Monday, November 9, 2015

फौलाद का पेट


 क्या फौलाद का पेट संभव है?  आप कहेंगे नहीं,मैं  कहूंगा हां।एक आदमी का नहीं आज सभी भारतीयों का पेट फौलाद का है। 
 आज देश में सपंन्नता है। प्रायः सभी तरह का अनाज उपलब्ध है।कभी गेंहू अमेरिका से आता था , आज सारे देश में गेंहू उगता है। लगभग सभी देशवासी गेंहू की रोटी खाते हैं।
साढ -सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था । खेती के साधन नहीं थे। बिजली नहीं थी। फसले प्रकृति पर निर्भर थीं।  बारिश पड़ जाती तो फसल हो जाती, न पड़ती तो रूखाः सूखा खाकर जीवन जीना पड़ता। प्रायः अनाज में बाजरा, जौ, चना आदि की रोटी बनती।  मक्का उत्पादित क्षेत्र में मक्का से रोटी बनती। गेंहू तो किसी बहुत संपन्न परिवार में खाया जाता। गेंहू बहुत मंहगा  होता। मोटा अनाज सस्ता। इसीलिए सब प्रायः मोटा अनाज ही खाते।
अमेरिका से आया लाल गेंहू राशन में मिलता। गरीब परिवार इसे राशन में लेकर खुले बाजार में बेच देते। इस घटिया गेंहू के भी अच्छे पैसे मिल जाता। उस समय राशन का गेंहू भी आय का साधन था। राशन में चीनी लेकर बाजार में बेच दी जाती।  सभी प्रायः गुड़  खाते । ज्यादातर परिवार में चाय भी गुड़ की बनती।
गेंहू के बारे में बुजुर्ग कहते  -गेंहू को पचाने के लिए फौलाद का पेट चाहिए। इसे पचाना आसान नहीं।मेरे बाबा हकीम राम किशन लाल तो इस कहावत को बार- बार दुहराते थे। 
वक्त बीतता गया। कब गेंहू आम आदमी को  उपलब्ध हो गया , पता ही  नहीं चला। कब सब भारत वासियों के पेट फौलाद के हो गए  इसका ज्ञान ही नही हुआ। आज पुराने बुजुर्ग होते और सबकों गेंहू खाते देखते तो अचंभा करते।
साढ सततर के दशक और अब के खान -पान में कितना फर्क  हो गया। यह मेरी पीढ़ी के व्यक्त‌ि ही समझ सकतें हैं?   उस समय के आम आदमी के खाने वाला अनाज आज संपन्न परिवार में टैक्ट चैंज करने के काम आता है।शादी - विवाह के समारोह में चने ,मक्का , बाजरे की रोटी जायके के लिए खाई  जाती है।  होटलों में खाना खाते प्रायः बेसन की रोटी की ‌ड‌िमांड जरूर होती है।
हमारे समय के लकड़ी को रांध कर चिकना बनाने वाले रंधे से  सिल्ली से बर्फ घिसकर अलग किया जाता था। इस बर्फ पर रंग- बिरंगा शर्बत डालकर बर्फ बेचने  वाला देता और हम उसे बड़े चाव से खाते। तिलली पर दूध को जमाकर बनाई  चुसकी गली कूंचों की शान थी।  दुपहर में इन्हें बेचने वाला आता। आवाज लगाता।बच्चे बर्फ लेने  दौड पड़ते। आज यह ‌डंडी पर ‌घ‌िसकर  चिपकाया बर्फ  और चुसकी  बड़े लोगों की दावतों की शान बन गईं।
एक बात और खरीदने वाले सब पैसे ही लेकर नही जाते थे।  इस समय वस्तु विनिमय का भी समय था। जिनके पास रुपये पैसे नहीं होते,वे अपने कमीज के अगले पल्ले में अनाज भरकर ले जाते और उसके बदले जरूरत का सामान ले आते। आज भी कहीं- कहीं गांव में ऐसा चलन है।
बात थी फौलाद के पेट की।गेंहू पचाने के लिए फौलाद का पेट चा‌ह‌िए की कभी कहावत थी । वक्त ने उसे बदल दिया। आज सभी के पेट फौलाद के हो गए।
अशोक मधुप

Sunday, November 8, 2015

दीपावली और कंदील


दीपावली का एक महत्वपूर्ण  भाग कंदील या कंडील  अब दीपावली से गायब हो गया। दीपावली पर कंदील बनाने का काम कई  सप्ताह पूर्व से शुरूकर दिया जाता था।
बासं की खप्पच बनाई  जातीं।  इनसे कंदील का ढांचा बनता। इस ढाचें पर रंग ‌ब‌िंरगी पन्नी लगाई जाती। कंदील इस तरह बनाया जाता कि उसमें आराम से बड़ा दीपक रखा जा सकता। 
कंदील बनाने से बड़ा काम होता  उसे टांगना। कई  बांस जोड़कर उसपर कंदील टांगने  की व्यवस्था की जाती। बांसं के ऊपर एक लंबी लकड़ी इस प्रकर लगाई जाती कि कंडील उतारते चढ़ाते बांस से न टकरांए। कंदील को उतारने -चढाने के लिए बांस के ऊपर लगी लकड़ी में गिररी लगाई  जाती। कंदील में दीप चलाकर धीरे- धीरे रस्सी के सहारे उसे ऊपर सरकाया जाता। ये ध्यान रखा जाता कि वह कम से कम हिले। जितना ज्यादा हिलता, कंडील के दीपक से उतना ही तेल ज्यादा गिरता। ज्यादा तेल गिरने दीपक जल्दी बुझ जाता। बाद में दीपक की जगह बिजली के वल्ब न ले ली। 
एक चीज और प्रत्येक व्यक्ति का प्रयास होता कि उसका कंदील ज्यादा ऊंचा हो।  इसके लिए कई बार कंप्टीशन हो जाता। कुछ जगह तो  ऊचाई बढ़ाने के लिए लोहे के पाइप और बल्ली तक प्रयोग जाती
कंदील भी कई तरह  के हो ते। गोल, हांडी जैसे तो कुछ नाव की तरह के कुछ कई कोणीय कंडील होते। दीपावली की रात अमावस की रात होती है।  आकाश में जलते ये दीप बहुत सुंदर लगते। ऐसा लगता कि आकाश में रंग बिरंगे तारे चमक रहे हों।  दीपावली से कई  दिन पहले से कंडील जलने  शुरू हो जाते और कई दिन बाद तक जलते रहते।
दीपावली के बाद इन कंदील को कपड़े में इस तरह लपेटकर रखा जाता कि वह अगले साल तक सुरक्षित रहे।
कंदील की पन्नी फट जाती तो अगले साल बदल दी जाती। उसका् ढांचा तो कई  साल तक चलता रहता।

दीपावली और गिफ्ट


 दीपावली पर अब गिफ्ट का चलन है।ग‌िफ्ट में मिठाई , फ्रूट्स्र, मेवे और जाने क्या? क्या? होता है। काम निकलने के लिए अ‌ध‌िकारी और नेताओं को प्रसन्न करने वाले गिफ्ट अलग होतें हैं।याद आता है पचास -पचपन साल पहले का जमाना।उस समय इस तरह की मिठाई बहुत कम होती थी। खांड की बनी मिठाई  होती थी। खांड एक तरह की  पिसी चीनी जैसी होती। इस खांड से  मिठाई बनती। इसे पक्की मिठाई  कहा जाता था। ये खांड के क्यूब होते थे । दीपावली की मशहूर मिठाई थी तो खांड के बने ख‌िलौ्ने। खांड के बने  हाथी, ऊंट,घोड़े।धान की खील के सा‌थ ये ही खाने को मिलते थे।खील और खिलौने की मिलने वालों के यहां भेजे जाते। उनके यहां से भी यही आते । मावे की मिठाई तो घर में दीपावली या किसी महत्वपूर्ण  अवसर पर आती। कुछ घरों में अब भी दीपावली पर ये खिलोने आते है किंतु नाम मात्र को।
दावतों में मिठाई की जगह  बूंदी के लड़्डू होते थे। दावत में जाने वाले अपने साथ रूमाल लेकर जाते। बड़ों को चार और बच्चों को दो लड्डू मिलते। आधे लड्डू खा लेते । आधे रूमाल में बांध कर घर ले आते। घर पर रहे परिवार के सदस्यों के खाने के लिए ये लड्डू लाए जाते थे। अधिकतर दावत - शादी- विवाद में ये बूंदी के ही लड्डू होते। कोई बहुत बड़ा संपन्न व्यक्त‌ि  होता तो उसके यहां कागज की प्लेट में पांच मिठाई होती। इमरती पेड़ा , मावे का लड्ड़ू,गुलाब जामुन आदि। अन्यथा एक ही मिठाई  उस समय थी बूंदी के लड़डू।

Saturday, November 7, 2015

बात दीपावली की करिए

  बात दीपावली की करिए
बात  असहिष्णुता की है। मौसम दीपावली का। इस मौसम में ये अच्छा नहीं लगता।
- ये तो रोशनी का पर्व  है। प्रकाश का पर्व  है। बात प्रकाश की होनी चाह‌िए।
- बात शमा की होनी चाह‌िए। उसपर फिदा होने वाले परवाने की होनी चाहिए।
-दीपावली पर दीपक की बात होनी चाहिए। मिठाई की बात होनी चाहिए।
- विकास समय का चक्र है। चलता रहता है ।  चलना   भी चाहिए। विकास गंगा जब बहेगी तो गंगोत्री से निकलेगी। पृथ्वी को  हरा भरा करेगी। शस्य श्यामला करती समुद्र  तक पंहुच जाएगी। ये ही तो यात्रा है। इस यात्रा में हमने इस पति‌त पावनी को पति‌त कर दिया।
-गंगा हमारे पाप धोती थी हमने कूड़ा करकट गंदगी डालकर इसे अपने कार्य ये विमुख कर दिया।उसे इस जगह पंहुचा दिया कि अब इसकी सफाई की जंग लड़नी पड़ रही है।
- बात दीपावली की थी। दीपावली पर हमने घरों को सुंदर -सुुदर पेंट से रंगना शुरू कर दिया।पहले हम पिडोल से घर की पुताई करते थे। आगन में गोबर से गोबरी होती थी। इनकी भीनी भीनी सुंगध को महसूस किया जा सकता है। बताया नहीं जा सकता।
अब  रंगब‌िंरगी झालरों से  घर को  रोशन करने का सिलसिला चल पड़ा। अपने घर को प्रकाशवान करने का । अपनी सपंन्नता दिखाने का। विकास चक्र में बिजली की झालर में हमने दीपक  को भुला दिया।
-पहले ऐसा नही था। दीपावली अलग तरह का पर्व  होता था।  दीपावली पूजन के बाद दीपों  की पूजा  की जाती थी। इन दीपों को  मंदिर ,जलस्त्रोत और रास्तों पर रखा जाता था। अन्य व्यक‌्त‌‌ियों की सुव‌िधा  के लिए, आराम के लिए।
-एक बड़ा  काम और होता था। अपने घर को प्रकाशित करने से पूर्व  आसपास वालों और पर‌िचितों के द्वार के  दोनों किनारों पर दीप रख्रकर उनकी समृद्ध‌ि की कामना की जाती थी। मनोत‌ि  मांगते कि हमारी तरह इनका घर भी प्रकाशवान हो। आसपास में घरों के द्वार पर दीप रखने का कार्य प्रायः परिवार की कन्याएं करती थी। इस कार्य के बाद अपने घर में प्रकाश होता था। दीप जलाए जाते थे।
&कुछ जगह ये काम अब भी होता है। गांव अब भी एक परिवार है। वहां ये सिलसिला आज भी जारी है ।
- शहरों में आज  हम अपने घर में प्रकाश करने में लगे है। अपने घर को जगमगा रहे है। आसपास वालों से कोई  लेना देना नहीं । हम एकांकी होते जा रहे हैं। समाज की बात भूल रहे हैं। सम्रग्रता की बात भूल रहे हैं।विश्व कुटुंबकम की बात करने वाले अब  अपने घर को सजा कर प्रसन्न हो रहे हैं। क्या हो गया हमें?

अशोक मधुप
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