Wednesday, February 2, 2022

कनाड़ा के ट्रक चालक और भारत के किसान आंदोलन की समानता


कनाडा के ट्रक चालक और दिल्ली के किसान आंदोलन में काफी कुछ एक जैसा ही है। ये  ट्रक चालक अपने – अपने ट्रक लेकर कनाडा की राजधानी ओटावा आए हैं। भारत में किसान अपने ट्रेक्टर लेकर दिल्ली पर चढ़ने के इरादे से आए थे। किसान भी लंबे समय रूकने के लिए खाने −पीने का सामान लेकर आए और एक साल रूके। ये ट्रक चालक  भी रूकने की तैयारी के साथ आए हैं। 

कनाडा में पचास हजार के आसपास ट्रक चालकों ने  प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो  का निवास शनिवार को घेर  लिया। वे अपने ट्रक साथ लिए हुए है। ये ट्रक चालक अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन  कर रहे हैं।  नारे लगा रहे हैं। वाहनों के हाँर्न बजा रहे हैं।ये लंबे समय के  प्रवास के इरादे से खाने −पीने का सामान लेकर राजधानी आए हैं।  हालत इतनी खराब है कि   राजधानी ओटावा के चारों और सत्तर मील तक   जाम लगा हुआ है। शहरवासी परेशान है।  ट्रक  चालकों ने अपने करीब 70 किमी लंबे काफिले को 'फ्रीडम कान्वॉइनाम दिया है। ट्रक वाले कनाडा के झंडे के साथ 'आजादीकी मांग वाले झंडे लहरा रहे हैं। वे पीएम ट्रूडो के खिलाफ जमकर नारेबाजी कर रहे हैं।  आंदोलन को हजारों अन्य प्रदर्शनकारियों का भी साथ मिल रहा है।सड़कों पर हजारों की संख्या में बड़े-बड़े ट्रकों की आवाजें लगातार सुनाई दे रही हैं । ये  ड्राइवर ट्रकों के  हॉर्न लगातार बजाकर सरकार का विरोध कर रहे हैं। वे संसद के पास पहुंच गए हैं।हालत इतनी खराब  है कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो  और उनके  परिवार ने   भारी विरोध प्रदर्शन की वजह से देश की राजधानी स्थित अपने आवास को छोड़ दिया है। वे किसी गुप्त स्थान पर जाकर छिप गए हैं।

 ये ट्रक चालक कोरोना वैक्सीन जनादेश और अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिबंधों को समाप्त करने का  विरोध कर रहे हैं।  बताया जा रहा है कि यह एक जगह पर ट्रकों का दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा है। खबरें के मुताबिक पूरे कनाडा से करीब एक सप्‍ताह की लंबी यात्रा करने के बाद ये विशालकाय ट्रक राजधानी ओटावा पहुंचे हैं। प्रदर्शन के आयोजकों ने जोर देकर कहा है कि यह आंदोलन शांतिपूर्ण होगा ,पर  इतनी भीड़ के सामने पुलिस लाचार नजर आ रही है।पुलिस ने कहा है कि वे इस संकट के लिए तैयार नहीं हैं।
 ट्रक चालकों में गुस्सा इस बात का भी है कि कुछ दिन पहले कनाडाई पीएम ने एक  बयान में ट्रक वालों को 'महत्व नहीं रखने वाले अल्पसंख्यककरार दिया था। पीएम ट्रूडो ने कहा है कि ट्रक वाले विज्ञान के विरोधी हैं। वे न केवल खुद के लिए बल्कि कनाडा के अन्य लोगों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।शहर में स्थिति गंभीर हो गई है। आलम यह है कि ओटावा जाने वाले रास्ते पर ट्रकों की 70 किमी तक लंबी कतार लग गई है जिसके कारण अन्य यात्रियों को भी आने-जाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

लगता है कि कनाडा सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से  नही लिया।एक सप्ताह पूर्व चले आंदोलनकारियों  के ट्रक राजधानी से पूर्व रोकने की व्यवस्था नही की गई।  आंदोलन की गंभीरता नही समझी गई। काश सरकार पहले से सचेत होती तो हालात इतन खराब न होते।


अभी एक साल पूर्व भारत में भी सा ही प्रदर्शन हुआ था। पंजाब − हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली के रास्तों पर धरना  देकर बैठ गए थे। वे इस धरने के लिए अपने वाहन ट्रेक्टर आदि साथ लाए थे। लंबे समय रूकने के लिए उन्होंने यहां तंबू लगाए। स्टेज बनाई।   खाने पीने की सारी व्यवस्थाएं की।  उनकी सेवा के लिए समाजसेवी संगठन उतर  आए। उन्होंने आंदोलन स्थलों पर जनसुविधांए  उपलब्ध करांई। चिकित्सा शिविर शुरू हो गए। भोजन के लिए भंडारें और लंगर शुरू हो गए। ये आंदोलन करीब एक साल चला।  जब दिल्ली आंदोलन से जूझ रहा था ,उस  समय  केनेडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो    इन किसानों का समर्थन कर रहे थे। किसान दिल्ली का आवागमन तो  पूरी तरह नही रोक सके ,  पर  इनके धरना स्थल से पहले से दिल्ली आने वालों को लंबा रास्ता तैकर आना पड़ा।  काफी परेशानी उठानी पड़ी।

किसानों ने कई बार दिल्ली में प्रवेश की कोशिश की किंतु सरकार ने अनुमति नही दी। रास्तों पर बाढ़ लगादी।इस आंदोलन के दौरान लालकिले जैसी कुछ अप्रिय घटनांए भी हुईं।      हालत यह हुई कि केंद्र को किसानों की मांग माननी पड़ीं । तीनों कृषि कानून  वापिस लेने पड़े । तीनों कृषि कानून  वापसी की घोषणा  खुद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्र के नाम संबोधन में करनी पड़ी थी। । कनाडा के इस आंदोलन के हालात  बता रहे हैं कि वहां के हालात किसान आंदोलन से ज्यादा खतरनाक  हैं। भारत सरकार ने किसानों को दिल्ली  बार्डर से आगे नही आना दिया था, जबकि कनाड़ा में ये आंदोलनकारी शहर में दाखिल होकर संसद के पास पंहुच गए हैं। हालत इतने खराब हैं कि वहां के प्रधान मंत्री   को परिवार सहित किसी गुप्त स्थान पर जाकर छिपना पड़ा है

कनेड़ा और दिल्ली के  आंदोलन से सीख लेने की बात यह है कि अब दुनिया को अब ऐसी योजना  बनानी होगी कि आगे से राजधानी का घेराव  न हो। क्योंकि सरकार को झुकाने के इरादे से से आंदोलन आगे भी होंगे। अन्य देश में भी होंगे।  कोई भी संगठन किसी भी देश के केंद्र की राजधानी के मार्ग  कभी भी रोक सकता है।  राजधानी की आवाजाही बदं कर रसद आदि का आपूर्ति बंद कर सरकारों को मांग मानने को मजबूर कर सकता है। इसलिए केंद्र की राजधानी के विकेंद्रीयकरण पर भी विचार किया जाना चाहिए। देश की राजधानी उसके कार्यालय एक शहर में न बनाकर अलग −अलग जगहों पर बनाए  जाएं।

 महाभारत  में समझौते के लिए कौरवों के पास कृष्ण गए थे। उन्होंने मांग की थी कि पांडव को पांच  गांव दे दिए जांए।  उन्होंने गांव के नाम भी बताए थे। इस प्रस्ताव को  दुर्योधन ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया था कि ये  पांच गांव मेरी राजधानी के चारों और हैं। आप जब चाहोंगे तक  मेरे राज्य के रास्ते बदं कर दोगे । मुझे बिना लड़े ही हथियार डालने पर मजबूर कर दोगे। सा ही प्राचीन काल में सुरक्षा के लिए बने किलों के साथ होता था। दुश्मन किले के आपूर्ति के रास्ते बंद कर देता था। मजबूरन बड़े से बड़े मजबूत किले के राजा को शस्त्र डालने पड़ते थे।युद्ध की स्थिति में भी दुश्मन देश हमला करके  एक बार में एक जगह स्थित राजधानी का सब कुछ खत्म कर सकता है। इस  सबको  रोकने के लिए राजधानी के विकेंद्रीकरण पर सोचना होगा। सोचना होगा कि से आंदोलन में व्यवस्थाएं ठप्प  न हो जांए।

वैसे भी दिल्ली अब राजधानी के लिए उपयुक्त नही लगती । क्योंकि ये देश के बीच में स्थित नहीं हैं। दिल्ली  जब राजधानी बनी थी। अब पाकिस्तान नहीं था। तिब्बत भारत का हिस्सा था। नेपाल भारत का छोटा भाई जैसा था । अब उसकी चीन के साथ नजदीकियां बढ़ रही हैं।  इन सब हालात को

 देखते  हुए  राजधानी के  लिए नए सिरे से विचार करना होगा।

अमेरिका दो बार अपनी राजधानी बदल चुका है। हालात को समझ

ते हुए हमेंं भी राजधानी बनाने के लिए नई  जगह तलाशनी होगी।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं)

राजस्थान से आए राजपूतों ने नहटौर

राजस्थान से आए राजपूतों ने बसाया नहटौर

राजस्थान से आए राजपूतों ने नहटौर को बसाया।जानी मानी पत्रकार और लेखिका कुर्रतुल न हैदर अपनी पुस्तक कारें तहां दराज है, में कहती हैं कि नहटौर के त्यागी ब्राह्मणों के अनुसार उनके पुरखों ने मुसलमानों के आने से पहले राजपूत गृहयुद्धों के दौरान राजस्थान से अपना गांव त्यागकर  दिल्ली के नजदीक गांगन के किनारे एक नया ठौर बसाया था।यह बाद में नहटौर कहलाने लगा।

नहटौर के त्यागी ब्राह्मण परिवार के कुंवर ओंमेंद्र सिहं एडवोकेट  बताते हैं कि वे लोग रणथंभोर से आए।रणथंभोर किले पर अलाउद्दीन ने हमला किया। इस युद्ध में सर्वस्व होम की आंशका जान उनके पूर्वज उल्फतराय और एक  अन्य भाई को परिवार सहित  वहां से निकाल  दिया गया । कहा कि वंश बचा रहे,  इसलिए आप चले जाओ।

उत्फतराय ने  गांगन के किनारे के स्थान को उपयुक्त पाया। इसे उन्होंने नई ठौर (नया ठिकाना) नाम दिया। वे कहते है कि उनका

गोत्र मोनीष है। ये बिल्कुल ही अलग है।वे कहतें हैं कि वे ठाकुर हैं किंतु अपना स्थान त्यागने के कारण  त्यागी हो गए।वैसे वे राजा हमीर के वंशज हैं।

वे कहते हैं कि जब उनके पूर्वज उलफतराय नहटौर आए तो  उनकी कोठी की जगह उन्होंने डेरा डाला। कोठी के सामने उस समय गांगन बहती थी,  यह जगह उन्हें उपयुक्त लगी।नदी सामने थी। उन्होंने यहां रूकने का निर्णय लिए।यहीं छप्पर आदि डालकर रहने की व्यवस्था की। वे बताते हैं कि  दूसरे भाई ने तय किया कि जब तक हम अपने किले पर कब्जा नही करेंगे, घर में नहीं रहेंगे। वे बंजारे (बागडिए)हुए । ये सड़क किनारे रहकर लोहे का सामान बनाने का काम करते हैं। वे बताते हैं कि इस परिवार के कुछ लोग कुछ समय पहले उनके यहां आए थे।

कुंवर ओमेंद्र  सिंह बताते हैं कि उनके परिवार में उल्लू की पूजा होती है। वे बतातें हैं कि जहां उनका दीवान खाना है यहां कभी एक रात उल्लू आया। हमारी उस पीढ़ी की दादी ने उससे कहा कि हे उल्लू महाराज हम जैसे घर छोड़कर आएं हैं,  यदि वैसे ही हो जांए तो हमरें वंशवाले तुम्हारी पूजा करेंगे। उनके बाद मकान आदि बनने पर उल्लू की पूजा शुरू हो गई। वह अब तक जारी रही। अभी  एक पीढ़ी पहले पूजा बंद हुई। वैसे अब तक उल्लू उनके दीवान खाने में आता रहा। उसे पानी आदि की व्यवस्था की जाती थी। उल्लू की पूजा क्यों बंद हो गई,  वह ये नही बता पाते। वे कहते हैं कि वे राजपूत हैं किंतु त्यागियों में उनके शादी विवाह होते हैं।

वह बताते है कि हम जमींदार लोग हैं। खाने पीने के शौकीन।सैलानी रहे। अय्याशी की। वे साफगोई करते बतातें हैं कि उनके पूर्वजों ने  अंग्रेजों की गुलामी की ।इसी कारण खिताब लिए। औनरेरी मजिस्ट्रेट बने।

वह बताते हैं कि जब वह छोटे थे  तो पिताजी के साथ हाथी पर बैठकर जमींदारी में जाते थे।जिस गांव में जाते वहां उनके बैठने के लिए चारपाई डालकर दरी बिछा दी जाती।  पिताजी को के साथ− साथ उन्हें भी नजराना दिया जाता। पिताजी को नजराने में एक रूपया मिलता, तो उन्हें एक या दो पैसा।

 वे साफगोई में कहतें हैं कि लोग आते और उनके सामने बिछी दरी पर पैसा फेंकतें आगे  बढ़ जाते  जैसे आज हम फकीरों के सामने बिछे कपड़े पर डालते हैं।वे कहते हैं कि आज ख्याल  आता है, वह बड़ा अजीब सा  लगता है।

अशोक मधुप