Sunday, July 17, 2016

कुछ मन की


कुछ मन की
जीवन के साठ सौपान कब चढ़े गए पता ही नहीं चला। आज लगा कि जीवन की सांध्य बेला की और   खिसकाव शुरू हो गया। पारिवा‌रिक जिम्मेदारी पूरी होने को हैं।फिर भी  बहुत से काम बकाया हैं। कई कार्य  बाकी है। कई व्यक्तिगत  कार्य  के लिए समय हीं नही मिल रहा। कब मिलेेगा , कहा नहीं जा सकता।
अखबार नवीसी में आकर मेरा साहित्यकार जाने कहां खो गया। कवि जाने कहां चला गया। इस दौरान किसी का  शेर  बार बार दुहराता रहा-
अब तो ये भी भूल गया हूूूूं खुद को किस दिन भूला था,
 आप मुझे मुझसे मिलवा दें, बस इतना अहसान करें।
कुछ दोस्तों ,अग्रजों ,गुरूजनों ने कोशिश की । भटकाव के बाद सही रास्ता फिर दीखने लगा । कोशिश फिर शुरू कर दी। आगाज तो अच्छा है। अंजाम क्या होगा, यह समय बताएगा।
शुभकामनाओं के लिए हा‌र्दिक आभार।
अशोक मधुप

Monday, July 11, 2016

मत बनाओ ऐसे चित्र

लगभग  चार दशक बाद फिर कुछ लिखने का मन हुआ।
कैसा लिखा ये आप बताएंगे

मत बनाओ ऐसे चित्र

मत बनाओ ऐसे चित्र ,पेंटिग ,
अट्टालिकांएऔर भवन, 
जिन्हे देख देखकर लोग दांतों तले उंगली दबाए,
प्रशंसां करें। उपहार दें।
इसके बाद कटवा  दें  तुम्हारे  हाथ।
ताकि दुबारा न बना सको तुम ,नया ताजमहल 
 किसी राजा के प्यार की यादगार में ।
बनाओ, तो बनाओ ऐसे झोंपड़े,
जिसमें रहकर बरसाती पानी गर्मी सर्दी से बचा जाए।
आम आदमी आसानी से गुजारे अपना कष्ट प्रद जीवन।
- बनाओ तो बनाओ ऐसे  चित्र 
जिसमें किसी राजा के प्यार की याद नहीं,
आम आदमी के सपने हों,
नई  आशांए हो,
 कठोर जीवन पथ पर चलने का विश्वास हो।
-कहानी लिखो तो ऐसी 
जिसमें विदेश में जा बसे बेटे को 
गांव में रहने वाली उसमी मां की याद आ जाए।
याद आ जाए कि उसकी मां 
डयोढ़ी पर बैठी उसका इंतजार कर रही होगी।
-कविता लिखों तो  ऐसी कि विदेश में बैठे बेटे को 
याद आ जाए कि दरवाजे पर बैठकर आज भी उसकी मां 
उस रास्ते का निहारती रहती है, 
जिससे उसका बेटा
 अपने सपने और भविष्य सवारनें 
 के लिए गया था सात समुन्दर पार,
 और मां जाने कैसे रोक पाई थी अपने आंसू।
-करो तो कुछ ऐसा कि लोग अपने गम भूल कर दो पल मुसकरांए।
गाए, नाचे।खुशी मनांए
-अशोक मधुप