Friday, October 23, 2015

मुहर्रम और प्रसाद


-आज हम श‌िक्ष‌‌ित होकर भी कम पढ़ों से ज्यादा गए बीते हैं। हम देश में हिंदू मुस्ल‌िम में बटें खड़े हैं।कोई  बीफ  पार्टी  दे रहा है, कोई पोर्क पार्टी। टी पार्टी देने की कोई  बात नहीं कर रहा।
कल मुहर्रम है। बड़े -बड़े  ताजिए निकलेंगे। उन्हें देखने और मर्सिया सुनने के लिए भीड़ उमड़ेगी किंतु  उसमें  एक ही तबका होगा। हिंदू  तो दूर दूर तक नजर भी नहीं आंएगे । मुझे याद आता है बचपन। हम छोटे- छोटे थे। मेरी मां बहुत कम पढ़ी थी। कक्षां पांच तक।  बह मुहर्रम के दिन बाजार से खील और बताशे खरीदती| मेरा हाथ पकडती | ताजिए के पास ले जाती। ताजिए पर प्रसाद चढ़ाती। हर ताजिए के नीचे इक सफेद चादर लगी होती। इस चादर में प्रसाद एकत्र होता रहता। ताजिए की देख रेख करने वाला इस प्रसाद में से मुट्ठी भरकर खील बताशे मां को दे देता। मां घर लाकर हमे प्रसाद के खील बताशे ख्र‌िलाती।
ये प्रसाद क्यों चढता था, क्या मान्यता थी म्रुझे अब लगभग 60 साल बाद याद नहीं। किंतु ताजियों पर प्रसाद चढ़ना आज भी याद है।
शहरों में भले ही ऐसा न हो किंतु मेरा मानना है कि गांव में कहीं न कहीं ये परंपरा  आज भी जीवित होगी। काश आगे भी ऐसा हो।हम ताजियो पर प्रसाद चढांए और मुस्लिम हमारी भगवान राम की बारात में सहयोग करेें ।
हम एक दूसरे की रवायत का आदर करें। मीट खाने को कोई किसी को नही रोकता। रोकता है दूसरों की भावनाओं का अपमान करने से। आप कुछ भी करें किंतु आपके मिलने वाले , परिच‌ित की आस्था को ठेस नहीं लगनी चाहिए। उनकी भावना का ख्याल रखा जाना चाहिए|
अशोक मधुप
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Wednesday, October 21, 2015

व‌िजयदशमी

व‌िजयदशमी 
कल विजयदशमी है। दशहरा का पर्व। बचपन से जवानी तक इस पर्व को मनाने का बेइतहां  इंतजार रहता था।
आठ दस दिन पूर्व से रामलीला शुरू हो जाती। उससे पहले उसकी रिहर्सल शुरू होती। दिन छिपे से कई- कई घंटे तक अभ्यास चलता। डाईलॉग बोलना ,एकट‌ि्ंग  कराना सीनियर द्वारा सिखाया जाता। दशहरा के अगले दिन भरत मिलाप के जुलूस के साथ  रामलीला खत्म हो जाती।  उसके बाद शुरू होता नाटकों के मंचन का दौर। उनकी रिहर्सल चलती।
भरत  मिलाप के जुलूस में अखाड़े निकलते। कलाकार उसमें अपनी कला का प्रदर्शन करते। कोई लाठी केे करतब ‌दिखाता। कोई  बरैटी घुमाता। तलवार चलाना तो बस किसी -किसी के बस की बात होती। अखाड़ों में अलग -अलग तरह के करबत  दिखाने के लिए युवाओं को काफी पहले से तैयार किया जाने लगता। अखाड़े एक तरह की युद्ध कला स‌िखाना था। युवाओं को जरूरत के लिए तैयार करने , युद्ध के लिए   शिक्ष‌ित करने का माध्यम। दशहरा आने से पहले का 15- 20 दिन का समय बहुत व्यस्त ‌होता युवा और बच्चों के लिए। रात की रामलीला के लिए तो बड़ा अभ्यास करना होता था।
 जिनको रात की लीला में रोल करने का  मौका न मिलता।  उनकी कोशिश होती ‌कि दिन की लीला में ही कोई पार्ट मिल जाए। राम की बानर और रावण  की राक्षस सेना में तो उन्हें भी जगह मिल जाती थी, जिन्हें कुछ नहीं करना होता था । बानर सेना में मुंह लाल रंगवाकर और लाल कपड़े पहन कमर में पूंछ लगवानी होती। रावण की सेना की पहचान काले चेहरे नीला कोट और बड़ी बड़ी मूंछ होती। 
दिन की रामलीला के कलाकारों का रात की लीला के कलाकारों जैसा रूतबा तो नहीं होता था। किंतु राम बारात, भरत मिलाप के जुलूस में दिन के कलाकारों को ही मौका मिलता । जुलूस के दौरान भक्तों द्वारा उनकी  खूब खातिरदारी होती। कुछ भक्त तो राम -सीता -लक्ष्मण  और हनुमान के चरण पूजते।क्या समा होता‍?
अब तो रामलीला स्क्रीन पर दिखाई जाने लगी। रामलीला का युग गया। टीवी आ जाने के बाद रामलीला देखने वालों का टोटा हो गया। परिणाम हुआ कि स्टेज के कलाकार खत्म होने लगे। किसी की रंग मंच में रूचि नहीं रही। नई प्रतिभाएं इस क्षेत्र में आनी बंद हो गईं। रामलीला और नाटक के देखने वाले जब नही रहे,तो कलाकार किसके लिए अभ्यास करें।
अखाडे भी अब परम्परा निभाने के ल‌िए ही रह गए। नए कलाकार भी इधर नहीं आ रहे। लाठी और तलवार का युग रहा नहीं। तो इनमें लोगों को रूचि भी नही रह गई। अब कुछ रह गया तो रस्म पूरी करना ही है।
दशहरा पूजन के बाद दशहरा मेले में जाने से पूर्व  नील कंठ देखने की परंपरा थी। दशहरा पूजने के बाद पर‌िवार के पुरूष नीलकंठ देखने जंगलों में निकल जाते। दशहरा पूजन के बाद नील कंठ देखना शुभ संमझा जाता था। अब तो दशहरा पूजन के बाद नील कंठ देखने निकलना सपनों की बात रह गई। अखबारी जिंदगी में दशहरा पूजन भी भागदौड़ में ही होता। सवेरे की मी‌ट‌िंग और मुख्यालय की रिपोर्ट‌िंग की प्रक्रिया और शाम केेेे समाचार भेजने की आपाधापी में नीलकंठ को देखने जंगल में यार दोस्तों के साथ जाना तो एक मृग मरीचिका बन गया। दशहरा मेला देखना जीवन यात्रा में कब छूट गया , पता ही नही चला।   
अशोक मधुप
www.likhadi.blogspot.in

Tuesday, October 20, 2015

लुभाव


आज समाज में बाजारवाद हावी है। कंपनी अपने उत्पाद बेचने को नई- नई स्कीम ला रहीं हैं। बड़े टीवी के साथ छोटा टीवी फ्री में मिल रहा है। एक सामान खरीदने पर एक या दो पीस निशुल्क द‌िए जा  रहे हैं। त्योहारों पर छूट के नाम पर खूब माल बिक रहा है। सेल भी यहीं है। आन लाइन खरीदारी में मौसमी सेल भी यही है। सब    सामान बेचने का फंडा है। आज ही  ऐसा हो रहा है, ऐसा नहीं है।
 मेरे यहां कपड़ों पर प्रेस करने वाला काफी बुजुर्ग था । एक दिन मुझे कहीं कार्यक्रम में जाना था। कपड़ों  के साथ  रूमाल भी प्रेस कराना था।मैंने उससे बूझा - कभी तुमने लुभाव लिया है? वह अपने बचपन में लौट आया। कुछ सेकेंड बाद सोचकर  बोला - हां बाबू जी बहुत बार लिया है। जब बचपन में कुछ सामान लेने जाते थे, तो दुकानदार से लुभाव जरूर लेते थे। भले ही कितनी देर रूकना पड़े। कभी दुकान वाला हाथ पर कुछ परमल के दाने रख देता या लुभाव  के नाम पर एक- दो मूगफंली दे देता। कुछ रूककर  वह बोला- आपको लुभाव की कैसे याद आ गई? मैने कहा कि आज चार कपड़ों के साथ प्रेस के लिए एक लुभाव भी है। कपड़ो में रूमाल को देख वह खूब हंसा। उसके बाद मैं जब उसे कपड़े प्रेस को देता और उनके साथ रूमाल नहीं होता तो वह खुद  कहता - क्या बात है बाबू जी आज कपड़ों के साथ लुभाव नहीं है।
 मेरे बचपन के समय लुभाव का प्रचलन था। आप दुकान पर कुछ सामान खरीदने  जाते तो दुकानदार आपको   लुभाव के नाम पर कुछ न कुछ जरूर दे देता। कभी कुछ चने । तो कभी कुछ इलायची के दानें। उस समय ग्राहक को पटाए रखने का यह फंडा था। विशे षकर बच्चों को पटाने का । जहां से बच्चों को लुभाव मिलता ,बच्चे खरीदारी के लिए उसी दुकान पर जाते। धीरे - धीरे ये चलन में आ गया। सभी दुकानदार लुभाव देने लगे। बच्चे अब अपना हक समझ कर लुभाव मांगने लगे। लुभाने के लिए दी जाने वाली चीज लुभाव हो गई ।कई- कई बार ग्राहक ज्यादा होने पर दस- दस मिनट रूकना पड़ता। पर लुभाव लिए बिना हम दुकान से नहीं हटते।मैंने तो बचपन में बहुत लुभाव लिया है। पता नहीं आपको इसका सौभाग्य मिला या नहीं।
अशोक मधुप

Monday, October 19, 2015

गढ़वाल भूूकंप और मैं


कई  बार ज्यादा सुरक्षा भी खतरा लेकर आती है। ऐसा ही  गढ़वाल भूूकंप के समय| मेरे साथ हुआ |
  बिजनौर में 1990 में दंगा हुआ था। हमारी  गली के अंदर पांच परिवार रहते हैं। गली मंदिर की साइड में ही खुली है। गली के हम पांचों परिवारों ने मिलकर गली के मुह पर चैनल लगा कर इसे बंद करा दिया। सुरक्षा के लिए रात में दस बजे चैनल को बंद कर उसमें ताला लगा देते। ताले की पाचों परिवार पर चाबी थी । जिसे आना होता अपनी चाबी से दरवाजा खोल लेता। चैनल के पास दीवार पर लगे बोर्ड पर पांचों परिवार की घंटी लगी थीं। सो किसी मेहमान को भी परेशानी नहीं थी। जिसका मेहमान आता।  उसकी घंटी बजा देता। संबधित परिवारजन ताला  खोल देते।
20 अक्तूबर 1991  की रात। किसी को कुछ पता नहीं था क्या होने वाला है। कुछ समय बाद प्रलय आने वाली है, इसका किसी को गुमान भी न था। सब  आराम से सोए। रात में जोर से पंलग हिलने  और भूूकंप का शोर मचने पर मैं घर से बाहर निकलने के लिए भागा। दूसरे कमरे में बच्चों के साथ सोई पत्नी को  आवाज दी । उससे  बच्चों को उठाकर बाहर आने को कहा। इस दौरान लाइट भाग चुकी थी । किसी तरह घर के मेन गेट का कुंडा खोकर बाहर भागा। घुप अंधेरा | हाथ को  हाथ नजर नहीं आ रहा था। किसी तरह झपट कर चैनल पर पंहुचा । वहां ताला लगा  था। घर से बाहर निकलते चाबी लानी भूल गया था । चाबी लाने की याद आई तो सोचा अंधेरे में  ताला खुलेगा कैसे। ऐसी आपदा के समय बचने के लिए चार से पांच सेंकेड का समय होता है। यदि आप ऐसे में खुले मैदान में पंहुचे तो ठीक । नहीं तो प्रकृति आपका भाग्य तै करेगी। मौसम कुछ ठंडा था किंतु ये सब   ख्याल आने पर घबराह ट के कारण मुझे पसीना आ गया। पर कुछ बस में नहीं था। वैसे भी मेरा घर बिजनौर की पुरानी आबादी में है।पुरानी आबादी में खुुला स्थान होता कहां है। घर से सटा मंदिर तो है ।  उसमें कुछ जगह भी है किंतु उसके चारों ओर तो ऊंंचे- ऊंचे भवन है। मैं  बहुत तनाव में था कि कैसे कंरू ,  अब क्या होगा? उधर घर के अंदर से पत्नी की आवाज आई। ये बच्चे तो उठ ही नही  रहें। क्या करू?
क्या जवाब देता । इस दौरान पड़ौसी भी निकल आए। हरेक का अपना  तजुर्बा। अपना अनुभव।लगे बतियाने।  अपनी- अपनी बीती सुनाने ।
मैं तो सब कुछ  कुछ प्रकृति पर  छोड़ में भी घर में आकर पलंग पर लेट गया। सवेरे पता चला रात में भूूकंप ने उत्तराचंल में प्रलय ला  दी है।
प्रलय मैने कभी देेखी नहीं। बस इतिहास की किताबों में उसे  जरूर पढ़ा है। मै समझता हूं कि गढ़वाल का 91 का भूकंप, सूनामी की समुद्र तट क्षेत्र में तबाही और केदारनाथ आपदा अलग- अलग रूप में प्रलय ही तो थीं।प्रलय भी ऐसी ही होती होगी।
अशोक मधुप