Sunday, December 19, 2010

ब्रह्म स्वरूप बेदिल

ब्रह्मस्वरूप बेदिल की पुण्य तिfथ 
हिंदी, उर्दू, फारसी का तालमेल ‘बेदिल साहब



धामपुर। ब्रह्म स्वरूप बेदिल फक्कड़ व्यक्ति का नाम है, जो कविता और दोस्ती के लिए प्रसिद्ध रहा।
बेदिल साहब की धामपुर में कपडे़ की दुकान और अखबारों की एजेंसियां थी। सबेरे अखबार बांटने निकलते तो कब लौटे ये किसी को पता नहीं होता था। कोई कवि या शायर मिल जाए तो फिर तो राम ही मालिक है कि कब वापसी हो। नया शेर या कविता तो कई बार अखबार के खरीदारों के हिस्से में भी आ जाती थी।
बेदिल साहब पूरी तरह मस्त थे। खुलकर हंसते थे। अपनी कविता या शेर कहकर खुद ही जोर से हंस पड़ते थे। पान खाने के इतने शौकीन थे कि उनके मुंह में हर समय पान रहता था और अधिकतर बात करते समय पान का पीक मुंह से बहकर गालों पर आ जाता था। बेदिल की शिक्षा कोई ज्यादा न थी किंतु स्वाध्याय के बूते पर उनका हिंदी, उर्दू और फारसी में बड़ा दखल था, तीनों भाषाओं के शब्द उनकी रचनाओं में जगह-जगह प्रयोग भी हुए हैं। 16 जुलाई 1917 में जन्में बेदिल का 19 दिसंबर 1991 में निधन हुआ। आज उनकी बीसवीं पुण्य तिथि है, किंतु ऐसा उनके चाहने वालों को नहीं लगता कि बेदिल हमारे बीच नही हैं।
नहटौर के जैन विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य के दौरान प्राय:  अधिकतर शाम धामपुर की गलियों में कवियों और शायरों के साथ घूमते गुजरती थीं। उन्हीं अनेक शाम के मेरे साथी बेदिल भी रहे। उनकी मस्ती उनका अंदाज-ए-बयां मै आज तक नहीं भूल पाया। कभी धामपुर जाता हूं तो ऐसा लगता है कि जाने किधर से बेदिल निकल कर आएंगे और कंधे पर हाथ मार शेर सुनाने लगेंगे। उनकी बीसवीं पुण्य तिथि पर उनके कुछ कता, शेर श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैं।
- वक्त रुकता नहीं है, रोके से,
घी निकलता नहीं है, फोके से। उनको कुछ और ही बनाना था, आदमी बन गया है धोके से।
- जिंदगी एक चराग है बेदिल,
इसमें सांसों का तेल जलता है। सांस पूरे हुए बुझी बाती,
इसमें धुआं नहीं निकलता है।
- यू तो सब अपनी अपनी कहते हैं,
भेद दुनिया का कौन पाता है।
एक मेला सा लग रहा है यहां,
एक आता है, एक जाता है।
- जिंदगी और मौत बस एक ही लिबास,
एक पहना एक उतारा, धर दिया।
आदमी है किस कदर का बदहवास,
जो भी पहना वो पुराना कर दिया।
- मत बिठाना, मत उठाना मुझको दोस्त,
खुद ही आ जाऊंगा मैं, खुद ही चला जाऊंगा।
- यों तो दुनिया तमाम उनकी है,
एक हमीं गैर है किसी के लिए।
प्रस्तुति : अशोक मधुप’


Saturday, December 18, 2010

गोपाल दास नीरज से एक भेंट

हरेक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह...
‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’
स्
अशोक मधुप
बिजनौर।पद्य विभूषण गोपालदास नीरज गीतों की दुनिया और हिन्दी साहित्य का जाना माना नाम है। उनकी गजल और दोहे साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है। नीरज जी के एक कार्यक्रम में आने की सूचना पर उनके साक्षात्कार को जब नजीबाबाद रोड स्थित डॉ निरंकार सिंह त्यागी के आवास पर पहुंचा तो नीरज एक कमरे में रजाई में आराम कर रहे थे। उनके पलंग के पास उनका वाकर रखा था। 86 साल की उम्र में आज वे इसके सहारे चलते हैं।इस तरह शुरू हुआ प्रश्नोत्तर का सिलसिला
प्रश्न : नीरज जी कविता लिखनी कब शुरू की?
उत्तर: माँ बचपन में गुजर गई थी। एटा में मै अपनी बुआ के यहां रह कर पढ़ता था, गाने का शौक था तथा अच्छा गाने के कारण साथी और परिचित मुझे सहगल कहकर पुकारते थे। वहां एक कवि सम्मेलन में मैने बलबीर सिंह रंग को काव्य पाठ करते सुना। रंग अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे। वे अपने गीत गाकर पढ़ते थे। उनसे प्रभावित होकर ही मैने कविता लिखनी शुरू की। मेरी पहली कविता है-
मुझको जीवन आधार नहीं मिलता,
आशाओं का संसार नहीं मिलता
एटा में जागरण नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र निकलता था उसके सम्पादक कुंवर बहादुर बेचैन ने यह कविता अपने अंक में छपवाई थी। उस कविता को लंबे समय तक मै सीने से चिपकाए घूमता रहा। मुझे हरिवंश राय बच्चन की पुस्तक निशा निमंत्रण पढ़ने को मिली।जीवन से निराशा थी ऐसे में कविता पाठ लिखना शुरू कर दिया और संघर्ष नाम की पहली पुस्तक 1943 में प्रकाशित कराई। इस पुस्तक को निशा निमंत्रण को समर्पित किया। धीरे-धीरे कविता लिखते रहे, किन्तु अपना रास्ता अलग बनाया। बच्चन जी की कविता में लक्षण व्यंजनाओं का अभाव है। दिन जल्दी जल्दी ढलता है सीधी कविता है। मैने प्रेम को देखा। उसके के लिए सदा नई परिभाषा गढ़ी।
गीत लिखा: कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे, जिन्दगी मैंने गुजारी नहीं सभी की तरह,
हरेक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह।
तुम्हारी याद जो ता उम्र मेरे साथ रही,
छुपा है रखा उसे, ख्वाबे आखरी की तरह।
लोग मुझे शृंगार का कवि कहते हैं लेकिन मैं शृंगार का कवि नहीं, एक दार्शनिक कवि हूं। कुछ विद्वान कहते हैं कि दर्शन कविता के लिए नहीं हैं जबकि मैं कहता हूं कविता दर्शन के बिना नहीं हो सकती।
आज जी भर देख लो तुम चांद को क्या पता यह रात फिर आए न आए। यहां दर्शन है।
प्रश्न: आपने ज्योतिष पर भी काफी लिखा है?
उत्तर: ज्योतिष एक विज्ञान है। इस संसार में कोई स्थिर नही है। सूर्य चांद तारे ही नहीं चल रहे। हर चीज लय में चल रही है। नदी लय में चल रही है। हमारा रक्त लय में चल रहा है। इसी पर ज्योतिष केंद्रित है।
चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनते ही कह दिया था कि 30 को कुछ गड़बड़ हो जाएगी। हुआ भी ऐसा हीं। यह संक्रांति काल था। इसमें गड़बड़ होती ही है। ज्योतिष में तीन पुस्तकें लिखी, किन्तु परिचितों ने कहा कि यह तुम्हारा विषय नहीं समय बरबाद मत करो। और मैं अपने रास्ते पर आ गया।
प्रश्न: अपने विशाल साहित्य में अपनी सर्वश्रेष्ठ कविता कौन सी मानते हैं?
उत्तर:
कविता बच्चों की तरह है। आदमी को अपने सभी बच्चे प्यारे होते हैं, कोई ज्यादा प्यारा या कम प्यारा नहीं। किन्तु मैने मां संबोधन से चार पांच कविताएं लिखी हैं इन्हें मैं सर्व श्रेष्ठ मानता हूं। दो वर्ष मेरे अवसाद में बीते एक तरह से विक्षिप्त की तरह जीवन जिया। लगता था कि मां मुझे बुला रही हैं। कहती है तुम परेशान हो मेरे पास आ जाओ ऐसे में मैने लिखा:
मां मत ऐसे टेर की मेरा मन अकुलाए। ,तू तो दे आवाज वहां से, यहां न मुझसे बजे बांसुरी।
तू डाटे उस ठौर, चढ़ाए यहां हर एक फूल पांखुरी, तेरा करु न तो तू बिगडे़, जग की सुनु न तो वह झगडे़।
समझ में नहीं ंआता कि इस पार जाऊं या उस पार।
प्रश्न: नीरज अगर कवि नहीं होते तो क्या होते
उत्तर:
क्लर्क होता, काफी समय क्लर्की की है। उसी समय की लिखी पुस्तक संघर्ष है।
प्रश्न: आप अपनी परिभाषा क्या कहेंगे?
उत्तर:
नीरज के दो रूप हैं एक : कमल और दूसरा मोती मैं अपने आपको कमल मानता हूं जो गंदगी में रह कर भी उससे दूर रहता है।
प्रश्न: आप और संतोषानन्द जैसे कद्दावर कवि गीतकार फिल्मों में गए किन्तु वहां से चले क्यों आए?
उत्तर:
नीरज: मैं फिल्मी दुनिया में गया नहीं बुलाया गया था आज भी बुलाया जाता हूं। मेरे गीतों की
पिक्चरों ने सिलवर जुबली मनाई। खूब चली मैरे लिखे गीत आज भी गुन गुनाए जाते हैं। राज कपूर, शंकर जयकिशन मेरे साथी थे। एस डी वर्मन ने मेरे गीत खूब गाए। फिल्मी दुनिया में राजनीति की जोड़ तोड़ चलता है, मैं यह सब नहीं कर सकता इसीलिए लौट आया।
प्रश्न: आज के फिल्मी गीतों ्रकुछ कहें?
उत्तर:
आज के गीत पचास शब्दों में ही सिमटे हैं उसमें भाव नहीं हैं।
प्रश्न: पुराने समय के कवि सम्मेलन और आज के कवि सम्मेलन में क्या फर्क है?
उत्तर: पहले कवि सम्मेलन की अध्यक्षता जाने माने कवि मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, निराला एवं महादेवी वर्मा आदि करते थे आज राजनेता करते हैं। आज तो मंच से कविता ही नहीं कही जा रही।
प्रश्न: आज हिंदी कवि भी गजल लिख रहे हैं क्या कारण हैं?
उत्तर:
गजल लिखना बहुत सरल है उसकी हर दो पंक्तियां अपने में अलग होती है। विपरीत भाव भी हो सकते हैं किन्तु गीत में ऐसा नहीं हैं। गीत में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक भाव नहीं बदल सकता। गजल उर्दू की विद्या है गीत हिंदी की। हिंदी में गजल लिखना बहुत कठिन हैं वह भाव ही नहीं आ सकता। मुगल शासन में उर्दू कोर्ट की भाषा बनी। उर्दू दरबारी भाषा बनी तो हिंदी गांव खेत और खलिहान की ओर चली गई।
गजल का अर्थ प्रेमिका से बात करना है। प्रेमिका से बात आंखों से ज्यादा होती है। होंठों से कम। संकेत भाषण नहीं हो सकते। इसी में अध्यात्म आ जाए तो अच्छा हो जाता है।
खुशी भी नहीं, बेखुदी भी नहीं हैं,
चले आइए अब कोई भी नहीं है।
हम तेरी याद में ए यार वहां तक पहुंचे
होश ये भी न रहा कि कहां तक पहुंचे
कौन ज्ञानी , न ध्यानी, न ब्राह्मण, न शेख
वो कोई और थे जो तेरे मंका तक पहुंचे।
अंदाज-ए नीरज
Amar Ujala Meerut me 18 me prakashit

Friday, December 17, 2010

कवि गोपाल दास नीरज की नसीहत

 रामदेव अपना काम करें, राजनीति नहीं
अशोक मधुप
बिजनौर।प्रसिद्घ कवि पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज ने कहा है कि स्वामी रामदेव को अपना काम करना चाहिए, राजनीति नहीं। वे अपना काम सही ढंग से करते रहें, यही बहुत बड़ा काम होगा।
एक कार्यक्रम में भाग लेने आए नीरज ने एक लंबी भेंट में कहा कि गड़बड़ तभी होती है, जब आदमी में स्वाभिमान आ जाता है। आज स्वामी रामदेव की हालत भी ऐसी ही है। उन्होंने कहा कि आज गड़बड़ यहीं हो रही है कि सब दूसरे को सुधारने पर लगे हैं, अपने को नहीं। अपने को सुधार लें तो कोई समस्या हीं न हो। आज सब दूसरे को बुरा कह रहे हैं।
कवि नीरज कहते हैं कि हम तो लंबे समय से कवि सम्मेलन के माध्यम से लेगों को पूरी पूरी रात जगाने में लगे हैं किंतु कोई जागता ही नहीं। बस कविता सुनते समय ताली बजाकर काम खत्म कर देते हैं । वे कहते है कि आज सब धन कमाने में लगे हैं। चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। राजनीति जनसेवा का माध्यम थी, इसी तरह धर्म और चिकित्सा जनकल्याण के लिए थे किंतु सब उलट गया। अब सब धन बनाने में लग गए हैं। हालांकि जीवन में पैसा भी बहुत जरूरी है, किंतु जिस तरह से जितना पैसा अर्जित किया जा रहा है, वह गलत है। अर्थजीवन का माध्यम होना चाहिए, लक्ष्य बन जाना ठीक नहीं हैं। आज जो हो रहा है, वह पतन की चरम सीमा है।
देश के हालात पर नीरज चिंतित हो उठते हैं। वे कहते हैं कि आज जो चल रहा है, वह देश की गुलामी का कारण बनेगा। विदेशी उद्योग का तेजी से देश में आना खतरनाक है। इससे हमारे उद्योग धंधे बंद हो रहे हैं। वे देश में बढ़ती चोरी डकैती के लिए जनसंख्या वृद्घि को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि जनंसख्या वृद्घि को रोकेबिना देश का विकास संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रति वर्ष दो लाख दस करोड़ बच्चे जन्म ले रहे हैं, इनमें से साठ लाख प्रतिवर्ष मर जाते हैं। इसके बारे में कोई नहीं सोच रहा है। वोट के चक्कर में सब देश क ो बरबाद करने पर तुले बैठे हैं। 
 Amar Ujala me 17 december me prakashit

Tuesday, December 14, 2010

25वें वर्ष में अमर उजाला ने किया प्रवेश, सम्मानित हुए कई हमसफर

सच के जोश के साथ मनी रजत जयंती

12 dicmeber 2010
मेरठ। यह सिर्फ गर्व और संतोष का मौका नहीं था। यह मौका था उत्साह के साथ झूमने-गाने के साथ ही उन पलों को याद करने का भी जिन पलों में ‘अमर उजाला’ ने पूरी शिद्दत के साथ सच का साथ दिया और जिनकी बदौलत उसने सफलतापूर्वक अपनी स्थापना के 25 साल पूरे किए। मोहकमपुर स्थित संस्थान कार्यालय में रविवार को आयोजित रजत जयंती समारोह में दिन भर रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए। इस मौके पर संस्थान ने उन ‘हमसफरों’ को भी सम्मानित किया जो तमाम अच्छे-बुरे हालात में अडिग ‘अमर उजाला’ के साथ बने रहे।

समारोह में प्रकाशन क्षेत्र के विभिन्न शहरों और इलाकों से आए लोगों ने अमर उजाला से जुड़े अपने संस्मरण सुनाए। साथ ही ऐसे कई किस्से सुनाए जिसने साबित किया कि कैसे ‘अमर उजाला’ ने निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए किसी के सामने न झुकने का अपना व्रत बनाए रखा। चाहे वह 1987 के दंगे रहे हों या फिर रामपुर का लाठीचार्ज। समारोह में ‘अमर-उजाला’ के स्थानीय संपादक सूर्यकांत द्विवेदी, महाप्रबंधक भवानी शर्मा, वरिष्ठ समाचार संपादक सुनील शाह ने ‘अमर उजाला’ के मेरठ संस्करण के प्रकाशन के समय से ही जुड़े रहे लोगों को उपहार और नारियल देकर सम्मानित किया।

सम्मानित लोगों में नगीना से अशोक कुमार जैन, हल्दौर से राजेंद्र सिंह, कालागढ़ से माहेश्वरी ब्रदर्स, धामपुर से दिनेश चंद्र अग्रवाल, मोरना से राजेंद्र राठी, जानीखुर्द से राकेश कुमार जिंदल, धामपुर से नवीन न्यूज एजेंसी, रामपुर मनिहारन से सतीश कुमार सचदेवा, छुटमलपुर से अशोक न्यूज एजेंसी, मोरना से गुढ़ल न्यूज एजेंसी, दबथुआ से रामफल गुप्ता, जानीखुर्द से जिंदल न्यूज एजेंसी, मुजपफरनगर से देवेंद्र खबरबंदा, मेरठ से रामभरोसे गुप्ता, रफीक अहमद, राजेंद्र मौर्या, रामटेक शर्मा, सईद अहमद, अशोक प्रियरंजन, अशोक मधुप, ललित पुनैठा, संजय शर्मा, इंद्रपाल मवाना के राजपाल राजू शामिल रहे।

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सतरंगी रंगों में रंगा कार्यालय

25वीं सालगिरह पर पूरा अमर-उजाला कार्यालय सजावट के रंगों में रंगा। प्रत्येक विभाग ने थीम बेस्ड सजावट कर अपने कार्यालय को सजाया। फूलों और गुब्बारों से कार्यालय को सजाया गया। संपादकीय विभाग ने चित्रों पर प्रेरणास्पद संदेश लिखकर लोगों को कर्मठता, ईमानदारी, आत्मविश्वास, प्रेरणा के संदेश दिए। लाइब्रेरी विभाग ने समाचार पत्र का पहला संस्करण लगाकर पुरानी यादें ताजा कीं। तकनीकी विभाग ने 25वीं सालगिरह की थीम लेकर फूलों से खास सजावट की। भारतीय संस्कृ ति और शैली को ध्यानार्थ करते हुए कार्यालय को मोरपंख से सजाया।

25वीं सालगिरह के अवसर पर कार्यालय में खास रंगोली सजाई गई। विभागों की फिमेल कार्यकर्ताओं ने फूल, कुट्टी और रंगों के सामंजस्य से पारंपरिक रंगोली बनाई। फूल, गणेश, दीपक और बेल के डिजायन वाली रंगोली ने पूरे कार्यालय की शोभा बढ़ा दी।

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कंप्यूटर पर भी छाया

सिल्वर जुबली समारोह में सभी लोग भाग ले रहे थे। कार्यालयीन सजावट के साथ कंप्यूटर्स पर भी अमर-उजाला छाया रहा। डिजायनर मुकेश ऋषि ने खास स्क्रीन सेवर बनाया। जो सभी कंप्यूटर्स पर देखने मिला।








मोहकमपुर स्थित अमर उजाला कार्यालय में 25वीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम में केक काटते अशोक मधुप, नवीन कुमार, और इंद्रपाल।

Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेष

मेरा यह लेख अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेष पर मेरठ के सभी संसकरण में छपा है
सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल
हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित
अमर उजाला सदैव सत्य का पक्षधर रहा है। चाहे उसके पत्रकारों को एनएसए लगाकर जेल डालने का प्रयास किया गया हो या फिर सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों की हत्या की गई हो, अमर उजाला के कदम हर मुश्किल वक्त में निर्बाध रूप से आगे बढ़ते रहे। 24 वर्ष के स्वर्णिम सफर में समाज को जागरूक करने के साथ-साथ अमर उजाला अपने अंदर भी कई बदलाव लाया है। इस सफर में अमर उजाला को कई खट्टे-मीठे उतार चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा है।
अमर उजाला मेरठ के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उत्तरांचल के साथी उमेश डोभाल की वहां के शराब माफियाओं ने हत्या कर दी, तो एक रात आफिस से कार से घर लौटते समय ट्रक से टकराने पर डेस्क के साथी नौनिहाल शर्मा काल के गले में चले गए। अमर उजाला के गंगोह के साथी राकेश गोयल पर प्रशासन के विरुद्ध खबर लिखने पर एनएसए लगी। भाकियू के आंदोलन में स्वामी ओमवेश के साथ लेखक को भी एनएसए में निरुद्ध करने का प्रयास किया।
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सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल
हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित


बिजनौर में बरेली से अमर उजाला आता था। बरेली की दूरी ज्यादा होने के कारण समाचार समय से नहीं जा पाते थे। सीधी फोन लाइन बरेली को नहीं थी। कभी मुरादाबाद को समाचार लिखाने पड़ते तो कभी लखनऊ को। एक-दो बार दिल्ली भी समाचार नोट कराने का मौका मिला। ऐसे में तय हुआ कि बिजनौर को सीधे टेलीपि्रंटर लाइन से जोड़ा जाए। इसके लिए कार्य भी प्रारंभ हो गया। एक दिन श्री राजुल माहेश्वरी जी का फोन आया कि टीपी लाइन बरेली से नहीं मेरठ से देंगे। वहां से नया एडीशन शुरू होने जा रहा है।
मेरठ में कहां, क्या हो रहा है?, यह जानने की उत्सुकता थी तो मै और मेरे साथी कुलदीप सिंह एक दिन बस में बैठ मेरठ चले गए। मेरठ में वर्तमान आफिस की साइड में पुराना आफिस होता था। उसके हाल में एक मेज पर राजेंद्र त्रिपाठी बैठे मिले। राजेंद्र त्रिपाठी ने पत्रकारिता बिजनौर से ही शुरू की थी, इसलिए पुराना परिचय था। उन्होंने मेरठ के प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी दी और पूरी यूनिट लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
12 दिसंबर 1986 का दिन आया और समाचार पत्र का पूजन के साथ शुभारंभ हुआ। बिजनौर के लिए समाचार पत्र नया नहीं था। पूरा नेटवर्क भी बना था सो परेशानी नहीं आई। बिजनौर में समाचार पत्र लाने-ले जाने के लिए बरेली की ही टैक्सी लगी। बिजनौर-बरेली रूट पर एंबेसडर गाड़ी लगी । इसका चालक लच्छी था। कई दिन उसके साथ अखबार मेरठ से लाना पड़ा। फरवरी 87 में हरिद्वार लोकसभा क ा उपचुनाव हुआ। चूंकि अमर उजाला का नेटवर्क पूरी तरह नहीं बना था, इसलिए मुझे उस चुनाव का कवरेज करने के लिए भेजा गया और मैने पूरे चुनाव के दौरान रुड़की और हरिद्वार से चुनाव कवरेज भेजी।
तब टाइपराइटर से अखबार छापा गया
अमर उजाला मेरठ को इन 24 साल में कई खट्टे-मीठे अनुभव का सामना करना पड़ा। पहले समाचार टाइप होते । उनके पि्रंट निकलते और उन्हे पेज के साइज के पेपर पर चिपकाया जाता था। अब यह काम कंप्यूटर करता है। समाचार के पि्रंट निकालने के लिए दो पि्रंटर होते थे। एक पि्रंटर खराब हो गया। उसे ठीक करने इंजीनियर दिल्ली से आया किंतु वह खराबी नहीं पकड़ पाया। उसने खराब प्रिंटर को सुधारने के लिए चालू दूसरे प्रिंटर को खोल दिया, जिससे चालू प्रिंटर भी खराब हो गया। ऐसे में समस्या पैदा हो गई कि कैसे अखबार निकले? तय किया गया कि खबरें टाइपराइटर पर टाइप करवाई जाएं। सो कुछ पुरानी खबरें , कुछ इधर-उधर से आए समाचार लगाकर अखबार निकाला गया। इस अंक की विश्ेष बात यह रही कि इसमें अधिकतर खबरें और उनके हैडिंग टाइपराइटर से टाइप किए थे।
आग भी नहीं रोक पाई संस्करण को
ऐसे ही एक रात शॉर्ट सर्किट से अमर उजाला मेरठ के कार्यालय में आग लग गई । करीब सौ कंप्यूटर जल गए। ऐसी हालत में अखबार निकालना एक चुनौती थी। किंतु अगले दिन का अंक पूर्ववत: निकला और अखबार पर इस घटना का कोई असर दिखाई नहीं दिया। अमर उजाला का विस्तार क्षेत्र कभी गाजियाबाद नोएडा दिल्ली, बुलंदशहर और पूरे गढ़वाल में था। प्रसार बढ़ने के साथ नए-नए संस्करण निकलते चले गए।
श्याम-श्वेत से रंगीन तक का सफर
24 साल में अमर उजाला में बहुत परिवर्तन आया आठ पेज का अखबार आज औसतन 20 पेज पर आ गया। श्याम-श्याम में छपने वाला अमर उजाला आज पूरी तरह रंगीन हो गया। पहले स्थानीय महत्वपूर्ण समाचार अंतिम पेज पर छपते थे और बाकी उसी के पिछले के पेपर पर छपती थी। इसके बाद पेज पांच से स्थानीय समाचार छपने लगे और अब ये पेज दो से शुरू होने लगे। अनेक प्रकार के झंझावात और परेशानी को झेलते हुए अमर उजाला मेरठ 25 साल में प्रवेश कर रहा है। किंतु वह अपने रास्ते से नहीं भटका। जनसमस्या उठाने से कभी मुंह नहीं मोड़ा। समय के साथ कदम से कदम मिलाने में कभी झिझक नहीं महसूस की। समाचार पत्र नए जमाने के तेवर और तकनीक से तालमेल बनाने के प्रयास हमेशा जारी रहे।
अशोक मधुप


Saturday, December 4, 2010

सबसे अलग

 जांबाजों का गांव
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         बिजनौर जनपद के नूरपुर थाने के अंतर्गत अस्करीपुर गांव का इतिहास भी अजीब-ओ-गरीब है। यहां के लोगों ने जब गोरों का साथ दिया, तो पूरी निष्ठा के साथ और जब महात्मा गांधी के आह्वान पर विरोध पर उतरे, तो अंगरेज सरकार की नाक में दम कर दिया।
मुरादाबाद-नूरपुर मार्ग पर मुरादाबाद से लगभग 35 किमी और मेरठ से लगभग 145 किमी की दूरी पर स्थित है अस्करीपुर। गांव के पुराने लोग बताते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंगरेजों की ओर से गांव के नौजवानों ने जर्मनी के विरुद्ध लड़ाई में हिस्सा लिया था। उनमें से एक शहीद भी हो गया। गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक पत्थर लगा है, जिस पर अंगरेजी में लिखा है-अस्करीपुर, इस गांव के दस व्यक्तियों ने 1914 से 1919 के ‘गे्रट वार’ में भाग लिया था और एक ने बलिदान दिया।
लेकिन 1942 में महात्मा गांधी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करने पर इस गांव के युवक अंगरेज सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पूरी ताकत से जुट गए। गांव में गुप्त सभाएं होती थीं और अंगरेजों को देश से खदेड़ने की नीतियां बनती थीं। आंदोलनकारियों ने तय किया कि 16 अगस्त, 1942 को नूरपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाएगा। इसके लिए पहली रात नूरपुर को जोड़ने वाले सभी मार्गों पर गड्ढे खोदकर उन्हें बंद कर दिया गया, ताकि अन्य स्थानों से गोरी पुलिस नूरपुर न पहुंच सके। रिक्खी सिंह एवं हरस्वरूप सिंह के नेतृत्व में आजादी के हजारों दीवानों ने 16 अगस्त को नूरपुर में एक जुलूस निकाला। थाने पर तिरंगा फहराते समय रिक्खी सिंह ब्रिटिश पुलिस की गोली से जख्मी हो गए थे, जिन्होंने जेल ले जाते समय अम्हेड़ा के पास दम तोड़ दिया। पड़ोसी गांव गुनियाखेड़ी के निवासी परवीन सिंह गोली लगने से मौके पर ही शहीद हो गए थे।
गांव के अनेक नामदर्ज लोगों के पकड़े न जाने पर अंगरेज सरकार ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर गांव पर सामूहिक रूप से तीन सौ रुपये का जुर्माना लगाया। आजादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण इस गांव पर गोरी सेना ने बर्बर जुल्म किए। गांव वालों पर अत्यधिक जुल्म होते देख आजादी के दीवानों की ओर से जनपद में एक परचा बंटवाकर गोरे अधिकारियों से कहा गया कि नूरपुर थाने पर झंडा फहराने में उनका हाथ है। तब जाकर गांव पर गोरी सरकार की ज्यादती रुकी। आजादी के बाद जब जुर्माने की रकम गांव वालों को लौटाई गई, तो उन्होंने इस पैसे को पास के गांव गोहावर में बने संपूर्णानंद इंटर कॉलेज में लगाया। आज की पीढ़ी भले ही इस गांव के इतिहास से अनभिज्ञ हो, किंतु इतिहास के पन्नों में इस गांव की जांबाजी और बलिदान की कहानी दर्ज है।
अशोक मधुप