Monday, December 15, 2014

तेहरवी का रिहर्सल

        सरदार तारा सिंह को जन्म दिन पर शाल ओढ़ाकर 
सम्मानित  करते श्री जय नारायण अरुण 

नूरपुर के रहने वाले सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त मौला है। खालसा इंटर कॉलेज नूरपुर के प्रधानाचार्य  होने के दौरान कई  बार कार्यक्रम में उन्हें संचालन करते देखा। कार्यक्रम संचालन में वे हसीं की फुलझड़ी छोड़ते रहते। सबसे बड़ी बात यह होती कि सरदार होते भी वे सरदारोंं पर ही सबसे ज्यादा चुटकुले  सुनाते । 1933 में जन्में सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त व्यक्ति हैं।
प्रधानाचार्य  होते राष्ट्र पति द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। उनके प्रधानाचार्य  होने के दौरान मैं नूरपुर जाता तो खालसा इंटर कॉलेज में जरूर जाता। स्कूल का समय होता या अवकाश का दिन वे कॉलेज में जरूर मिलते। मेरी कोशिश होती कि कॉलेज घूमूं  और देखूं कि नया क्या बना है। प्रत्येक बार कुछ न कुुछ नया जरूर होता। तारा सिंह ने इस कॉलेज को बुलंदी तक पंहुचाने में कोई  कसर नहीं छोड़ी।
मैने एक बार उनसे पढऩे के लिए सिखों का इतिहास मंगा लिया। बताता चलूं कि तारा सिंह की अपनी बहुत अच्छी लाइबे्ररी है। बहुत दुर्लभ  पुस्तकें उनके पास हैं। लगभग एक माह बाद आए और पूछा कि पुस्तक पढ़ली। मैंने उन्हीं कि भाषा में जवाब दिया कि देखिए पहला बेवकूफ  वह जो किसी को किताब पढऩे को दे और दूसरा वह जो पढ़कर लौटा दे। अब आप बन गए। मैं तो बनने से रहा। वे बिजनौर जब आते तो मेरे से मिलने आते और किताब मांगते नहीं चूकते। मेरा रटारटाया पुराना उत्तर सुनकर वह चले जाते। कई बार ऐसा हुआ।  एक बार आए और बातों में लग गए। उन्होंने किताब नही मांगी और विदा लेकर चलने लगे। मैंने उन्हें रोका । मेज की दराज से किताब निकालर उन्हें दें दी। किताब काफी पहले पढ़कर मेज की दराज में रख्र छोड़ी थी कि उस दिन दूंगा जिस दिन वह नहीं मांगेंगे। 
काफी दिनों बाद अभी तीन दिन पूर्व फोन आया । बोले कल में अपनी तेहरवीं का रिहर्सल कर रहा हूं। दुपहर में खाना है। जरूर आना। फिर बोले आओगे तो कुछ गिफ्ट  तो लाओगे ही। सौ  ग्राम मूंगफली जरूर लाना। 
सवेरे मैंने दफ्तर के एक साथी से कहा कि अच्छी वाली ढाई  सो ग्राम मूंगफली खरीद कर कहीं से बहुत सुंदर पैक कराकर लाओ। दफ्तर के और साथियों ने भी मेरी बात सुनी। कहा कुछ नहीं मुस्काराकर चुप हो गए। साथी बहुत सुंदर पैंकिग बनवाकर लाया। 
तारा सिंह जी के बेटे ने नूरपुर धामपुर मार्ग  पर एक कॉलेज चलाया हुआ है। तारा सिंह जी भी प्राय: वहीं मिलतें है।  मेरी गाड़ी ने कॉलेज में  प्रवेश किया तो सरदार जी सामने ही खड़े नजर आ गए। तपाक से गले मिले। बताया कौन -कौन आ गए हैं। मै  पहली बार कॉलेज में आया था , सो उन्होंने पूरा  कॉलेज घुमाया।   कॉलेज के दोनों साइड की बिल्डिंग के बीच खाली जगह पर टीन का शेड डालकर असेंबली के लिए जगह बनाई  हुई थी। लॉन बहुत ही खूबसूरत था। कॉलेज से सटाकर तारा सिंह जी ने मैरिज हाउस बनाया है।  इस पर काम चल रहा है। यहीं भोजन की व्यवस्था थी।  रास्ते में वे बतातें रहे । मै  सुनता रहा। बहुत दिन से उन्हें सुना नही था।
इस दौरान कुछ उनके शिष्य भी मिले । पांव छूकर जन्म दिन की बधाई दी। वे सबसे हंसकर  कहते -बधाई- वधाई गई भाड़ में ये बता गिफ्ट क्या लाया है? सरकार जी के विनोदी रवैये से परिचित सब कार्यक्रम का आनन्द लेते रहे। मुझे जल्दी लौटना था , सो खाना खाकर कॉलेज से सरकने लगा।
तारा सिंह मुझे अपनी पुस्तक  मंथन रास्ते में लिए मिले। पूरे पूछने पर बोले मंथन  कविताओंं की किताब है। मैने कहा मेरी कहां है? उत्तर दिया - ये अरूण जी के लिए है। अरूण जी  उनके शिक्षक  जगत के पुराने साथी  और देश के जाने माने आर्य समाजी नेता हैं। इतने में एक ने संदेश दिया अरूण जी को फीना जाना था। दूसरे रास्ते से निकल गए। अब सरदार जी ने पुस्तक पर मेरा नाम लिखकर मुझे दे दी  और मैं  बिजनौर के लिए रवाना हो गया।  पुस्तक अरुण जी को नही मुझे मिलनी थी। मुझे ही मिली जबकि तारासिंह अरूण  जी को देना चाहते थे।
  

Friday, November 28, 2014

एक गलती ऐसी भी


कई बार बहुत अजीब होता है। नया होता है। ऐसा होता है कि मन ही मन मुस्कराकर रह जाना पड़ता है।
दुबई  की  सवेरे की फलाइट थी। बिजनौर से चल कर रात को बिटिया के पास गाजियाबाद  रूका। छोटे बेटे को मुझे छोडऩे एयरपोर्ट  जाना था,सो वह भी लक्ष्मी नगर से गाजियाबाद आ गया।
दामाद को शुगर हुई थी । उन्होंने उसकी जांच के लिए मशीन खरीद  रखी थी। मेरी भी जांच करने की जिद करने लगे । मैने बहुत मना किया कि मुझे शुगर नहीं है। किंतु नहीं माने जांच की तो 265 आई।
उन्होंने कहा -आपको शुगर है। जांच कराओ । बेटा भी दबाव देने लगा। मुझे सुबह निकलना था सो मामला उस समय टल गया ।
दुबई  से वापसी आया तो परिवार का  दवाब कि जांच कराओ। छोटे बेटे- बिटिया और दामाद की टोका टाकी। मजबूरन जांच कराने को तैयार हुआ। सवेरे बिना कुछ खाए और नाश्ते के बाद दो बार जांच होती है। चलते समय मै  पत्नी को भी ले गया और कहा जांच करा लो।
जांच में फास्टिंग में 60 से 110 नार्मल है किंतु मेरी शुगर 300 आई। नाश्ते के बाद 60 से 140 होनी चााहिए । ये 412 रही। ऐयी ही कुछ हालत पत्नी निर्मल की भी हुई। 60 से 110 की जगह 200 और नाश्ते के बाद की 80 से 140 की जगह 260 हुई। हम दोनों को पहले  कभी शुगर थी नहीं , तो रिपोर्ट  पर यकीन नहीं हुआ। दूसरी लेब पर जांच कराई तो मेरी शुगर फास्टिंग  की  60- 110 की जगह 210 और नाश्ते के दो घंटे बाद की 336 रहीं। निर्मल की भी 230 और 300 रही।
बहुत बड़ी गलती यह हुई कि दूसरे दिन जांच कराने के दो दिन बाद दीपावली थी। अब शुगर निकल आई  तो मिठाई से बचना था। सो दीपावली की आई मिठाई खाने की जगर्ह बांटनी पड़ी। चाय भी फीकी शुरू कर दी। निर्मल पहले ही मीठा बहुत कम लेती हैँ, सो उन्हें तो कुछ परेशानी नहीं हुई। परेशानी मुझे हुई जिसे   मिठाई का बहुत शौक रहा है। फीकी चाया पीनी पड़ती तो यह लगता कि इससे तो न पी जाए तो ज्यादा बेहतर रहे।
किसी तरह एक माह काटा। इस दौरान हम दोनों ने परहेज किया और एक्सरसाइज बढ़ाई। पहले मुझे तीस चालिस मिनट घूमते भी परेशानी होती थी । नींद आने लगती थी। सो बींच में ही घूमना छोड़ आकर सो जाता था। अब शुगर के डर से सवेरे एक घंटा घूमना शुरू कर दिया। एक घंटा योगा प्राणायाम में देने लगा। शाम को भी खाना खाने से पूर्व  तीस चालिस मिनट घूमने  लगा।
 डाक्टर नीरज चौधरी  जनपद के बहुत बड़े फीजिशियन  और हार्ट स्पेशलिस्ट हैं। उनसे समय लिया। हमारी रिपोर्ट देखकर यह चौंके। उन्होंने अपने यहां शुगर टैस्टï कराई । निर्मल की 165 और मेरी 148 आई। फिर भी लैब पर सघन जांच कराने का निर्णय लिया गया।
अब जांच में  60 से 110 रहने वाली मेरी  शुगर 112 और निर्मल की 148 आई। रिपोर्ट  देखकर वह चौकें। बोले आपने बहुत कंट्रोल किया है। ऐसे ही बनाए रखो। दवाई की कोई  जरूरत नहीं।
अब हम अपनी बेवकूफी पर हंसते है कि दीपावली के बाद जांच  कराई  होती तो घर आई मिठाई  जमकर खाई  जाती।  इधर उधर बांटनी तो  न पड़ती। दूसरी ओर  ये सोचतें हैं कि शुगर आएगी, ये यकीन नहीं था। इसी गफलत में जांच करा ली। हां एक माह की  एकसरसाइज का परिणाम यह हुआ कि अब घूमते सुस्ती नहीं आती। थकान नहीं होती। घूमने का समय भी बढ़कर दो घंटे के आसपास आ गया है। अब को शिश है कि इसे बनाए रखा जाए।अब शुगर तो सही हो गई पर जिन्हे बता दिया कि शुगर है । चाय फीकी लेंगें अब उनसे कैसे कहा जाए । कि अब ठीक हैं मीठी चाय देना ।
अशोक मधुप

Sunday, July 27, 2014

व्यंग बजट और मिया जुम्मन की नाराजगी


मियां जुम्मन आज बहुत नाराज नजर आ रहे थे। आते ही फट पड़े। मोदी और मोदी के मंत्री अजीब हैं। आम  बजट में सब को कुछ न कुछ दिया। आयकर में छूट की सीमा बढ़ाई। सीनियर सिटीजन को लाभ दिया। दवाई सस्ती की। टीवी मोबाइल पर टैक्स छूट दी। गंगा सफाई के लिए बजट रखा। अभी आयकर में छूट की और तैयारी है। सब खुश हैं कि उनके लिए कुछ न कुछ जरूर किया।
मैने सवाल किया आप क्यों परेशान है? क्या बजट में आपको भी कुछ चाहिए था? वे बोले- नहीं भाई। मोदी को चाहिए था  कि एक नया विभाग खोलते । खत्म होते राजनैतिक दलों के कल्याण के लिए । उनके सुधार के लिए। बड़े दलों को तो जरूरत नहीं । पर छोटे दलों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। संसद, विधान सभा में उनके लिए रिजर्वेशन का प्रावधान किया     जाना चाहिए। कोई  ओर न जीत पाए । नेता जी खुद  तो जीत कर संसद पंहुच जाए। नेता जी अपने बेटे या बेटी को तो संसद पंहुचा दें। ऐसी तो बजट में व्यवस्था की जानी चाहिए थी। हारे दलों के कल्याण के लिए बनने  वाले मंत्रालय के माध्यम से  छोटे और मझले दलों को वोट बैंक बढ़ाने, जनता मेें अपनी पकड़ बनाने की ट्रेनिंग दी जाती।  शॉक में डूबे हारने वाले राष्ट्रीय नेताओं के स्वास्थ्य की जांच के लिए व्यवस्था होती। दलितों के माध्यम से प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने वाले, तीसरे मोर्चा के माध्यम से प्रधानंत्री की कुर्सी कब्जाने का ख्वाब  संजाने  वालों के टूटे सपनों को जोड़ने की योजनाएं होती। केंद्र  में सरकार बनाने वाले दल से जोड़ -तोड़ कर जीन चाार सांसदों केे बल पर   केबनेट में स्थान पाने वाले छोटे चौधरी के लिए तो कुछ होता।  लालू और चुनाव में पराजित उनकी लड़की के लिए योजनाए होती।
बजट में नेता विरोधी दल का प्राविधान किया जाना चाहिए था। यदि सबसे बड़ी पार्टी  से नेता विरोधी दल नहीं बन सकता तो मिलीजुली सरकार की तरह कुछ दलों का गठबंधन कर नेता विरोधी दल चुने जाने का प्राविधान  तो  बजट में जरूर होना चाहिए था।
मैने  उनकी हां में हां भरते हुए कहा कि बारिश न होनेे से  सूखे की आंशका को देख सरकार तैयारी में लगी है।  सरकार की मशीनरी का प्रयास है कि  सूखे का प्रभाव कम से कम किया जा सके। अधिकतर विरोध दलों के नेताओं के  घरो में  तो लोकसभा चुनाव के दौरान ही सूखा पड़ गया । उनके लिए भी तो प्रंबध किया जाना चाहिए। अपने आप कौन अपने लिए कहता  है। मोदी तो विशाल हृदय है।  विजयी होते  ही    चुनाव पूर्व विरोध करने वाले आडवानी जी के  पंाव छूकर आशीर्वाद लिया। सुुषमा जी को विदेश मंत्रालय दिया। समृति इरानी को चुनाव के दौरान ही छोटी बहिन बना लिया। चुनाव में चारोंं खाने चित्त रहे विपक्ष के बड़बोले नेताओं के बारे में भी तो कुछ किया जाना चाहिए।
-अशोक मधुप








Thursday, July 24, 2014

सांवन की कांवड और ‌बिजनौर


सावन की शिवरात्रि से पूर्व कांवड‌‌ियों का भारी रेला रास्तों पर होता है।गंगा की दूसरी साइड मुजफ्फरनगर ,मेरठ ‌,दिल्ली व ह‌रियाणा राज्य के लाखों श्रद्धालु कांवड़ लेकर ह‌रिद्वार से ‌निकलतें हैं। इनका रास्ता मुजफरनगर मेरठ होकर होता है।हाला‌कि व्यवस्था के ‌लिए ये सब कुछ साल से ‌कांवड लेने बिजनौर होकर ह‌रिद्वार जातें हैं।
 सावन में ही मुरादाबाद, बुलंदशहर के भारी तादाद में कांव‌‌ड‌िए ‌बिजनौर से होकर वापस अपने घर जातें हैं। आश्चर्य की बात ये है ‌कि ‌बिजनौर जनपद में सावन में कावंड  लाने का प्रचलन नहीं है।यहां फरवरी में पड़ने वाली शिवरात्रि पर कांवड लाने का प्रचलन है। कुछ समय से अब कांवड आने लगी। वरन इस शिवरात्रि पर ‌बिजनौर जनपद में भगवान शिव का पूजन भी बहुत ही कम होता था।
हाला‌कि ‌बिजनौर जनपद में भगवान राम और कृष्ण के प्राचीन  मं‌दिर नही हैं। जो मं‌दिर हैं  वे ज्यादा पुराने नहीं। पुराने मं‌दिर भगवान शिव के ही हैं। ‌जिला गजे‌टियर कहता है ‌कि ‌बिजनौर भार शिवों का क्षेत्र रहा हैं। यहां के शिव उपासक कंधे पर शिव ‌लिंग लेकर चलते थे। जनपद में पुराने शिवालय गंज में ‌निगमागम ‌विद्यालय में और शेरकोट में रानी फुलकुंमारी कन्या इंटर काॅलेज के गेट पर स्‌थ‌ति हैं। इन दोनों में प‌रिक्रमा के ‌लिए मं‌दिर में ही स्‌थान बना है। शिव ‌लिंग बड़े हैं। उनकी ‌पिंडी काफी ऊंची उठाकर बनाई गई है।मं‌दिर की दीवारों पर मुस‌लिम काल की ‌‌चित्रकला है।
  जनपद के पुराने आदमी या ‌विद्वान सावन में कावंड न लाए जाने का  कारण नहीं बता पाए। लगता है ‌कि ‌बिजनौर ह‌रिद्वार से सटा ‌जिला तो है ‌किंतु लगभग 30- 40 साल पूर्व ‌बिजनौर ह‌रिद्वार का गंगा में उफान के कारण बरसात में संपर्क खत्म हो जाता था। इसी कारण सावन में यहां कावंड  लाने का प्रचलन नहीं हैं। यहां फरवरी में अाने वाले सावन में कावंड लाने की परम्परा है।आपमें से ‌किसी की जानकारी में  ब‌िजनाैर में सावन में कांवड लाने का कोई कारण हो तो कृपया मेरी ज्ञान वृ‌द्ध‌ि करें । 

Wednesday, June 11, 2014

व्यंग




अमर  उजाला के आज ११  जून के सम्पादकीय पेज पर
तमाशा में छपा मेरा एक व्यंग लेख 

Wednesday, May 28, 2014

चलो मंथन करते हैं


राजनीति भी अजीब शै है। जब तक सत्ता में हैं, तब तक मदमस्त हैं। किसी के दुख-दर्द से कुछ लेना-देना नहीं। बस अपना उल्लू सीधा करना है। जब सब कुछ लुट गया। सफीना मझधार में डूब गया, तो सब मंथन करते हैं।
माया मंथन कर रही हैं। वह शॉक में हैं। समझ नहीं आया- क्या हुआ? कैसे पूरी सोशल इंजीनियरिंग फेल हो गई। मुलायम मंथन कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश का यादव कैसे ′हिंदू′ बन गया? अजित गम में हैं कि उनके बिरादर जट ही उन्हें धोखा दे गए। वे जाट धोखा दे गए, जिन्हें उन्होंने कुछ ही दिन पूर्व केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण दिलाया था। खुलकर तो नहीं बोल रहे, पर सभी मन ही मन कह रहे होंगे कि सारे वोटर एहसान फरामोश निकले। सब ने धोखा दे दिया। सब हिंदू बन गए और मोदी का राजतिलक कर दिया।
सब मंथन कर रहे हैं। चुनाव में मुलायम का कुनबा तो बच गया, लेकिन लालू का परिवार राजनीतिक वैतरणी में डूब गया। पांच सांसदों के बूते केंद्रीय उड्डयन मंत्री बने अजित सिंह खुद भी गए, और बेटे को भी ले गए। बड़ी आशा लेकर राजनीति के चाणक्य अमर सिंह उनकी शरण में आए थे। सब उल्टा हो गया। सब मंथन कर रहे हैं। वह भी तब, जब पूरी बस्ती उजड़ गई। जब बस्ती बसी थी, तब नहीं सोचा कि जनता का भला कैसे हो?
चुनाव में मुलायम कहते थे, हम देखेंगे 56 इंच का सीना। पर दूसरे ने ऐसा धोबी पाट मारा कि मुलायम जैसा पुराना पहलवान भी चारों खाने चित्त हो गया। मात्र घर के बचे। सारा पार्लियामेंटरी बोर्ड घर में। किसी मसले पर बाहर जाने की जरूरत नहीं।
देवताओं और राक्षसों ने जब समुद्र मंथन किया था, तो उसमें से 14 रत्न मिले थे। वहां रत्न पाने को मंथन हुआ था, और यहां रत्न लुट जाने पर। इस बात पर मंथन हो रहा है कि वोटर हमें बेवकूफ कैसे बना गया, जबकि हम बरसों से उसे बेवकूफ बना रहे थे। मतदाताओं ने ऐसा तुरुप का इक्का मारा कि पांच साल तक हमारा संसद जाने का रास्ता ही बंद कर दिया। प्रधानमंत्री बनने की जुगाड़ में थे, मंत्री से भी गए।
अशोक मधुप
आज २८ मई के अमर उजाला में सम्पादकीय पेज पर तमाशा में छापा मेरा व्यंग लेख 

Friday, May 9, 2014

सपेरे का साक्षात्कार

बहुत भागदौड़ के बाद उस व्यक्ति को आखिर मैने खोज ही लिया , जिसने उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री की कार में सांप डाल दिया था। पत्रकारजनित उत्सुकता से मैने उससे पूछ ही लिया-भाई तुम्हें क्या सूझी? मंत्री जी की कार में सांप क्यों छोड़ दिया? वह मुसकराकर बोला -कोई खास बात नहीं । मै तो सपेरा हूं। सांपो से खेलता हूं। उन्हें दुलराता हूं। प्यार करता हूं। । अपने परिवारजनों की तरह उन्हें पालता हूं। इसी कारण वे मेरा कहा मानतें हैं। मेरी मर्जी पर जनता का मनोरंजन करतें हैं। नेता जी को देखकर मैने सोचा कि जरा इनकी विद्वता परख ली जाए। ये नए- नए नारे लगातें है । सारी जनता को मूर्ख बनाते हैं। कभी गरीबी हटाओ की बात करतें हैं। तो कभी रामराज्य का सपना दिखातें हैं। हर बार चुनाव में अलग - अलग तरह के मुखौटे लगाकर जनता के बीच आते हैं। बार - बार उसे भरमातें हैं। छलकर चले जातें हैं। बस मैने इनकी प्रतिभा परखने के लिए इनकी गाड़ी में सांप डाला था। मैं देखना चाहता था कि ये मेरे सिखाए सांप को भी बेवकू फ बना पातें हैं, या नहीं। वह ठहाका लगाते हुए बोला-कार में सांप डालते ही कमाल हो गया। सारी जनता को बेवकूफ बनाने वाले नेता जी को सांप सूंघ गया। सांप को पढ़ाने की जगह कार से भागकर जान बचाई। काश नेता जी जानते कि सांप भी दोस्त -दुश्मन को अच्छी तरह पहचानता हैं। प्यार करने वाले को नहीं काटता । काटता उसे ही है, जिससे खतरा जानता है। वैसे सापों के भी कुछ उसूल होतें हैं। वे उन्हें मानते हैं। सब जगह टेड़े चले किंतु बांबी में सीधे ही अंदर जातें हैं। दूसरे 90 प्रतिशत सांपों में जहर नहीं होता। किंतु नेता का कुछ नहीं बांबी हो या घर कब क्या करदें कुछ पता नहीं? सापंो से ज्यादा ये जहरीले होंते है। ये तो कब किसे डसलें कुछ नहीँ कहा जा सकता। मौका पड़ने पर किराए के बदमाशों से अपने ही जुलूस पर पत्थर फिंकवा लेते हैं। और को तो क्या बकशेगें, ये तो राजनीति की खातिर आतकवादियों से अपनी बेटी तक का अपहरण करा लेंते है। जीवन से ज्यादा प्यार करने वाली पत्नी और पे्रमिका को कभी भी मार या मरवा देतें हैं। कभी तो पत्नी के टूकड़ो को तंदूर में जलवा देतें हैं। कैसे नेता जी हैं ये मैने जरा सा झटका दिया तो भाग खड़े हुए। जरा सी देर में नानी याद आ गई। सब लग गये मेरी खुशामद करने। गिड़गिड़ाते देख मैन भी अपने सांप को पकड़कर अपनी झोली में डाल लिया। -अशोक मधुप

Wednesday, April 30, 2014

उनकी लुटिया डूब रही है

उनकी लुटिया डूब रही है


मियां जुम्मन आज बहुत गुस्से में दिखाई दिए। जाने कहां से बड़बड़ाते चले आ रहे हैं। मैंने उनका गुस्सा शांत करने के लिए ठंडा पानी पिलाया। किंतु वह मानने को तैयार नहीं। मैंने पूछ ही लिया, आखिर बात क्या हुई? क्यों नाराज हो?

वह बोले, चुनाव में ये नेता एक-दूसरे को गाली दें। एक दूसरे को चोर या उचक्का बताएं। भाजपा वाड्रा का इतिहास बताए अथवा कांग्रेस मोदी का अडाणी से संबंध। हमें इससे कोई लेना-देना नहीं। हम जानते हैं कि ये सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। जिसे जहां मौका मिल रहा है, लूट में लगा है अथवा लूटने वालों की गैंग में शामिल है। गुस्सा इस बात का है कि आपस में गाली-गलौज करते ये नेता अब जनता को गाली देने लगे हैं। फारूख अब्दुल्ला को ही लो। वह फरमा रहे हैं कि मोदी को वोट देने वाले समुद्र में डूब जाएं। इस तरह उन्होंने मोदी को वोट देने वालों को गाली दी। अब मोदी वाले कांग्रेस के वोटर को गाली देंगे। सब कहते है कि लोकतंत्र का आधार वोटर है। नेता तो उसे ही गाली देने पर उतर आए हैं।

मैने उन्हें समझाया, मियां जुम्मन, गुस्सा मत करो। गर्मी के मौसम में चुनाव हो रहे हैं। गर्मी का असर दिमाग का पारा चढ़ाएगा ही। दूसरे, वोटर के रुख ने बड़े-बड़ों के होश उड़ा दिए हैं। सारे नेता बौखलाए हुए हैं। बाजार में नमो गान ही चल रहा है। इस मंत्र से अन्य पार्टियों के तमाम नेता परेशान हैं। इस चुनावी तूफान में बड़े-बड़े तंबू उखड़ते नजर आ रहे हैं। ऐसे में नेता आखिर झल्लाएं नहीं, तो क्या करें? वोटर उनकी लुटिया डूबोने में लगा है। बड़े बड़े दिग्गज-मठाधीश अपनी लुटिया डूबती देख रहे हैं।

चुनाव जीतने के अथवा वोटर को लुभाने के सारे हथकंडे फेल होते नजर आ रहे हैं। न गुरु जी काम आ रहे हैं, और न गंडे-ताबीज। वोटर से भयभीत नेता अब गुस्से में कुछ तो कहेंगे ही। अच्छा यह है कि इन नेता जी के मुंह से दिल की बात निकल गई। अब इंतजार तो चुनाव परिणाम आने का है। देखते हैं कि समुंदर में कौन डूबता है- वोटर को गाली देने वाले नेता या वोटर।

अशोक मधुप
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अमर उजाला के ३० अप्रैल के अंक में सम्पादकीय पर नुक्कङ मे छपा मेरा   एक व्यंग लेख


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Wednesday, April 16, 2014

नेताओं के लिए ऐसा स्कूल हो

आज १६ अप्रैल के अमर उजाला में सम्पादकीय पेज पर छापा मेरा एक व्यंग 

नेताओं के लिए ऐसा स्कूल हो
मियां जुम्मन आजकल परेशान हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि क्या बिजनेस करें। जिस जगह वह हाथ डालते हैं, वही उल्टा बैठता है। मैंने उन्हें सुझाव दिया, ऐसा करो, एक स्कूल खोल लो। ऐसा स्कूल खोलो, जिसमें नेताओं को गाली देना सिखाया जाए। दूसरों को अपमानित करने का फॉर्मूला बताया जाए। स्कूल में सिखाई गई गाली और अपमानित करने की कला ऐसी होनी चाहिए कि चुनाव आयोग उस पर कार्रवाई न कर सके। यानी गाली दी भी जाए, तो पार्लियामेंटरी भाषा में। इन स्कूलों में ऐसे शिक्षक रखे जाएं, जो राजनेताओं के लिए नई भाषा गढ़ें।
आज सारे नेता परेशान हैं। वे कुछ भी बोलते हैं, मीडिया उसे झट से पकड़ लेता है। उसके पकड़ते ही चुनाव आयोग कार्रवाई करता है। वह नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कराता है। उत्तर प्रदेश में तो कमाल हो गया। दो बड़बोले नेताओं की आयोग ने बोलती बंद कर दी। अब दोनों परेशान हैं कि काम कैसे चले। बिना बोले वे रह नहीं सकते और मुंह खोलते ही मीडिया उनका मुंह पकड़ लेता है। नए स्कूल में इन्हें ऐसे शब्द सिखाए जाएं, जिन्हें न मीडिया पकड़ सके, न आयोग। जैसे अपने समय की सबसे विदूषी विद्योतमा को नीचा दिखाने के लिए उस समय के विद्वानों ने किया था। उन्होंने विद्योत्तमा से उस महामूर्ख कालिदास का शास्त्रार्थ करा दिया था, जो उसी डाली को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था।
जुम्मन बोले, एक बात और हो सकती है। नेताओं को ऐसी ट्रेनिंग भी दी जाए कि उन पर फेंके गए जूते-चप्पल उन्हें न लगे। जूडो-कराटे में तो दुश्मन से बिना शस्त्र लड़ने की कला सिखाई जाती है। इन स्कूलों में जूते-चप्पल और टमाटर से बचने की कला सिखाई जाए। अभी तो नेताओं से निराश जनता ने गुस्सा करना सीखा है। आगे चलकर नेताओं के आचरण से जनता में गुस्सा और ज्यादा बढ़ेगा। ऐसे में नेताओं के हित में रहेगा कि जूते-चप्पल के हमले से बचने की कला सीखी जाए।
मैंने कहा, देख लो, मौका है। अभी किसी को यह आइडिया सूझा नहीं है। तुम शुरू कर दो, लाभ में रहोगे।
अशोक मधुप

Tuesday, April 8, 2014

राज गोपाल सिंह नही रहें


राजगोपाल सिंह नहीं रहे। राजगोपाल  बिजनौरी कवि, गीतकार के साथ साथ एक बहुत अच्छे मित्र थे। मेरे कॉलेज के सखा। बी.ए में अध्ययन के दौरान उनसे परिचय हुआ। कई साल साथ रहा। उनका गला बहुत अच्छा था। बहुत शानदार गीत  गाते , रतजगे करते कब गीत लिखने लगे पता नहीं चला।
 दिल्ली  पुलिस में नौकरी मिलने के बाद फिर कभी संपर्क  नहीं हुआ। जीवन की व्यसतता में  बिजनौर आने पर वे कभी मिले नहीं। दिल्ली मैं   जाते बहुत बचता हूं। कभी इस सुदामा को जरूरत भी नहीं हुई।
हां गाहे -बगाहे उनकी कवितांए  दोहे पढ़ने को मिलते रहे। टीवी पर एक बार लालकिले से उन्हें कविता पाठ करते देख बहुत सुखद लगा। प्रत्येक कवि का सपना होता है  वह लाल किले में होने वाले कवि सम्मेलन में कविता पाठ करे। यह सपना उनका कई बार पूर्ण  हुआ।
आज सवेरे डा अजय जनमेजय के फोन से उनके निधन का पता चला। यह भी पता चला कि कई  माह से बीमार थे।  उनके परिवार जनों से उनकी खूब सेवा की।
बिजनौर के भाटान स्कूल से  राजकीय इंटर कॉलेज  के जाने वाले रास्ते पर उनका घर है। यहीं  उनका एक जुलाई  १९४७ में जन्म हुआ। बिजनौर की गलियों में खेलकूद कर बड़े हुए राजगोपाल सिंह बिजनौरी अब हमारे बीच नही रहे।
श्रद्धांजलि स्वरूप उनके कुछ दोहे  प्रस्तुत हैं-

बाबुल अब न होएगी,भाई बहन में जंग।
डोर  तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग।
.........
बाबुल हमसे हो गई आखिर कैसी भूल,
क्रेता की हर शर्त जो, तूने करी कबूल।
.......
रोटी  रोजी में हुई  सारी उम्र तमाम,
कस्तूरी लम्हे हुए बिना मोल नीलाम।

धरती या किसान से,हुई किसी से चूक,
फसलों के बदले खेत में लहके है  बंदूक
..
 अदभुत है,  अनमोल है  महानगर की भोर,
रोज जगाए है  हमें कान फोड़ता शोर।
..
  राजगोपाल की  कुछ गजल

मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा
शाख़ पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा

बो रहा हूँ बीज कुछ सम्वेदनाओं के यहाँ
ख़ुश्बुओं का इक अनोखा सिलसिला रह जाएगा

अपने गीतों को सियासत की ज़ुबां से दूर रख
पँखुरी के वक्ष में काँटा गड़ा रह जाएगा

मैं भी दरिया हूँ मगर सागर मेरी मन्ज़िल नहीं
मैं भी सागर हो गया तो मेरा क्या रह जाएगा

कल बिखर जाऊँगा हरसू, मैं भी शबनम की तरह
किरणें चुन लेंगी मुझे, जग खोजता रह जाएगा
...........

छीनकर पलकों से तेरे ख़्वाब तक ले जाएगा
एक झोंका याद के सारे वरक ले जाएगा

वक्त इक दरिया है इसके साथ बहना सीख लो
वरना ये तुमको बहाकर बेझिझक ले जाएगा

रास्ते चालाक थे देते रहे हमको फ़रेब
यह सुरग ले जाएगा और वो नरक ले जाएगा

दूल्हा बनकर हर ख़ुशी के द्वार आँसू एक दिन
आएगा और मांग भर, करके तिलक ले जाएगा

किसको था मालूम मौसम का मुसाफ़िर लूट कर
तितलियों से रंग, फूलों से महक ले जाएगा

...........
मौज-मस्ती के पल भी आएंगे
पेड़ होंगे तो फल भी आएंगे

आज की रात मुझको जी ले तू
चांद-तारे तो कल भी आएंगे

चाहतें दोस्ती की पैदा कर
रास्ते तो निकल भी आएंगे

आइने लाए जाएंगे जब तक
लोग चेहरे बदल भी आएंगे

अजनबी बादलों से क्या उम्मीद
आए तो ले के जल भी आएंगे

........
हमसे करते रहे दिल्लगी रात भर
नींद भी, ख़्वाब भी, आप भी रात भर

रात भर बादलों ने उड़ाई हँसी
छटपटाती रही इक नदी रात भर

ऐसा लगता है मौसम का रुख़ देखकर
बफ़र् शायद कहीं पर गिरी रात भर

फूल बनते ही कल जो बिखर जाएगी
याद आती रही वो कली रात भर

चांदनी पर ही सबने कहे शेÓर क्यों
सोचती ही रही तीरगी रात भर

......


राजगोपाल सिंह

चुप की बाँह मरोड़े कौन
सन्नाटे को तोड़े कौन

माना रेत में जल भी है
रेत की देह निचोड़े कौन

सागर सब हो जाएँ मगर
साथ नदी के दौड़े कौन

मुझको अपना बतलाकर
ग़म से रिश्ता जोड़े कौन

भ्रम हैं, ख़्वाब सलोने पर
नींद से नाता तोड़े कौन

...............
चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे
जब ढलेगा तो मुड़ के चल देंगे

मोह के वृक्ष मत उगा ये तुझे
छाँव देंगे न मीठे फल देंगे

गंदले-गंदले ये ताल ही तो तुम्हें
मुस्कुराते हुए कँवल देंगे

तुम हमें नित नई व्यथा देना
हम तुम्हें रोज़ इक ग़ज़ल देंगे

चूम कर आपकी हथेली को
हस्त-रेखाएँ हम बदल देंगे
राजगोपाल के काव्य संग्रह चिराग से ली गई  रचनांए
अशोक मधुप





Sunday, March 9, 2014

मशहूर डायलॉग राइटर अख्तर उल ईमान की पुण्य तिथि नौ मार्च पर विशेष


मशहूर डायलॉग राइटर अख्तर उल ईमान की पुण्य तिथि पर विशेष

अख़्तर उल ईमान के डायलॉग ने कई फिल्मों में डाली जान
बिजनौर के राहूखेड़ी के रहने वाले थे अख्तर साहब

बिजनौर, ०८ मार्च

चुनाये सेठ जिनके घर शीशे के हो, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते......, ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ में लग जाए तो खून निकल आता है। ७० के दशक में बनी फिल्म वक्त के इन डायलॉग ने अपने जमाने में खूब धूम मचाई। फिल्म वक्त ही नहीं बल्कि अपने दौर की रोटी, सोना चांदी, अपराध, हमराज, गुमराह, आदमी, दाग जैसी तमाम मशहूर फिल्मों में डायलॉग लिखने और फिल्म लहू पुकारेगा का निर्देशन करने वाले मरहूम अख़्तर-उल-ईमान बिजनौर जिले की वो शख्सियत हैं, जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में कामयाबी की बुलंदियों को छुआ और बिजनौर जिले का नाम भी रोशन किया।

अख़्तर-उल-ईमान बिजनौर जिले के छोटे से गांव राहूखेड़ी(नजीबाबाद) में १२ नवंबर १९१५ को सामान्य परिवार में जन्मे। इनके पिता फतेह मुहम्मद मदरसे में शिक्षक एवं पेश इमाम थे। बचपन में अख्तर साहब पेड़ नीचे बैठकर परिंदों की आवाज सुना करते थे। कम उम्र में ही शिक्षा के लिए अख्तर उल ईमान अपनी खाला के साथ दिल्ली चले गये। १९३४ में फतेहपुर मुस्लिम हाई स्कूल में दाखिला लिया और गुजारे के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगे। यहीं से इन्होंने नज्म निगारी का आगाज किया। शुरू में स्कूल की मैग्जीन में छपते और पसंद किये जाते थे। हाई स्कूल पास करके दिल्ली में ही एग्ंलो अर्बिक कॉलेज(जाकिर हुसैन कालेज) में दाखिला लिया। इसी कालेज से संबद्ध एडल्ट शिक्षा के केंद्र में ये रात के समय पढ़ाते थे।

जनपद के प्रसिद्ध उर्दू विद्वान इकबाल सिद्दीकी के अनुसार अख्तर साहब इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ चले गये। अलीगढ़ में १९४४ में इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से फारसी साहित्य में एमए किया। इसके बाद अख़्तर साहब ने मुंबई का रूख किया और फिल्म डायरेक्टर बीआर चोपड़ा के साथ काम करने लगे। यहीं से फिल्मी दुनिया में इनकी एंट्री दर्ज हुई। फिर क्या था, अख़्तर साहब लिखते गये और वालीवुड की दुनिया में नाम कमाते गये। सफलता के इस दौर में इन्होंने विजय, चोर पुलिस, दो मुसाफिर, चांदी सोना, जमीर, छत्तीस घंटे, रोटी, नया नशा, दाग, धुंध, दास्तान, जुल्म का उस्ताद, आदमी, हमराज, फूल और पत्थर, मेरा साया, यादे, गुमराह, अपराध, धर्मपुत्र, इस्तेफाक, आदमी और इंसान समेत लगभग सौ फिल्मों में डायलॉग लिखे। फिल्म वक्त, फूल और पत्थर एवं रोटी में लिखे डायलॉग काफी चर्चित रहे। धर्मवीर और वक्त के डालाग के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। फिल्म लहु पुकरेगा का निर्देशन भी किया, हालांकि यह फिल्म धूम नहीं मचा पाई। फिल्म डायलॉग लिखने के अलावा अख़्तर साहब ऊर्द नज्म के मशहूर शायर भी थे। इनके काव्य संकलन-गरदाब, यादें, तारीक सय्यारा, आबजू, सबरंग, बिन्ते-लम्हात, नया अहंग, सरो-सामां और ज़मीन-ज़मीन आदि काफी मशहूर रहे। काव्य संकलन गरदाब को पढ़कर मशहूर शायर फिराक़ गोरखपुरी ने कहा था कि.... ऐसा मालूम होता है शायर नागफनी निगल गया है। १९६० में काव्य संकलन बिन्ते-लम्हात को साहित्यिक एकाडमी का इनाम मिला। यूपी ऊर्दू एकादमी में ने भी इन्हें नवाजा। नया अहंग पर महाराष्ट्र ऊर्दू एकादमी का इनाम मिला। इसके बाद सरो सामान पर हिंदी साहित्य एकादमी ने इकबाल सम्मान से नवाजा। सरोसामान पर ही गालिब एकादमी दिल्ली और ऊर्दू एकादमी दिल्ली ने भी इनामात दिये.....। एक छोटी सी नज्म एक लड़का से ऊर्दू नज्मों की दुनिया में तहलका मचाने वाले मशहूर शायर अख्तर उल ईमान फिल्मी अदब की दुनिया की ८० बहारे देखने के बाद ०९ मार्च १९९६ में हृदय गति रूकने के कारण इस दुनिया से रूखसत हो गये। उन्हीं के शब्द-मेरे बोसीदा लिबादे में रहेगी न सकत, माहो साल और लगा दें नया पेवंद कहीं, जागते जागते थक जाऊंगा, सो जाऊंगा। उनके देहांत पर सभी प्रसिद्ध क़लमकारों ने कहा कि वो जदीद शायरी के कबीले के आखिरी सरदार थे। आइये हम सब आज अपने जिले की इस महान हस्ती को उनकी मशहूर नज्म के साथ फिर से याद करें।ं

इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं

जो मुझे राह चलते को पहचान ले

और आवाज दे, ओ बे ओ सर फिरे

दोनों एक दूसरे से लिपटकर रहे

गालियां दे, हसें, हाथापाई करें

घंटो एक दूसरे की सुनें और कहें

और इस नेक रूहों के बाजार में

मेरी ये क़ीमती बेबहा ज़िंदगी

एक दिन के लिए अपना रूख मोड़ दे।





फिल्म अभिनेता अमजद खान थें दामाद

बिजनौर। फिल्म अभिनेता अमजद खान से अख्तर उल ईमान की बड़ी बेटी शहला का विवाह हुआ था। शहला के अतिरिक्त दो बेटियां इस्मा और र$खशंदा, एक बेटा रामिश है। रामिश फिल्मों में काम करते हैं।

अशोक मधुप

Tuesday, January 14, 2014

मौसम टोपी का है


जुम्मन मियां आज सवेरे ही मेरे घर पर आ धमके। बोले, मियां सोचतां हूं कि फिर से टेलरिंग का खानदानी काम शुरू कर दूं। मैने हंसकर पूछा, ये नया शगल दिमाग में कहां से आ गया? वह बोले, यार केजरीवाल ऐंड पार्टी ने दिल्ली में क्या टोपी लगाई कि जैसे टोपी युग लौट आया। टोपी से परहेज करने वाले भाजपाई भी अब टोपी पहने नजर आने लगे हैं। इनके गुरु संघी तो पहले ही टोपी लगाते हैं। सपाई भी टोपी पहनते हैं। राजीव गांधी से बाद कांग्रेस में टोपी युग खत्म हो गया था। लगता है कि केजरीवाल ऐंड पार्टी की जीत को ये टोपी का करिश्मा मानकर फिर से टोपी पहनना शुरू न कर दें। ऐसे में मुझे टोपी बनाने के काम में कोई नुकसान नजर नहीं आता। थुक गटकते हुए उन्होंने फिर से कहना शुरू किया, अलग-अलग पार्टियों के लिए टोपी सिलना मुश्किल काम भी नहीं है। टोपी सिलो। आप की सफेद है ही। भाजपाइयों के लिए भगवा, सपा के लिए लाल और संघी के लिए काली रंगवा दो। बस! काम बहुत अच्छा है। हल्दी लगे न फिटकरी, रंग चोखा होय। टोपी पहनने और खरीदने वाले नेता छुटभैया तो होंगे नहीं, जो मोल-भाव करें। बड़े नेता होंगे, जो मांगो वह मिलेगा। दुकान अच्छी चलेगी। चुनाव के टाइम तो पौ-बारह रहेगी। जैसे केजरीवाल के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के दिन उनकी पार्टी के चुनाव निशान झाड़ू की दिल्ली में इतनी मांग हुई कि कई गुने दाम देने पर भी बाजार में टोटा पड़ गया। मैने कहा, भाई बहुत अच्छा है। आप टोपी पहनाने का तो काम करोगे। दूसरों को इज्जत बख्शोगे। वरना ये राजनेता दूसरों को टोपी पहनाते नहीं, उनकी टोपी उतारते हैं। सरे बाजार उछालते हैं। जहां कोई विरोधी आगे बढ़ा, लगे उसकी कमी निकालने। उनकी ही नहीं, उसके पूरे कुटुंब की जन्मकुंडली खोजी जाने लगती है। छांट-छांटकर आरोप लगाए जाने लगते हैं। यह भी नहीं सोचा जाता कि किसे क्या कह रहे हैं। कोई यह नहीं सोचता कि अगर तुम्हें दूसरा ऐसा कहे, तो कैसा लगेगा? इनका काम टोपी उछालना है, तो कुछ तो कहना ही है। कोई तो आरोप लगाना ही है। कब किसे वे डाकू मानसिंह या सुलताना का वंशज बता दें, नहीं कहा जा सकता। किसी विरोधी को हिटलर, नादिरशाह या मुहम्मद बिन तुगलक से जोड़ते इन्हें शर्म नहीं आएगी। बड़ी बेशर्मों की पंचायत है यह। अच्छा है, तुम इन गंदों को टोपी पहनाओगे। इनकी टोपी उतारोगे नहीं। अशोक मधुप Mera yah vyang Amar ujala me 14 janvari ko sampagkiye page par chapa hae