Tuesday, September 10, 2013

स्व.मौलवी अब्दुल लतीफ गांधी

मेरी यह स्टोरी आज १० सिंतबर के  अमर उजाला में छपी है। मूल स्टोरी इसके साथ में दी  गई  है


कभी दोनों संप्रदाय के लोग साथ मनाते थे त्योहार प्रसिद्ध राजनेता स्व.मौलवी अब्दुल लतीफ गांधी ने अपनी आत्म कथा में किया जिक्र कहा, होली पर दोस्तों ने पिला दी थी भांग
बिजनौर, आज मुजफ्फरनगर, सांप्रदायिक आग में जल रहा है। आसपास के कई जनपद सामाजिक उनमाद की चपेट में हैं। आजादी से पहले और बाद तक भी ये हालात नहीं थे। बिजनौर जनपद में दोनों समुदाय के लोग आपस में प्रेम से रहते थे। आजादी के बाद जनपद के पहले एमएलए और बाद में सांसद रहे स्व.मौलवी अब्दुल लतीफ गांधी ने इसका जिक्र अपनी आत्मकथा ' लतीफ की कहानी में किया है। स्व.मौलवी अब्दुल लतीफ जनपद के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व राजनीतिज्ञ रहे। उनके व्यवहार के कारण उन्हें गांधी कहकर बुलाया जाने लगा। और अब्दुल लतीफ अब्दुल लतीफ गांधी बन गए। पंडित जवाहर लाल नेहरू से उनकी दोस्ती थी। वे पंडित नेहरू के साथ आजादी की जंग में देहरादून जेल में रहे। नेहरू जी के कहने पर १९४१ में बिजनौर के पालिकाध्यक्ष पद से भी इस्तीफा दे दिया था। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने स्व.मौलवी अब्दुल लतीफ गांधी ने उनको ख्वाजा बिजनौरी का खिताब दिया था। आजादी के बाद स्व. गांधी १९५२ में जनपद के पहले विधायक बने। १९५७ में वे सांसद बने। ६४ के बाद राजनीति से संन्यास ले लिया। अब्दुल लतीफ गांधी की हिंदुओं से खूब दोस्ती थी और वे हिंदू धर्म के त्योहारों में भी शिरकत करते थे। उन्होंने अपनी किताब लतीफ की कहानी में लिखा है - शिक्षा प्राप्त करने का समय भी कितना सुखद होता है। इसका वर्णन करना अत्याधिक कठिन है। होली का त्यौहार आता तो हम खुशी से पागल हो उठते। एक दूसरे के घर जाते, रंग और गुलाल से सब भीग जाते। संध्या के समय ----- टोलियां घर पर आती, देर तक वे नाचते और गाते रहते और अंत में वालिद साहब से दो रूपए तथा एक गुड़भेली लेकर प्रसन्नता से घर लौटते। ठीक इसी तरह से दीपावली का त्यौहार मनाते थे। राजकीय पाठशाला में सब विद्यार्थी एकत्रित हो जाते, दीपकों की पंक्ति सजाते और ऐसा सोचते मानो जन्नत की सारी खुशियां केवल हमारे ही लिये बनाई गई है। हमारे घर पर रोशनी का विशेष प्रबंध रहता था। सत्य बात तो यह है कि हमारे घर वालों का यह प्रयत्न रहता था कि सबसे अधिक सुंंदर प्रकाश उनके घर पर ही हो और होता भी यही था। मौलवी साहब के घर पर रोशनी देखने के लिए लगभग सभी आते थे। मुझे बचपन की एक घटना स्मरण हो आई है। होली का अवसर था। मेरे मित्रों ने जिनमें प्यारेकिशन सुखिया, मनमोहननाथ और मनोहरलाल गुप्ता प्रमुख थे। मुझे धोखे से भंग पिला दी। मेरा बुरा हाल था। कई दिन तक मैं घर बेहोश पड़ा रहा ,परंतु मेरे वालिद साहब ने मुझे और मेरे मित्रों को कुछ भी नहीं कहा। आज भी जब उन बातों को याद करता हूं तो मेरा हृदय दुख से भर जाता है। कहा गई वह सभ्यता और कहा तिरोहित हो गया वह स्नेह? काश वे पुरानी परम्परायें, सभ्यता, मेल मिलाप के रिश्ते फिर से इस देश में लौट आए। ठीक इसी प्रकार हिंदू मित्र ईद, बकरईद, शब्बरात त्यौहारों को हृदय से मनाते थे। पृथकता की भावना का जन्म राजनैतिक कार्यो का परिणाम हो सकता है। पर इस प्रवृत्ति ने सामाजिक शांति को प्राय: नष्ठ सा कर दिया है।