Tuesday, November 25, 2025

प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक राधेश्याम कथावाचक

 न्म: 25 नवंबर 1890, बरेली, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 26 अगस्त 1963 (लगभग 73 वर्ष की आयु)

भारतीय धार्मिक कथा परंपरा में अनेक वक्ताओं ने अपनी वाणी, विद्वता और मनोहर प्रस्तुति से जन-मानस को प्रभावित किया है, लेकिन जिन कुछ नामों ने कथा-शास्त्र को नयी गरिमा और व्यापक लोकप्रियता प्रदान की, उनमें राधेश्याम कथावाचक का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने केवल कथा सुनाई नहीं, बल्कि उसे जीवंत कर दिया। उनके कथन में अध्यात्म की गहराई, भक्ति की सुवास, साहित्य की मधुरता और संस्कृति की जड़ों से निकली निष्कपट सरलता एक साथ दिखाई देती है। वे कथा को मनोरंजन या प्रवचन मात्र नहीं, बल्कि भाव-जागरण, सामाजिक सुधार और आत्म-चिंतन का माध्यम मानते थे। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें अपने समय का अत्यंत प्रभावशाली कथावाचक बनाया।

राधेश्याम कथावाचक प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक थे जिसमें रामायण, भागवत पुराण, शिवपुराण और देवी भागवत जैसी महान ग्रंथों का सरस वर्णन होता है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे शास्त्रों की विद्वता को सरल भाषा में ढालकर आम जन तक पहुँचाने में सर्वथा सक्षम थे। सामान्य जन वेद-पुराणों के गूढ़ सिद्धांत आसानी से नहीं समझ पाते, परंतु राधेश्याम जी उन्हें रोज़मर्रा के उदाहरणों, जीवंत उपमाओं और सहज संवाद शैली में खोलकर प्रस्तुत करते थे। इसीलिए उनकी कथाओं में न केवल बुजुर्ग, बल्कि युवा वर्ग भी बड़ी संख्या में सम्मिलित होता था।

कथावाचन की कला में स्वर, भाव और पात्र-अभिनय अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। राधेश्याम कथावाचक इन तीनों तत्वों में निपुण थे। उनका स्वर इतना मधुर और भावपूर्ण था कि कथा की प्रत्येक घटना सुनने वालों के हृदय पर सीधी छाप छोड़ती थी। वे किसी प्रसंग को केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे पूरी आत्मा से जीते थे। जब वे राम वनवास का दृश्य सुनाते, तो ऐसा लगता मानो अयोध्या का समूचा वातावरण श्रोता सभा में उतर आया है। जब वे कृष्ण की बाल लीलाएँ वर्णित करते, तो बच्चे तक मंत्रमुग्ध हो जाते। कथा के विभिन्न पात्रों—जैसे कौशल्या, जनक, सीता, हनुमान, पात्र, गोपियाँ—के संवाद वे अलग-अलग आवाज़ और भाव से प्रस्तुत करते, जिससे दर्शकों को ऐसा लगता मानो वे स्वयं उस दृश्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हों।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का एक प्रमुख आकर्षण था उनका गहरी आध्यात्मिक अनुभूति से भरा हुआ दृष्टिकोण। वे केवल घटनाओं का वर्णन नहीं करते थे, बल्कि उनके भीतर छिपे चिरंतन संदेश को उजागर करते थे। उदाहरण के लिए, रामायण के प्रसंगों में वे बताते कि राम का चरित्र एक आदर्श पुरुष के रूप में क्यों महत्वपूर्ण है, उनकी नीतियाँ आधुनिक जीवन में क्या संदेश देती हैं, और कैसे उनके आचरण से वर्तमान सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। इसी प्रकार भागवत कथा में वे कृष्ण की लीलाओं में छिपे प्रेम, करुणा, समर्पण और धर्म-आधारित जीवन की शिक्षा पर विशेष बल देते थे। उनकी कथा में उपदेश नहीं, बल्कि अनुभूति होती थी; इसलिए लोग संदेश को सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे।

कथावाचन में उनका एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी था कि वे धार्मिक ग्रंथों को सामाजिक मूल्यों और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ते थे। उनका मानना था कि कथा का लक्ष्य केवल भक्ति जगाना नहीं, बल्कि समाज को सजग, नैतिक और संस्कारित बनाना भी है। इसलिए वे कथा के माध्यम से नशा-मुक्ति, शिक्षा, स्त्री-सम्मान, परिवार की एकता, युवा-सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी सहजता से जोड़ देते थे। वे कहते थे कि धर्म वही है जो समाज को उन्नति की ओर ले जाए, और अध्यात्म वह है जो मनुष्य को विनम्र और संवेदनशील बनाए।

राधेश्याम जी की कथाओं की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, वहाँ हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ग्रामीण क्षेत्र हो या महानगर, मंदिर हो या मैदान—हर जगह उनकी कथा सुनने वालों का उत्साह एक जैसा रहता था। वे मंच पर आते ही अपनी मधुर वाणी और सौम्य व्यक्तित्व से ऐसा वातावरण बना देते थे कि लोग कथा समाप्त होने तक अपनी जगह से हिलना भी नहीं चाहते थे। उनकी कथा की विशेषता यह भी थी कि वे दर्शकों के साथ गहरा संवाद स्थापित करते थे। वे बीच-बीच में श्रोताओं से प्रश्न पूछते, उदाहरण साझा करते और उन्हें आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करते।

उनके व्यक्तित्व का एक और अद्भुत पक्ष था उनकी सरलता और विनम्रता। लोकप्रियता के शिखर पर रहने के बावजूद वे स्वयं को एक साधारण कथाकार ही मानते थे। वे कहते थे कि “कथा मेरा नहीं, भगवान का काम है। मैं तो केवल माध्यम हूँ।” इस विनम्रता ने उन्हें और भी अधिक प्रिय बना दिया था। लोग उन्हें कथा-वाचक से अधिक एक सच्चे संत के रूप में देखते थे।

कथावाचन की परंपरा में राधेश्याम कथावाचक का स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने नई पीढ़ी के कथाकारों को प्रशिक्षित किया। वे अपने शिष्यों में कथा के शास्त्रीय स्वरूप के साथ-साथ उसकी सामाजिक और भावनात्मक संवेदना भरते थे। उनका जोर रहता था कि कथाकार केवल वक्ता न बने, बल्कि समाज के लिए एक पथ-प्रदर्शक हो। आज अनेक युवा कथाकार उनके मार्गदर्शन से प्रेरणा लेकर मंच पर सक्रिय हैं।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का सबसे बड़ा आधार उनकी साधना और धार्मिक अनुशासन था। वे प्रतिदिन नियमित पूजा, ध्यान और शास्त्र अध्ययन करते थे। वे मानते थे कि कथाकार की वाणी तभी प्रभावशाली हो सकती है जब उसका जीवन भी उतना ही पवित्र और संयमित हो। उनके जीवन की यह अनुशासनप्रियता उनकी कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती थी। यही कारण था कि वे कथा सुनाते समय केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे, बल्कि अनुभव की गहराई भी साझा करते थे।

उनके जीवन की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने कथा को आधुनिक तकनीक और मंचीय शैली के साथ भी जोड़ा। वे नई पीढ़ी की रुचियों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुति शैली में छोटे-छोटे बदलाव लाते, लेकिन कथा की शास्त्रीयता से कभी समझौता नहीं करते थे। उनके प्रवचनों की वीडियो रिकॉर्डिंग, ऑनलाइन प्रसारण और डिजिटल संग्रह आज भी लाखों लोगों तक पहुँच रहे हैं।

राधेश्याम कथावाचक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कथा केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना है। यह मनुष्य के भीतर छिपे दिव्य गुणों को जगाने का माध्यम है। उनकी कथाएँ सुनकर असंख्य लोगों के जीवन में परिवर्तन आया—किसी ने नशा छोड़ा, किसी ने परिवार को संभाला, किसी ने सेवा का मार्ग चुना और किसी ने धर्म का सही स्वरूप समझा। यही एक महान कथावाचक की पहचान है कि उसकी कथा मंच पर समाप्त नहीं होती, बल्कि लोगों के जीवन में उतरकर अपना प्रभाव छोड़ती है।

आज भी राधेश्याम कथावाचक की विद्वता, आत्मीयता और आध्यात्मिक गहराई कथाकारों के लिए आदर्श है। उन्होंने कथा-वाचन को एक नया आयाम दिया, उसे समाजोसुधारक शक्ति से जोड़कर उसे जीवंत बनाया। उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों तक प्रेरणा बनकर पहुँचेगा, क्योंकि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कथा केवल इतिहास का बयान नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का मार्ग भी है।

इस प्रकार, राधेश्याम कथावाचक भारतीय कथा परंपरा के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं जिन्होंने अपनी वाणी, सरलता, आध्यात्मिक शक्ति, सामाजिक चेतना और अनोखी प्रस्तुति शैली से कथा को नया जीवन दिया। उनका जीवन संदेश देता है कि जब वाणी साधना से जुड़ती है, तो वह केवल सुनने वालों को आनंद ही नहीं देती, बल्कि उन्हें आंतरिक रूप से बदल देती है। यही राधेश्याम कथावाचक की अमूल्य विरासत है, और यही उन्हें भारतीय अध्यात्म और कथा-साहित्य की दुनिया में अमर बनाती है।

पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर, 1890 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में हुआ था। उनका जन्म बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था, उनके पिता का नाम पंडित बांकेलाल था।

उनके परिवार की आर्थिक स्थिति प्रारंभ में बहुत साधारण थी। उनके कच्चे घर में गरीबी थी, और बचपन में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। हालांकि, उनके पिता को नाटकों, भजन-गायकियों की परंपरा की समझ थी, और इसी के चलते राधेश्याम को संगीत, गायन और नाटक की दुनिया में शुरुआती रूचि मिली।

बचपन से ही नाटकीय और लोक गायन-शैली के वातावरण में पले-बढ़े थे। बरेली में नाटक कम्पनियाँ (पारसी थिएटर कंपनियाँ) उनके इलाके के “चित्रकूट महल” नामक स्थान में रिहर्सल के लिए रुकती थीं, और राधेश्याम वहाँ के संगीत-रागों और गायन से काफी प्रभावित हुए।हारमोनियम बजाना और गायन उन्होंने अपने पिता और नाटक कंपनियों के कलाकारों से सीखा था।उनकी रामकथा (राधेश्याम रामायण) खास शैली में लिखी गई — लोक-नाट्य ढंग और “तर्ज़ राधेश्याम” नामक छंद में।उनकी लेखन शैली और संगीत समझ उनकी आत्म-अध्ययन, संगीत-अनुभव और लोक परंपरा के गहरे जुड़ाव से आई थी — वे मात्र कथावाचक नहीं, बल्कि नाटककार, पद्यकार और संगीतकार भी थे।


पंडित राधेश्याम कथावाचक का निधन 73 साल की आयु में 26 अगस्त, 1963 को हुआ था।राधेश्याम कथावाचक ने रामायण को खड़ी बोली में 25 खंडों में पद्य के रूप में लिखा, जिसे आज “राधेश्याम रामायण” के नाम से जाना जाता है और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय हुआ।उनके लेखन, कथावाचन और नाट्यकला में पारसी रंगमंच शैली का बहुत बड़ा असर था। उन्होंने अपने जीवन में करीब 57 पुस्तकें लिखीं और अनेक पुस्तकों का संपादन किया। कथावाचन और मंचीय काम में उनका लगभग 45 वर्षों का सक्रिय योगदान रहा।



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