नार्मल के बीटीसी बनने का सफर
जब मैने जूनियर हाई स्कूल यानी कक्षा आठ की परीक्षा जूनियर हाई
स्कूल झालू से पास की तो मेरे बाबा (ग्रांड फादर) ने मुझ से कहा था, जानार्मल की ट्रेनिंग कर ले। मास्टर बन जाएगा। पंडित केशव शरण शर्मा जी
जिला परिषद के
चैयरमैन है,
तो तेरा चयन भी हो जाएगा। मैने उनकी बात मानी और नार्मल की ट्रेनिंग
के होने वाले साक्षात्कार में गया। पंडिंत जी उस साक्षात्कार में बैठे किंतु मेरी
उम्र कम होने के कारण मेरा चयन न हो सका और मै प्राइमरी स्कूल का
मास्टर बनते बनते रह गया। पंडित जी रिश्ते के मेरे बाबा
लगते थे,
वे जिला पंचायत के चेयरमैन
होते थे पर मेरा नार्मल की ट्रेनिंग में चयन न हो सका। हां एम. ए
करने के बाद में मैने बीएड किया पर शिक्षण का
व्यवसाय रास न आया और तीन साल बाद उसे अलविदा कह पत्रकार बन गया।
आज जिस बीटीसी की परीक्षा के लिए प्रवेश
परीक्षा हो रही है, इतनी मारामारी मची हुई है, और बीटेक ,एमबीए , एमसीए,
पीएचडी डिगरीधारक तक इसे करने के लिए आवेदन कर रहे हैं,प्राय मैरिट भी सत्तर प्रतिशत से ज्यादा रही है। मेरी
किशोरावस्था के समय इसमें प्रवेश की योग्यता मात्र कक्षा आठ पास
थी। उस समय बीटीसी को नार्मल की ट्रेनिंग कहते
थे। इस ट्रेनिंग को कराने वाले स्कूलों को नार्मल स्कूल कहा जाता
था।
क क्षा आठ तक की शिक्षा जिला पंचायत के अधीन थी। वही शिक्षकों को प्रशिक्षण
दिलाती और उनकी नियुक्ति करती थी। बाद में लडक़ों के लिए नार्मल की ट्रेर्निंग करने
की योग्यता हाई स्कूल हो गई जबकि लड़कियों की योगयता कक्षा आठ पास ही रही । १९६७
में ट्रेनिंग करने वाले शिक्षकों के प्रमाण पत्र पर इस योग्यता का बाकायदा उल्लेख
है। इस प्रशिक्षण का नाम हिंदुस्तानी सर्टिफिकेट ट्रेनिंग था। इस ट्रेनिंग के लिए
योग्यता बढऩी शुरू हुई तो इंटर होकर अब बीए हो गई। बाद में इसका नाम भी बदल कर
बीटीसी हो गया। पहले यह ट्रेनिंग दो साल की होती थी , बाद में बीटीसी
होने पर प्रशिक्षण की अवधि एक साल हुई, अब बढक़र इसकी अवधि
फिर दो साल हो गई। पहले देहात में कक्षा आठ तककी शिक्षा का संचालन जिला पंचायत
और नगर में नगर पालिका करती थी।अब यह बेसिक शिक्षा के अधीन है।
किसी समय गुरू
को बहुत सम्मान मिलता था, शिक्षा पूरी करने पर गुरू दक्षिणा देने
का प्रावधान था। महाभारत काल में तो
द्रोणाचार्य ने गुरू दक्षिणा में अपने शिष्य का दाएं हाथ का अंगूठा ही मांग
लिया था।
इन्ही द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए पांडवोंसे
अपने दुश्मन राजा द्रुपद को बंदीके रूप में लाने को कहा था । उस समय तक गुरूकुल
शिक्षा के साथ साथ देश के
संचालन में मददगार होते थे। तक गुरू छात्र को ज्ञान के साथ साथ
तकनीकि शिक्षा और युद्धकला भी सिखाते थे।
हस्तिनापुर राज्य के राजकुमारों को पढ़ाने के लिए द्रोणाचार्य और कृपाचार्य
जैसे गुरू के दरबारी होने और छात्रों से भेदभाव करने के कारण गुरू का पतन होना
शुरू हुआ।गुरू की गरिमा गिरी तो शिक्षा कास्तर भी गिरा। गुरू दक्षिणा में अंगूठा
मांगे जाने की मिसाल भी महाभारत में ही मिलती है। शिक्षक के पतन कीयहां
से हुई शुरूआत अब तक जारी रही। गुलामी के दौर में शिक्षक कासम्मान बहुत गिरा।
आजादी के बाद भी कोई खास फर्क नहीं पडा़। और सबसेसरल छोटे बच्चों को पढ़ाने का
कार्य हो गया। जो कुछ नहीं कर पाता वह टीचर बन जाता।
शिक्षा जगत से आए डा. राधाकृष्णनके
समय से शिक्षकों को सम्मान मिलनाशुरू हुआ। उनके जन्म दिन पांच सितंबर
को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा और
शुरू हुआ
शिक्षकों के सम्मान का सिलसिला। आज शिक्षा का सुधार हुआ, शिक्षकों के वेतन
बहुत अच्छे हुए तो योग्य युवकयुवतियों का इस और रूझान बढ़ा है। अब एमबीए, बीटेक यहां शिक्षक
बनने आ रहे है,
किंतु वह यहां करेंगे क्या, काश वह अपनी
योग्यतावाली तकनीकि शिक्षा में पढ़ाने जाते तो बहुत अच्छा रहता। यहां वे शिक्षा के
प्रति समर्पण या कुछ नया करने की
भावना से नही आ रहे हैं। वे सरकारी नौकरी पाने की आस में
यहां आए है। उनका सोच यह है कि सरकारी नौकरी एक बार मिल गई तो फिर
पूरी उम्र चैन से कटेगी।
हालात कैसे भी हो हमें आशा नहीं छोडऩी चाहिए ,उम्मीद रखनी चाहिएकि
इनमें भी पंडित मदन मोहनमालवीय,नजीर अकबराबादी ,रविंद्र नाथ टैगोर जैसे गुरू निकलेंगे और शिक्षा के नए आयाम बनांएगे। आने
वाला समय में शिक्षा का स्तर ही नहीं बढेग़ा ,अपितु शिक्षकों
का समान भी
बढ़ेगा।
अशोक मधुप
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