Friday, November 28, 2008

शोक

हमे शोक के साथ साथ गर्व देश के उन रणबांकुरों पर जो मुंबई के आंतकवादी हमलों में शहीद हो गए।




मुंबई के आंतकवादी हमलो में शहीद होने वालों की मृत्यु पर हार्दिक शोक

Thursday, November 27, 2008

बेनजीर को संयुक्त राष्ट्र का मनावाधिकार सम्मान


पाकिस्तान की पूर्व प्रधान मंत्री बेनजीर भुट्टों को मरणोपरांत संयुक्त राष्टृ् का सर्वोच्च मानवाधिकार सम्मान दिया गया है। यह सम्मान मानवाधिकार की रक्षा करने वाली संस्थ्राआें अथवा व्यक्तियो को दिया जाता है। इस मौके पर मै अपना वह लेख नीचे दे रहा हूं , जो मैने बेनजीर की मृत्यु पर उन्हें श्रद्धांजलि देते समय लिखा था
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बेनजीर आैर मेरी पीढ़ी
और मेरी पीढ़ी पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर अली भुट्टों के निधन से हुई क्षति के बारे लोगों की अलग-अलग राय होगी। कोई इसे जमहूरियत पर कुर्बानी करार दे रहा है तो कोई इसे पाकिस्तान में अमेरिकी पॉलिसी की हार बता रहा है । किसी का कहना है कि यह पाकिस्तान की बहुत बड़ी क्षति है तो कोई बेनजीर के पति और उनके बच्चों के लिए असहनीय हादसा मान रहा है। कुछ भी हो बेनजीर का निधन भारत में जन्मी मेरी पीढ़ी का बहुत बड़ा नुकसान है । और है उनके एक खूबसूरत सपने का अंतः। बेनजीर की मौत ने मेरी पीढ़ी के समय की धुंध में छिपे घाव को फिर कुरेद दिया। फिर से उन्हे एक नई हवा दे दी। 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ। इस जंग में पाकिस्तान को भारी पराजय का सामना करना पड़ा। दुनिया के नक्शे पर बांग्ला देश नाम से नया मुल्क उभरा। भारत से सात पीढ़ी तक युद्ध करने का दंभ भरने वाले पाकिस्तान के प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। समझौता वार्ता भारत में होनी थी। वार्ता के लिए इंद्र की नगरी जैसे खूबसूरत पर्वतीय शाहर शिमला को चुना गया। जुल्फिकार अली भुट्टो वार्ता के लिए भारत आए। उनके साथ आई सतयुग काल की अप्सरा रंभा,उर्वषी और मेनका की खूबसूरती को याद दिलाती उनकी बेटी बेनजीर । बेनजीर वास्तव में बेनजीर थी। जब यह भारत आई तो उसकी उम्र 19 साल के आसपास रही होगी। उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा की मृगनयनी जैसी बेनजीर मेरी पीढ़ी के युवाओं को रांझा बना देने के लिए काफी थी।आज मेरी पीढ़ी बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी है। बेनजीर के शिमला आने के समय वह नौजवान थी। उसकी उम्र 18 से 21 साल के बीच रही होगी। प्रत्येक नौजवान की तरह इसके भी अपने - अपने सपने थे। सबकी अपनी अपनी हीर थी ,सबकी अपनी -अपनी राधा थी। मेरी जवानी के दौर की प्रसिद्ध हिरोइन थीं- मधुबाला,मीना कुमारी,आशा पारिख,वहीदा रहमान आदि- आदि।हरेक नौजवान की तमन्ना थी कि उसकी सपनों की रानी इनसे कुछ कम न हो। बेनजीर भारत आई तो समझौते की खबरों के साथ-साथ उसकी खूबसूरती,स्टाइल की खबरें मेरी पीढ़ी को मिली। इन खबरों ने उसकी सपनों की रानी की छवि ही बदल दी। उस समय के हर नौजवान की तमन्ना हुई कि उसके आंगन की तुलसी कोई और नही सिर्फ- और सिर्फ बेनजीर हो।उस समय समाचार सुनने के लिए रेडियो ही था। मेरी पीढ़ी ने शिमला समझौते के समाचार आकाशवाणी और बीबीसी से सुने। भारत युद्ध में जीत चुका था। देश भक्ति का जोश सबमें भरा था। हरेक जानना चाहता था कि शिमला में क्या हो रहा है, किंतु मेरी पीढ़ी की इच्छा यह जानने में रहती कि बेनजीर कैसी हैं। क्या पहने हैं,क्या कर रही है। परिवार से बचकर छुपकर या परिवार वालों के समाचार सुनने के दौरान बुलैटिन में बेनजीर के बारे में प्रसारित होने वाले समाचारो को सुनने की उत्सुक होती। अखबारों में छपे बेनजीर के फोटो ,उसकी चर्चा में युवाओं की ज्यादा रूचि रहती। आपस में चर्चा का सबसे बड़ा मुद्दा उस समय बेनजीर ही रही।शिमला के बेनजीर के प्रवास के पांच दिन मेरी पीढ़ी के युवाओं में एक ऐसा अहसास और ऐसा नशा भर गए कि उनके सपनों की रानी ही बदल गई। बेनजीर के भारत से वापस जाने का बहुत अहसास रहा। उनकी तमन्ना यह थी कि यह परी भारत के आंगन को ही महकाए।पर ऐसा हुआ नहीं।शिमला वापसी के बहुत दिन बाद तक मेरी पीढ़ी के युवाओं ने जमकर आहें भरी। कुछ की यह दीवानगी तो काफी समय तक जारी रही।वख्त के साथ साथ जिंदगी की 35-36 साल की जददोजहद में बहुत कुछ पीछे छूट गया। बेनजीर की यादें भी धुंधला गईं । जीवन के इस सफर में क्या छूटा पता नहीं,किंतु जो मिल गया उसको मुकद्दर समझकर जीवन की जंग जारी रखी। जवानी के तेज से चमकने वाली आंखों पर कब चश्मा आ गया ,केशा?वदास के सफैद बालों को देख सोने के बदन वाली मृगलोचनी कब बाबा कहने लगी,पता नही चला। किंतु बेनजीर के निधन के समाचार ने मुझे आज 35-36 साल पीछे धकेल मेरी पीढ़ी की जवानी की, उसकी हीर , उसकी उर्वश की याद ताजा करा दी। जिंदगी की जंग में मेरी पीढ़ी ने हार नहीं मानी। बहुत कुछ खोने के बाद भी दुनिया के विकास में कोई कसर नही छोड़ी ,किंतु जवानी का बेनजीर जैसा खूबसूरत सपना टूट जाए ,तो बहुत ज्यादा मलाल होता है। पाकिस्तान , पाकिस्तान के आवाम को नुकसान हुआ हो या नही किंतु बेनजीर के निधन से हिंदुस्तान की मेरी पीढ़ी को तो बहुत नुकसान हुआ है।

Wednesday, November 26, 2008

यादें badrinath यात्रा 2





यात्रा, अवधि, badriinaath
मार्ग दो फोटो एक बद्रीनाथ में पड़ी बर्फ, दूसरा भारत का अंतिम गांव माणा
ऋषिकेश से माणा सीमा का अंतिम गांव तक का मार्ग नेशनल हाईवे है, इसके बावजूद इसकी हालत बहुत खराब है। श्रीनगर से ऋषिकेश के बीच कई जगह हाटमिक्स से बना होने के कारण यह मार्ग बहुत अच्छा है, किंतु ऋषिकेश से देवप्रयाग के बीच बहुत खराब। जबकि यहां सडक़ काफी चौड़ी है और इसे हाटमिकस से बनाया जा सकता है। उतरांचल के वासी कहते हैं कि इस मार्ग की मरम्मत को प्रत्येक वर्ष करोड़ो रूपया आता है और केंद्रींय सडक़ संगठन के अधिकारी उसे खुर्द-बुर्द करते रहते हैं। खैर आज भी २००७ में हमें ऋषिकेश से बद्रीनाथ आने-जाने में १५ से 16 घंटे लगे।किंतु आज से पहले क्या हालत होगी इस बारे में हमारे बस चालक ने बताया कि 20 साल पूर्व पांच दिन में बद्रीनाथ पहुंचा जाता था। चढ़ाई ज्यादा थी, गाडिय़ों के इंजन ज्यादा पावर के न होने के कारण गर्म जल्दी होते थे। लौटते दो दिन लगते थे। क्योंकि ढ़ाल पर आना होता है। सोचता हूं कि यह हालत 20 साल पहले की थी। नरेंद्र मारवाड़ी के बाबा तो 93 साल पूर्व बदीनाथ गए थे, उस समय कैसे होता था। बुजुर्ग बताते हैं कि तीन चार माह लगते थे, क्योंकि पूरी यात्रा पैदल होती थी। गांव-कस्बे से परिजन-मिलने वाले बद्रीनाथ यात्री को माला आदि पहनाकर बस्ती से बाहर तक विदा करने आते थे। शायद यह सोचकर कि यह न लौटे। यात्री अपने तेहरवीं आदि के संस्कार स्वयं कर यात्रा शुरू करते थे कि रास्ते में मर खप गए तो कोई अंतिम संस्कार भी नही करेगा। यात्री अपने साथ हल्के विस्तर के अलावा खाने-पीने का सामान रखते थे। जगह-जगह यह काफिला रूकता । वहीं बनाकर भोजन आदि करता और आगे बढ़ जाता। ज्यादा सामान ले जाना संभव नही होता। रास्ते में पडऩे वाले बाजार एवं दुकान आदि से सामान खरीदते जाते थे। काफी व्यक्ति तो बीमारी, ठंड आदि के कारण रास्ते में ही मर-खप जाते थे। बद्रीनाथ की हमारे धर्मशाला के पंडित बताते हैं कि सीजन में यहां १०,15हजार तक यात्री प्रतिदिन आते हैं जबकि इतने लोगों की व्यवस्था नहीं है। धर्मशाला के बरांडे तक में श्रद्धालु रात को भरे होते हैं। कुछ इस दौरान यहां मर भी जाते हैं। नवंबर के मध्य बर्फ पडऩे के कारण बद्रीनाथ और माणा बंद कर दिया जाता है। यहां के निवासी नीचे आ जाते हैं। बताया जाता है कि ठंड के मौसम में यहां १० से १५ फुट तक बर्फ पड़ती है। वे बताते हैं कि यहां भवनों की छते ढालदार इसीलिए हैं कि बर्फ इनके ऊपर न रूके, अन्यथा वे फट जाएंगी। यहां के पुजारी बताते हैं कि नवंबर के मध्य तक तक का सामान आदि को पैक कर स्टोर में रख नीचे चले जाते हैं। ठंड के तीन-चार माह में यहां काफी नुकसान हो जाता है। लौटने पर मरम्मत आदि करानी होती है। ठंड और आैर बर्फ के मौसम में भी बद्रीनाथ में भी कुठ साधु रूकते और मनन चिंतन तथा साधना करते हैं। इस बार उतरांचलप्रशासन ने इन्हें भी नोटिस देकर कहा है कि वे भी १८ को बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने पर वह भी नीचे चलें जाएंगे। हालांकि इस आदेश को लेकर यहां के पुजारी, पंडा आदि में रोष है।वह इसे परंपराओं से चलती आ रही व्यवस्था के विपरीत बताते हैं। उधर, जहां ये सब गतिविधि roon जाती है।वहीं माणा के पास बने सैन्य शिविर में जीवन चलता रहता है। माणा से चीन सीमा पांच किलोमीटर होने के कारण यहां शिविर में तैनात जवानों को हड्डियां गलाने वाली ठंड में भी देश की खातिर सीमाओं पर सर्किय रहना होता है। नजर रखनी होती है।

Monday, November 24, 2008

मीडिया दूसरों की चिंता छोड़ अपनी चिंता करे,

मंदी मीडिया के द्वारे पर भी
र्मीडिया में आजकल विमानन, आई टी,बैंकिंग क्षेत्र में नौकरियां कम किए जाने के समाचार रोज प्रमुखता के साथ जगह पा रहे है।पे घटाने के समाचार प्रमुख लीड बनाकर छापे जा रहे हैं। यह भी आ रहा है कि बड़ी कंपनियां अपने खर्चे कम कर रही है।
इतना सब हो रहा है तो क्या मीडिया इससे अछूता रहेगा,यह कोई पत्रकार या अखबार लिखने को तैयार नही। मीडिया में निवेश की बात करने वाले चैनल को यह भी तो बताना चाहिए कि सबसे ज्यादा खराब हालत मीडिया की होनी है। यहां नई नियुक्तियों पर रोक लग चुकी है। पे नही बढ़ाई जा रही।पहले हफ्ते मे मिलने वाला वेतन अब माह के अंत मे सरक कर पंहुच गया है। बड़ी कंपनियों के खर्च कम किए जाने की बात आ रही है किंतु यह नही कहा जा रहा कि मीडिया के खर्च चलाने वाले बड़ी कंपनियों के विज्ञापन अब बंद हो चुकें हैं। या होने जा रहे हैं।मल्टीनेशनल कंपनियों के विज्ञापनों से भरे रहने वाले समाचार पत्रों के पन्ने अब खाली रहने लगे है।
वे प्रकाशन समूह जो मल्टीनेशनल कंपनियो के बूते अपने काम चलाते थे, अपने विस्तार करते थे। वे अपनी योजनाआें के विस्तार रोक रहे हैं मैंने कहीं पढ़ा था कि आईटी में प्रतिवर्ष 18 प्रतिशत रिक्तिंया निकल रही हैं तो मीडिया में 38 प्रतिशत ग्रोथ है। अब यह सब खत्म होने जा रहा है। लगता है कि अब प्रकाशन समूह अपने प्रकाशान के पेज कम करेंगे।बड़ी कंपनियों के विज्ञापन पर चलने वाले मीडिया को बहुत संकट का सामना करना होगा। चैनल पहले ही संकट में हैं। प्रिट मीडिया के सामने नई चुनौती है।सिर्फ वही मीडिया समूह इस संकट में कुछ खड़े रह सकेंगे जिन्होंने तहसील एवं जिलास्तर पर अपना विज्ञापन का नेटवर्क खड़ा किया हुआ है। यह होने के बावजूद सबकों मंदी के तूफान को झेलना है।
बहुत बड़ा संकट आने वाला है मीडिया पर, किंतु हम अपनी थाली से गायब होने वाले पकवान, मेवों पर ध्यान नही दे रहे ,हमे चिंता है तो दूसरों की थाली से कम होने जा रही रोटी की। भगवान हमे संदबुद्धि दें।

Sunday, November 23, 2008

यादें, हमारे धर्मस्थल , हमारा इतिहास

हमारे धर्मस्थल, हमारा इतिहास
हमारे धर्मस्थल धार्मिक आस्था कें तो प्रतीक हैं। वे हमारे आस्था कें साथ-साथ आत्मविश्र्वास, सहयोग भावना ओर सहृदयता को बढ़ाते है। एक बड़ा काम यह हो रहा है कि इन स्थानों पर हमारे पारिवारिक इतिहास को संजोकर रखा जा रहा है।धर्मस्थल पर पुजारी और पंडे रहते हैं। ये धार्मिकस्थल पर जाने वाले को विधि-विधान से पूजा-पाठ तो कराते ही हैं, उसके और उसके परिवार के रहने की व्यवस्था भी करते हैं। सबसे बड़ा काम यहां यह किया जाता है कि वहां जाने वाले के पारिवारिक इतिहास को संजोकर रखने का। उनके परिवार का कौन व्यक्तिं कब आया यहां, उसके बही-खातों में तो होता ही है साथ ही इतिहास होता है। पूर्वज और बच्चों का इतिहास।अक्तूबर २००७ मे बद्रीनाथ जाने का अवसर मिला। मेरे साथ गए मेरे दोस्त नरेंद्र मारवाड़ी बद्रीनाथ में, अलवर वालो की धर्मशाला में चले गए। वहां पंडित जी से बात की वंशानुक्रम कें बारे में बताया, तो पता चला कि उनके देहरादून में रहने वाले चाचा धर्मशाला के संरक्षक हैं। जल्दी में होने के कारण शाम को उनके पास बैठना हुआ। हम भी मारवाड़ी के साथ पंडित जी के पास गए। बात करते-करते पंडित जी ने अपनी बही खोलकर उनके गोत्र का विवरण खोला तो पता चला कि उनके पिता जी 41 वर्ष पूर्व यहां यात्रा को आए थे। यात्रा को आने कें बाद हुए उनके दो बच्चों का विवरण दर्ज नहीं थे। उन्होंने देखकर उनके दादा कें बारे में बताया कि वे ९३ साल पूर्व बद्रीनाथ आए थे। दोनों कें आने की तिथि तक वही में दर्ज थी। मारवाड़ी को अपने बाबा का नाम ज्ञात था। यहां बही से उन्होंने अपने बाबा कें पिता उनके भाई, बाबा कें दादा और उनके भाईयों आदि का विवरण नोट किया। पंडित जी ने अपनी वही में मारवाड़ी से अपने औरउनके बच्चे, भाई और भाइयों के बच्चों की जानकारी नोट की। नीचे तारीख, माह,सन डालकर हस्ताक्षर कराए। ऐसा यही नहीं हर तीर्थस्थल में होता है। वहां के पंडित और पुजारी अपनी-अपनी वादियों में आने वालों का इतिहास दर्ज करके रखते हैं। 41 वर्ष पूर्व पिता के आने और 93वर्ष पूर्व दादा के आने की जानकारी पाकर नरेंद्र मारवाड़ी को तो अच्छा लगा ही किंतु इतिहास बड़ा सुखद लगा। यह भी अच्छा लगा कि यहां पुजारी पारिवारिक इतिहास वंशानुक्रञ्म का इतिहास रखे हैं। हिंदुओं में पारिवारिक विवरण दर्ज करने का प्राविधान नहीं है, किंञ्तु मुस्लिमों में पारिवारिक विवरण रखने की व्यवस्था है। इसे वे शजरा कहते हैं। यह एक पेड़ की तरह का होता है। परिवार के प्रथम पुरूञ्ष का नाम लिखकर उनके नीचे तीर का निशान बनाकर उनके पुत्र का नाम लिखा जाता है। दो पुत्र होते हैं तो दो तीर बनाए, दोनों के नाम दर्ज होते हैं। इन पुत्रों के बच्चों के विवरण तथा आने वाली संतान की जानकारी इसी प्रकार दर्ज होती जाती है।इन धार्मिक स्थलों के पुजारियों से संपर्क कर पारिवारिक इतिहास तैयार कराया जा सकता है। पुजारी कहीं जातिनुसार होते हैं, तो कहीं जनपद या क्षेत्रानुसार। किसीभी धार्मिकस्थल में जाने पर आप किसी पंडा या पुजारी से पूछे तो वह बता देंगे कि आपके परिवार, गोत्र के पुजारी कौन हैं तथा कहां रहते हैं।

Saturday, November 22, 2008

दो फोटो



हाल में एक शव के साथ गंगा बैराज जाने का अवसर मिला। अंतिम संस्कार स्थल से काफी दूरी पर कोई अजीव जी चीज खड़ी दिखाई दी । कुलबुलाहट हुई। देखा तो यह मूर्ति खड़ी थी। मोबाइल से फोटों खींचे। एक साथी ने देखकर कहा कि गंगा मे विसर्जित प्रतिमा है। किसकी है यह दूसरे ने बताया कि मोर पर सवार तो भगवान कार्तिकेय होते हैं। सो उनकी प्रतिमा है।
अब यह प्रतिमा आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है

Friday, November 21, 2008

बदरीनाथ यात्रा तीन अंतिंम

प्रसिद्धि रही है कि उत्तरांचल के निवासी बहुत सीधे और भोले होते हैं ,किन्तु जैसे-जैसे भौतिकता की बयार उत्तरांचल में पहुंच रही है।पर्यटको की आवाजाही बढ़ी है, ये भी तेज-तर्रार होते जा रहे हैं। हरिद्वार से बद्रीनाथ कें रास्ते में जगह-जगह बस स्टैंड पर महिलाएं नग एवं रूद्राक्ष बेचेतीं दिखाईं दीं। प्रत्येक महिला कें डिホबे में कई-कई एक मुखी रूञ्द्राक्ष तक दिखाई देंगे। मान्यता है कि यह रूञ्द्राक्ष बहुत कम मिलता है। मिलता है तो बहुत मूल्य पर। ये 1100 या 2100 रूपए में एक मुखी रूद्राक्ष देने की बात करते, इसे असली बतांते। ग्राहक के न फंसने पर उसे आखिर में दस-पंद्रह रूपए तक में बेच देते हैं। यहां के बारे में प्रसिद्ध रहा है कि यहां अपराध नहीं होते। चोरी बिल्कुल नहीं होती। इसीलिए यहां घरों में ताले लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। उतरांचल के दौरे में भी दिमाग में बचपन से सुनी जा रही यह बात गलत साबित हुई। जब हम बद्रीनाथ से आगे देश के अंतिम गांव माणा पहुंचे। तो ठंड पडऩे लगी थी। यहां के निवासी नीचे जाने लगे थे। माणा के भी काफी व्यक्ति घर छोडक़र चले गए थे। घरों में ताले लटके देख मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। मैंने अपने कैमरे से उसका फोटो खींचा। यहां से कुछ आगे बढ़ा तो एक अन्य स्थान पर ताला लगा ही नहीं मिला, उस पर सील भी लगी देखी। गांव के प्रधान हमारे साथ थे। किन्तु अन्य लोगों ने बताया कि अब प्लेन की हवा यहां भी आ गई है। भवनों में चोरी होने लगी। इसीलिए पहाड़ के रहने वाले अब घरों पर ताले लगाने लगे हैं।

Thursday, November 20, 2008

गंगा सफाई


गंगा के प्रदूषण को लेकर हाल में हमारे प्रधानमंत्री चिंतित नजर आए। बहुत समय से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास हो रहे है। गंगोत्री से कलकत्ता तक अभियान चल रहा है किंतु मुझे नजर नही आया। मैं गंगा के तट से १२ किलो मीटर दूर बिजनौर शहर में रहता हूं। यहां में गंगा के दो फोटो डाल रहा हूं। यह फोटा गंगा बैराज के स्नान घाट के पास के हैं ।



बैराज एवं घाट की देखरेख की जिम्मेदारी सिंचाई विभाग की है किंतु वह धन न होने की बात कहकर पल्ला झाड़ देता है। फोटो घाट के पास शाव दाह स्थल का है। शव दाह के शव के साथ आए व्यक्ति शव के जल जाने पर बची लकड़ियों अौर राख को गंगा में बहा देते हैं।इतना ही नही वे अपने साथ मृतक के कपडे़,रजाई,गद्दे ,कमीज ,पाजामा ,पेंट, आदि कपड़े,दवाई, मेडकिल रिपो्र्ट आदि साथ लाते एवं गंगा में डाल देते हैं।ये सामान गंगा में बहकर आगे नही जा पाता। यह वही एकत्र रहता हैं तथा जल उतरने पर दिखाई देने लगता है।इतना ही नही घरों की पुरानी देवी देवताआे की मूर्तिया, पुरानी तसवीर तथा केलेंडर आदि गंगा में लाकर डाल देते है। शादियों के पुराने कार्ड, पूजा में प्रयुक्त हुई सामग्री ,दीप आदि भी गंगा में डाले जाते हैं। इन्हें गंगा में विसर्जन करना कहा जाता है। इसका परिणाम है कि यह सामग्री गंगा को प्रदूषित करने में लगी है। सरकार एवं किसी समाजसेवी संगठन का इस आैर ध्यान नही ,यदि लोगों को इसके लिए प्रेरित किया जाए कि शाव की थोडी़ राख को गंगा मे विसर्जित कर शेष बची सामग्री गंगा के तट पर गड्ढा खोद कर उसमे डालकर गड्ढे को बंद कर दिया जाए तों गंगा को बड़े प्रदूषण से मुक्त रखा जा सकता है

Monday, November 17, 2008



जिंदगी का सफर कैसा भी कितना भी कठोर क्यो न हो ,यह जीने वाले की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है कि वह उसे कैसे जिए।बच्चों की साइकिल पर सवार इन मियां जी को देखकर कोई हंसे या मजाक उड़ाए किंतु अपने ढंग से जीवन जीने वाले पर कुछ फर्क नही पड़ता। उसने अगर जीवन को जीने की ठान ली तो वह हर हालत में मस्त रहता है। इन साइकिल सवार मौलाना के चेहरे की मुस्कराहट में तो मुझे फकीरो की मस्ती,मस्तों की मुस्कराहट,प्रेम करने वालों की दीवानगी नजर आती है। सड़क चलते मौलाना को साइकिल चलातें देख मेरे मन का फोटोग्राफर के जागते समय यह नही लगा था कि बच्चों की साइकिल पर सफर कर रहा यह व्यक्ति अपने में इतना मस्त होगा।