही । १९६७ में ट्रेनिंग
करने वाले शिक्षकों के प्रमाण पत्र पर
इस योग्यता का बाकायदा उल्लेख है। इस
प्रशिक्षण का नाम हिंदुस्तानी
सर्टिफिकेट ट्रेनिंग था। इस
ट्रेनिंग के लिए योग्यता बढऩी शुरू
हुई तो इंटर होकर अब बीए
हो गई। नाम भी बदल कर बीटीसी हो
गया। पहले यह ट्रेनिंग दो साल की
होती थी , बाद में बीटीसी होने पर
प्रशिक्षण की अवधि एक साल हुई, अब
बढक़र इसकी अवधि फिर दो साल
हो गई। पहले देहात में कक्षा आठ तक
की शिक्षा का संचालन जिला पंचायत
और नगर में नगर पालिका करती थी।
अब यह बेसिक शिक्षा के अधीन है।
       किसी समय गुरू को बहुत सम्मान
 मिलता था, शिक्षा पूरी करने पर गुरू दक्षिणा
देने का प्रावधान था। महाभारत काल में
तो द्रोणाचार्य ने गुरू दक्षिणा में अपने
अपमान का बदला लेने के लिए पांडवों
से अपने दुश्‌मन राजा द्रुपद को बंदी
के रूप में मांगा था। उस समय तक
गुरूकुल शिक्षा के साथ साथ देश के
संचालन में मददगार होते थे। यह छात्र
को ज्ञान के साथ साथ तकनीकि शिक्षा
और युद्धकला भी सिखाते थे।
हस्तिनापुर राज्य के राजकुमारों
को पढ़ाने के लिए द्रोणाचार्य और
कृपाचार्य जैसे गुरू के दरबारी होने
और छात्रों से भेदभाव करने के
कारण गुरू का पतन होना शुरू हुआ।
गुरूञ् की गरिमा गिरी तो शिक्षा का
स्तर भी गिरा। गुरू दक्षिणा में अंगूठा
मांगे जाने की मिसाल भी महाभारत में
ही मिलती है। शिक्षक के पतन की
यहां से हुई शुरूआत अब तक जारी
रही। गुलामी के दौर में शिक्षक का
सम्मान बहुत गिरा। आजादी के बाद भी
कोई खास फर्क नहीं पडा़। और सबसे
सरल छोटे बच्चों को पढ़ाने का
कार्य हो गया। जो कुच्छ नहीं कर
पाता वह टीचर बन जाता।
    शिक्षा जगत से आए डा. राधाकृष्णन
के समय से शिक्षकों को सम्मान मिलना
शुरू हुआ। उनके जन्म दिन पांच सितंबर
 को शिक्षक दिवस के रूप में
मनाया जाने लगा और शुरू हुआ
शिक्षकों के सम्मान का सिलसिला। आज
शिक्षा का सुधार हुआ, शिक्षकों के
वेतन बहुत अच्छे हुए तो योग्य युवक
युवतियों का इस और रूझान बढ़ा
है। अब एमबीए, बीटैक यहां शिक्षक
बनने आ रहे है, किं तु वह यहां
करेंगे क्या, काश वह अपनी योग्यता
वाली तकनीकि शिक्षा में पढ़ाने जाते
तो बहुत अच्छा रहता। यहां वे शिक्षा
के प्रति समर्पण या कुछ नया करने की
भावना से नही आ रहे हैं। वे
सरकारी नौकरी पाने की आस में
यहां आए है। उनका सोच यह है कि
सरकारी नौकरी एक बार मिल गई तो
फिर पूरी उम्र चैन से कटेगी।
हालात कैसे भी हो हमें आशा नहीं
छोडऩी चाहिए ,उम्मीद रखनी चाहिए
कि इनमें भी पंडित मदन मोहन
मालवीय,नजीर अकबराबादी ,रविंद्र नाथ
टैगोरजैसे गुरू निकलेंगे और
शिक्षा के नए आयाम बनांएगे। आने वाला
समय में शिक्षा का स्तर ही नहीं
बढेग़ा ,अपितु शिक्षकों का समान भी
बढ़ेगा।
अशोक मधुप

Saturday, September 4, 2010

सुलताना डाकू का किला


अशोक मधुप

Story published in AMAR UJALA ON EDITORIAL PAGE  Saturday, September 04, 2010 1:16 AM



बिजनौर जनपद में नजीबाबाद से लगभग ढाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित पत्थरगढ़ का किला सुलताना डाकू के किले के रूप में विख्यात है। यह वही सुलताना डाकू था, जिसने ब्रिटिश सरकार को नाकों चने चबवाए थे। मजबूरन उसे पकड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार को फे्रडी यंग के नेतृत्व में विशेष दल बनाना पड़ा था।



नजीबाबाद को रूहेला सरदार नजीबुद्दौला ने बसाया था। उसने यहां कई महल और मसजिदें बनवाईं। नजीबाबाद से लगभग डेढ़ किलोमीटर पूर्व में 40 एकड़ भूभाग में वर्ष 1755 में एक भव्य किला बनाकर इसे पत्थरगढ़ किला नाम दिया था। इसकी दीवारें इतनी मोटी थीं कि उन पर दो ट्रक बराबर में दौड़ सकते थे। आगे की दीवार इतनी ऊंची बनाई गई कि पीछे की दीवार पर स्थित फौज आराम से घूमकर दुश्मन का मुकाबला करती रहे और दुश्मन की उस पर नजर भी न पड़े। जिला गजेटियर के मुताबिक, इसमें मोरध्वज के किले के पत्थर लाकर लगाए गए। वर्ष 1857 में नजीबुद्दौला के एक वंशज नवाब महमूद खां ने अंगरेजों से सत्ता छीन ली। पर लगभग साल भर बाद ब्रिटिशों ने नवाब महमूद को हरा दिया और नजीबाबाद पर कब्जा कर पत्थरगढ़ के किले को तोड़-फोड़ दिया। नवाब महमूद सपरिवार नेपाल भाग गए और वहीं मलेरिया से उनका निधन हो गया।



भातू जनजाति के अपराध रोकने के लिए अंगरेजों ने इस किले को सुधार गृह बनाया। जगह-जगह से भातुओं को यहां लाकर विभिन्न लघु-उद्योगों का प्रशिक्षण दिया जाता था। अंगरेज इन पर बेइंतहा जुल्म करते और कठिन श्रम कराते। ब्रिटिशों के जुल्म से परेशान इस किले में रहनेवाला एक युवक बागी बन गया और भागकर अपराध को अंजाम देने लगा। सेठों को लूटने और गरीबों की मदद करने के कारण लोगों ने उसे सुलतान नाम से पुकारा। वही धीरे-धीरे सुलताना हो गया। तराई में सुलताना के अपराध और गरीबों के मदद के किस्से आज भी मशहूर हैं। कई साल की मशक्कत के बाद फे्रडी यंग के नेतृत्व में बने विशेष दल ने उसे पकड़ा और फांसी दे दी। उस विशेष दल में प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट भी शामिल थे। उन्होंने अपनी पुस्तकमाई इंडिया में सुलताना-इंडियन रॉबिनहुड नाम से एक लेख लिखा है, जिसमें उसकी जमकर प्रशंसा की गई है।

आज यह किला पुरातत्व विभाग की संपत्ति है। इसके दो भव्य द्वार हैं, जिसमें से एक नजीबाबाद की ओर खुलता है। इसके दरवाजों पर बनाए गए डिजाइन बहुत ही खूबसूरत हैं। इस समय किले की सिर्फ बाउंडरी ही बची है, जो देख-रेख के अभाव में जगह-जगह से टूट-फूट गई है। पुरातत्व विभाग द्वारा अब इस किले का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है।