Sunday, December 19, 2010

ब्रह्म स्वरूप बेदिल

ब्रह्मस्वरूप बेदिल की पुण्य तिfथ 
हिंदी, उर्दू, फारसी का तालमेल ‘बेदिल साहब



धामपुर। ब्रह्म स्वरूप बेदिल फक्कड़ व्यक्ति का नाम है, जो कविता और दोस्ती के लिए प्रसिद्ध रहा।
बेदिल साहब की धामपुर में कपडे़ की दुकान और अखबारों की एजेंसियां थी। सबेरे अखबार बांटने निकलते तो कब लौटे ये किसी को पता नहीं होता था। कोई कवि या शायर मिल जाए तो फिर तो राम ही मालिक है कि कब वापसी हो। नया शेर या कविता तो कई बार अखबार के खरीदारों के हिस्से में भी आ जाती थी।
बेदिल साहब पूरी तरह मस्त थे। खुलकर हंसते थे। अपनी कविता या शेर कहकर खुद ही जोर से हंस पड़ते थे। पान खाने के इतने शौकीन थे कि उनके मुंह में हर समय पान रहता था और अधिकतर बात करते समय पान का पीक मुंह से बहकर गालों पर आ जाता था। बेदिल की शिक्षा कोई ज्यादा न थी किंतु स्वाध्याय के बूते पर उनका हिंदी, उर्दू और फारसी में बड़ा दखल था, तीनों भाषाओं के शब्द उनकी रचनाओं में जगह-जगह प्रयोग भी हुए हैं। 16 जुलाई 1917 में जन्में बेदिल का 19 दिसंबर 1991 में निधन हुआ। आज उनकी बीसवीं पुण्य तिथि है, किंतु ऐसा उनके चाहने वालों को नहीं लगता कि बेदिल हमारे बीच नही हैं।
नहटौर के जैन विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य के दौरान प्राय:  अधिकतर शाम धामपुर की गलियों में कवियों और शायरों के साथ घूमते गुजरती थीं। उन्हीं अनेक शाम के मेरे साथी बेदिल भी रहे। उनकी मस्ती उनका अंदाज-ए-बयां मै आज तक नहीं भूल पाया। कभी धामपुर जाता हूं तो ऐसा लगता है कि जाने किधर से बेदिल निकल कर आएंगे और कंधे पर हाथ मार शेर सुनाने लगेंगे। उनकी बीसवीं पुण्य तिथि पर उनके कुछ कता, शेर श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैं।
- वक्त रुकता नहीं है, रोके से,
घी निकलता नहीं है, फोके से। उनको कुछ और ही बनाना था, आदमी बन गया है धोके से।
- जिंदगी एक चराग है बेदिल,
इसमें सांसों का तेल जलता है। सांस पूरे हुए बुझी बाती,
इसमें धुआं नहीं निकलता है।
- यू तो सब अपनी अपनी कहते हैं,
भेद दुनिया का कौन पाता है।
एक मेला सा लग रहा है यहां,
एक आता है, एक जाता है।
- जिंदगी और मौत बस एक ही लिबास,
एक पहना एक उतारा, धर दिया।
आदमी है किस कदर का बदहवास,
जो भी पहना वो पुराना कर दिया।
- मत बिठाना, मत उठाना मुझको दोस्त,
खुद ही आ जाऊंगा मैं, खुद ही चला जाऊंगा।
- यों तो दुनिया तमाम उनकी है,
एक हमीं गैर है किसी के लिए।
प्रस्तुति : अशोक मधुप’


Saturday, December 18, 2010

गोपाल दास नीरज से एक भेंट

हरेक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह...
‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’
स्
अशोक मधुप
बिजनौर।पद्य विभूषण गोपालदास नीरज गीतों की दुनिया और हिन्दी साहित्य का जाना माना नाम है। उनकी गजल और दोहे साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है। नीरज जी के एक कार्यक्रम में आने की सूचना पर उनके साक्षात्कार को जब नजीबाबाद रोड स्थित डॉ निरंकार सिंह त्यागी के आवास पर पहुंचा तो नीरज एक कमरे में रजाई में आराम कर रहे थे। उनके पलंग के पास उनका वाकर रखा था। 86 साल की उम्र में आज वे इसके सहारे चलते हैं।इस तरह शुरू हुआ प्रश्नोत्तर का सिलसिला
प्रश्न : नीरज जी कविता लिखनी कब शुरू की?
उत्तर: माँ बचपन में गुजर गई थी। एटा में मै अपनी बुआ के यहां रह कर पढ़ता था, गाने का शौक था तथा अच्छा गाने के कारण साथी और परिचित मुझे सहगल कहकर पुकारते थे। वहां एक कवि सम्मेलन में मैने बलबीर सिंह रंग को काव्य पाठ करते सुना। रंग अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे। वे अपने गीत गाकर पढ़ते थे। उनसे प्रभावित होकर ही मैने कविता लिखनी शुरू की। मेरी पहली कविता है-
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता,
आशाओं का संसार नहीं मिलता
एटा में जागरण नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र निकलता था उसके सम्पादक कुंवर बहादुर बेचैन ने यह कविता अपने अंक में छपवाई थी। उस कविता को लंबे समय तक मै सीने से चिपकाए घूमता रहा। मुझे हरिवंश राय बच्चन की पुस्तक निशा निमंत्रण पढ़ने को मिली।जीवन से निराशा थी ऐसे में कविता पाठ लिखना शुरू कर दिया और संघर्ष नाम की पहली पुस्तक 1943 में प्रकाशित कराई। इस पुस्तक को निशा निमंत्रण को समर्पित किया। धीरे-धीरे कविता लिखते रहे, किन्तु अपना रास्ता अलग बनाया। बच्चन जी की कविता में लक्षण व्यंजनाओं का अभाव है। दिन जल्दी जल्दी ढलता है सीधी कविता है। मैने प्रेम को देखा। उसके के लिए सदा नई परिभाषा गढ़ी।
गीत लिखा: कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे, जिन्दगी मैंने गुजारी नहीं सभी की तरह,
हरेक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह।
तुम्हारी याद जो ता उम्र मेरे साथ रही,
छुपा है रखा उसे, ख्वाबे आखरी की तरह।
लोग मुझे शृंगार का कवि कहते हैं लेकिन मैं शृंगार का कवि नहीं, एक दार्शनिक कवि हूं। कुछ विद्वान कहते हैं कि दर्शन कविता के लिए नहीं हैं जबकि मैं कहता हूं कविता दर्शन के बिना नहीं हो सकती।
आज जी भर देख लो तुम चांद को क्या पता यह रात फिर आए न आए। यहां दर्शन है।
प्रश्न: आपने ज्योतिष पर भी काफी लिखा है?
उत्तर: ज्योतिष एक विज्ञान है। इस संसार में कोई स्थिर नही है। सूर्य चांद तारे ही नहीं चल रहे। हर चीज लय में चल रही है। नदी लय में चल रही है। हमारा रक्त लय में चल रहा है। इसी पर ज्योतिष केंद्रित है।
चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनते ही कह दिया था कि 30 को कुछ गड़बड़ हो जाएगी। हुआ भी ऐसा हीं। यह संक्रांति काल था। इसमें गड़बड़ होती ही है। ज्योतिष में तीन पुस्तकें लिखी, किन्तु परिचितों ने कहा कि यह तुम्हारा विषय नहीं समय बरबाद मत करो। और मैं अपने रास्ते पर आ गया।
प्रश्न: अपने विशाल साहित्य में अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता कौन सी मानते हैं?
उत्तर:
कविता बच्चों की तरह है। आदमी को अपने सभी बच्चे प्यारे होते हैं, कोई ज्यादा प्यारा या कम प्यारा नहीं। किन्तु मैने मां संबोधन से चार पांच कविताएं लिखी हैं इन्हें मैं सर्व श्रेष्ठ मानता हूं। दो वर्ष मेरे अवसाद में बीते एक तरह से विक्षिप्त की तरह जीवन जिया। लगता था कि मां मुझे बुला रही हैं। कहती है तुम परेशान हो मेरे पास आ जाओ ऐसे में मैने लिखा:
मां मत ऐसे टेर की मेरा मन अकुलाए। ,तू तो दे आवाज वहां से, यहां न मुझसे बजे बांसुरी।
तू डाटे उस ठौर, चढ़ाए यहां हर एक फूल पांखुरी, तेरा करु न तो तू बिगडे़, जग की सुनु न तो वह झगडे़।
समझ में नहीं ंआता कि इस पार जाऊं या उस पार।
प्रश्न: नीरज अगर कवि नहीं होते तो क्या होते
उत्तर:
क्लर्क होता, काफी समय क्लर्की की है। उसी समय की लिखी पुस्तक संघर्ष है।
प्रश्न: आप अपनी परिभाषा क्या कहेंगे?
उत्तर:
नीरज के दो रूप हैं एक : कमल और दूसरा मोती मैं अपने आपको कमल मानता हूं जो गंदगी में रह कर भी उससे दूर रहता है।
प्रश्न: आप और संतोषानन्द जैसे कद्दावर कवि गीतकार फिल्मों में गए किन्तु वहां से चले क्यों आए?
उत्तर:
नीरज: मैं फिल्मी दुनिया में गया नहीं बुलाया गया था आज भी बुलाया जाता हूं। मेरे गीतों की
पिक्चरों ने सिलवर जुबली मनाई। खूब चली मैरे लिखे गीत आज भी गुन गुनाए जाते हैं। राज कपूर, शंकर जयकिशन मेरे साथी थे। एस डी वर्मन ने मेरे गीत खूब गाए। फिल्मी दुनिया में राजनीति की जोड़ तोड़ चलता है, मैं यह सब नहीं कर सकता इसीलिए लौट आया।
प्रश्न: आज के फिल्मी गीतों ्रकुछ कहें?
उत्तर:
आज के गीत पचास शब्दों में ही सिमटे हैं उसमें भाव नहीं हैं।
प्रश्न: पुराने समय के कवि सम्मेलन और आज के कवि सम्मेलन में क्या फर्क है?
उत्तर: पहले कवि सम्मेलन की अध्यक्षता जाने माने कवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, निराला एवं महादेवी वर्मा आदि करते थे आज राजनेता करते हैं। आज तो मंच से कविता ही नहीं कही जा रही।
प्रश्न: आज हिंदी कवि भी गजल लिख रहे हैं क्या कारण हैं?
उत्तर:
गजल लिखना बहुत सरल है उसकी हर दो पंक्तियां अपने में अलग होती है। विपरीत भाव भी हो सकते हैं किन्तु गीत में ऐसा नहीं हैं। गीत में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक भाव नहीं बदल सकता। गजल उर्दू की विद्या है गीत हिंदी की। हिंदी में गजल लिखना बहुत कठिन हैं वह भाव ही नहीं आ सकता। मुगल शासन में उर्दू कोर्ट की भाषा बनी। उर्दू दरबारी भाषा बनी तो हिंदी गांव खेत और खलिहान की ओर चली गई।
गजल का अर्थ प्रेमिका से बात करना है। प्रेमिका से बात आंखों से ज्यादा होती है। होंठों से कम। संकेत भाषण नहीं हो सकते। इसी में अध्यात्म आ जाए तो अच्छा हो जाता है।
खुशी भी नहीं, बेखुदी भी नहीं हैं,
चले आइए अब कोई भी नहीं है।
हम तेरी याद में ए यार वहां तक पहुंचे
होश ये भी न रहा कि कहां तक पहुंचे
कौन ज्ञानी , न ध्यानी, न ब्राह्मण, न शेख
वो कोई और थे जो तेरे मंका तक पहुंचे।
अंदाज-ए नीरज
Amar Ujala Meerut me 18 me prakashit

Friday, December 17, 2010

कवि गोपाल दास नीरज की नसीहत

 रामदेव अपना काम करें, राजनीति नहीं
अशोक मधुप
बिजनौर।प्रसिद्घ कवि पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज ने कहा है कि स्वामी रामदेव को अपना काम करना चाहिए, राजनीति नहीं। वे अपना काम सही ढंग से करते रहें, यही बहुत बड़ा काम होगा।
एक कार्यक्रम में भाग लेने आए नीरज ने एक लंबी भेंट में कहा कि गड़बड़ तभी होती है, जब आदमी में स्वाभिमान आ जाता है। आज स्वामी रामदेव की हालत भी ऐसी ही है। उन्होंने कहा कि आज गड़बड़ यहीं हो रही है कि सब दूसरे को सुधारने पर लगे हैं, अपने को नहीं। अपने को सुधार लें तो कोई समस्या हीं न हो। आज सब दूसरे को बुरा कह रहे हैं।
कवि नीरज कहते हैं कि हम तो लंबे समय से कवि सम्मेलन के माध्यम से लेगों को पूरी पूरी रात जगाने में लगे हैं किंतु कोई जागता ही नहीं। बस कविता सुनते समय ताली बजाकर काम खत्म कर देते हैं । वे कहते है कि आज सब धन कमाने में लगे हैं। चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। राजनीति जनसेवा का माध्यम थी, इसी तरह धर्म और चिकित्सा जनकल्याण के लिए थे किंतु सब उलट गया। अब सब धन बनाने में लग गए हैं। हालांकि जीवन में पैसा भी बहुत जरूरी है, किंतु जिस तरह से जितना पैसा अर्जित किया जा रहा है, वह गलत है। अर्थजीवन का माध्यम होना चाहिए, लक्ष्य बन जाना ठीक नहीं हैं। आज जो हो रहा है, वह पतन की चरम सीमा है।
देश के हालात पर नीरज चिंतित हो उठते हैं। वे कहते हैं कि आज जो चल रहा है, वह देश की गुलामी का कारण बनेगा। विदेशी उद्योग का तेजी से देश में आना खतरनाक है। इससे हमारे उद्योग धंधे बंद हो रहे हैं। वे देश में बढ़ती चोरी डकैती के लिए जनसंख्या वृद्घि को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि जनंसख्या वृद्घि को रोकेबिना देश का विकास संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रति वर्ष दो लाख दस करोड़ बच्चे जन्म ले रहे हैं, इनमें से साठ लाख प्रतिवर्ष मर जाते हैं। इसके बारे में कोई नहीं सोच रहा है। वोट के चक्कर में सब देश क ो बरबाद करने पर तुले बैठे हैं। 
 Amar Ujala me 17 december me prakashit

Tuesday, December 14, 2010

25वें वर्ष में अमर उजाला ने किया प्रवेश, सम्मानित हुए कई हमसफर

सच के जोश के साथ मनी रजत जयंती

12 dicmeber 2010
मेरठ। यह सिर्फ गर्व और संतोष का मौका नहीं था। यह मौका था उत्साह के साथ झूमने-गाने के साथ ही उन पलों को याद करने का भी जिन पलों में ‘अमर उजाला’ ने पूरी शिद्दत के साथ सच का साथ दिया और जिनकी बदौलत उसने सफलतापूर्वक अपनी स्थापना के 25 साल पूरे किए। मोहकमपुर स्थित संस्थान कार्यालय में रविवार को आयोजित रजत जयंती समारोह में दिन भर रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए। इस मौके पर संस्थान ने उन ‘हमसफरों’ को भी सम्मानित किया जो तमाम अच्छे-बुरे हालात में अडिग ‘अमर उजाला’ के साथ बने रहे।

समारोह में प्रकाशन क्षेत्र के विभिन्न शहरों और इलाकों से आए लोगों ने अमर उजाला से जुड़े अपने संस्मरण सुनाए। साथ ही ऐसे कई किस्से सुनाए जिसने साबित किया कि कैसे ‘अमर उजाला’ ने निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए किसी के सामने न झुकने का अपना व्रत बनाए रखा। चाहे वह 1987 के दंगे रहे हों या फिर रामपुर का लाठीचार्ज। समारोह में ‘अमर-उजाला’ के स्थानीय संपादक सूर्यकांत द्विवेदी, महाप्रबंधक भवानी शर्मा, वरिष्ठ समाचार संपादक सुनील शाह ने ‘अमर उजाला’ के मेरठ संस्करण के प्रकाशन के समय से ही जुड़े रहे लोगों को उपहार और नारियल देकर सम्मानित किया।

सम्मानित लोगों में नगीना से अशोक कुमार जैन, हल्दौर से राजेंद्र सिंह, कालागढ़ से माहेश्वरी ब्रदर्स, धामपुर से दिनेश चंद्र अग्रवाल, मोरना से राजेंद्र राठी, जानीखुर्द से राकेश कुमार जिंदल, धामपुर से नवीन न्यूज एजेंसी, रामपुर मनिहारन से सतीश कुमार सचदेवा, छुटमलपुर से अशोक न्यूज एजेंसी, मोरना से गुढ़ल न्यूज एजेंसी, दबथुआ से रामफल गुप्ता, जानीखुर्द से जिंदल न्यूज एजेंसी, मुजपफरनगर से देवेंद्र खबरबंदा, मेरठ से रामभरोसे गुप्ता, रफीक अहमद, राजेंद्र मौर्या, रामटेक शर्मा, सईद अहमद, अशोक प्रियरंजन, अशोक मधुप, ललित पुनैठा, संजय शर्मा, इंद्रपाल मवाना के राजपाल राजू शामिल रहे।

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सतरंगी रंगों में रंगा कार्यालय

25वीं सालगिरह पर पूरा अमर-उजाला कार्यालय सजावट के रंगों में रंगा। प्रत्येक विभाग ने थीम बेस्ड सजावट कर अपने कार्यालय को सजाया। फूलों और गुब्बारों से कार्यालय को सजाया गया। संपादकीय विभाग ने चित्रों पर प्रेरणास्पद संदेश लिखकर लोगों को कर्मठता, ईमानदारी, आत्मविश्वास, प्रेरणा के संदेश दिए। लाइब्रेरी विभाग ने समाचार पत्र का पहला संस्करण लगाकर पुरानी यादें ताजा कीं। तकनीकी विभाग ने 25वीं सालगिरह की थीम लेकर फूलों से खास सजावट की। भारतीय संस्कृ ति और शैली को ध्यानार्थ करते हुए कार्यालय को मोरपंख से सजाया।

25वीं सालगिरह के अवसर पर कार्यालय में खास रंगोली सजाई गई। विभागों की फिमेल कार्यकर्ताओं ने फूल, कुट्टी और रंगों के सामंजस्य से पारंपरिक रंगोली बनाई। फूल, गणेश, दीपक और बेल के डिजायन वाली रंगोली ने पूरे कार्यालय की शोभा बढ़ा दी।

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कंप्यूटर पर भी छाया

सिल्वर जुबली समारोह में सभी लोग भाग ले रहे थे। कार्यालयीन सजावट के साथ कंप्यूटर्स पर भी अमर-उजाला छाया रहा। डिजायनर मुकेश ऋषि ने खास स्क्रीन सेवर बनाया। जो सभी कंप्यूटर्स पर देखने मिला।








मोहकमपुर स्थित अमर उजाला कार्यालय में 25वीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में केक काटते अशोक मधुप, नवीन कुमार, और इंद्रपाल।

Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेष

मेरा यह लेख अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेष पर मेरठ के सभी संसकरण में छपा है
सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल
हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित
अमर उजाला सदैव सत्य का पक्षधर रहा है। चाहे उसके पत्रकारों को एनएसए लगाकर जेल डालने का प्रयास किया गया हो या फिर सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों की हत्या की गई हो, अमर उजाला के कदम हर मुश्किल वक्त में निर्बाध रूप से आगे बढ़ते रहे। 24 वर्ष के स्वर्णिम सफर में समाज को जागरूक करने के साथ-साथ अमर उजाला अपने अंदर भी कई बदलाव लाया है। इस सफर में अमर उजाला को कई खट्टे-मीठे उतार चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा है।
अमर उजाला मेरठ के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उत्तरांचल के साथी उमेश डोभाल की वहां के शराब माफियाओं ने हत्या कर दी, तो एक रात आफिस से कार से घर लौटते समय ट्रक से टकराने पर डेस्क के साथी नौनिहाल शर्मा काल के गले में चले गए। अमर उजाला के गंगोह के साथी राकेश गोयल पर प्रशासन के विरुद्ध खबर लिखने पर एनएसए लगी। भाकियू के आंदोलन में स्वामी ओमवेश के साथ लेखक को भी एनएसए में निरुद्ध करने का प्रयास किया।
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सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल
हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित


बिजनौर में बरेली से अमर उजाला आता था। बरेली की दूरी ज्यादा होने के कारण समाचार समय से नहीं जा पाते थे। सीधी फोन लाइन बरेली को नहीं थी। कभी मुरादाबाद को समाचार लिखाने पड़ते तो कभी लखनऊ को। एक-दो बार दिल्ली भी समाचार नोट कराने का मौका मिला। ऐसे में तय हुआ कि बिजनौर को सीधे टेलीपि्रंटर लाइन से जोड़ा जाए। इसके लिए कार्य भी प्रारंभ हो गया। एक दिन श्री राजुल माहेश्वरी जी का फोन आया कि टीपी लाइन बरेली से नहीं मेरठ से देंगे। वहां से नया एडीशन शुरू होने जा रहा है।
मेरठ में कहां, क्या हो रहा है?, यह जानने की उत्सुकता थी तो मै और मेरे साथी कुलदीप सिंह एक दिन बस में बैठ मेरठ चले गए। मेरठ में वर्तमान आफिस की साइड में पुराना आफिस होता था। उसके हाल में एक मेज पर राजेंद्र त्रिपाठी बैठे मिले। राजेंद्र त्रिपाठी ने पत्रकारिता बिजनौर से ही शुरू की थी, इसलिए पुराना परिचय था। उन्होंने मेरठ के प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी दी और पूरी यूनिट लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
12 दिसंबर 1986 का दिन आया और समाचार पत्र का पूजन के साथ शुभारंभ हुआ। बिजनौर के लिए समाचार पत्र नया नहीं था। पूरा नेटवर्क भी बना था सो परेशानी नहीं आई। बिजनौर में समाचार पत्र लाने-ले जाने के लिए बरेली की ही टैक्सी लगी। बिजनौर-बरेली रूट पर एंबेसडर गाड़ी लगी । इसका चालक लच्छी था। कई दिन उसके साथ अखबार मेरठ से लाना पड़ा। फरवरी 87 में हरिद्वार लोकसभा क ा उपचुनाव हुआ। चूंकि अमर उजाला का नेटवर्क पूरी तरह नहीं बना था, इसलिए मुझे उस चुनाव का कवरेज करने के लिए भेजा गया और मैने पूरे चुनाव के दौरान रुड़की और हरिद्वार से चुनाव कवरेज भेजी।
तब टाइपराइटर से अखबार छापा गया
अमर उजाला मेरठ को इन 24 साल में कई खट्टे-मीठे अनुभव का सामना करना पड़ा। पहले समाचार टाइप होते । उनके पि्रंट निकलते और उन्हे पेज के साइज के पेपर पर चिपकाया जाता था। अब यह काम कंप्यूटर करता है। समाचार के पि्रंट निकालने के लिए दो पि्रंटर होते थे। एक पि्रंटर खराब हो गया। उसे ठीक करने इंजीनियर दिल्ली से आया किंतु वह खराबी नहीं पकड़ पाया। उसने खराब प्रिंटर को सुधारने के लिए चालू दूसरे प्रिंटर को खोल दिया, जिससे चालू प्रिंटर भी खराब हो गया। ऐसे में समस्या पैदा हो गई कि कैसे अखबार निकले? तय किया गया कि खबरें टाइपराइटर पर टाइप करवाई जाएं। सो कुछ पुरानी खबरें , कुछ इधर-उधर से आए समाचार लगाकर अखबार निकाला गया। इस अंक की विश्ेष बात यह रही कि इसमें अधिकतर खबरें और उनके हैडिंग टाइपराइटर से टाइप किए थे।
आग भी नहीं रोक पाई संस्करण को
ऐसे ही एक रात शॉर्ट सर्किट से अमर उजाला मेरठ के कार्यालय में आग लग गई । करीब सौ कंप्यूटर जल गए। ऐसी हालत में अखबार निकालना एक चुनौती थी। किंतु अगले दिन का अंक पूर्ववत: निकला और अखबार पर इस घटना का कोई असर दिखाई नहीं दिया। अमर उजाला का विस्तार क्षेत्र कभी गाजियाबाद नोएडा दिल्ली, बुलंदशहर और पूरे गढ़वाल में था। प्रसार बढ़ने के साथ नए-नए संस्करण निकलते चले गए।
श्याम-श्वेत से रंगीन तक का सफर
24 साल में अमर उजाला में बहुत परिवर्तन आया आठ पेज का अखबार आज औसतन 20 पेज पर आ गया। श्याम-श्याम में छपने वाला अमर उजाला आज पूरी तरह रंगीन हो गया। पहले स्थानीय महत्वपूर्ण समाचार अंतिम पेज पर छपते थे और बाकी उसी के पिछले के पेपर पर छपती थी। इसके बाद पेज पांच से स्थानीय समाचार छपने लगे और अब ये पेज दो से शुरू होने लगे। अनेक प्रकार के झंझावात और परेशानी को झेलते हुए अमर उजाला मेरठ 25 साल में प्रवेश कर रहा है। किंतु वह अपने रास्ते से नहीं भटका। जनसमस्या उठाने से कभी मुंह नहीं मोड़ा। समय के साथ कदम से कदम मिलाने में कभी झिझक नहीं महसूस की। समाचार पत्र नए जमाने के तेवर और तकनीक से तालमेल बनाने के प्रयास हमेशा जारी रहे।
अशोक मधुप


Saturday, December 4, 2010

सबसे अलग

 जांबाजों का गांव
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         बिजनौर जनपद के नूरपुर थाने के अंतर्गत अस्करीपुर गांव का इतिहास भी अजीब-ओ-गरीब है। यहां के लोगों ने जब गोरों का साथ दिया, तो पूरी निष्ठा के साथ और जब महात्मा गांधी के आह्वान पर विरोध पर उतरे, तो अंगरेज सरकार की नाक में दम कर दिया।
मुरादाबाद-नूरपुर मार्ग पर मुरादाबाद से लगभग 35 किमी और मेरठ से लगभग 145 किमी की दूरी पर स्थित है अस्करीपुर। गांव के पुराने लोग बताते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंगरेजों की ओर से गांव के नौजवानों ने जर्मनी के विरुद्ध लड़ाई में हिस्सा लिया था। उनमें से एक शहीद भी हो गया। गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक पत्थर लगा है, जिस पर अंगरेजी में लिखा है-अस्करीपुर, इस गांव के दस व्यक्तियों ने 1914 से 1919 के ‘गे्रट वार’ में भाग लिया था और एक ने बलिदान दिया।
लेकिन 1942 में महात्मा गांधी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करने पर इस गांव के युवक अंगरेज सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पूरी ताकत से जुट गए। गांव में गुप्त सभाएं होती थीं और अंगरेजों को देश से खदेड़ने की नीतियां बनती थीं। आंदोलनकारियों ने तय किया कि 16 अगस्त, 1942 को नूरपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाएगा। इसके लिए पहली रात नूरपुर को जोड़ने वाले सभी मार्गों पर गड्ढे खोदकर उन्हें बंद कर दिया गया, ताकि अन्य स्थानों से गोरी पुलिस नूरपुर न पहुंच सके। रिक्खी सिंह एवं हरस्वरूप सिंह के नेतृत्व में आजादी के हजारों दीवानों ने 16 अगस्त को नूरपुर में एक जुलूस निकाला। थाने पर तिरंगा फहराते समय रिक्खी सिंह ब्रिटिश पुलिस की गोली से जख्मी हो गए थे, जिन्होंने जेल ले जाते समय अम्हेड़ा के पास दम तोड़ दिया। पड़ोसी गांव गुनियाखेड़ी के निवासी परवीन सिंह गोली लगने से मौके पर ही शहीद हो गए थे।
गांव के अनेक नामदर्ज लोगों के पकड़े न जाने पर अंगरेज सरकार ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर गांव पर सामूहिक रूप से तीन सौ रुपये का जुर्माना लगाया। आजादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण इस गांव पर गोरी सेना ने बर्बर जुल्म किए। गांव वालों पर अत्यधिक जुल्म होते देख आजादी के दीवानों की ओर से जनपद में एक परचा बंटवाकर गोरे अधिकारियों से कहा गया कि नूरपुर थाने पर झंडा फहराने में उनका हाथ है। तब जाकर गांव पर गोरी सरकार की ज्यादती रुकी। आजादी के बाद जब जुर्माने की रकम गांव वालों को लौटाई गई, तो उन्होंने इस पैसे को पास के गांव गोहावर में बने संपूर्णानंद इंटर कॉलेज में लगाया। आज की पीढ़ी भले ही इस गांव के इतिहास से अनभिज्ञ हो, किंतु इतिहास के पन्नों में इस गांव की जांबाजी और बलिदान की कहानी दर्ज है।
अशोक मधुप

Sunday, October 31, 2010

नजीबाबाद का ताजमहल




शाहजहां द्वारा अपनी प्यारी                 बेगम      मुमताज                 की  यादगार के तौर पर बनवाया गया आगरा का ताजमहल पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। लेकिन उत्तर प्रदेश में बिजनौर जनपद के नजीबाबाद शहर में बने ताजमहल के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। लगभग 240 साल पूर्व चारमीनार नाम के इस ताजमहल को एक बेगम ने अपने पति की याद में बनवाया था। पुरातात्विक महत्व की यह इमारत सरकारी उपेक्षा के कारण आज बदहाल है औैर धीरे -धीरे दम तोड़ रही है।

दिल्ली से लगभग 190 किलोमीटर की दूरी पर नजीबाबाद के नाम से प्रसिद्ध शहर को एक रूहेला सरदार नजीबुद्दौला ने बसाया था। नजीबाबाद उत्तराखंड का प्रवेश द्वार है। कोटद्वार के रास्ते यहां से उत्तराखंड आया जाया जाता है। नजीबुद्दौला ने इस शहर में कई महत्वपूर्ण एवं खूबसूरत भवन बनवाए।
इसी नवाब नजीबुद्दौला के नवासे नवाब जहांगीर खान की याद में उनकी बेगम ने चारमीनार नाम से शानदार मजार बनवाया। इतिहास के जानकारों के अनुसार, नवाब जहांगीर खान की शादी किरतपुर के मुहल्ला कोटरा में हुई थी। शादी के दो साल बाद वह अपनी बेगम को लेने कोटरा गए हुए थे। लौटते समय जश्न की आतिशबाजी के दौरान छोड़ा गया गोला गांव जीवनसराय के पास आकर नवाब जहांगीर खान को लगा और उनकी मौत हो गई। उस हादसे से उनकी बेगम को बहुत धक्का लगा। उन्होंने नवाब की याद में नजीबाबाद के मोजममपुर तेली गढ़ी में चारमीनार नाम का शानदार मकबरा बनवाया।
इस मकबरे के चारों ओर चार मीनारें हैं। एक मीनार की गोलाई 15 फुट के आसपास है। प्रत्येक मीनार तीन खंडों में बनी है। दो मीनारों में ऊपर जाने के लिए 26-26 पैड़ी बनी हुई है। इनसे बच्चे और युवा आज भी मीनार पर चढ़ते उतरते हैं। लखौरी ईंटों से बनी इन मीनारों की एक दूसरे से दूरी 50 फुट के आसपास है। चारों मीनारों के बीच में बना भव्य गुंबद कभी का ढह गया। बताया जाता है कि इसी गुंबद में नवाब जहांगीर खान की कब्र है। हॉल में प्र्रवेश के लिए मीनारों के बीच में महराबनुमा दरवाजे बने हैं। मीनारें भी अब धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो रही हैं। मीनारों के नीचे के भाग की हालत बहत ही खराब है। उनकी ईंट लगातार निकलती जा रही हैं। नजीबाबाद और बिजनौर जनपद के इतिहास के जानकार बेगम द्वारा बनवाए गए इस चारमीनार ताजमहल के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन वे यह नहीं बता पाते कि बेगम का नाम क्या था और वह कब तक जिंदा रहीं। यह भी कोई नहीं बता पाता कि इसके निर्माण पर कितनी लागत आई। ध्वस्त होने को तैयार पुरातात्विक महत्व के इस मकबरे के                 तरंत                 सर  क्षण की जरूरत            अमर                 उजाला         में                 तीस   


















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Thursday, October 28, 2010

उफ! गंगा की लहरों पर ये 7 घंटे

सोमवार।करवा चौथ से ठीक एक दिन पहले। निर्मल गंगा अविरल प्रवाह 2010। अभियान में 30 बोटशामिल थीं। बड़ा काफिला था।हरिद्वार से शुरू इस कारवां को गढ़मुक्तेश्वर पहुंचना था।काफिले में आईजी इंटेलीजेंस आदित्य कुमार मिश्रा भी थे। एकाएक एक बोट का फ्यूल खत्म हो गया। हम भटक गए। सात घंटे ‘गंगा मैया’-‘गंगा मैया’ करते बीते। अमर उजाला से जुड़े अशोक मधुप भी इसी बोट में थे। उन्हीं की जुबानी पूरी कहानी...




बिजनौर।रात के 11 बजे थे। चारों ओर पानी ही पानी।जाएं तो जाएं कहां? फ्यूल खत्म हो चुका था, हम रास्ता भटक गएथे। करें तो क्या करें? इन सवालों को लेकर हर कोई नौकायान के समय भयभीत था।

स्वामी अच्युतानंद मिश्र और पीएसी उत्तर प्रदेश के द्वारा चलाए जा रहे निर्मल गंगा अविरल प्रवाह यात्रा के साथ सोमवार को गंगा में बिताए आठ से ज्यादा घंटे किसी रोमांचक यात्रा से कम नहीं। रात के 11 बजे तक गंगा में घुप अंधेरे में नौकायन के महारथ की बदौलत रात साढे़ ग्यारह बजे गढ़मुक्तेश्वर के गंगा घाट पर सकुशल पंहुचना एक करिश्मा जैसा ही है। वह तो उस हालत में जब एक-एक कर वोट के पेट्रा्रल टैंक खाली होते जा रहे थे। इस यात्रा में हमारे एक साथी की तो तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई और उसे रास्ते के एक गांव में परिवार में शरण लेनी पड़ी ।

बिजनौर गंगा बैराज से सोमवार की शाम साढे़ तीन बजे हमने जब यात्रा शुरू की तो हमने सोचा भी नहीं था कि गंगा के बीच में घुप अंधेरे में हमें कई घंटे ऐसे भी बिताने होंगे । हम यह सेचकर यात्रा की एक मोटर वोट में सवार हुए थे कि चांदपुर क्षेत्र में बनने वाले मकदूमपूर सेतु पर उतर कर शाम पांच बजे तक बिजनौर आ जांएगे। वैसे यात्रा को गढमुक्तेश्वर शाम पांच बजे तक पंहुचना था। मेरे साथ एक पत्रकार अमित रस्तौगी और कांगे्रस के सीनियर नेता सुधीर पाराशर थे। वे बालावाली से यात्रा के साथ आए थे। उन्होंने हमारे अनुरोध पर मकदूमपुर तक चलना स्वीकर कर लिया था। वहां से लौटने के लिए अपनी गाड़ी मकदूमपुर बुला ली थी। बिजनौर से बैराज से 12 नाव का बेड़ा शाम साढे़ तीन बजे गढमुक्तेश्वर के लिए रवाना हुआ।

यात्रा को पांच बजे शाम गढमुक्तेश्वर पहुंचना था किंतु विदुर कुटी और गंज दारानगर पहुंचने में ही शाम पांच बज जाने पर हमें चिंता हुई। मकदूमपुर पुल के सामने से निकलते समय दिन छिपने लगा था। हमें यहां से छोटी धार से होकर अपनी गाड़ी तक पहुंचना था किंतु अंधेरा बढ़ता देख हम अपने नाविकों से बेडे़ से अपनी नाव को अलग धार में डालने का अनुरोध नही कर सके और गढ़मुक्तेश्वर से लौट आने का निर्णय लिया। (संबंधित खबरें और फोटो पेज छह पर भी)







1)निर्मल गंगा अविरल प्रवाह दल की एक नाव सूर्यास्त के समय गंगा से गुजरती हुई। (2) नाव से गुजरते महाराज अच्युतानंद।


निर्मल गंगा अविरल प्रवाह दल की नाव में गंगा से होकर गुजरते महाराज अच्युतानंद।





ऐसा तो कभी भी नहीं सोचा था!

बिजनौर। निर्मल गंगा अविरल यात्रा के साथ सफर करते समय यह कभी नहीं सोचा था कि सुबह पांच बजे घर वापसी होगी। इरादा यह था कि गंगा के बीच से जनपद के नजारे देखकर शाम पांच बजे तक बिजनौर लौट आया जाएगा। कल दुपहर दो बजे अमर उजाला के संवाददाता   कुछ पत्रकार साथियों के कहने पर मकदूमूपुर तक चलने को तैयार हो गए।

लंबे समय से मेरा इरादा गंगा के मध्य से जनपद को देखने का था। उसके प्रस्ताव आने पर मैं इंकार न कर सका। कांगे्रस के वरिष्ठ नेता सुधीर पाराशर स्वामी अच्युता नंद के नजदीकी है, वे पीछे से यात्रा के साथ आए थे। सो हमने मकदूमपुर तक उन्हें साथ चलने के लिए तैयार कर लिया और कहा कि अपनी गाड़ी वहीं मंगा ले, उससे लौट आएंगे। यात्रा बिजनौर से चलकर शाम पांच बजे गढ़मुक्तेश्वर पहुंची थी तो हम यह सोचकर यात्रा के साथ हो गए कि अब चलकर पांच बजे तक बिजनौर आ जाएंगे। बिजनौर गंगा बैराज पर स्वामी अच्युतानंद और अन्य ढाई बजे गंगा घाट पर आ गए, लेकिन चलने में साढे़ तीन बज गए। मकदुमपुर से पहले एक जगह बोट रुकी तो एक पत्रकार साथी नौका दल के लीडर पीएसी के आईजी की बोट में उनका इंटरव्यू करने को बैठ गया। सुधीर पाराशर के चालक ने बताया कि पुल के सामने से मेन धार की जगह छोटी धार में आए। यहां पहुंचते ही अंधेरा छाने लगा था, अत: हम चालकों से यह न कह सके कि गु्रप छोड़कर वे अपनी वोट छोटी धार में ले चले। कार्यालय को विलंब हो रहा था। परिजनों को बिना बताए आने की चिंता भी थी, लेकिन बेडे़ को छोड़ने का हम नाविकों से आग्रह न कर पाए और यह सोचकर बैठ गए कि यहां प्रतिवर्ष बनने वाले नाव के पुल का रास्ता छोड़ने पर उतर जाएंगे। इस रास्ते के सामने गंगा में कुछ व्यक्तियों को ले जाती एक नाव दिखाई दी। हम उसमें सवार होना भी चाहते थे, लेकिन एक साथी के दूसरे नाव में होने के कारण नहीं उतरे और तय कर लिया कि गढ़मुक्तेश्वर से लौट आएंगे। सुधीर पाराशर ने अपनी गाड़ी के चालक को गढमुक्तेश्वर पहुंचने को कह भी दिया। अंधेरा होने पर एक साइड में सब बोट रोकी गई और एक साथ चलने के निर्देश दिए गए। इससे पहले अंधेरा होते देख किसी अनहोनी की आशंका को रोकने और इसका सामना करने के लिए मैने और सुधीर ने लाइफ सेविंग जैकेट पहन ली थी। जैकेट पहनते समय मेरा इरादा अंधेरा होने के साथ बढ़ती ठंड से खुद को बचाने का था।




दल में थी 12 बोट


यात्रा दल में 12 बोट थे। प्रत्येक बोट में तीन, चार यात्री और तीन तीन पीएसी के नाविक थे। एक बोट में यात्रा के संरक्षक स्वामी अच्युतानंद अपने शिष्यों के साथ थे। एक में पीएसी के आईजी आदित्य मिश्रा अपने अन्य अधिकारियों के साथ थे। अन्य नावों में टीम के अन्य सदस्य हमें मिली वोट में तीनों चालक थे। रेत में फंसने पर मोटर चलाने वाला दूसरे चालकों से चप्पू चलाने को कहता। अन्य दोनों चालकों की हालत यह थी कि वह चप्पू एक साथ नहीं चलाते थे। कभी नाव बाएं भागती तो कभी दाएं और मोटर चालक के टोकने पर वह सुधार करते। अंधेरे में कुछ भी न दिखाई देने पर मन में भय था और चिंता भी। किंतु उनकी बातों से यह सब भय खत्म हो रहा था और उनकी बातों में आनंद आ रहा था। रेत आने पर नाविक पानी में डंडा डालकर उसका जल स्तर नापते। पानी मिलने पर मोटर चला दी जाती, जबकि रेत मिलने पर नाविक नाव चप्पू से खेते या उतरकर पानी में खींचते।

रेत आने पर मोटर बंद कर ऊपर उठा दी जाती और पानी मिलने पर स्टार्ट कर दी जाती।

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रास्ता भूल गए और गोल-गोल घूमने लगे

बिजनौर।अंधेरा होने पर हम एक जगह रास्ता भूल गए और गोल-गोल घूमने लगे। सब वोट आमने-सामने पानी में फैल गई। इस नौकायान के समय मुझे याद आ गया महाभारत सीरियल का दृश्य। इसमें भी गीता उपदेश के समय भी सारे महारथी ऐसे ही खडे़ दिखाये गए थे।

रात होने पर दिखाई देना बंद हो गया। दूर दूर तक जल ही जल नजर आ रहा था। आकाश में चांद चमक रहा था किंतु तनाव और चिंता के माहौल में उसे निहारने में किसी की रूचि नही थी। पानी कम होने पर मोटर बंद कर वोट खींचकर पानी में लाने और उसे आगे बढा़ने का सिलसिला रात साढे़ 11 बजे तक तक जारी रहा।

रात नौ बजे से स्टीमर के पेट्रेल खत्म होने का भय सताने लगा। थोड़ी देर में एक मोटर वोट के तेल खत्म होने की सूचना आ गई। हालत यह कि कहीं कोई रोशनी भी नजर नही आ रही। सब चारों ओर टकटकी लगाए देखते जा रहे थे। गढ़मुक्टेश्वर की लाइट देखने को आखें फाड़ रहे थे। एक जगह रोशनी और कुछ मंदिर दिखाई दिए। यहां घट पर मौजूद हमारे एक साथी ने बात की और गढ़ के छह सात किलोमाटर दूर बताने पर हमारा काफला आगे चल दिया। 11 बजे के आसपास गढ़मुक्टेश्वर के रेलवे पुल की लाइट दिखाई देने पर सफर का पड़ाव नजर आने लगा । आधा किलोमीटर पहले हमारे वोट का भी पेट्रोल खत्म हो गया ।

अब तक पांच वोट के इंजिन बंद हा चुक थे । हम एक वोट को खींचकर ला रहे थे। हमारे चालक नें बंद इंजिन वाली वोट के चालक से एक बार इंजिन चलाकर देखने को अनुरोध किया। कोशिश पर वोट का इंजिन चल गया और अब उसने हमारी वोट को घाट तक पंहुचाया। शाम पांच बजे बिजनौर पंहुचने वाले हम सबेरे पांच बजे ट्रकों से बैठकर किसी तरह बिजनौर पंहुचे।




गढ़मुक्तेश्वर पहुंचे 11.30 बजे

हम साढे़ ग्यारह बजे गढ़मुक्तेश्वर घाट पर पहुंच गए। स्वामी जी तथा नौकाएं दल के पीएसी के जवानों का स्वागत चल रहा था। हम सुधीर पाराशर और उनके साथी को खोज रहे थे। पता लगा कि वह उस नाव में है, जिसका तेल सबसे पहले खत्म हुआ। हम उनके आने का इंतजार करने लगे। इनकी गाड़ी भी नहीं मिली। एक बजे एसपी पीएसी एक दुकान पर चाय पीते मिले। उन्होंने बताया कि सुधीर पाराशर व उनके साथी तिगरी में उतर गए हैं और वहीं पर उन्होंने गाड़ी मंगा ली है






मेरा      यह       यात्रा      संस्मरण  सत्ताइस          अक्तूबर    के      अमर     उजाला     मेरठ     में     छपा         है

Saturday, October 9, 2010

जिमाओ ही नहीं, जीने भी दो

नवरात्र पर विशेष




मातृशक्ति की आराधना के पर्व नवरात्रि में कन्याओं को भगवती का शुद्धत्तम रूप मानने और पूजने का चलन है। इसे उत्साह और उमंग से पूरा भी किया जाता है, लेकिन व्यवहार में कन्याओं के प्रति कुछ अलग ही नजरिया है।


अशोक मधुप

नवरात्र प्रारंभ हो गए हैं। आज दूसरा दिन है। इन दिनों देवियों की पूजा की जाती है। खासतौर पर शक्तिरूपिणी दुर्गा की। शक्ति के विभिन्न रूपों की आराधना करते हुए दुर्गा सप्तशती का जो स्तोत्र इन दिनों पढ़ा जाता है, उसमें प्रकृति में विद्यमान सभी तत्वों का स्मरण किया जाता है। उन तत्वों में भगवती को देवी और शक्ति के रूप में आराधा जाता है। शक्ति का मूल स्वरूप स्त्री ही है। उस स्मरण में कन्या को भी शक्ति का निर्दोष निष्कलुष और निर्मल रूप मानते हुए नमन किया हुआ है। स्तोत्र में ही नहीं पूजा आराधना में भी कन्याओं की पूजा की जाती है। पूरे नौ दिन उन्हें अलग -अलग तरह के उपहार देकर भोजन कराकर देवी को प्रसन्न करने का उपक्रम किया जाता है। नवरात्र के सभी दिनों में कन्या पूजन नहीं किया जाता हो तो भी अष्टमी और नवमी के दिन तो उन्हें जिमाते और पूजते हैं ।

साल में दो नवरात्रों में चार से अठारह दिन हम यह कार्य करते हैं, जबकि अन्य दिन प्राय कन्याओं की उपेक्षा करते हैं। वह उपेक्षा और तिरस्कार भू्रण हत्या के स्तर पर पहुंच जाता है। नवरात्र पर कन्या जिमा कर अपने पर गर्व महसूस करते हैं कि हम उनकी पूजा कर और भोजन करा कर बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अब ऐसा नहीं है । आज जरूरत कन्याओं को जिमाने की कम उन्हें कहें जिंदा रखने या जन्म लेने देने को उन्हें पलने बड़ा होने देने की ज्यादा है।

दोनों नवरात्रों पर मातृ शक्ति की आराधना में हर कोई श्रद्धालु लीन हो जाता है। इन दिनों हम मातृ शाक्ति रूपी देवियों की पूजा करते है। उपवास रखते हैं। हम मानते हैं कि देवियों में बड़ी शक्ति है। अष्टमी और नवमी के दिन हम अपने घरों में बुलाकर देवियों की प्रतीक कन्याओं की पूजा करते हैं और पूरे श्रद्घाभाव के साथ उन्हें भोजन कराते हैं। यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। जहां धार्मिक श्रद्घा के साथ हम देवियों की पूजा करते हैं, वहीं समाज में आई कुरुति, दहेज के कारण हम नहीं चाहते कि हमारे परिवार में लड़कियां हो। हम जन्म लेने से पहले गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कराते हैं और यदि लड़की है तो गर्भपात कराकर उसे दुनिया में कदम रखने से पहले ही मौत की नींद सुला देते हैं।

जब देश में बालिकाएं नहीं जन्मेंगी तो जाहिर है प्रकृति का चक्र बदलेगा, और उसका असर नई पीढ़ी के जन्म और उदय पर भी पड़ेगा। धीरे- धीरे ऐसी स्थिति आएगी कि मनुष्य समाज का आकार सिकुड़ने लगेगा। इससे पहले स्त्रियों की संख्या कम हो जाने से हमारा सामाजिक ढांचा छिन्न -भिन्न हो जाएगा। इस परिवर्तन को लेकर समाज शास्त्री अभी से चिंतित है। आज देश भर में इसके लिए आंदोलन चल रहे हैं तो अन्य कई संगठन भू्रण हत्या रोकने पर काम कर रहे हैं।

ं वर्तमान हालात को देखते हुए आशीर्वाद देने का तरीका भी बदल रहा है। कभी लोग महिलाओं को पुत्रवान होने का आशीर्वाद देते थे। अब भी देते हैं, लेकिन कन्या भू्रण की हत्या के विरोध में लगे सामाजिक संगठन संतानवान होने का आर्शीवाद देने की तैयारी कर रहे हैं। इससे पुत्र पुत्री का भेद मिटेगा। और भू्रण हत्या रूकेगी।

पुत्र की चाह हमारी संस्कृति के उस दर्शन की देन है कि पुत्रवान ही मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। अंतिम संस्कार पुत्र के हाथों की होना चाहिए। समाज में बहुत परिवर्तन आ रहा है। कन्याओं वाले कई परिवार अपनी बेटियों पर गर्व कर रहे हैं और बिना भेदभाव से भाव से उन्हें पाल पोष कर योग्य बना रहे हैं। अब तो कन्याएं भी अपने पिताओं की कई जगह कपाल क्रिया करने लगी हैं। बेटे की तरह मां बाप का सहारा बन रही हैं।

बिगड़ते सामाजिक ढांचे के बचाने के लिए आज जरूरत कन्याओं को जिमाने के साथ उन्हें जीवानें , जीवित रखने की है। अष्टमी और नवमी के दिन कन्याओं को जिमाने के साथ साथ यदि उनके जीवित रखने तथा गर्भ में हत्या न करने का संकल्प ले तो निश्चित रूप से समाज के बिगड़ते ढांचे को बचाने में मददगार हो सकते हैं।

बढ़ती भक्ति-घटती शक्ति

कन्याओं को जन्म लेने ही नहीं देने की बढ़ती प्रवृत्ति के नतीजे अभी से दिखाई देने लगे हैं। जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार महिलाओं की संख्या अब कुल आबादी में प्रति हजार 933 रह गई है, जबकि 1991 में महिलाआें की संख्या प्रति हजार पर 970 थी। विडंबना यह कि नवरात्र आराधना और शक्तिपूजा में लोगों का रुझान बेतहाशा बढ़ा है।

यह अनुपात शहरी और पढ़े-लिखे और संपन्न वर्ग में ज्यादा गड़बड़ाया है। हरियाणा और गुजरात में यह संख्या क्रमश: 818 और 883 रह गई है। माना जा रहा है कि देश भर में यह महिलाओं की संख्या प्रति हजार 800 के आसपास होगी। ।
मेरा उपरोक्त लेख अमर उजाला में  नौ सिंतबर 2010 को श्रद्धा नाम के पेज पर छपा है


Monday, September 6, 2010

नार्मल के बीटीसी बनने का सफर


जब मैने जूनियर हाई स्कूल यानी कक्षा
आठ की परीक्षा जूनियर हाई स्कूल
झालू से पास की तो मेरे बाबा
(ग्रांड फादर) ने मुझ से कहा था, जा
नार्मल की ट्रेनिंग कर ले। मास्टर बन
जाएगा। पंडित केशव शारण शर्मा जी जिला परिषद के
चैयरमैन है, तो तेरा चयन भी हो
जाएगा। मैने उनकी बात मानी और
नार्मल की ट्रेनिंग के होने वाले
साक्षात्कार में गया। पंडिंत जी उस
साक्षात्कार में बैठे किंतु मेरी उम्र
कम होने के कारण मेरा चयन न हो
सका और मै प्राइमरी स्कूल का
मास्टर बनते बनते रह गया। पंडित
जी रिश्ते के मेरे बाबा
लगते थे, वे जिला पंचायत के चैयरमैन
होते थे पर मेरा नार्मल की ट्रेनिंग
में चयन न हो सका। हां एम. ए करने के बाद
में मैने बीएड किया पर शिक्षण का
व्यवसाय रास न आया और तीन साल बाद
उसे अलविदा कह पत्रकार बन गया।
      आज जिस बीटीसी की परीक्षा के लिए
इतनी मारामारी मची हुई है, और
बीटैक ,एमबीए , एमसीए, पीएचडी
डिगरीधारक तक इसे करने के लिए
आवेदन कर रहे हैं,प्राय मैरिट भी
सत्तर प्रतिशत से ज्यादा रही है। मेरी
किशोरावस्था के समय इसमें प्रवेश की
योग्यता मात्र कक्षा आठ पास थी। उस समय
बीटीसी को नार्मल की ट्रेनिंग कहते
थे। इस ट्रेनिंग को कराने वाले
स्कूलों को नार्मल स्कूल कहा जाता था।
क क्षा आठ तक की शिक्षा जिला पंचायत
के अधीन थी। वही शिक्षकों को
प्रशिक्षण दिलाती और उनकी नियुक्ति
करती थी। बाद में लडक़ों के लिए
नार्मल करने की योग्यता हाई स्कूल
हो गई जबकि लड़कियों की योगयता कक्षा
आठ पास ही रही । १९६७ में ट्रेनिंग
करने वाले शिक्षकों के प्रमाण पत्र पर
इस योग्यता का बाकायदा उल्लेख है। इस
प्रशिक्षण का नाम हिंदुस्तानी
सर्टिफिकेट ट्रेनिंग था। इस
ट्रेनिंग के लिए योग्यता बढऩी शुरू
हुई तो इंटर होकर अब बीए
हो गई। नाम भी बदल कर बीटीसी हो
गया। पहले यह ट्रेनिंग दो साल की
होती थी , बाद में बीटीसी होने पर
प्रशिक्षण की अवधि एक साल हुई, अब
बढक़र इसकी अवधि फिर दो साल
हो गई। पहले देहात में कक्षा आठ तक
की शिक्षा का संचालन जिला पंचायत
और नगर में नगर पालिका करती थी।
अब यह बेसिक शिक्षा के अधीन है।
       किसी समय गुरू को बहुत सम्मान
 मिलता था, शिक्षा पूरी करने पर गुरू दक्षिणा
देने का प्रावधान था। महाभारत काल में
तो द्रोणाचार्य ने गुरू दक्षिणा में अपने
अपमान का बदला लेने के लिए पांडवों
से अपने दुश्‌मन राजा द्रुपद को बंदी
के रूप में मांगा था। उस समय तक
गुरूकुल शिक्षा के साथ साथ देश के
संचालन में मददगार होते थे। यह छात्र
को ज्ञान के साथ साथ तकनीकि शिक्षा
और युद्धकला भी सिखाते थे।
हस्तिनापुर राज्य के राजकुमारों
को पढ़ाने के लिए द्रोणाचार्य और
कृपाचार्य जैसे गुरू के दरबारी होने
और छात्रों से भेदभाव करने के
कारण गुरू का पतन होना शुरू हुआ।
गुरूञ् की गरिमा गिरी तो शिक्षा का
स्तर भी गिरा। गुरू दक्षिणा में अंगूठा
मांगे जाने की मिसाल भी महाभारत में
ही मिलती है। शिक्षक के पतन की
यहां से हुई शुरूआत अब तक जारी
रही। गुलामी के दौर में शिक्षक का
सम्मान बहुत गिरा। आजादी के बाद भी
कोई खास फर्क नहीं पडा़। और सबसे
सरल छोटे बच्चों को पढ़ाने का
कार्य हो गया। जो कुच्छ नहीं कर
पाता वह टीचर बन जाता।
    शिक्षा जगत से आए डा. राधाकृष्णन
के समय से शिक्षकों को सम्मान मिलना
शुरू हुआ। उनके जन्म दिन पांच सितंबर
 को शिक्षक दिवस के रूप में
मनाया जाने लगा और शुरू हुआ
शिक्षकों के सम्मान का सिलसिला। आज
शिक्षा का सुधार हुआ, शिक्षकों के
वेतन बहुत अच्छे हुए तो योग्य युवक
युवतियों का इस और रूझान बढ़ा
है। अब एमबीए, बीटैक यहां शिक्षक
बनने आ रहे है, किं तु वह यहां
करेंगे क्या, काश वह अपनी योग्यता
वाली तकनीकि शिक्षा में पढ़ाने जाते
तो बहुत अच्छा रहता। यहां वे शिक्षा
के प्रति समर्पण या कुछ नया करने की
भावना से नही आ रहे हैं। वे
सरकारी नौकरी पाने की आस में
यहां आए है। उनका सोच यह है कि
सरकारी नौकरी एक बार मिल गई तो
फिर पूरी उम्र चैन से कटेगी।
हालात कैसे भी हो हमें आशा नहीं
छोडऩी चाहिए ,उम्मीद रखनी चाहिए
कि इनमें भी पंडित मदन मोहन
मालवीय,नजीर अकबराबादी ,रविंद्र नाथ
टैगोरजैसे गुरू निकलेंगे और
शिक्षा के नए आयाम बनांएगे। आने वाला
समय में शिक्षा का स्तर ही नहीं
बढेग़ा ,अपितु शिक्षकों का समान भी
बढ़ेगा।
अशोक मधुप

Saturday, September 4, 2010

सुलताना डाकू का किला


अशोक मधुप

Story published in AMAR UJALA ON EDITORIAL PAGE  Saturday, September 04, 2010 1:16 AM



बिजनौर जनपद में नजीबाबाद से लगभग ढाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित पत्थरगढ़ का किला सुलताना डाकू के किले के रूप में विख्यात है। यह वही सुलताना डाकू था, जिसने ब्रिटिश सरकार को नाकों चने चबवाए थे। मजबूरन उसे पकड़ने के लिए ब्रिटिश सरकार को फे्रडी यंग के नेतृत्व में विशेष दल बनाना पड़ा था।



नजीबाबाद को रूहेला सरदार नजीबुद्दौला ने बसाया था। उसने यहां कई महल और मसजिदें बनवाईं। नजीबाबाद से लगभग डेढ़ किलोमीटर पूर्व में 40 एकड़ भूभाग में वर्ष 1755 में एक भव्य किला बनाकर इसे पत्थरगढ़ किला नाम दिया था। इसकी दीवारें इतनी मोटी थीं कि उन पर दो ट्रक बराबर में दौड़ सकते थे। आगे की दीवार इतनी ऊंची बनाई गई कि पीछे की दीवार पर स्थित फौज आराम से घूमकर दुश्मन का मुकाबला करती रहे और दुश्मन की उस पर नजर भी न पड़े। जिला गजेटियर के मुताबिक, इसमें मोरध्वज के किले के पत्थर लाकर लगाए गए। वर्ष 1857 में नजीबुद्दौला के एक वंशज नवाब महमूद खां ने अंगरेजों से सत्ता छीन ली। पर लगभग साल भर बाद ब्रिटिशों ने नवाब महमूद को हरा दिया और नजीबाबाद पर कब्जा कर पत्थरगढ़ के किले को तोड़-फोड़ दिया। नवाब महमूद सपरिवार नेपाल भाग गए और वहीं मलेरिया से उनका निधन हो गया।



भातू जनजाति के अपराध रोकने के लिए अंगरेजों ने इस किले को सुधार गृह बनाया। जगह-जगह से भातुओं को यहां लाकर विभिन्न लघु-उद्योगों का प्रशिक्षण दिया जाता था। अंगरेज इन पर बेइंतहा जुल्म करते और कठिन श्रम कराते। ब्रिटिशों के जुल्म से परेशान इस किले में रहनेवाला एक युवक बागी बन गया और भागकर अपराध को अंजाम देने लगा। सेठों को लूटने और गरीबों की मदद करने के कारण लोगों ने उसे सुलतान नाम से पुकारा। वही धीरे-धीरे सुलताना हो गया। तराई में सुलताना के अपराध और गरीबों के मदद के किस्से आज भी मशहूर हैं। कई साल की मशक्कत के बाद फे्रडी यंग के नेतृत्व में बने विशेष दल ने उसे पकड़ा और फांसी दे दी। उस विशेष दल में प्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट भी शामिल थे। उन्होंने अपनी पुस्तकमाई इंडिया में सुलताना-इंडियन रॉबिनहुड नाम से एक लेख लिखा है, जिसमें उसकी जमकर प्रशंसा की गई है।

आज यह किला पुरातत्व विभाग की संपत्ति है। इसके दो भव्य द्वार हैं, जिसमें से एक नजीबाबाद की ओर खुलता है। इसके दरवाजों पर बनाए गए डिजाइन बहुत ही खूबसूरत हैं। इस समय किले की सिर्फ बाउंडरी ही बची है, जो देख-रेख के अभाव में जगह-जगह से टूट-फूट गई है। पुरातत्व विभाग द्वारा अब इस किले का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है।

Saturday, August 14, 2010

सबसे अलग

 सबसे बड़ा मिट्टी का बांध 
उत्तराखंड में रामगंगा नदी पर बना कालागढ़ डैम दुनिया के प्रसिद्ध अजूबों जैसा ही है। इसे एशिया का सबसे बड़ा मिट्टी का डैम होने का सौभाग्य प्राप्त है। डैम एरिया में मैसूर के कावेरी नदी पर बने वृंदावन गार्डन की तर्ज पर विकसित शानदार उद्यान भी है। कालागढ़ से कार्बेट में प्रवेश के लिए एक गेट भी है। इस गेट से प्रवेश कर कार्बेट के वन्य प्राणियों का भी आसानी से अवलोकन किया जा सकता है। यहां से कंडी मार्ग से कोटद्वार और रामनगर भी जाया जा सकता है।
शिवालिक पहाड़ियां पर्यटकों को हमेशा अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। दिल्ली से लगभग 250 किलोमीटर की दूरी पर रामगंगा के तट पर कालागढ़ स्थित है। दिल्ली से मेरठ, बिजनौर होकर लगभग पांच घंटे में कालागढ़ पहुंचा जा सकता है। कालागढ़ में सिंचाई विभाग के कुछ रेस्ट हाउस और प्रशिक्षण केंद्र हैं। डैम बनने के समय कर्मचारियों और अधिकरियों के लिए कुछ कॉलोनी बनाई गई थीं। रिजर्व वन होने के कारण डैम बनने के बाद कालागढ़ की भूमि कार्बेट प्रशासन को सौंप दी गई। उसने यहां बनी कई कॉलोनी गिरा दी। हालांकि कुछ कालोनी अब भी हैं। यहां एक छोटा बाजार भी है।
मिट्टी का डैम होने के कारण कालागढ़ एक दर्शनीय स्थल है। रामगंगा के पानी को रोकने के लिए पहाड़ियों के बीच रेत-सीमेंट का ढांचा नहीं, बल्कि मिट्टी और पत्थर लगाए गए हैं। बांध के साथ ही बिजली घर भी बना है। यहां 66-66 मेगावाट की तीन यूनिट लगी हैं। तीनों मिलाकर 198 मेगावाट बिजली बनाती है। डैम में 365.3 मीटर पानी सिंचाई के लिए रिजर्व वाटर के रूप में रखा जाता है।
बांध के नजदीक शानदार पार्क तो है ही, इसमें बनी सुरंग भी कम आकर्षक नहीं है। लगभग 70 मीटर गहरी इस सुरंग से रामगंगा के जल के नीचे पहुंचा जा सकता है। जल के नीचे अपने को खडे़ देखकर शरीर में अजीब-सी झुरझुरी उठने लगती है। यहीं एक सुरंग अंदर ही अंदर बिजलीघर तक चली जाती है। डैम के नीचे एक तरह से सुरंगों का जाल बिछा हुआ है। सुरक्षा की दृष्टि से इनमें प्रवेश नहीं दिया जाता।
रामगंगा नदी में घड़ियाल तथा विभिन्न प्रकार की मछलियां हैं। डैम एरिया में वृंदावन गार्डन की तरह विकसित एक उद्यान के 450 मीटर लंबे फव्वारे में बहता पानी और उस पर पड़ती रंग-बिरंगी रोशनी मन को मोह लेती है। इस उद्यान में विभिन्न प्रजातियों के पौधे और फूल भी कम आकर्षक नहीं हैं। हालांकि देखरेख के अभाव में उद्यान इस समय खस्ता हालत में हैं। अगर कालागढ़ पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए, तो यह एक शानदार पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो सकता है।
अशोक मधुप

( मेरा यह लेख अमर उजाला में 14 अगस्त 2010 को संपादकीय पेज पर सबसे अलग में छपा है)

Saturday, July 10, 2010

रोशनी बांटने की मिसाल

शनी बांटने की मिसाल
अशोक मधुप
published on : Saturday, July 10, 2010    12:31 AM in amarujala
महर्षि दधीचि ने मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियां दान की थीं, लेकिन बिजनौर जनपद के धामपुर निवासी हरीश चंद्र आत्रेय ने अपनी आंखें तो मानव कल्याण के लिए दीं ही, उन्होंने सात हजार से ज्यादा लोगों की आंखें लेकर लोगाें को रोशनी देने के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के आई बैंक को भेजीं। बिजनौर जैसे पिछड़े और छोटे जनपद से प्रतिमाह दस से पंद्रह आंखें लेकर ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट को भेजना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। दूसरों को जीवन पर्यंत रोशनी देने में लगे रहे डॉ. हरीश चंद्र आत्रेय की कल पहली पुण्यतिथि है।
बिजनौर जनपद के रतनगढ़ गांव के रहने वाले हरीशचंद आत्रेय का जन्म १२ जनवरी, १९२२ को कनखल, हरिद्वार में हुआ था। हरिद्वार महाविद्यालय में अध्ययन के दौरान वर्ष १९३९ में उन्होंने १५ सदस्यीय छात्र जत्थे के साथ चंद्राकिरण शारदा (अजमेर) के नेतृत्व में गुलबर्गा (कर्नाटक) में आयोजित सत्याग्रह अभियान में भाग लिया। उसके बाद वह १३ महीने गुलबर्गा, उस्मानाबाद, औरंगाबाद एवं निजामाबाद की जेलों में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कैद करके रखे गए। जेल की दुर्दशा पर सत्याग्रहियों ने भूख हड़ताल की, तो अंगरेजों ने कैदियों पर गोली चलाई। एक गोली उनके बाएं हाथ में लगी, जिसका निशान जीवन पर्यंत रहा।
आजादी मिलने के बाद धामपुर में उन्होंने अपना आवास बना लिया। जंगलों की सैर करना और शिकार खेलना उनका शौक था। शिकार के दौरान एक भूखे अंधे शेर को एक गीदड़ द्वारा मांस लाकर देने की घटना से प्रभावित होकर उन्होंने कभी शिकार न करने और नेत्रहीनों को रोशनी दिखाने का संकल्प लिया। उसी घटना से प्रभावित होकर उन्होंने धामपुर में आई बैंक बनाया। वर्ष १९८४ में देश में कुल १७० आंखें प्रत्यारोपित की गईं। इनमें से ११५ आंखें धामपुर के आई बैंक के माध्यम से उपलब्ध कराई गई थीं। नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के कारण वर्ष २००८ में भाऊराव देवरस सेवा न्यास ने उन्हें सम्मानित किया था।
डॉ. आत्रेय द्वारा स्थापित आई बैंक से हर महीने १५ आंखें राष्ट्र को समर्पित की जाती थीं। लगातार इतने नेत्रदान देश में तो छोड़िए, समूचे दक्षिण-पश्चिम एशिया में एक रिकॉर्ड है। एम्स में प्रतिवर्ष प्रत्यारोपित होने वाले नेत्रों में लगभग तीन चौथाई योगदान धामपुर आई बैंक का होता था।
पिछले साल ११ जुलाई की रात आधुनिक युग के इस दधीचि ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं। उनकी आंखें स्वाभाविक ही आई बैंक को भिजवा दी गईं। वह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी उपलब्धि पूरे क्षेत्र को प्रोत्साहित करती है।


Monday, June 14, 2010

परीक्षा या परिहास

केंद्र सरकार ने कानून बनाकर छह से चौदह साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार दे दिया है। यह अधिकार देते समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत नौजवानों का देश है। बच्चों व नौजवानों की शिक्षा तथा उनके हुनर से देश खुशहाल एवं ताकतवर बन सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के कार्यों में भी प्रदेश के बच्चों और युवाओं को घर के पास शिक्षा उपलब्ध कराना शामिल है। इसी संदर्भ में उसने देहात तक स्कूल खोलने और उनके लिए शिक्षकों के रिक्त पद भरने का निर्णय लिया है। ऐसे में, उत्तर प्रदेश में बीएड की डिगरी की मांग अचानक बढ़ गई है।

अब तक बीएड में दाखिले के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर परीक्षाएं आयोजित होती थीं। पर उनमें धांधली की शिकायत के बाद पूरे प्रदेश के लिए संयुक्त टेस्ट प्रक्रिया शुरू हुई। पहली बार कानपुर विश्वविद्यालय ने बीएड की प्रवेश परीक्षा कराई। दूसरा सत्र शून्य रहा और इस साल यह परीक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय करा रहा है। बीएड की यह परीक्षा प्रदेश भर में छह मई को होनी थी, किंतु पेपर आउट होने के कारण अब यह जून में होने जा रही है। कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित परीक्षा में लगभग छह लाख परीक्षार्थी शामिल हुए थे, इस बार करीब सात लाख युवक-युवतियों ने इसके लिए आवेदन किया है।

इतनी बड़ी संख्या में परीक्षार्थियों के होने के बावजूद पूरे राज्य में कुल 12 परीक्षा केंद्र बनाए गए हैं। ये सारे केंद्र विश्वविद्यालय मुख्यालय में ही बने। विश्वविद्यालय स्तर पर केंद्र निर्धारण करते समय परीक्षा आयोजकों ने परीक्षा में बैठने वालों की सुविधाओं का ध्यान नहीं रखा। 72 जनपदों वाले इस प्रदेश में 12 केंद्र बनाना समझ से परे है। बनारस में दो विश्वविद्यालय हैं। उन दोनों को केंद्र बनाया गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मात्र मेरठ, बरेली और आगरा तीन केंद्र बनाए गए हैं। इतने बडे़ क्षेत्र में सिर्फ तीन केंद्र बनाना परीक्षार्थियों को परेशान करना ही है। परीक्षा केंद्र बनाते समय मुरादाबाद और सहारनपुर जैसे कई मंडलों को नजर अंदाज किया गया, तो नोएडा, गाजियाबाद और अलीगढ़ जैसे बड़े नगरों की भी उपेक्षा की गई। पांच मई को होने वाली परीक्षा के लिए लखनऊ और कानपुर में डेढ़-डेढ़ लाख, मेरठ में साढ़ सत्तर हजार, बरेली में पचहत्तर हजार, गोरखपुर में चौहतर हजार परीक्षार्थी पंहुचे थे। यही हालत अन्य केंद्रों की भी रही। हालत यह थी कि परीक्षा के पहले दिन होटल, धर्मशाला, लॉज आदि में रहने के लिए कहीं जगह नहीं मिली। हजारों परीक्षार्थियों को बस स्टैंडों या रेलवे स्टेशनों पर रात बितानी पड़ी।

यह परीक्षा जिला स्तर पर भी कराई जा सकती थी। इससे छात्रों और अभिभावकों को राहत मिलती। प्रदेश की बसपा सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में बालिकाओं के लिए महामाया जैसी कई योजनाएं तो लागू की हैं, किंतु इस प्रवेश परीक्षा की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया। पहली बार इस परीक्षा के विश्वविद्यालय स्तर पर कराने के लिए ज्यादा आवाज नहीं उठी थी, किंतु इस बार आवाज उठ रही है। इसे जिलास्तर पर कराने का ज्ञापन अनेक संगठनों ने सरकार को दिया है। बहरहाल, जिस प्रकार हमारे नेता एसी कमरों में बैठकर गरीबों की योजनाएं बनाते हैं, उसी प्रकार शिक्षा जगत के उच्चाधिकारी भी महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर ऐसी तुगलकी योजनाएं बनाने लगे हैं। कोई भी योजना बनाते समय जनता की सुविधाओं का ध्यान रखना वे भूल जाते हैं।

(लेखक अमर उजाला से जुड़ हैं)

उत्तर प्रदेश

अशोक मधुप

मेरा यह लेख अमर उजाला में 14 जून 2010 के अंक में छपा है

Wednesday, May 26, 2010

जून में भी मिड-डे-मील

अशोक मधुप



उत्तर प्रदेश सरकार का बच्चों के प्रति नजरिया समझ से परे है। भीषण गरमी को देखते हुए उसने घोषणा की है कि प्रदेश में कक्षा आठ तक के सभी स्कूल सुबह साढे दस बजे बंद कर दिए जाएं। भयंकर गरमी को देखते हुए उसकी यह बात समझ में आती है। होना भी यही चाहिए। 15 मई से 31 जून तक स्कूलों में अवकाश के पीछे तात्पर्य भी यही था कि बच्चों को भीषण गरमी से बचाया जा सके। सरकार का यह आदेश बच्चों के प्रति उसकी चिंता और संवेदनशीलता को प्रकट करता है। लेकिन सरकार का एक नया फरमान समझ से परे है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2009 में प्रदेश के सूखाग्रस्त घोषित 58 जिलों के परिषदीय स्कूलों के बच्चों को इस साल जून में भी मिड-डे-मील बंटेगा, इसलिए जून में स्कूल खुलेंगे। इन 58 जनपदों में मुरादाबाद मंडल के सूखाग्रस्त चारों जनपद शामिल हैं। अब वर्ष 2009 में सूखाग्रस्त घोषित जनपदों के बच्चों को उस साल के जून में मिड-डे-मील बांटने की बात तो समझ में आती है। लेकिन इस साल भी, जब फसल बहुत अच्छी हुई है, तब जून में बच्चों को मिड-डे-मील बांटने और उसके लिए जून में स्कूल खोलने की बात समझ में नहीं आती।

स्कूलों में बंटने वाले मिड-डे-मील की गुणवत्ता को लेकर पहले से सवाल उठते रहे हैं। फिर यह भी आदेश है कि स्कूल का प्रधानाध्यापक मिड-डे-मील स्वयं टेस्ट करेगा, उसकी गुणवत्ता परखेगा, तभी वह छात्रों में उसे बंटने देगा। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। सचाई यह है कि मिड-डे-मील को खराब बताने वाले शिक्षक को एक तरफ इस योजना से जुड़ एनजीओ चलाने वाले धमकाते हैं, तो दूसरी तरफ अधिकारी उनका उत्पीड़न शुरू कर देते हैं। इतना ही नहीं, स्कूलों में मिड-डे-मील की जांच करने वाली टीम स्थानीय हो या प्रांतीय, उसके आने का पता पहले ही चल जाता है। जाहिर है, उस दिन का मिड-डे-मील बहुत अच्छा रहता है। एक सचाई यह भी है कि परिषदीय विद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति बहुत कम रहती है। इनमें आने वाले बच्चे गरीब परिवारों से होते हैं। दाखिला लेने के बाद ये सीधे परीक्षा देने आना ही पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें पेट भरने के लिए मजदूरी करनी होती है। ऐसी रिपोर्टें भी आई हैं कि इन स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति दर 30 से 40 प्रतिशत ही है, किंतु एनजीओ व अधिकारियों के दबाव में शिक्षकों को छात्रों की संख्या प्रतिदिन पूरी दिखानी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि महकमे के वरिष्ठ अधिकारियों को इनकी जानकारी नहीं है, वे सब कुछ जानते हैं, किंतु कुछ कर नहीं पाते। कमीशन की राशि उनके मुह बंद कर देती है।

जब मिड-डे-मील की हालत ऐसी है, तब एक मुटठी उबले चावल के लिए जून की जानलेवा गरमी में छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल बुलाना तुगलकी फरमान जैसा ही है। एक तरफ अप्रैल में ही साढे दस बजे तक स्कूल बंद करना और दूसरी ओर मिड-डे-मील के नाम पर बच्चों को जून में स्कूल बुलाना, दरअसल दिशाहीनता का ही सुबूत है। यदि सरकार बच्चों के प्रति इतनी ही हमदर्द है, तो वह जून माह के मिड-डे-मील की राशि मई में ही उन्हें नकद भुगतान कर सकती है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को इस गरमी में घर से बाहर निकलने नहीं देगा। ऐसे में, जून में स्कूल खोलने की बात गले नहीं उतरती। वैसे भी, इन स्कूलों में जब बच्चे आम दिनों में ही बहुत कम आते हैं, तब जून में तो वे आने से रहे। हां! जून में मिड-डे-मील बांटने के आदेश से कुछ अधिकारियों, एनजीओ, शिक्षकों और प्रधानों का भला जरूर हो जाएगा।

मेरा यह लेख अमर उजाला में 25 मई 2010 को संपादकीय पृष्ठ पर छपा है

Monday, April 5, 2010

महिलाओं को विधायिका में नहीं नौकरियों में आरक्षण मिले

 





महिला अर्थात आधी दुनिया को विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण देने पर देश में बबाल मचा है, राजनेताओं को चिंता है कि इससे उनकी परंपरागत सीट छिन जाएगीं ।उन्हें लोकसभा तथा विधान सभा आदि में अब नई सीट खोजनी होगी। कांग्रेस प्रसन्न है कि महिलाओं को विधायिका में आरक्षण देने का लाभ उसे मिलेगा , प्रश्न यह है कि इस आरक्षण के लागू होने से आम महिला को क्या मिलेगा, उसे तो इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। इससे तो महिलाओं को कम पुरूषों को ज्यादा लाभ होगा। महिलाओं को आगे लाने के लिए हमे उन्हें नौकरियों में आरक्षण देना होगा। आधी दुनिया को आधा हक। ३३ नही पूरा ५० प्रतिशत आरक्षण। आधी दुनिया को आधा हिस्सा न देकर हम उसका हक मार रहे हैं।

आज विधायिका में आरक्षण देने पर हो हल्ला हो रहा है,नेता परेशान है। पर स्थानीय निकाय और पचायतों में आरक्षण के समय कोई नही बोला। परेशानी थी, कुछ गलत हो रहा था तो तभी आवाज उठानी चाहिए थी। क्योंकि उस समय आरक्षण के पक्षधर नेताआे का कोई नुकसान नहीं हो रहा था। उनके कुछ प्यादे और घुडसवार ही उस समय पिट रह थे। तो वह चुप रहे । जब आग उनके घरों की और आ रही है , तो परेशानी है। पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण मिला है। किसी पुरूष सीट के महिला होने पर पुरूषों ने अपनी पत्नियों को चुनाव लड़ाया ,तो कहीं पुत्रवधु को मैदान में उतारा। ठीक उसी तरह जैसे भ्रष्टाचार के मामले सामने आने पर लालू यादव ने अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। पंचायतो और स्थानीय निकाओं में महिलाओं के आरक्षण लागू होने से मात़्र इतना फर्क आया कि पति की कुर्सी पर अब पत्नी बैठ रही है। निर्णय पहले भी पुरूष ही करते थे, अब भी वहीं कर रहें हैं।

लोकसभा चुनाव के खर्च के बारे में चुनाव आयोग द्वारा खर्च की सीमा भले ही कुछ तै हो किंतु आज चुनाव बहुत मंहगा है। लोकसभा के चुनाव पर औसत दस करोड़ रूपया व्यय होता है तो विधान सभा में भी यह खर्च एक से दो करोड़ तक आता है। क्या इतना व्यय आम महिला कर सकती है। उसे तो परिवार के लिए रोटी रोजी जुटाने के लाले है। ऐसे में आम महिला को तो इस आरक्षण का लाभ मिलने वाला नहीं। चुनाव वही लडेंगी जिनके पास इतनी दौलत होगी। इस आरक्षण के लागू होने के बाद महिला सीटों पर राजनेतां अपनी पत्नी, बहन,पुत्रवधु और परिवार की अन्य महिलाओं को चुनाव लड़ाते रहेंगे।  यही काम उद्योगपति करेंगे। आईएएस, आईपीएस अधिकारी सेवाकाल में खुद तो चुनाव लड़ नहीं पाते , वे अब अपनी पत्नियों को राजनीति में उतारेंगें। बिजनौर जनपद के एक सीनियर आईएएस अफसर आर के सिंह की पत्नी ओमवती चुनाव लड़ाकर कई बार विधायक और एक बार एमपी बन चुकी हैं। आजकल वह उत्तर प्रदेश सरकार में राज्यमंत़्री है। आर के सिंह के सेवा में रहतें ओमवती पति को अच्छे पदों पर रखवाने का सिंबल बनी। आज आर के सिंह सेवा में नहीं है किंतु ओमवती के लिए आने वाले प्रार्थना पत्रों पर वे ही सुनवाई करते और ओमवती की और से अधिकारियों को कार्रवाई के लिए निर्देशित भी करतें हैं। निर्णय वही करतें हैं।

ऐसा ही इस अध्यादेश के पारित होने से होगा। सत्ता में उद्योगपति की पत्नियां आकर इनके कार्यालयों में रूके काम की फाइले आगे बढ़वांएगी, उन पर मनचाहे निर्णय कराएंगी। उधर आई एएस ,पीसीएस अधिकारी की पत्नियों उनके अच्छे पोस्टिग में मददगार होगी,उनके खिलाफ चल रही फाइलों के निर्णय भी लंबित करांएगी।

उद्योगतियों की पत्नियों और आईएएस आईपीएस की पत्नियों के राजनीति में आने से एक नया समीकरण बनेगा। कार्यदायी संस्था में कार्य करने वालों की पत्नियां विधायिका में आकर नए समीकरण बनांएगी। अभी तक राजेनता अपने पूरे परिवार को राजनीति में लाकर परिवारवाद फैला रहे थे। अब उद्योंगपतियों का परिवार उद्योगों से निकल राजनीति में आएगा। कार्यदायी संस्था में बैठे व्यक्तियों की पत्नियां राजनीति में आएगीं। अब एक नई तरह की राजनीति शुरू होगी। प्रभाव की राजनीति, लाभ के पदों की राजनीति। का्र्यदायी संस्था में ज्यादा आय और ज्यादा सुख की नियुक्ति।  सरकार चलाने वालों को अब और कई तरह के समझौते, गठबंधन करने होंगे। कार्यदायी संस्था के अधिकारियों और उद्योगपतियों की पहचान अब आगे चलकर विधायिका में हावी उनकी पत्नियों से ज्यादा होगी।

यह सब तो होगा किंतु विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने से आम महिला का कोई भला होने वाला नही है। इस मंहगाई में उसे धन चाहिए , और यह इस आरक्षण से उस तक नहीं आएगा। वह तभी आएगा, जब उसके आया के साधन बढ़े। नौकरियों में आरक्षण मिले । इससे उसे रोजगार के ज्यादा अवसर मिलेंगें। मंहगाईं के बोझ से दब रहे परिवार को जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने में वह और ज्यादा मददगार हो।

महिलां जगत को हम आधी दुंनिया कहते है किंतु जब उसे हक देने की बात आती हैं तों हंगामा प्रारंभ हों जाता है। आज देश की आधी दुनिया को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने में राजनेता हंगामा कर रहें है। ५० प्रतिशत हिंस्सा देने की बात आएगी तो क्या होगा। आधी दुनिया को हम ३३ प्रतिशत हिस्सा देकर उसके हक में १७ प्रतिशत की कटौती कर रहे हैं। आधी दुनिया को आधी सींट मिलनी चाहिए। यह उसका हक है, खैरात नहीं।

महिलाओं को विधायिका में आरक्षण देने से उनका भला होने वाला नही है। उनके भले और उन्नति का रास्ता तभी प्रशस्त होगा, जब उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिले। वह भी कम नही पूरा ५० प्रतिशत। आधी दुनिया आधा पद।

लंबे समय से मांग उठती आ रही है कि महिला घरों से बाहर निकले। काफी तादाद में वह आगे आईं हैं किंतु आज भी मंहगाई उनके परिवार को जरूरत का सामान उपलब्ध नही होंने दे रही। आज परिवार को चलाने, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए जरूरत है कि परिवार को चलाने में महिलांए बराबर की साझीदार बने और यह सभी संभव है जब उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिले। वह भी ३३ प्रतिशत नही पूरा ५० प्रतिशत। इसके बिना उसकी तरक्की की बात करना बेमानी और उसके साथ छल है।

जब महिला आगे बढ़ी या बढ़ाने की बात चली ,हर बार ऐसा ही हुआ

आधी दुनिया अर्थात गाडी के दूसरे पहिए को बराबरी का दर्जा देने की बात जब भी उठी है, तभी उसका विरोध हुआ है। महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की बात हर जगह मचों से उठती तो है, चर्चे होते हैं, दावे किए जाते हैं किंतु उन्हें जब अधिकार देने की बात आती है तो हंगामे होते हैं। सदन नही चलने दिए जाते ,विधेयक की प्रतियां फाड़ दी जाती है। ऐसा तब होता है जबकि उन्हें बराबरी का अधिकार नही दिया जा रहा। मात़्र ३३ प्रतिशत हिस्सा देने की बात हो रही है। बराबरी के अधिकार अर्थात आधी दुनिया को आधा हिस्सा देने की बात उठी तो हालत क्या होगा,यह इसी हंगामे को देखकर समझा जा सकता है।

हाल में महिलाआं कों विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में रखा गया तो हमारे नेताओं को यह बर्दा श्त नहीं हुआ। अपनी जगह राबडी को बिहार का मुख्यमत्री बनाने वाले लालू यादव और अपनी पुत्र वधू को राजनीति में उतारने में लगे मुलायम सिंह को यह बर्दाश्त नही हुआ।विधेयक की प्रस्तुति के समय राज्य सभा में हंगामा ही नही हुआ , अपितु विधेयक का विरोध करने वाले सदस्यों ने राज्य सभा में विधेयक की प्रतियां तक फाड़ डालीं। विधेयक लाने वाले और उसका समर्थन करने वाले दल ही इसे लेकर एकमत नही हैं। हरेक की अपनी ढपली और अपना राग है।किंतु वे ज्यादा खुलकर नही बोल रहे।

यत्र नार्यस्य पूजयंते रमयंते तत्र देवता वेदो में कहा गया है। किंतु यह सब उन नारों जैसा ही है जिन्हें हम अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग करते रहें हैं। हम जनता को रिझाने के लिए नारा लगाते हैं ,गरीबी हटाआंे किंतु वह हटती नहीं,दिन दूनी रात चौगुनी की तरह से तरक्की जरूर करती जाती है।

अंधिकांश राजनैतिक दल समाजवाद लाने और पूंजीवाद खत्म करने की बात करतें हैं किंतु न कभी समाजवाद आता है और न पूंजीवाद खत्म होता है। यह नारे लगते हैं और लगते रहेंगे किंतु इनसे कोई क्रांति या बदलाव आने वाला नही है।

वेदों में यह जरूर कहा गया हो कि जहां नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते है किंतु सच्चाई के धरातल पर सब इसके विपरीत है। वैदिक काल में महिलाओं को बड़ा सम्मान था, उन्हें बराबरी का दर्जा भी था, किंतु इतिहास और अन्य स्थानों पर कितनी विदुषिंयों का जिक्र आता है। कुछ प्रसिद्ध होने वाली जिन विदुषियों को हम जानतें हैं, उन्हें उंगलियों के पोरवों पर ही गिना जा सकता है।

जब भी नारी आगे बढ़ी उसे रोका गया। जब उसके हक की बात आइे उसको धोखा दिया गया। छला गया। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के समय गार्गी के प्रश्नों ने बौखलाएं याज्ञवल्कय कह ही उठते हैं, बस गार्गी और नही , अब एक शब्द भी जवान से निकाला तो सिर अलग हो जाएगा, गार्गी हक्की बक्की रह जाती है। शास्त्रार्थ में पराजय को पुरूष का अहम बर्दास्त करने का तैयार नहीं,इसी लिए वह शास्त़्रों की जगह शस्त्रों की भाषा  बोलने लगा। राजा जनक की भरी सभा में गार्गी को इस प्रकार की उम्मीद नहीं थी। वह चुप हो जाती हैं। इस कहानी में कहीं ऐसा नही आता कि किसी ने याज्ञवल्कय की धमकी को गलत बताया हों । शास्त्रार्थ के निर्णायक जनक भी चुप रहते है।

विद्योतमा अपने समय की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी घोषणा थी कि जों विद्वान उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा , वह उससे शादी कर लेंगीं। उनकी प्रतिभा से परेशान एवं शास्त्रार्थ में परास्त विद्वान ऋषि मुनियों ने उससे अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक नितांत बेवकूफ से शास्त्रार्थ कराने का निर्णय लिया। उन्हें कालीदास नामक ऐसा व्यक्ति मिल भी गया जो उसी साख को काट रहा था, जिसपर कि यह बैठा था। उस समय के सारे विद्वान, ऋषि और मुनियों ने षड्यंत्र कर विद्योतमा को कालीदास से शास्त़्रार्थ पर परास्त करा दिया। विद्योतमा ने अपनी प्रतीज्ञानुसार परास्त होने वाले से विवाह कर दिया। इस कहानी में कोई विद्वान ऐसा नहीं मिलता, जिसने विद्योतमा के साथ हो रहे इस छल का विरोध किया हो। कोई ऐसा नही था जिसने कहा हो यह छल है,धोखा है, जो किया जा रहा है, वह शास्त्र और धर्म सम्मत नही है।

महाभारत काल की सबसे सुंदर नारी द्रोपदी थी। यह उसका सौंदर्य ही था कि उस समय के अधिंकाश बाहुबलियों ने उसे भोगना चाहा,चाहे स्वेच्छा से या बलपूर्वक। उन्हीं की भावनाओं का परिणाम हैं कि उसके सौंदर्य को, कलंकित करने उसके अहम को सरे आम नीचा दिखाने के लिए उसका भरे दरबार में चीरहरण किया गया। इससे पहले रामायण काल में उस समय की सर्वसुंदरी सुर्पनखा की नाक कान काट उसका अपमान किया गया तो कही सीता का हरण हुआ। हुआ उस नारी के साथ जिसे वेदों में पूजनीय कहा गया।

समय बदला किंतु नही बदला नारी के अपमान होने का सिलसिला। पुरूष की मौत पर नारी को सती होना पड़ा तो पतियों के मरने पर जोहर भी उन्हे की करना पड़ा। पतियों की दीर्घायु की कामना के लिए करवा चौथ का उपवास भी नारी के लिए ही आवश्यक किया गया। पुरूषों को कही शांस्त्रों में नहीं आया कि उसे पत्नी के मरने पर जलकर मर जाना चाहिए।

संपति में हमने बेटी को बराबर का हक नही दिया,तो मरने के बाद बेटों से ही तर्पण कराकर मोक्ष की बात भी हमने ही की। जहां बस चला ,हमने महिलाओं को छलां ।आधी दुनिया को धोखा दिया। उसे हमने कहीं नकाब पहनाकर परदे मे रखा तो कहीं घूंघट में दबाया।

उसकी अस्मिता की सुरक्षा के नाम पर बालपन ही में विवाह कर उसका बचपन हमने ही छीना। सती होने की परंपरा पर रोक लगी तो विधवा विवाह को हमने गलत बताया और महिलाओं की इस आधी दुनिया के लिए अलग से कानून बनाए।इस तरह के कानून पुरूषों के लिए कहीं नही बने। महाकवि तुलसीदास ने तो ढोल गंवार शुद्र,पशु, नारी। ये सब ताडन के अधिकारी बताकर इनके अस्तित्व को नकार दिया।
यह आज की बात नहीं महिलाओं के आगे लाने की बात जब भी हुई ,या वह अपने प्रयासों से आगे आई , उन्हें ऐसे ही छला गया। कभी अग्नि परीक्षा ली गई तो कभी किसी के कहने पर उसे वन में छुडवा दिया गया। उसकी पीड़ा उसकी भावना को कभी किसी ने नहीं समझा।

अशोक मधुप

Friday, April 2, 2010

बिन बिजली विकास?

 मेरा यह लेख अमर उजाला में 30 मार्च को प्रकाशित हुआ है

किसी भी प्रदेश का विकास उस राज्य में मौजूद बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता से होता है। जाहिर है, इन सुविधाओं में बिजली और सड़क सबसे अहम हैं। नया-नया प्रदेश बने उत्तराखंड के औद्योगिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि वहां बिजली की निर्बाध आपूर्ति है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मांग के अनुरूप बिजली की उपलब्धता काफी कम है, इसी के कारण यहां लगे उद्योग आस-पास के राज्यों की ओर खिसक रहे हैं, या किसी तरह अपने काम चला रहे हैं। छोटे उद्योगांे की हालत तो बहुत ज्यादा खराब है।

उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी का आलम यह है कि जहां राज्य में इसकी मांग लगभग 9,000 हजार मेगावाट है, वहीं राज्य का अपना उत्पादन 3,300 से 3,500 मेगावाट के बीच है। यानी अपनी सामान्य जरूरत के लिए भी हमें 3,500 मेगावाट बिजली केंद्र से खरीदनी पड़ रही है। बावजूद इसके 3,000 मेगावाट की कमी से राज्य को जूझना पड़ रहा है। ऐसे में, प्रदेश के देहाती इलाकों को दिन भर में जहां चार-पांच घंटे विद्युत आपूर्ति हो पा रही है, वहीं कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो शेष शहरी क्षेत्र को मात्र बारह से चौदह घंटे बिजली मिल पा रही है। और अगर वह इतनी मिल भीरही है, तो वोल्टेज काफी कम मिलते हैंं। इससे या तो उपकरण चलते नहीं या फिर फुंक जाते हैं। पिछली सरकार में रिलांयस को दादरी मंे बिजली घर लगाने की अनुमति दी गई थी। अपेक्षा की गई थी कि यह इकाई 7,400 मेगावाट बिजली बनाएगी। लेकिन यह परियोजना राजनीति का शिकार हो गई।

हमारे पास अगर कुछ साधन हैं भी, तो उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। एक मेगावाट बिजली बनाने में करीब पांच करोड़ रुपये का व्यय आता है। प्रदेश का चीनी उद्योग लगभग 1,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है। लेकिन चीनी उद्योग द्वारा यह बिजली उस समय पैदा की जाती है, जब चीनी मिलों में पेराई का सीजन होता है। बाकी समय चीनी मिलें बिजली का उत्पादन नहीं करतीं। अब 1,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए हमें 5,000 करोड़ रुपये के आसपास खर्च करना पड़ेगा। यदि हम चीनी मिलों को ही पे्ररित करें कि वे साल भर बिजली उत्पादन करें, तो बिजली घर बनाने पर व्यय होने वाली राशि की बचत तो होगी ही, नए बिजली घर के लिए अतिरिक्त भूमि अधिगृहीत करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।

हां, चीनी मिलों को 12 माह बिजली उत्पादन के लिए अपनी टर्बाइन में कुछ परिवर्तन करने होंगे। सीजन में यह टर्बाइन गन्ने की खोई से चलती हैं, शेष वक्त में ये कोयले से चलेंगी। यकीनन इस पर कुछ व्यय भी होगा, लेकिन यह बोझ चीनी मिलें स्वयं उठा लेंगी, यदि हम उनसे ‘ऑफ सीजन’ के लिए कुछ मंहगी दर पर बिजली लेने को तैयार हो जाएं। इसी तरह, बिजली उत्पादन के लिए हमे गैर परंपरागत साधनों के विकास पर भी बल देना होगा। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में नए विकास करने होंगे। इसका उत्पादन करने वाली कंपनियों को रियायत देनी होगी, ताकि इसके उपकरण सस्ते हों। फिलहाल वे बहुत ही महंगे हैं, और उत्पादन कम होने से उपभोक्ताओं को लंबा इंतजार करना पड़ता है। आज इनवर्टर का सौर ऊर्जा का पैनल ही 10,000 रुपये से ज्यादा का बैठता है।

बिजली चोरी भी एक बड़ी समस्या है। बिजली मंत्री के छापे मारने से यह प्रवृत्ति बंद नहीं होगी। इसके लिए हमें कठोर कदम उठाने होंगे। आज हम बिजली चोरी में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ तबादले या निलंबन की ही कार्रवाई कर पाते हैं। उनके विरुद्ध अपराधिक मुकदमे दर्ज करने पड़ेंगे। तभी तसवीर बदलेगी।

(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)


अशोक मधुप

Tuesday, February 2, 2010

बिजनौर में बहुत संख्या में है सारस







हाल में एक तालाब मे सारस के दो जोडे देखने पर मैने इस पक्षी के बारे में जानकारी की तो पता चाला कि उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या २५०० के आसपास है। इस दौरान मेरे मि़त्रों ने मुझै बताया कि यह पक्षी बिजनौर जनपद में बहुतायत में पाया जाता है। बिजनौर नगीना मार्ग से नहटोर की साइड में बहुत से तालाब हैं जहां यह मिलता है।



आज मुझे बिजनौर नगीना मार्ग पर शादीपुर बस स्टेंड से नरगदी नवादा के जाने वाले मार्ग पर जाना पडा । इस मा्र्ग के कुछ तालाब में मुझे कई सारस के जोडे देखने को मिले। लौटते हुए बिजनोर नगीना मार्ग के बांई साइड के तालाब में तीन सारस मिलें। गांव वालों ने बताया कि यह तो यहां बडी तादाद में तालाबों में मिलता हैं, पर एक बात है पक्षी बहुत ही खूबसूरत है। उडने वाला सबसे बडा पक्षी माना जाता हैं।

Friday, January 29, 2010

कृपया बतांए सही क्या है


क्या क्रोंच पछी एवं
सारस एक ही है
जिंदगी में मुझे पहली बार सारस देखने को मिलें। आदमी के बराबर का पछी देखकर आश्चर्य हुआं। एक जोडे के साथ दो बच्चे भी थे: रूक कर कुछ फोटीं खींचे। नेट पर पक्षी के बारे में जानकारी खोजनी शुरू कीं । कुछ जगह मिला कि क्रोच एवं सारस एक ही पक्षी है। क्रोंच पक्षी के बारे में आता है कि उसके मैथुनरत जोडे से शिकारी द्वारा नर को मार दिए जाने के बाद मादा की चित्कार को सुन महर्षि वाल्मीकि द्वारा जो पंक्ति कहीं गई, वह पहली कविता हुई। हालाकि सारस के बारे में भी यह आता है कि जोडे में से एक के मरने पर दूसरा उसी जगह खडा चीखता रहता हैं, उस जगह से नही जाता एवं वहीं प्राण दे देता हैं। किंतु कुछ जानकार कहते है कि क्रोंच अलग प्रजाति हैं। कृपया मेरी जानकारी में वृद्धि को बताएं कि सही क्या है!