उमा देवी खत्री, जिन्हें पूरा देश प्यार से टुनटुन के नाम से जानता है, हिंदी फिल्म जगत की पहली और अत्यंत लोकप्रिय महिला कॉमेडियन थीं। उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज़, अनोखी आवाज़, खास व्यक्तित्व और हास्य से भरे अभिनय से एक ऐसा मुकाम बनाया, जिसे आज भी कोई नहीं भूल सकता। वे केवल हंसी की दुनिया की सितारा ही नहीं थीं, बल्कि संघर्ष, आत्मविश्वास और प्रतिभा की मिसाल भी थीं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि कठिन परिस्थितियाँ भी यदि मन में दृढ़ निश्चय हो तो महान सफलता की राह रोक नहीं सकतीं।
उमा देवी का जन्म 11 जुलाई 1923 को उत्तर प्रदेश में हुआ। बचपन अत्यंत कठिनाइयों से भरा था। कम उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया और वे अनाथ हो गईं। गरीबी, अकेलापन और जीवन की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों ने उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। लेकिन इन कष्टों के बीच भी उमा देवी के मन में संगीत और कला के प्रति गहरा प्रेम बना रहा। उनकी आवाज़ अत्यंत अनूठी थी—मधुरता और भारीपन का एक ऐसा संगम, जो पहली ही बार सुनने पर ध्यान खींच ले।
जीवन में संघर्ष करते हुए वे मुंबई पहुंचीं और फिल्मों में काम पाने का प्रयास किया। शुरुआती दिनों में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्रतिभा और आत्मविश्वास के दम पर उन्होंने अपना रास्ता स्वयं बनाया। सबसे पहले उनका नाम उभरकर सामने आया एक गायिका के रूप में। 1947 में उनकी गायकी ने फिल्म जगत को चौंका दिया। “अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का” जैसे गीतों ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया। उस समय की महान गायिका लता मंगेशकर द्वारा उन्हें अत्यंत सम्मान दिया गया और माना जाता है कि लता जी ने उमा देवी को सम्मानपूर्वक यह समझाया कि उनकी आवाज़ का उपयोग एक सीमित दायरे में ही संभव है, और अभिनय की ओर बढ़ना उनके लिए बेहतर राह हो सकती है।
उसी समय से उमा देवी ने अभिनय को अपनी नई दिशा बनाया। उनका भारी-भरकम शरीर, अलग अंदाज़ और सहजता से किए गए हास्य ने उन्हें दर्शकों का सबसे चहेता कलाकार बना दिया। वे कॉमिक भूमिकाओं में इस तरह रच-बस जाती थीं कि कई बार दर्शक केवल उनकी एक झलक से ही हंस पड़ते थे। निर्देशक और कलाकार उन्हें सेट पर “टुनटुन” कहकर बुलाने लगे और यही नाम बाद में उनकी पहचान बन गया। उनका नया नाम टुनटुन फिल्म इतिहास में अमिट हो गया।
1950 और 1960 के दशक में टुनटुन उस दौर की लगभग हर बड़ी फिल्म में हास्य भूमिका में दिखाई देती थीं। वे गुरु दत्त, देव आनंद, दिलीप कुमार, किशोर कुमार, मेहमूद और राज कपूर जैसे सितारों के साथ काम कर चुकी थीं। “आर-पार”, “मिस्टर एंड मिसेज 55”, “अड़चनें”, “सीआईडी”, “दिल्ली का ठग” और “कश्मीर की कली” जैसी फिल्मों में उनके हास्य प्रदर्शन को दर्शक आज भी याद करते हैं। उनकी विशेषता केवल मज़ाक करना ही नहीं थी, बल्कि वे दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों में भी हास्य ढूंढ लेती थीं और उसे पर्दे पर इस तरह प्रस्तुत करती थीं कि किरदार जीवंत हो उठता था।
टुनटुन का हास्य कभी भी भद्दा नहीं होता था। वे शालीन, मधुर और स्वाभाविक अभिनय से हंसी पैदा करती थीं। महिलाओं के लिए हास्य भूमिका निभाना उस दौर में आसान नहीं था। समाज, फिल्म उद्योग और दर्शकों की दृष्टि में महिला कलाकारों के लिए एक तय दायरा था। लेकिन टुनटुन ने इस दायरे को तोड़ा और साबित किया कि चाहे अभिनय का कोई भी क्षेत्र हो—महिलाएं उसमें उत्कृष्टता प्राप्त कर सकती हैं। वे बताती थीं कि हंसाने वाला कलाकार लोगों के मन में सबसे गहरा असर छोड़ता है, क्योंकि वह दुखों के बीच मुस्कान पैदा करता है।
टुनटुन का निजी जीवन भी संघर्षों से भरा था, परंतु उन्होंने कभी इसे अपने करियर पर हावी नहीं होने दिया। वे एक समर्पित पत्नी और मां थीं। अपने परिवार के प्रति उनका प्रेम और जिम्मेदारी भी उतनी ही दृढ़ थी जितनी उनकी कला के प्रति समर्पण। काम के साथ वे हर परिस्थिति में अपने परिवार को सँभालती रहीं और अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी।
अपने लंबे करियर में टुनटुन ने लगभग 200 से अधिक फिल्मों में काम किया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि निर्माता-निर्देशक फिल्में लिखते समय विशेष रूप से हास्य दृश्यों में टुनटुन का चरित्र जोड़ देते थे। उनका नाम ही दर्शकों को थिएटर तक खींच लाने के लिए काफी होता था। 1990 के दशक तक वे फिल्म जगत से कुछ दूर हो गईं, लेकिन उनकी पहचान, लोकप्रियता और सम्मान में कभी कोई कमी नहीं आई।
24 नवंबर 2003 को टुनटुन का निधन हो गया। उनके जाने के बाद भारतीय सिनेमा ने एक ऐसे कलाकार को खो दिया, जिसने न केवल हंसी दी, बल्कि फिल्म जगत में महिलाओं के लिए हास्य भूमिकाओं का मार्ग भी प्रशस्त किया। वे एक ऐसी कलाकार थीं जिनका योगदान सिर्फ अभिनय तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि संघर्ष किसी भी सपने को रोक नहीं सकता।
अंततः, उमा देवी खत्री ‘टुनटुन’ भारतीय फिल्मों की वह धरोहर हैं, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में हास्य अभिनय को नए आयाम दिए। वे हंसी की रानी थीं—एक ऐसी रानी, जिसकी मुस्कान और आवाज़ आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है। उनका जीवन प्रेरणा है कि प्रतिभा, साहस और आत्मविश्वास से हर कठिनाई पर विजय पाई जा सकती है।
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