Monday, June 21, 2021

कनाड़ा में बसे झालू के देवेंद्र गुप्ता का संस्मरण

  उस समय , मैं ७ वर्ष का रहा हूँगा , मुझे मोतीझारा ( typhoid ) हो गया ! १९४०-५० में मोतीझरे का कोई इलाज नहीं था, केवल घर में रह क्र परहेज़ करिये तथा विश्राम करिये ! कई महीने लग जाते थे स्वस्थ होने में ! अधिक लोग तो मर ही जाते थे ! में भी दो तीन महीने से बीमार था! हल्का बुखार रहता था, भूक नहीं लगती थी ! घरवाले, बहका फुसलाकर दूध पीला देते थे , मुनक्का खिला देते थे! दाल रोटी तो खाने का कोई मतलब ही नही था! इन दो तीन महीनो में , वज़न बहुत कम हो गया था, कमज़ोरी बहुत आ गइ थी ! चलने फिरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता , बोलना भी बहुत मुश्किल था ! जून का महीना होगा , सांयकाल में घर के चौक में मुझे लिटा देते थे ! बेहाल सा में इधर उधर देखता रहता ! एक दिन शाम को बहुत पसीना आ गया , कमज़ोरी और बढ़ गइ , बेहोशी सी आ गइ ! नब्ज़ बहुत ही धीमी हो गई थी ! घर के सभी लोग घबरा गए थे , पिताजी भी , डॉक्टर होते हुवे भी, निराश हो गए थे! सभी घबराये हुए थे कि अब बचना मुश्किल है ! जाने पहचाने , गाओं के हकीम थे, श्री राम कृष्ण लाल जी ( अशोक मधुप के बाबा जी) ; उनको बुलाया गया , वह अपने साथ, कुत्छ औषधी लेकर आये थे ! तुरंत ही कुत्छ समय के पश्च्चात , होश आ गया ! आँखे खुलीं ! सभी को , जान में में जान आयी! अभी भी, कभी सोचता हूँ तो वह दिन याद आ जाता है ! मुझ पर तो कम , परन्तु घर वालों पर किया गुजरी होंगी ?

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से साभार

Sunday, June 20, 2021

नया साल

 

 नया साल

लो ये भी बीता सखे,चलो पुराना साल।
जो बीता अब क्या करें,उसपर सोच मलाल।

: नया साल जब आएगा , देखेंगे उस ठौर।
अभी अभी है तो सखे, इसी साल का दौर।

-चलो विदा देते तुम्हें!,रही साल भर जंग।
खट्टी मीठी याद तो,सदा रहेंगी संग।
-तुमने तो सपने किए,कईं मेरे साकार।
नफरत तो कम ही मिली, बहुत मिला पर प्यार।
- कई विदा हमसे हुए, कई जुड़े हैं संग।
नफरत पर जीती सदा,प्रेम- प्यार की जंग।

- नया साल शुभ हो शुभे, शुभ हों सारे काम।
खूब तुम्हे ख्याति मिले, जग में होवे नाम।

-: अभी चुनौती हैं नयी, नए साल के साथ।
सतत सफर चलता रहे,कृपा करें रघुनाथ ।

रोते हंसते कट गया,जीवन का ये दौर।
नया साल लाये सखे, खुशहाली की भोर।

 

मुक्तक 

जो नहीं मिला उसकी, आस लिए बैठे हैं।
इच्छाओं की पुटलियाॅ, पास लिए बैठे हैं।
मेरे साथ मेरों के भी, हों सपन सभी पूरे,
नए साल! तुझसे नए ,विश्वास लिए बैठे हैं।
अशोक मधुप

गुदड़ी का वार्षिक मेला

 गुदड़ी का वार्षिक मेला , हमारे गाओं के पास वाले गाओं में सावन के महीने में लगता था ! अब से ७० वर्ष पहले , झालु से हल्दौर जाने का कोई और साधन नहीं था , या तो पेद ल  जाओ या बैलगाड़ी से ! बस या रेलगाड़ी की सुविधायें नही थी ! हम लोग बारिश में भीगते झालु से अन्य लोगों के साथ , लहभग प्रत्येक वर्ष ही मेला दहकने जाते थे ! हल्दौर का यह मेला , हल्दौर के चौहान राजा ने शुरू किया था और वह ही हर साल इसका प्रभंध करते थे ! उनके भविये महल के सामने एक बहुत बड़ा तालाब था, जिसके चारों ओ र लकड़ी की सुंदर जंगला लगा था ! उसी तालाब के चरों ओर मेला लगता था ! मेले में , स्वांग, मौत का कुंवा, जादूगरों के करतब , घूमने वाले झूले , उस समय  के हिसाब से बहुत बहुत आकर्षण की वस्तुवें होती थीं ! खाने पीने की दुकानें, खेल खिलौनों की दुकाने ! शाम को जब, तालाब के चरों और रोशनी क्र दी जाती थी, तो विशेष आकर्षण हो जाता था ! हम बच्चों के लिए बहुत आनंद का होता था यह मेला ! मेले के आख़री दिन , राजा जी का खूब सजा हुवा  बेडा , रात्रि में तालाब में घूमता था ! उनकी हाथी पर सवारी निकलती थी !

बचपन की एक घटना याद आती है! एक वर्ष  मैं , अपने परिवार के मित्र श्री बसंत राम जी के साथ मेला देखने, हल्दौर गया! वोह , अपने   साड्डू  के घर पर रुके थे ! वर्षा हो रही थी, शाम भी हो गए थी, इस लिए अब रात्री को वहीं रुकना था! उनका घर अच्छा बड़ा घर था ! शाम को खाना लगाया जाया तो में यह कह क्र खाना खाने से मना क्र दिया  कि  अम्मा ने कहा है कि किसी के घर खाना नहीं खाते हैं ! सभी बहुत हांसे भी और मुझे खाने के लये मानते भी रहे ! बड़ी मुश्किल से मैंने उनके यहां खाना खाया ! बाद में, चाचा , बसंत राम जी मुझे चिढ़ाते भी रहे कि घर चल कर , तुम्हारी अम्मा को बताएँगे कि तुमने , हल्दौर में  खाना खाया था ! आज , वह सोच कर मुझे भी उस बचपन की बात पर हंसी आती है ! मेले की झलकियां भी अपनी यादें


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(अब ये मेला नही लगता। कई साल पहले से लगना बंद हो गया)

कनाड़ा में बसे झालू के देवेंद्र् गुप्ता का संस्मरण

 उस समय , मैं ७ वर्ष का रहा हूँगा , मुझे मोतीझारा ( typhoid ) हो गया ! १९४०-५० में मोतीझरे का कोई इलाज नहीं था, केवल घर में रह क्र परहेज़ करिये तथा विश्राम करिये ! कई महीने लग जाते थे स्वस्थ होने में ! अधिक लोग तो मर ही जाते थे ! में भी दो तीन महीने से बीमार था! हल्का बुखार रहता था, भूक नहीं लगती थी ! घरवाले, बहका फुसलाकर दूध पीला देते थे , मुनक्का खिला देते थे! दाल रोटी तो खाने का कोई मतलब ही नही था! इन दो तीन महीनो में , वज़न बहुत कम हो गया था, कमज़ोरी बहुत आ गइ थी ! चलने फिरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता , बोलना भी बहुत मुश्किल था ! जून का महीना होगा , सांयकाल में घर के चौक में मुझे लिटा देते थे ! बेहाल सा में इधर उधर देखता रहता ! एक दिन शाम को बहुत पसीना आ गया , कमज़ोरी और बढ़ गइ , बेहोशी सी आ गइ ! नब्ज़ बहुत ही धीमी हो गई थी ! घर के सभी लोग घबरा गए थे , पिताजी भी , डॉक्टर होते हुवे भी, निराश हो गए थे! सभी घबराये हुए थे कि अब बचना मुश्किल है ! जाने पहचाने , गाओं के हकीम थे, श्री राम कृष्ण लाल जी ( अशोक मधुप के बाबा जी) ; उनको बुलाया गया , वह अपने साथ, कुत्छ औषधी लेकर आये थे ! तुरंत ही कुत्छ समय के पश्च्चात , होश आ गया ! आँखे खुलीं ! सभी को , जान में में जान आयी! अभी भी, कभी सोचता हूँ तो वह दिन याद आ जाता है ! मुझ पर तो कम , परन्तु घर वालों पर किया गुजरी होंगी ?

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से साभार

प्रकाश मेहरा नहीं रोकते तो आज स्टार नही होते अमिताभ बच्चन

                                                   24 सितंबर 2020 में अमर उजाला में प्रकाशित लेख
 

पड़ोस के बिजनौर भी तो जाइए! शंभूनाथ शुक्ल

 पड़ोस के बिजनौर भी तो जाइए!

शंभूनाथ शुक्ल

यह एक कथा है जो किसी किताब में तो नहीं मिलती पर बिजनौर जिले का हर आदमी इस कथा को सुना देगा। किस्सा कुछ यूं है कि हस्तिनापुर में तो महाराज धृतराष्ट्र रहते थे जबकि उनके छोटे भाई नीतिनिपुण विदुर बिजनौर जिले में। विदुर हस्तिनापुर तब ही आते थे जब उनकी भाभियां महारानी गांधारी अथवा कुंती उन्हें बुलावा भेजतीं। वर्ना विदुर महाराज अपनी कुटिया छोड़कर कहीं नहीं जाते अलबत्ता महाराज धृतराष्ट्र या पांडवों के बड़े युधिष्ठिर विदुर से मिलने विदुर की कुटिया अवश्य जाते। महाराज धृतराष्ट्र जब बिजनौर जाते तो रास्ते में गंगा नदी पार करते। आधे रास्ते वे यही सोचते कि विदुर  दरअसल पांडवों के प्रति कुछ ज्यादा ही झुके हुए हैं इसीलिए वे युधिष्ठिर के हित की और दुर्योधन के खिलाफ बात ही करते हैं। वह हरदम मुझे ही दुर्योधन को दबाने को कहता है पर कभी भी पांडवों के खिलाफ कुछ नहीं बोलता। अब भला अपने बेटे को छोड़कर कोई भतीजों को राजपाट सौंपता है! पर जैसे ही महाराज धृतराष्ट्र गंगा का आधा हिस्सा पार कर लेते उन्हें भी लगता कि वे गलत कर रहे हैं। विदुर ठीक ही तो समझाता है। आखिर हस्तिनापुर का राजपाट तो छोटे भाई पांडु को ही मिला था वह तो अपना सिंहासन मुझे सौंप कर वानप्रस्थ पर चला गया था। इसलिए सिंहासन पर हक तो युधिष्ठिर का ही बनता है। विदुर मुझे ठीक ही समझाता है। महाराज विदुर से मिलते और विदुर की बातों से सहमति जताते हुए कहते कि मैं अब हस्तिनापुर जाकर युधिष्ठिर को बुलाकर उसका हक उसको दे दूंगा। पर लौटते ही वे जैसे ही फिर गंगा के इस पार आते तो उनका दिमाग कुलबुलाने लगता कि नहीं यह गलत होगा। अगर वे नेत्रहीन नहीं होते तो हस्तिनापुर का सिंहासन उन्हें ही मिलता। अब नेत्रहीन पैदा होने में उनकी क्या गलती? यह अन्याय तो विधाता ने उनके साथ किया है। वाकई दुर्योधन ठीक ही कहता है कि सिंहासन पर हक हम कौरवों का पहले पांडवों का नहीं। दुर्योधन ठीक कहता है कि पांडु पुत्रों को सुई की नोक बराबर जमीन नहीं देनी चाहिए। और वे बुझे मन से हस्तिनापुर लौट आते।

यह एक कथा भर है। पर मेरी मानिए तो कभी बिजनौर अवश्य जाएं। छोटा सा गंगा पार का कस्बा। मेरठ और मुजफ्फर नगर की तुलना में एकदम शांत। हालांकि यहां भी उन्हीं जातियों का वर्चस्व है जिनका मेरठ और मुजफ्फर नगर में है लेकिन इसके उलट न तो यहां चोरी न डकैती न लूट न बलात्कार न दंगा न फसाद। यद्यपि अब सपा सरकार में हालात उतने शांत इस जिले में भी नहीं रह गए हैं किन्तु ये सारे बदमाश यहां बाहर से आ जाते हैं। वर्ना जब मेरठ और मुजफ्फर नगर जल रहा था तो भी यहां शांति थी और मुजफ्फर नगर के जो लोग राहत शिविरों में नहीं जा पाए वे यहां आकर बस गए थे। मेरठ से मवानाबहसूमा होते हुए आप घनी अमराइयों के बीच से गुजरते ही रामराज पहुंचते हैं तो पाते हैं कि आधा कस्बा तो मेरठ पुलिस के अंतर्गत है और आधा मुजफ्फर नगर पुलिस के तहत। मुजफ्फर नगर जिला पुलिस का थाना भी रामराज में है तो गुरद्वारे के समीप बनी हुुई पुलिस चौकी मेरठ जिले के बहसूमा थाने की है। रामराज में हिंदू व्यापारी हैंमुस्लिम कारीगर हैं और सिख किसान। गुरद्वारामंदिर और मस्जिद भी। रामराज से मीरापुर के बीच कुल छह किमी की दूरी है। पठानों और रांगड़ मुसलमानों की खूब तादाद है मीरापुर में। यहां आपको तोमरचौहान और त्यागी मुसलमान मिल जाएंगे और राजस्थान से बनिज हेतु आए माहेश्वरी सेठ। यहां के रांगड़ मुसलमानों के  परिवारों में आधी रस्में वही हैं जो उनके हिंदू जात भाइयों के यहां हैं। मीरापुर कस्बे को पार कर एक किमी पर एक तिराहा है जिस से आप दाएं मुड़ जाएं। यहां रुककर आप कुछ खा-पी सकते हैं। भोजन भी और अल्पाहार भी। सबसे खास बात यह है कि यहां आप निपट भी सकते हैं। यहां पर जो दो ढाबे बने हैं उनमें से एक तो एसी है और दूसरा एसी न होते हुए भी साफ सुथरा है। कुछ दूर जाने पर आप सड़क की ही दिशा में बाएं मुड़ जाएंगे और गंगा बैराज पर पहुंच जाएंगे जहां से बिजनौर जिला शुरू होता है। गंगा बैराज तक की सड़क सकरी है और एक्सीडेंट प्रोन हैै। साथ ही यहां रोडवेज की बसों से अपनी गाड़ी बचानी भी होगी। क्योंकि अन्य प्रांतों की तरह भी यूपी रोडवेज की बसें सड़क को अपनी दासी समझती हैं। बिजनौर में गंगा बैराज पार करते ही एक टोल टैक्स पड़ेगा जो लीगल और अनलीगल के बीच का है। आप गाड़ी निकाल लें और उसे कस कर घूर दें तो वह खुद भाग जाएगा अन्यथा एक डांट पिला दें। यहां रुककर आप मीठे तरबूजमतीरे खरीद सकते हैं। अब आप बिजनौर में हैं। कस्बा यहां से कुल 11 किमी है। पर कस्बा पहुंचने तक आपको जिन घने वृक्षों की छाया के बीच निकलना पड़ता है उससे ऐसा लगता है कि यूपी में कहीं अगर स्वर्ग है तो इसी क्षेत्र में। अब आप मुस्कराइए कि आप बिजनौर में हैं। कस्बा कुल मिलाकर दो या तीन किलोमीटर लंबा और आधा किमी चौड़ा होगाा। कस्बे में मुसलमानों और हिंदुओं की व्यापारी जाति की संख्या करीब-करीब बराबर है। पर तनाव दूर-दूर तक नहीं। आधी रात को भी निकल जाएं कहीं कोई घटना-दुर्घटना नहीं। आप बिजनौर से धामपुरशेरकोट और अफजलगढ़ होते हुए कालागढ़ जा सकते हैं। मालूम हो कि कालागढ़ अपने बांधों के लिए तो जाना ही जाता है और यहां एक सैडिलर डैम भी है जो एशिया का सबसे पुराना डैम है। कालागढ़ मशहूर टाइगर रिजर्ब जिम कार्बेट का एक गेट भी है। आप अफजलगढ़ से यूपी के टाइगर रिजर्ब अमानगढ़ जा सकते हैं और अफजलगढ़ की द्वारिकेश चीनी मिल के गेस्ट हाउस में रुक सकते हैं। द्वारिकेश चीनी मिल राजस्थान के उद्यमियों की है इसलिए यहां की मेहमाननवाजी में आपको राजस्थानी लुक भी मिलेगा। बिजनौर खुद में हिंदी पत्रकारिता का गढ़ भी है। आजादी के पहले से यहां दैनिक प्रकाशित होने शुरू हो गए थे। आज यहां पर मेरठ और दिल्ली से छपने वाले सारे अखबार पहुंचते हैं। अमर उजाला यहां नंबर वन पर है। अमर उजाला के यहां के ब्यूरो चीफ श्री अशोक मधुप अच्छे कवि भी हैं। बिजनौर से आप नजीबाबाद होते हुए कोटद्वारदुगड्डा लैंसडाउन भी जा सकते हैं। नजीबुल्लाह नामके एक पठान सरदार द्वारा बसाया गया बिजनौर जिले का सबसे बड़ा कस्बा है। नजीबुल्लाह के किले के अवशेष अभी भी हैं। यूं नजीबाबाद आकाशवाणी का एक केंद्र भी है और बहुत पुराना केंद्र है। अमृतसर-हावड़ा रेल लाइन का यह एक मशहूर जंक्शन है। दिल्ली वाले यूपी में एक तो घूमने जाते नहीं और जाएंगे तो बस मथुराआगरा या बनारस जाएंगे पर कभी घर से निकलिए और बिजनौर आइए। तब पता चलेगा कि आप घूम तो चारों तरफ आए पर अपना ही घर नहीं देखा। बस दिल्ली से कुल ढाई घंटे की दूरी पर है बिजनौर। यहां से आप ला सकते हैं आम की एक से एक बेहतरीन किस्में और आर्गेनिक गुड़ और पीली सरसों का तेल। यकीन मानिए कि जिन चीजों के लिए आप बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों के चक्कर काटते हैं और बाबा जी का ठुल्लू लेकर वापस आ जाते हैं वे सब चीजें अपने मूल रूप में बिजनौर में मौजूद हैं।

टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी पर शंभूनाथ शुक्ल के संस्मरणा

Thursday, June 17, 2021

गोपाल शर्मा


  25 मई 2020 अमर उजाला मेरठ

Saturday, June 5, 2021

बिजनोर जनपद फेसबुक से साभार

 बिजनौर एक गौरवशाली इतिहास को समेटे हुआ एक गुमनाम सा शहर


 पर्वतराज हिमालय की शिवालिक पहाड़ियो की तलहटी में दक्षिण भाग पर वनसंपदा और इतिहास से समृद्घशाली बिजनौर जनपद अपने भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व के कारण प्राचीन काल से ही एक विशेष पहचान रखता है। इसकी उत्तरी सीमा से, हिमालय की तराई शुरू होती है, तो गंगा मैया इसका पश्चिमी सीमांकन करती है। बिजनौर के उत्तर पूर्व में गढ़वाल और कुमाऊं की पर्वत श्रृंखलाएं इसका सौंदर्य बढ़ाती हैं, तो इसकी पश्चिमी एवं दक्षिण सीमा पर गंगा के उस पार है, विश्व प्रसिद्ध तीर्थ हरिद्वार। कुल 4338 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले बिजनौर जनपद की आबादी इस समय करीब 30 लाख है।


बिजनौर अनेक विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी है। इसने देश को नाम दिया है, अनेक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभायें दी हैं। यहां की धरती उर्वरक ही उर्वरक है। बिजनौर का उत्तरी, उत्तर पूर्वी और उत्तर पश्चिमी भाग महाभारत काल तक सघन वनों से आच्छादित था। इस वन प्रांत में, अनेक ज्ञात और अज्ञात ऋषि-मुनियों के निवास एवं आश्रम हुआ करते थे। सघन वन और गंगा तट होने के कारण, यहां ऋषि-मुनियों ने घोर तप किये, इसीलिए बिजनौर की धरती देवभूमि और तपोभूमि भी कहलाती है। सघन वन तो यहां तीन दशक पूर्व तक देखने को मिले हैं। लेकिन वन माफियाओं से यह देवभूमि-तपोभूमि भी नहीं बच सकी है।


प्रारंभ में इस जनपद का नाम वेन नगर था। राजा वेन के नाम पर इसका नाम वेन नगर पड़ा। बोलचाल की भाषा में आते गए परिवर्तन के कारण कुछ काल के बाद यह नाम विजनगर हुआ, और अब बिजनौर है। वेन नगर के साक्ष्य आज भी बिजनौर से दो किलोमीटर दूर, दक्षिण-पश्चिम में खेतों में और खंडहरों के रूप में मिलते हैं। तत्कालीन वेन नगर की दीवारें, मूर्तियां एवं खिलौने आज भी यहां मिलते हैं। लगता है, यह नगर थोड़ी ही दूर से गुजरती गंगा की बाढ़ में काल कल्वित हो गया।


अगर यह कहा जाए कि भारतवर्ष को नाम देने वाला भी बिजनौर का ही था। जी हां! हम भरत के बारे में बोल रहे है। भरत बिजनौर के ही थे शकुंतला और राजा दुष्यंत के पुत्र। जो बचपन में शेर के शावकों को पकड़कर उनके दांत गिनने के लिए विख्यात हुए।


संस्कृत के महान कवि कालीदास के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम की नायिका शकुंतला बिजनौर की धरती पर ही पैदा हुई थीं। जिनका लालन-पोषण कण्व ऋषि ने किया था। हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत एक बार इस वन प्रांत में आखेट करते हुए पहुंचे और मालिन नदी के किनारे कण्वऋषि के आश्रम के बाहर पुष्प वाटिका में सौंदर्य की प्रतीक शकुंतला से उनका प्रथम प्रणय दर्शन हुआ। इससे उनके विश्वप्रसिद्ध पुत्र भरत पैदा हुए, जिनके नाम पर आज भारत का नाम भारत वर्ष है। 


 साग विदुर घर खायो!


बिजनौर से करीब दस किलोमीटर दूर गंगा के तट पर आध्यात्म और वानप्रस्थ का रमणीक स्थान है, जिसे विदुर कुटी के नाम से जाना जाता है। दुनियां के सर्वाधिक बुद्घिमानों में से एक महात्मा विदुर की यह पावन आश्रम स्थली है।  श्रीकृष्ण ने महात्मा विदुर जी के यहां बथुए का साग खाया था। इसलिए इस संबंध में कहा करते हैं कि दुर्योधन घर मेवा त्यागी, साग विदुर घर खायो। विदुर कुटी पर बारह महीने आज भी बथुवा पैदा होता है।


महाभारत में वीरगति को प्राप्त बहुत सारे सैनिकों की विधवाओं को विदुरजी ने अपने आश्रम के पास बसाया था। वह जगह आज दारानगर के नाम से जानी जाती है। दारा का शाब्दिक अर्थ तो आप जानते ही होंगे-औरत-औरतें। इस संपूर्ण स्थान को लोग दारानगर गंज( मेरा पैतृक गांव) कहकर पुकारते हैं। यहां पर और भी कई आश्रम हैं जिनका वानप्रस्थियों और तपस्वियों से गहरा संबंध है। कार्तिक पूर्णिमा पर विदुर कुटी को स्पर्श करती हुई गंगा के तट पर मेला भी लगता है। गंगा में स्नान करने के लिए विदुर कुटी पर बड़े-बड़े घाट भी निर्मित हैं।


बिजनौर जनपद में चांदपुर के पास एक गांव है सैंद्वार। महाभारत काल में सैन्यद्वार इसका नाम था। यहां पर भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण का आश्रम एवं उनका सैन्य प्रशिक्षण केंद्र हुआ करता था। इस केंद्र के प्रांगण में द्रोण सागर नामक एक सरोवर भी है। यहां महाभारतकाल के अनेक स्थल एवं नगरों के भूमिगत खण्डहर मौजूद हैं। सन् 1995-96 में चांदपुर के पास राजपुर नामक गांव से गंगेरियन टाइप के नौ चपटे तांबे के कुल्हाड़े और नुकीले शस्त्र पाए गये जिससे स्पष्ट होता है कि यहां ताम्र युग की बस्तियां रही हैं। महाभारत का युद्ध, गंगा के पश्चिम में, कुरुक्षेत्र में हुआ था। हस्तिनापुर, गंगा के पश्चिम तट पर है, और इसके पूर्वी तट पर बिजनौर है। उस समय यह पूरा एक ही क्षेत्र हुआ करता था।


महाभारत काल के राजा मोरध्वज का नगर, मोरध्वज, बिजनौर से करीब 40 किलोमीटर दूर है। गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जब खुदाई करायी तो यहां के भवनों में ईटें ईसा से 5 शताब्दी पूर्व की प्राप्त हुईं। यहां पर बहुमूल्य मूर्तियां और धातु का मिलना आज भी जारी है। यहां के खेतों में बड़े-बड़े शिलालेख और किले के अवशेष अभी भी किसानों के हल के फलक से टकराते हैं। आसपास के लोगों ने अपने घरों में अथवा नींव में इसी किले के अवशेषों के पत्थर लगा रखे हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय को खुदाई में जो बहुमूल्य वस्तुएं प्राप्त हुईं वह उसी के पास हैं। यहां पर कुछ माफिया जैसे लोग बहुमूल्य वस्तुओं की तलाश में खुदाई करते रहते हैं और उन्हें धातुएं प्राप्त भी होती हैं। यहां ईसा से दूसरी एवं तीसरी शताब्दी पहले की केसीवधा और बोधिसत्व की मूर्तियां भी मिलीं हैं और ईशा से ही पूर्व, प्रथम एवं दूसरी शताब्दी काल के एक विशाल मंदिर के अवशेष भी मिले हैं। यहां बौद्ध धर्म का एक स्तूप भी कनिंघम को मिल चुका है। कहते हैं कि इस्लामिक साम्राज्यवादियों के निरंतर हमलों की श्रृंखला में यहां भारी तोड़फोड़ हुई।


इन्ही इस्लामिक साम्राज्यवादियों में से एक हमलावर नजीबुद्दौला ने मोरध्वज के विशाल किले को बलपूर्वक तोड़कर अपने बसाये नगर नजीबाबाद के पास, किले की ईटों से अपना एक विशाल किला बनाया। बिजनौर जिला गजेटियर कहता है कि इसमें लगे पत्थर मोरध्वज स्थान से लाकर लगाए गए हैं। मोरध्वज के किले की खुदाई में आज भी मिल रहे बड़े पत्थरों और नजीबुद्दौला के किले में लगे पत्थरों की गुणवत्ता एकरूपता और आकार बिल्कुल एक हैं। पत्थरों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए जो हुक इस्तेमाल किए गए थे, वह भी एक समान हैं। इसलिए किसी को भी यह समझने में देर नहीं लगती है कि नजीबुद्दौला ने मोरध्वज के किले को नष्ट करके उसके पत्थरों से अपने नाम पर यह किला बनवाया। सन् 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने इसके अधिकांश भाग को ढहा दिया। इसकी दीवारें बहुत चौड़ी हैं, जो इसके विशाल अस्तित्व की गवाह हैं। नजीबुद्दौला का जो महल था उसमें आज पुलिस थाना नजीबाबाद है। यहां पर नजीबुद्दौला के वंशजों की समाधियां भी हैं। मगर संयोग देखिएगा कि जो किला नजीबुद्दौला ने बनवाया था, आज उसे पूरी दुनिया सुल्ताना डाकू के किले के नाम से जानती है।  के 


बिजनौर जनपद में एक ऐतिहासिक कस्बा मंडावर है। इतिहासकार कहते हैं कि पहले इस स्थान का नाम प्रलंभनगर था, जो आगे चलकर मदारवन, मार्देयपुर, मतिपुर, गढ़मांडो, मंदावर और अब मंडावर हो गया। बौद्ध काल में यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्थल था। इतिहासकार कनिंघम का मानना है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां पर करीब 6 सन् 1130 एड़ी में अरब यात्री इब्नेबतूता मंडावर आया था। अपने सफरनामें में उसने दिल्ली से मंडावर होते हुए अमरोहा जाना लिखा है।


ब्रिटिशकाल में महारानी विक्टोरिया को मंडावर के ही मुंशी शहामत अली ने उर्दू का ट्यूशन पढ़ाया था जिन्हें वो अपने साथ लन्दन ले गई थी। मुंशी शहामत अली अंग्रेज सरकार के रेजीडेंट थे। महारानी विक्टोरिया ने उन्हें उर्दू पढ़ाने के एवज में मंडावर में इनके लिए जो महल बनवाया था। यह महल पूरी तरह से यूरोपीएन शैली में है। अब सब कुछ ध्वस्त होता जा रहा है। बिजनौर से कुछ दूर जहानाबाद में यहां एक ऐसी मस्जिद थी जिस पर कभी गंगा का पानी आने से इलाहाबाद और बनारस में बाढ़ आने का पता चल जाया करता था। मुगल बादशाह शाहजहां ने यहां की बारह कुंडली खाप के सैयद शुजाद अली को बंगाल की फतह पर प्रसन्न होकर यह जागीर दी थी। शुजातअली ने गोर्धनपुर का नाम बदलकर ही जहानाबाद रखा। इन्होंने गंगातट पर पक्का घाट बनवाया और एक ऐसी विशाल मस्जिद तामीर कराई कि कि जिस पर अंकित किए गये निशानों तक गंगा का पानी चढ़ जाने से इलाहाबाद और बनारस में बाढ़ आने का पता चलता था। लगभग सन् 1920 में दुर्भाग्य से आई भयंकर बाढ़ से यह मस्जिद ध्वस्त हो गई जबकि उसकी मीनारों के अवशेष अभी भी यहां पड़े दिखाई देते हैं। 


 अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल और फैजी चांदपुर के पास बाष्टा कस्बे के पास एक गांव के रहने वाले थे।  इतिहासकार कहते हैं कि पृथ्वी को समतल कर भूमि से अन्न उत्पादन करने की शुरूआत करने वाले रामायण काल के शासक प्रथु के अधीन यह पूरा क्षेत्र था।


बिजनौर में कई छोटी बड़ी रियासतें थीं। इनमें साहनपुर, हल्दौर, सेवहरा, रतनगढ़, और ताजपुर बड़ी और प्रसिद्घ रियासतें हैं।  साहनुपर स्टेट जाट रियासत है और सबसे प्राचीन है। 


बिजनौर जनपद ने देश को कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभाएं भी दी हैं, जैसे-प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा आत्माराम बिजनौर के थे।


कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता


एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो


निराश मनुष्यों को आशावादी बनाने वाली इन पंक्तियों के रचनाकार एवं गज़लकार कवि दुष्यंत बिजनौर के थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साहित्य एवं पत्रकारिता की मशाल लेकर चलने वाले संपादकाचार्य पं रुद्रदत्त शर्मा, पंडित पदमसिंह शर्मा, फतेहचंद शर्मा, आराधक, राम अवतार त्यागी, मशहूर उर्दू लेखिका कुर्तुल एन हैदर, कन्या गुरुकुल के संस्थापक एवं जाट इतिहास के लेख़क ठाकुर संसार सिंह, शक्ति आश्रम कनखल के संस्थापक जिनके नाम पर ज्वालापुर कनखल मार्ग है, योगेंद्रपाल शास्त्री, पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्रपाल सिंह कश्यप, प्रसिद्घ संपादक चिंतक बाबू सिंह चौहान, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय शिवचरण सिंह त्यागी बिजनौर के ही थे। उर्दू के प्रख्यात विद्वान मौलवी नजीर अहमद रेहड़ के रहने वाले थे। इन्होंने उर्दू साहित्य पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। इंडियन पैनलकोड का इन्होंने इंगलिश से उर्दू में अनुवाद भी किया है। सरकार ने उन्हें उनके उर्दू साहित्य की सेवाओं के लिए शमशुल उलेमा की उपाधि दी तथा एडिनवर्ग विश्वविद्यालय ने उन्हें डा ऑफ लॉ की उपाधि दी। वे अंग्रेजों के जमाने के डिप्टी कलेक्टर थे।


देश के प्रसिद्ध समाचार पत्र समूह टाइम्स ऑफ इंडिया के स्वामी एवं भारतीय ज्ञानपीठ पुरुस्कार के मालिक साहू शांति प्रसाद जैन, साहू श्रेयांश प्रसाद जैन, पत्रकार लेखक डा महावीर अधिकारी, भारतीय हाकी टीम के प्रमुख खिलाड़ी और पूर्व ओलंपियन पद्मश्री जमनलाल शर्मा, भारतीय महिला हाकी टीम की पूर्व कप्तान रजिया जैदी, भूतपूर्व गर्वनर धर्मवीरा जिन्हें PMO में नेहरू के समय प्रथम प्रिंसिपल सेक्रेट्री होने का गौरव प्राप्त है। गौतम बुध्द विश्व विधालय के संस्थापक एवं कुलपति जो AITCE के चेयरमैन भी रहे रामसिंह निर्जर इसी जिले से हैं।इनके अतिरिक्त प्रमुख न्यायविद शांतिभुसन ,फिल्म निर्माता प्रकाश मेहरा बिजनौर की देन हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय का उर्दू का प्रसिद्ध तीन दिवसीय समाचार पत्र मदीना बिजनौर से प्रकाशित होता था। उस समय यह समाचार पत्र सर्वाधिक बिक्री वाला एवं लोकप्रिय था। काकोरीकांड के अमर शहीदों का प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय शिवचरण सिंह त्यागी के गांव पैजनियां से गहरा रिश्ता रहा है। अशफाक उल्ला एवं चंद्रशेखर जैसे अमर शहीदों ने यहां अज्ञात वास किया था। स्वर्गीय त्यागी एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने कभी सरकार से न पेंशन ली और न ही कोई अन्य लाभ। पैजनियां गांव को स्वतंत्रता आंदोलनकारियों का तीर्थ भी कहा जाता है। नूरपुर थाने पर 16 अगस्त को स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा फहराने वाले दो युवकों परवीन सिंह एवं रिक्खी सिंह को अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया था। तभी से हर वर्ष उनकी याद में नूरपुर में विशाल शहीद मेला लगता है।


राजनैतिक रूप से भी बिजनौर जनपद देश के मानचित्र पर चमकता रहा है। भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री हाफिज मोहम्मद इब्राहिम, महावीर त्यागी, बाबू गोविंद सहाय और चौधरी गिरधारी लाल ने काफी समय तक बिजनौर का प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व किया है। गिरधारीलाल के प्रयासों के कारण आज बिजनौर जिला रोड नेटवर्क में यूपी में नंबर one है। बिजनौर के विकास में इन राजनेताओं का अभूतपूर्व योगदान रहा है। देश की संसद को रामदयाल के रूप में निर्विरोध सांसद देने का श्रेय भी बिजनौर को है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के राजनीतिक कैरियर की शुरूआत भी बिजनौर लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर हुई।वर्तमान मे बसपा के मलूक नागर यहाँ से सांसद है और भूतपूर्व  बीजेपी के सांसद राजा भारतेंदु सिंह है जो बिजनौर की साहनपुर रियासत के राजवंश से ताल्लुक रखते है। बिजनौर खेती की पैदावार में भी सबसे आगे है। यहां गेहूं गन्ना-धान देसी उड़द प्रमुख उपज है। क्रेशर उद्योग का यहां काफी विस्तार हुआ है, लेकिन अब इसमें मुनाफा नहीं होने से उद्यमियों नेइससे हाथ खींच लिये हैं। फिर भी बिजनौर शुगर उत्पादन में अपनीo महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।


मुझे गर्व है मेरा भी इस महान जनपद बिजनौर मे जन्म हुआ ।


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