Friday, October 16, 2020

फिल्मी दुनिया के बड़े पत्रकार थे शम्स कंवल

          

धनाभाव से जूझते रहे पर टूटेे नहीं

गगन के हिंदुस्तानी मुुसलमान नंबर ने उन्हें मशहूर कर दिया

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अशोक मधुप

उर्दू के जाने माने पत्रकार- लेखक  शम्स कंवल  1925 में बिजनौर के एक मुस्लिम जमींदार ख़ानदान में पैदा हुए । बचपन में सुंदर होने के कारण उनके दादा शम्सुद्दीन   को जमील कह कर बुलाते थे। 1945 में बिजनौर के गवर्मेंट हाई स्कूल से मैट्र‌िक पास किया। शम्स कवंल का स्कूल की किताबों से अधिक साहित्यिक पुस्तकों में  मन लगता था। 1945 में मुरादाबाद इंटर काॅलेज से इंटर तथा लखनऊ से 1951 ग्रेजुएट किया। अपना नाम शम्स कंवल रख लिया । इसी नाम से कोमी आवाज़ लखनऊ में फिल्म एडिटर के तौर पर नौकरी करने लगे।

1952 में उन्होंने लखनऊ से अपनी फ़िल्मी 15 दिवसीय पत्रिका ‘ साज़‘ निकाली। क़रीब डेढ़ साल के बाद ये पत्रिका बंद हो गई। 1953 में दिल्ली आ गए और ‘फ़िल्मी दुनिया‘ में  सहायक संपादक बने ।1954 में ‘ रियासत‘ साप्ताहिक में असिटेंट एडिटर नियुक्त हुए। रोटी रोज़ी के लिए कई अख़बार व रिसालों में आलेख लिखे।

 1954 में  मुंबई चले गए। यहां उनको इंक़लाब अख़बार में फ़िल्म एडिटर की नौकरी मिल गई।1956 में उन्होंने फ़नकार साप्ताहिक अख़बार में संपादक हो गए। क़रीब डेढ़ साल के बाद शम्स जी फ़नकार से अलग हो गए।1959 में उन्होंने अपना साप्ताहिक फ़िल्म रिपोर्ट प्रकाशित किया । पैसों की तंगी में ये बंद हो गया। 1962 तक लगातार वे फिल्मी अख़बारों और रिसालों में आलेख, फिल्मी शख़्सियतों पर लेख, फ़िल्मों पर समीक्षा आदि  लिखते रहे।पाठक उनके लेखन के आनंद में मग्न रहते और नई तहरीरों के मुंतज़िर रहते। उनकी  आश्चर्यजनक संवेदनशील अभिव्यक्ति उनके गहन और गौण अध्ययन के द्वारा पाठकों के मन पर हुकूमत करने लगी।

गगन का प्रकाशन और सफर

मुबई के बड़े साहित्यकार और शम्स साहब के लंबे समय तक नजदीकी रहे असीम काव्यानी के अनुसार उन्होंने अपनी अथक मेहनत और विद्वता के बल पर  उल्हास नगर से  ‘गगन‘ मासिक का फ़रवरी 1963  में प्रकाशन शुरू किया। वे इसके  संपादक , पैकर और पोस्ट करने वाले ख़ुद ही थे। उनकी पत्नी शहनाज़ कंवल एक अच्छी और प्रसिद्ध कहानीकार है।ख़र्च में बचत के लिए  उन्होंने किताबत सीखी और गगन  की किताबत लगीं। शम्स साहब ने 22 साल के सफर में  गगन के दो विशेषांक  निकाले।1975 में ‘हिंदुस्तानी मुसलमान नंबर‘ 618 पृृष्ठ और 1984 में मज़ाहिबे आलम नंबर 1240 पृृष्ठ।

  हिंदुस्तानी मुसलमान नंबर में हर फ़िरक़े व हर ख़्याल और नज़रिए के क़लमकारों के आलेख इकट्ठा किए गए हैं। इसमें मुसलमानों की एतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर बहस की गई है। ये एक एंसाइक्लोपीडिया का दर्जा रखता है। मुस्लिम राजनैतिक आंदोलन, धार्मिक संस्थाएं, मुस्लिम बुद्धिजीवियों की जीवनियां व लिस्ट,उनके भाषणों के अंश आदि के साथ  ख़ुद शम्स कंवल का आलेख शामिल हैं।बाल ठाकरे,कृृष्ण चंद्र,कुंवर महेंद्र सिंह बेदी,गोपाल मित्तल, प्रो डब्लू बी स्मिथ, बसंत कुमार चटर्जी आदि के आलेख संकलित हैं। इस विशेषांक  की धूम चारों ओर मची। कई वर्षों तक ये विशेषांक लोगों के ज़हनों में हलचल मचाता रहा। आज भी इस संकलन की चर्चा अक्सर होती रहती है।      

मज़ाहिबे आलम नंबर आम पाठकों को रूचिकर न लगा। न ही लागत का पैसा वापस आ सका । मजबूरन  गगन का प्रकाशन बंद हो गया।

 दिल्ली की  लेखिका रकशंन्दा रूही मेहंदी के अनुसार शम्स जी 1985 में अपने  वतन बिजनौर वापस आ गए। मुंबई में 30 वर्ष में 30 किराए के मकान बदले। कुछ दिन बिजनौर में गुज़ारने के बाद पुश्तैनी मकान में से अपने हिस्से की रक़म से 1985 में  अलीगढ़ में अपना घर ‘सलामा‘ तामीर करवाया और वहीं बस गए।

लेखन चलता रहा, बड़े व प्रसिद्ध रिसालों में उनके आलेख प्रकाशित होते रहे।अक्तूबर 1994 में एक बार फिर मासिक रिसाला ‘उफ़क़ ता उफ़क़ का प्रकाशन शुरू किया। इसके  छह अंक ही  निकल सके । उनकी सेहत ख़राब होने लगी। । अंत समय में सपत्नीक बिजनौर आ गए। आठ अक्तूबर 1995 को बिजनौर में अपने मकान में आखिरी सांस ली।

चाय के रसिया  थे शम्स कंवल

शम्स साहब के जानकारों  के अनुसार  शम्स कंवल चाय के रसिया थे। 40 सिग्रेट रोज़ पीना उनका शौक था। लगभग शाकाहारी थे। 40 वर्ष की उम्र में खुद ही सिग्रेट  छोड़ दी। वो बदला लेने में यक़ीन रखते थे। माफ़ करना उन्हें नापसंद था। उनके इस बर्ताव ने उनके बहुत से दुश्मन पैदा कर दिए थे। घूमने फिरने से उन्हें दिलचस्पी न थी। किताबें पढ़ने से उनको बेपनाह दिली ख़ुशी मिलती थी।वे एक तरह से नास्तिक थे। आदर्शवादी नज़रिए के वे मानने वाले थे।  उर्दू ज़बान को सही पढ़ने और लिखने पर ज़ोर दिया।  एमर्जेंसी के वो तरफ़दार थे। वे सदा अपने बनाए नज़रियात पर क़ायम रहे।

अशोक मधुप