Sunday, November 7, 2021

कांगडी गुरूकुल को अपनी समपूर्ण भूमिदान करने वाले लाला मुंशी अमन सिंह



 

लाला मुंशी अमन सिंह

गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्वालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले मुंशी अमन सिंह का जन्म सन 1863 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर नगर के समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम लाला शिवलाल रईस था। उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वत्र व्यवस्था न थी।

गुरूकुल विश्वविद्यालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले भामाशाह मुंशी अमन सिंह रईस को कोई आज जानता भी नहीं। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए इन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय प्रांगण में इनके नाम पर अमन चौक है। विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार का नाम भी उनके नाम पर अमन द्वार रखा हुआ है। प्रथम स्थापना स्थल और अमर सिंह की जमीदारी का नाम कांगडी  विश्वविद्यालय के नाम के साथ लगा है। आज 28 जनवरी इस भामाशाह की पुण्यतिथि है। 


गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्वालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले मुंशी अमन सिंह का जन्म सन 1863 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर नगर के समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम लाला शिवलाल रईस था। उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वत्र व्यवस्था न थी।

बिजनौर मंडल आर्य समाज के इतिहास के अनुसार इसीलिए मुंशी अमन सिंह केवल साधारण गणित, भूगोल आदि की शिक्षा के साथ−साथ केवल उर्दू और फारसी का ही अध्ययन कर सके। इस समय देश में प्रायः बाल विवाह का प्रचलन था। इसलिए छोटी अवस्था में ही आपका विवाह जनपद के जलालाबाद कस्बे के प्रसिद्ध रईस सूरजभान की बहन ईश्वरी देवी से हुआ। जलालाबाद उस समय परगने का मुख्य स्थान था। लेखक प्रायः 90 वर्ष पूर्व लिखी पुस्तक में लेखक लिखते हैं उस समय सन् 1926 में जलालाबाद उजड़ता जा रहा था। यहां के निवासी नजीबाबाद जाकर बस रहे थे। लगता है कि मुंशी अमन सिंह ससुराल में रहते थे। ये भी नजीबाबाद जा बसे। इसलिए इन्हें बिजनौरवासी नही अपितु नजीबाबाद के निवासी के रूप में जाना गया।

मुंशी अमन सिंह शुरू से ही पतले−दुबले और कमजोर थे। साथ ही इन्हें 22−23 साल की उम्र के श्वास रोग (दमा) हो गया। श्वास रोग से आप जीवन भर भारी कष्ट में रहे। औषधि के सेवन से भी कोई विशेष लाभ न हुआ। कांगड़ी गुरूकुल के विशाल क्षेत्र और स्वच्छ वायु मंडल में निवास से दमा दबा जरूर रहा। आपके कोई संतान नही थी। आप श्वांस के गंभीर रोगी थे। दमें का दौरा पड़ने पर आपकी हालत बहुत खराब हो जाती थी। प्राण त्याग की हर समय आशंका बनी रहती थी। आपने सोचा कि अपनी सारी भू−सम्पत्ति अपने जीते जी दान कर दी जाए, ताकि विवाद न पैदा हो। आपने नजीबाबाद आर्य समाज के प्रधान पंडित बालमुकुंद आदि की सम्मति से महात्मा मुंशीराम (बाद में बने स्वामी श्रद्धानंद) को गुरूकुल की स्थापना के लिए अपनी सारी संपत्ति दान देने का निर्णय लिया। महात्मा मुंशीराम उस समय गुरूकुल की तलाश के लिए भूमि की तलाश कर रहे थे।

चौधरी अमन सिंह ने अपना 1200 बीघा जमीन का कांगड़ी गांव और अपने पास एकत्र सम्पूर्ण राशि ₹11000 इसकी स्थापना के समय इस गुरूकुल विद्यालय को दान की थी। चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय कनखल (हरिद्वार) देश का जाना माना विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1902 में मुंशी राम (स्वामी श्रद्धानंद) ने हरिद्वार से उत्तर में कांगड़ी गांव तबके बिजनौर जनपद में की। आज इसका केम्पस हरिद्वार से चार किलोमीटर दूर दक्षिण में है।

कांगड़ी के घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, चार मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। 1907 में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। 24 सितंबर 1924 को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 को गुरुकुल कांगड़ी गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 में इसका प्रबन्ध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभा का संगठन हुआ।

मुंशी अमन सिंह शुरू से ही दमा से ये परेशान थे ही। दमा का कानपुर में एक रिश्तेदार के यहां रहकर उपचार करा रहे थे। 28 जनवरी 1926 में कानपुर में ही उपचार के दौरान इनका निधन हुआ। पत्नी ने इनका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया। 

अमन सिंह द्वारा दान की भूमि विश्वविद्यालय के अधीन है। अमन सिंह को सम्मान देने के लिए विश्वविद्यालय कैम्पस में इनके नाम से अमन चौक बना हुआ है। विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार भी इनके नाम पर है। उसका नाम अमन द्वार है। अमन सिंह के दान दिए गांव का नाम कांगड़ी आज भी गुरूकुल के नाम से जुड़ा है।

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

28 जनवरी 2022 के प्रभासाक्षी में मेरा लेख

Saturday, November 6, 2021

चंद्रावती लखनपाल 20 दिसंबबर के अमर उजाला में मेराालेख



 बिजनौर में जन्मी प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,आर्य विदुषी तथा  शिक्षाशास्त्री चंद्रावती लखनपाल को  बिजनौरवासी जानते भी  नहीं । आज 20 दिसंबर   चंद्रावती लखनपाल का आज जन्मदिन है। बिजनौरवासी ये भी नहीं जानते कि चंद्रावती लखनपाल दो बार राज्यसभा की सदस्य भी नहीं।

चंद्रावती लखनपाल का  परिवार बिजनौर नई बस्ती के आर्यनगर में रहता था। इनके पिता पंडित जयनारायण शुक्ला नगरपालिका बिजनौर में लेखाकार  थे। इनकी मां भगवान देवी बालिका नार्मल स्कूल की मुख्य अध्यापिका थी। जयनारायण शुक्ला  कई साल तक आर्य समाज बिजनौर के  मंत्री और कोषाध्यक्ष रहे।   पांच संतानों में सबसे बड़ी  चंद्रावती को पिता पंडित जयनारायण शुक्ला ने  उच्च शिक्षा दिलाने  इलाहाबाद भेजा। चंद्रावती ने इलाहाबाद विश्वविद्वालय से १९२६ में  स्नातक की डिगरी प्राप्त की ।

डा सत्यवृत सिद्धांतालकार ने अपनी बायोग्राफी रेमीनिसेंसेज एंड रिफलेक्शन्स आफ  वैदिक स्कालर में लिखा है कि शादी के समय   वे (डा सत्यवृत कांगड़ी )गुरूकुल विश्वविद्वालय में  तुलनात्मक धर्म विज्ञान के महोपाध्याय थे। चंद्रावती की इच्छा थी कि  स्नातक करने के बाद ही शादी हो।  उनकी  इच्छा के अनुरूप स्नातक करने के बाद 15 जून 1926 को शादी हुई। । शादी के बाद चंद्रावती ने इलाहाबाद से विश्वविद्यालय से अंग्रेजी से एमए किया।

डा सत्यवृत और चंद्रावती लखनपाल दोनों आजादी के आंदोलन में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय चंद्रावती लखनपाल ने  शराबबन्दी और स्वदेशी का प्रचार किया। १९३२ में उन्हें कांग्रेस के  संयुक्त प्रान्तीय राजनैतिक सम्मेलन महिला विंग की अध्यक्ष चुना गया। 20 जून 1932 को सम्मेलन के लिए आगरा पहुँचने पर वे  गिरफ्तार कर लीं गयीं। उन्हें एक  साल की सजा हुई।

वे महादेवी कन्या पाठशाला( एक डिगरी काँलेज )देहरादून की प्राचार्य बनी। कार्यकाल पूरा होने उसके बाद चंद्रावती लखनपाल दो  जुलाई 1945 को  कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्या पद पर नियुक्त हुई।अप्रैल 1952 में राज्यसभा की सदस्या चुनी गई । पहले चार साल और दूसरी बार छह कुल  10 साल तक इस पद पर रहीं।1934 में चन्द्रावती जी को स्त्रियों की स्थिति“ ग्रन्थ पर सेकसरिया पुरस्कार तथा 20  मई 1935  में उन्हें शिक्षा मनोविज्ञान” ग्रन्थ पर महात्मा गांधी  के सभापतित्व में मंगलाप्रसाद प्रसाद पारितोषिक पुरस्कार दिया गया।

चंद्रावती लखानपाल के पति  डा सत्यवृत सिद्धान्तालंकार  गुरूकुल विश्वविद्यालय कनखल के  दो बार कुलपति रहे। वे जाने माने लेखक थे।वेद, समाज शास्त्र और होम्योपैथी पर भी उनकी कई पुस्तक हैं। डा सत्यवृत भी राज्य सभा के सदस्य रहे।

चंद्रावती लखनपाल ने महिलाओं को  स्वावलम्बी बनाने के लिए १९६४ में अपनी सम्पूर्ण आय दान देकर  एक ट्रस्ट की स्थापना की।३१ मार्च १९६९  को मुबंई में इनका  निधन हुआ।


 जन्म 20 दिसंबर 1904 −− निधन 29 मार्च  1969



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