Monday, June 21, 2021

कनाड़ा में बसे झालू के देवेंद्र गुप्ता का संस्मरण

  उस समय , मैं ७ वर्ष का रहा हूँगा , मुझे मोतीझारा ( typhoid ) हो गया ! १९४०-५० में मोतीझरे का कोई इलाज नहीं था, केवल घर में रह क्र परहेज़ करिये तथा विश्राम करिये ! कई महीने लग जाते थे स्वस्थ होने में ! अधिक लोग तो मर ही जाते थे ! में भी दो तीन महीने से बीमार था! हल्का बुखार रहता था, भूक नहीं लगती थी ! घरवाले, बहका फुसलाकर दूध पीला देते थे , मुनक्का खिला देते थे! दाल रोटी तो खाने का कोई मतलब ही नही था! इन दो तीन महीनो में , वज़न बहुत कम हो गया था, कमज़ोरी बहुत आ गइ थी ! चलने फिरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता , बोलना भी बहुत मुश्किल था ! जून का महीना होगा , सांयकाल में घर के चौक में मुझे लिटा देते थे ! बेहाल सा में इधर उधर देखता रहता ! एक दिन शाम को बहुत पसीना आ गया , कमज़ोरी और बढ़ गइ , बेहोशी सी आ गइ ! नब्ज़ बहुत ही धीमी हो गई थी ! घर के सभी लोग घबरा गए थे , पिताजी भी , डॉक्टर होते हुवे भी, निराश हो गए थे! सभी घबराये हुए थे कि अब बचना मुश्किल है ! जाने पहचाने , गाओं के हकीम थे, श्री राम कृष्ण लाल जी ( अशोक मधुप के बाबा जी) ; उनको बुलाया गया , वह अपने साथ, कुत्छ औषधी लेकर आये थे ! तुरंत ही कुत्छ समय के पश्च्चात , होश आ गया ! आँखे खुलीं ! सभी को , जान में में जान आयी! अभी भी, कभी सोचता हूँ तो वह दिन याद आ जाता है ! मुझ पर तो कम , परन्तु घर वालों पर किया गुजरी होंगी ?

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से साभार

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