Friday, December 31, 2021

विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष: संभावनाएं अपार... बस जाग जाए सरकार तो पर्यटन विकास पकड़े रफ्तार

 विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष: संभावनाएं अपार... बस जाग जाए सरकार तो पर्यटन विकास पकड़े रफ्तार

अशोक मधुप, अमर उजाला, बिजनौर Published by: कपिल kapil Updated Sat, 26 Sep 2020 01:20 PM IST

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सैंद्वार का में पर्यटन विभाग द्वारा कराए गए विकास कार्यो का बोर्ड। - फोटो : अमर उजाला

महाभारत सर्किट में बिजनौर जनपद शामिल तो हुआ लेकिन पर्यटन की दृष्टि से कोई लाभ नहीं हुआ। महाभारत काल के तीन स्थलों के सुंदरीकरण के नाम पर लाखों रुपया लगा किंतु प्रचार न होने के कारण पर्यटक नहीं आ पाए। निर्माण में मानक का पालन न होने के कारण सब कुछ जल्दी ही खत्म हो गया।

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सैंद्वार का में पर्यटन विभाग द्वारा बनाया गया मुख्य द्वार। - फोटो : अमर उजाला

बिजनौर जनपद के डॉ. ओम प्रकाश पर्यटन सचिव होते थे। उनके समय में केंद्र सरकार ने महाभारत सर्किट बनाया। इसके तहत पर्यटन के बढ़ाने के लिए महाभारत से जुड़े स्थलों को सजाया-संवारा जाना था, ताकि इन स्थलों तक पर्यटक आ सकें और पर्यटन उद्योग का विकास हो। महाभारत काल के जनपद में कई स्थान हैं। 

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बिजनौर के ग्राम बरमपुर में स्थित द्रौपदी मंदिर। - फोटो : अमर उजाला

विदुर कुटी, सैंद्वार और बरमपुर में द्रोपदी मंदिर और सरोवर का इसके लिए चयन हुआ था। 2007-2008 में इनका विकास कराया गया। इस कार्य पर लगभग 50 लाख रुपया व्यय हुआ। लेकिन निर्माण कार्य बढ़िया नहीं हुआ, इसमें मानक का पालन नहीं हुआ। धन लगाकर काम निपटा दिया गया। मरम्मत, देखरेख और इनके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया। प्रचार प्रसार न होने से पर्यटक नहीं जुड़ पाए। सरकार का महाभारत सर्किट से पर्यटक उद्देश्य सफल नहीं हुआ। 

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बिजनौर के गंज में स्थित विदुर कुटी। - फोटो : अमर उजाला

शीतला माता मंदिर और मोरध्वज किला है खास

जनपद के इतिहास के जानकार वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप भटनागर कहते हैं कि जनपद में महाभारत काल के बिजनौर का शीतला माता का मंदिर क्षेत्र और मोरध्वज का किला है। इनके विकास पर कुछ काम नहीं हुआ। जबकि यहां महाभारत काल के नगर के अवशेष मिलते हैं। जिन स्थल का विकास हुआ, सुंदरीकरण हुआ, उनका प्रचार-प्रचार नहीं हुआ। उन्हें पर्यटन के नक्शे पर ले जाने का कार्य नहीं हुआ। इसीलिए ये योजना कामयाब नहीं हो सकी। पर्यटन की दृष्टि से बिजनौर में अनेक स्थान हैं। यदि सही ढंग से इनका विकास कराया जाए तो जनपद के विकास को पांव लग सकते हैं।

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सैंद्वारका में पार्क हुआ खस्ताहाल। - फोटो : अमर उजाला

सैंद्वार में था गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम

जनपद के इतिहासकार शकील बिजनौरी कहते हैं कि सैंद्वार गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम था। विदुर कुटी महात्मा विदुर की कुटिया थी। मान्यता है कि पांडव के स्वर्गारोहण को जाते समय द्रोपदी थक कर यहीं गिर गई थीं। जानकार विकास कुमार अग्रवाल का कहना है कि विदुर कुटी को विकसित करना है तो गंगा तक श्रद्धालुओं के जाने की व्यवस्था करनी होगी।


Read more: https://www.amarujala.com/photo-gallery/uttar-pradesh/meerut/world-tourism-day-2020-work-is-pending-for-the-development-of-tourism-in-bijnor-district

हिंदुस्तानी गजल से मशहूर हुए दुष्यंत कुमार

हिंदुस्तानी गजल से मशहूर हुए  दुष्यंत कुमार

अशोक मधुप

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आज 30 दिसंबर   हिंदी साहित्यकार −गजलकार दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि है।  बिजनौर के राजपुर नवादा गांव में एक सिंतबर 1933 में जन्मे दुष्यंत कुमार का मात्र 43 वर्ष की आयु में 30 दिसंबर 1975 को भोपाल में  उनका निधन हुआ।

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हिंदी साहित्यकार −गजलकार दुष्यंत कुमार   हिंदी गजल के लिए जाने जाते हैं। वे हिंदी गजल के लिए विख्यात है किंतु  उन्हें यह ख्याति हिंदी गजलों के लिए नहीं , हिंदुस्तानी गजलों के लिए मिली। संसद से  सड़क तब मशहूर हुए उनके शेर हिंदुस्तानी हिंदी में हैं।  हिंदुस्तानी हिंदी में  उन्होंने सभी प्रचलित शब्दों को इस्तमाल किया। शब्दों को प्रचलित रूप में इस्तमाल किया।

वे अपनी पुस्तक साए में धूप की भूमिका में खुद कहते हैं “ ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है। कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है .उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है।
—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल−मिल गये हैं। उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ।ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है।
—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ।
—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है। हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है।”
ग़ज़ल पर्शियन और अरबी  से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब हैं औरतों से अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ हैं माशूक से बातचीत का माध्यम। उर्दू के  साहित्यकार  स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी  ने ग़ज़ल की  भावपूर्ण परिभाषा लिखी हैं।  कहते हैं कि, ‘जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते भागते किसी ऐसी झाड़ी में फंस जाता हैं जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती हैं। उसी करूण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रगट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श हैं’।

दुष्यंत  की गजलों की खूबी है साधारण बोलचाल के शब्दों का प्रयोग,  हिंदी− उर्दू के घुले मिले शब्दों का प्रयोग । चुटीले व्यंग  उनकी गजल की खूबी है।वे व्यवस्था और समाज पर चोट करते हैं।  ये ही उन्हें सीधे  आम आदमी के दिल तक ले जाती है। उनकी ये शैली उन्हें अन्य कवियों से अलग और लोकप्रिय करती है।
आम आदमी और व्यवस्था पर चोट करने वाले उनके शेर, व्यवस्था पर चोट करते उनके शेर  सड़कों से  संसद गूंजतें है। शायद दुष्यंत कुमार अकेले ऐसे साहित्यकार होंगे , जिसके शेर सबसे ज्यादा बार संसद में पढ़े गए हों। सभाओं में नेताओं ने उनके शेर सुनाकर व्यवस्था पर चोट की हो।सरकार को जगाने और जनचेतना का कार्य किया हो।उन्होंने हिंदी गजल भी लिखी, पर वह इतनी प्रसिद्धि  नही पा सकी, जितनी हिंदुस्तानी हिंदी में लिखी  गजल लोकप्रिस हुईं।

उनके गुनगुनाए  जाने वाले उनके कुछ  हिंदुस्तानी हिंदी के शेर हैं−

−वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है, 
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है। 

−रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया, 
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों।−कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता ,
एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारों।

− यहां तो  सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसतें है,खुदा  जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा,
−गूँगे निकल पड़े हैं ज़बाँ की तलाश में ,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।−पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं  ।आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है ,
पत्थरों में चीख़ हरगिज़ कारगर होगी नहीं।
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो,
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं ।

−सिर से सीने में कभी पेट से पाँव में कभी ,
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है ।

−मत कहो आकाश में कोहरा घना है,ये किसी की व्यक्तगत आलोचना है।  −ये   जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,मै सज्दे में नही था, आपको धोखा  हुआ होगा।

−तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए,

छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं।

−हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत

तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं।

 गजलहो गई है पीर पर्वत  सी पिंघलनी चाहिए,अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। अशोक मधुप(


30 ddicember 2012 prabhasakshi 

Thursday, December 23, 2021

स्वामी श्रद्धानन्द और बिजनौर

 

                                                           स्वामी श्रद्धानन्द और बिजनौर



स्वामी श्रद्धानंद का नाम उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद से जोड़ा जाता रहा है। इतिहासकार बिजनौर जनपद के प्रसिद्ध व्यक्तियों का जिक्र करते स्वामी श्रद्धानंद का नाम लेते है किंतु बिजनौर से उनका क्या वास्ता थाॽ यह नहीं बता पाते। जबकि बिजनौर ने स्वामी श्रद्धानंद के सपने को पंख दिए। 

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के सन्यासी थे। इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। गुरूकुल विश्वविद्यालय ज्वालापुर उन्ही की देन है।


स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फ़रवरी सन् 1856 को पंजाब  के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था। किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।

पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे। स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

उनका विवाह शिवा देवी के साथ हुआ था। आपकी 35 वर्ष में शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् 1917 में उन्होने संन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया। महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30 हजार रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और  निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। किन्तु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे।

इसी समय बिजनौर के रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम और 11 हजार रुपये दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए। होली के दिन सोमवार, चार मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। 

गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूंस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तेजी से होने लगा। 1907 में महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन 1916 में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। 1921 में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। 1923 में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया।

24 सितंबर 1924 को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया।

गुरूकुल की स्थापना 1902 से लगातार  मुंशीराम उर्फ स्वामी श्रद्धानंद कांगडी में रहते थे। कांगडी आज हरिद्वार जनपद का भाग है पर उस समय बिजनौर में ही था। कांगडी में रहने के कारण स्वामी श्रंद्धानंद को बिजनौरवासी उन्हें बिजनौर का मानते हैं। 

राजनैतिक व सामाजिक जीवन:


उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ। अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे। स्वामी जी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे। जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे। स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गये। आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया। वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे। उन्होने अछूतोद्धार और धर्म में वापसी ने लिए बड़ा योगदान किया। 23 दिसम्बर 1926 को चांदनी चौक, दिल्ली में उनके निवास पर एक व्यक्ति ने गोली मारकर हत्या कर दी। 


 - अशोक मधुप


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मेरा ये लेख 23 दिसंबर के प्रभासाक्षी, शनसाइन न्यूज, सांध्य दैनिक चिंगारी नवभारत टाइम्स रीडर ब्लाँग  समेत कई अखबार और पोर्टल ने छापा है




Sunday, November 7, 2021

कांगडी गुरूकुल को अपनी समपूर्ण भूमिदान करने वाले लाला मुंशी अमन सिंह



 

लाला मुंशी अमन सिंह

गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्वालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले मुंशी अमन सिंह का जन्म सन 1863 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर नगर के समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम लाला शिवलाल रईस था। उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वत्र व्यवस्था न थी।

गुरूकुल विश्वविद्यालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले भामाशाह मुंशी अमन सिंह रईस को कोई आज जानता भी नहीं। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए इन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय प्रांगण में इनके नाम पर अमन चौक है। विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार का नाम भी उनके नाम पर अमन द्वार रखा हुआ है। प्रथम स्थापना स्थल और अमर सिंह की जमीदारी का नाम कांगडी  विश्वविद्यालय के नाम के साथ लगा है। आज 28 जनवरी इस भामाशाह की पुण्यतिथि है। 


गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्वालय को अपना सर्वस्व दान करने वाले मुंशी अमन सिंह का जन्म सन 1863 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर नगर के समृद्ध वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम लाला शिवलाल रईस था। उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के लिए सर्वत्र व्यवस्था न थी।

बिजनौर मंडल आर्य समाज के इतिहास के अनुसार इसीलिए मुंशी अमन सिंह केवल साधारण गणित, भूगोल आदि की शिक्षा के साथ−साथ केवल उर्दू और फारसी का ही अध्ययन कर सके। इस समय देश में प्रायः बाल विवाह का प्रचलन था। इसलिए छोटी अवस्था में ही आपका विवाह जनपद के जलालाबाद कस्बे के प्रसिद्ध रईस सूरजभान की बहन ईश्वरी देवी से हुआ। जलालाबाद उस समय परगने का मुख्य स्थान था। लेखक प्रायः 90 वर्ष पूर्व लिखी पुस्तक में लेखक लिखते हैं उस समय सन् 1926 में जलालाबाद उजड़ता जा रहा था। यहां के निवासी नजीबाबाद जाकर बस रहे थे। लगता है कि मुंशी अमन सिंह ससुराल में रहते थे। ये भी नजीबाबाद जा बसे। इसलिए इन्हें बिजनौरवासी नही अपितु नजीबाबाद के निवासी के रूप में जाना गया।

मुंशी अमन सिंह शुरू से ही पतले−दुबले और कमजोर थे। साथ ही इन्हें 22−23 साल की उम्र के श्वास रोग (दमा) हो गया। श्वास रोग से आप जीवन भर भारी कष्ट में रहे। औषधि के सेवन से भी कोई विशेष लाभ न हुआ। कांगड़ी गुरूकुल के विशाल क्षेत्र और स्वच्छ वायु मंडल में निवास से दमा दबा जरूर रहा। आपके कोई संतान नही थी। आप श्वांस के गंभीर रोगी थे। दमें का दौरा पड़ने पर आपकी हालत बहुत खराब हो जाती थी। प्राण त्याग की हर समय आशंका बनी रहती थी। आपने सोचा कि अपनी सारी भू−सम्पत्ति अपने जीते जी दान कर दी जाए, ताकि विवाद न पैदा हो। आपने नजीबाबाद आर्य समाज के प्रधान पंडित बालमुकुंद आदि की सम्मति से महात्मा मुंशीराम (बाद में बने स्वामी श्रद्धानंद) को गुरूकुल की स्थापना के लिए अपनी सारी संपत्ति दान देने का निर्णय लिया। महात्मा मुंशीराम उस समय गुरूकुल की तलाश के लिए भूमि की तलाश कर रहे थे।

चौधरी अमन सिंह ने अपना 1200 बीघा जमीन का कांगड़ी गांव और अपने पास एकत्र सम्पूर्ण राशि ₹11000 इसकी स्थापना के समय इस गुरूकुल विद्यालय को दान की थी। चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय कनखल (हरिद्वार) देश का जाना माना विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1902 में मुंशी राम (स्वामी श्रद्धानंद) ने हरिद्वार से उत्तर में कांगड़ी गांव तबके बिजनौर जनपद में की। आज इसका केम्पस हरिद्वार से चार किलोमीटर दूर दक्षिण में है।

कांगड़ी के घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, चार मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। 1907 में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। 24 सितंबर 1924 को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 को गुरुकुल कांगड़ी गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 में इसका प्रबन्ध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभा का संगठन हुआ।

मुंशी अमन सिंह शुरू से ही दमा से ये परेशान थे ही। दमा का कानपुर में एक रिश्तेदार के यहां रहकर उपचार करा रहे थे। 28 जनवरी 1926 में कानपुर में ही उपचार के दौरान इनका निधन हुआ। पत्नी ने इनका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया। 

अमन सिंह द्वारा दान की भूमि विश्वविद्यालय के अधीन है। अमन सिंह को सम्मान देने के लिए विश्वविद्यालय कैम्पस में इनके नाम से अमन चौक बना हुआ है। विश्वविद्यालय का प्रवेश द्वार भी इनके नाम पर है। उसका नाम अमन द्वार है। अमन सिंह के दान दिए गांव का नाम कांगड़ी आज भी गुरूकुल के नाम से जुड़ा है।

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

28 जनवरी 2022 के प्रभासाक्षी में मेरा लेख

Saturday, November 6, 2021

चंद्रावती लखनपाल 20 दिसंबबर के अमर उजाला में मेराालेख



 बिजनौर में जन्मी प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,आर्य विदुषी तथा  शिक्षाशास्त्री चंद्रावती लखनपाल को  बिजनौरवासी जानते भी  नहीं । आज 20 दिसंबर   चंद्रावती लखनपाल का आज जन्मदिन है। बिजनौरवासी ये भी नहीं जानते कि चंद्रावती लखनपाल दो बार राज्यसभा की सदस्य भी नहीं।

चंद्रावती लखनपाल का  परिवार बिजनौर नई बस्ती के आर्यनगर में रहता था। इनके पिता पंडित जयनारायण शुक्ला नगरपालिका बिजनौर में लेखाकार  थे। इनकी मां भगवान देवी बालिका नार्मल स्कूल की मुख्य अध्यापिका थी। जयनारायण शुक्ला  कई साल तक आर्य समाज बिजनौर के  मंत्री और कोषाध्यक्ष रहे।   पांच संतानों में सबसे बड़ी  चंद्रावती को पिता पंडित जयनारायण शुक्ला ने  उच्च शिक्षा दिलाने  इलाहाबाद भेजा। चंद्रावती ने इलाहाबाद विश्वविद्वालय से १९२६ में  स्नातक की डिगरी प्राप्त की ।

डा सत्यवृत सिद्धांतालकार ने अपनी बायोग्राफी रेमीनिसेंसेज एंड रिफलेक्शन्स आफ  वैदिक स्कालर में लिखा है कि शादी के समय   वे (डा सत्यवृत कांगड़ी )गुरूकुल विश्वविद्वालय में  तुलनात्मक धर्म विज्ञान के महोपाध्याय थे। चंद्रावती की इच्छा थी कि  स्नातक करने के बाद ही शादी हो।  उनकी  इच्छा के अनुरूप स्नातक करने के बाद 15 जून 1926 को शादी हुई। । शादी के बाद चंद्रावती ने इलाहाबाद से विश्वविद्यालय से अंग्रेजी से एमए किया।

डा सत्यवृत और चंद्रावती लखनपाल दोनों आजादी के आंदोलन में सक्रिय रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय चंद्रावती लखनपाल ने  शराबबन्दी और स्वदेशी का प्रचार किया। १९३२ में उन्हें कांग्रेस के  संयुक्त प्रान्तीय राजनैतिक सम्मेलन महिला विंग की अध्यक्ष चुना गया। 20 जून 1932 को सम्मेलन के लिए आगरा पहुँचने पर वे  गिरफ्तार कर लीं गयीं। उन्हें एक  साल की सजा हुई।

वे महादेवी कन्या पाठशाला( एक डिगरी काँलेज )देहरादून की प्राचार्य बनी। कार्यकाल पूरा होने उसके बाद चंद्रावती लखनपाल दो  जुलाई 1945 को  कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्या पद पर नियुक्त हुई।अप्रैल 1952 में राज्यसभा की सदस्या चुनी गई । पहले चार साल और दूसरी बार छह कुल  10 साल तक इस पद पर रहीं।1934 में चन्द्रावती जी को स्त्रियों की स्थिति“ ग्रन्थ पर सेकसरिया पुरस्कार तथा 20  मई 1935  में उन्हें शिक्षा मनोविज्ञान” ग्रन्थ पर महात्मा गांधी  के सभापतित्व में मंगलाप्रसाद प्रसाद पारितोषिक पुरस्कार दिया गया।

चंद्रावती लखानपाल के पति  डा सत्यवृत सिद्धान्तालंकार  गुरूकुल विश्वविद्यालय कनखल के  दो बार कुलपति रहे। वे जाने माने लेखक थे।वेद, समाज शास्त्र और होम्योपैथी पर भी उनकी कई पुस्तक हैं। डा सत्यवृत भी राज्य सभा के सदस्य रहे।

चंद्रावती लखनपाल ने महिलाओं को  स्वावलम्बी बनाने के लिए १९६४ में अपनी सम्पूर्ण आय दान देकर  एक ट्रस्ट की स्थापना की।३१ मार्च १९६९  को मुबंई में इनका  निधन हुआ।


 जन्म 20 दिसंबर 1904 −− निधन 29 मार्च  1969



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Sunday, October 31, 2021

दुबई के साथ हुए कश्मीर में विकास के समझौते पर चुप्पी क्योंॽ 26 अक्तूबर 2021

 दुबई के साथ हुए कश्मीर में विकास के समझौते  पर चुप्पी क्योंॽ

अशोक मधुप

दुबई की सरकार  ने जम्मू −कश्मीर में विकास का बड़ा ढांचा तैयार करने का बहुत बड़ा  निर्णय लिया है। इसके लिए उसने जम्मू −कश्मीर सरकार से एमओयू( समझौता) किया है। चार दिन  पहले हुआ समझौता देश  और दुनिया के लिए बड़ी खबर था,  पर देश की राजनीति और अखबारी दुनिया में ये समाचार  दम तोड़ कर रह गया। हालत यह है कि इस बड़े कार्य के लिए देश की पीठ थप−थपाने वाले भारत के अखबार− पत्रकार और नेता चुप हैंजबकि इस समझौते को लेकर पाकिस्तान में हलचल है।

जम्मू −कश्मीर के विपक्षी नेताओं से इस समझौते पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। उनके लिए तो ये खबर पेट में दर्द करने वाली ज्यादा है।हाल में कांग्रेस सासंद राहुल गांधी ने जम्मू− कश्मीर में बाहरी व्यक्तियों की मौत पर नाराजगी जताई थी। उन्होंने ये भी कहा था कि अनुच्छेद 370 हटाने का क्या लाभ हुआॽ जब लाभ  हुआ तो उनकी बोलती बंद है।  

दुनिया के अधिकांश देश जम्मू− कश्मीर को  विवादास्पद क्षेत्र मानते रहे हैं।  पाकिस्तान जम्मू− कश्मीर विवाद को प्रत्येक मंच पर उठाकार भारत को बदनाम करने की कोशिश करता  रहा है।इस सबके बावजूद ये समझौता भारत सरकार की बड़ी उपलब्धि है।

जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने इस बारे में बताया कि दुबई सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार ने एक समझौता किया है।दुबई से समझौते में औद्योगिक पार्कआईटी टावरबहुउद्देश्यीय टावररसद केंद्रएक मेडिकल कॉलेज और एक स्पेशलिटी हॉस्पिटल सहित बुनियादी ढांचे का निर्माण होना शामिल है।राज्यपाल ने  दुबई की ओर जम्मू-कश्मीर प्रशासन के साथ यह समझौता इस क्षेत्र में (केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद) किसी विदेशी सरकार की ओर से पहला निवेश समझौता है। यह समझौता आत्मानिर्भर जम्मू-कश्मीर बनाने की हमारी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।

केंद्रीय एवं वाणिज्य उद्योग मंत्रालय ने सोमवार को एक प्रेस रिलीज़ में बताया था कि इस समझौते के तहत दुबई की सरकार जम्मू-कश्मीर में रियल एस्टेट में निवेश करेगीजिनमें इंडस्ट्रियल पार्कआईटी टावर्समल्टीपर्पस टावरलॉजिस्टिक्समेडिकल कॉलेजसुपर स्पेशलिटी अस्पताल शामिल हैं।ये तो नहीं बताया गया कि दुबई की सरकार  कितना निवेश करेगी।पर यदि वह यहां एक भी रूपया लगाता है तो ये देश की बड़ी उपलब्धि है। जबकि वह कश्मीर में करोड़ों डालर निवेश करने जा रहा है ।अनुच्छेद 370 हटने के बाद दुबई दुनिया का पहला देश है जो जम्मू कश्मीर के विकास में निवेश करने जा रहा है।ये समझौता ऐसे समय में हुआ है जब घाटी में आतंकियों ने मासूम नागरिकोंखासतौर पर गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। 

भारत की मीडिया और नेता देश की उपलब्धि पर भले ही चुप हो पर पाकिस्तान में हलचल है। इस मुद्दे पर पाकिस्‍तान के पूर्व राजनयिक अब्‍दुल बासित ने इसको भारत की बड़ी जीत बताया है।  अब्‍दुल बासित पाकिस्‍तान के भारत में राजदूत रह चुके हैं।  बासित ने यहां तक कहा है कि इस एमओयू के साइन होने के बाद ये बात साफ होने लगी है कि अब कश्‍मीर का मुद्दा पाकिस्‍तान के हाथों से निकलता जा रहा हैउन्‍होंने कश्‍मीर मुद्दे के फिसलने को मौजूदा इमरान सरकार की कमजोरी बताया है। उन्‍होंने ये भी कहा कि नवाज शरीफ सरकार में भी कश्‍मीर के मुद्दे को कमजोर ही किया। बासित के मुताबिक दुबई और भारत के बीच हुए इस सहयोग के बाद निश्‍चित तौर पर ये भारत की बड़ी जीत है।

पाकिस्‍तान के राजनयिक के मुताबिक दुबई की इस्‍लामिक सहयोग संगठन में काफी अहम भूमिका है। इस नाते भी ये करार काफी अहमियत रखता है।बासित ने कहा है कि  अब ये हाल हो गया है कि एक मुस्लिम देश भारत के जम्मू− कश्मीर में निवेश के लिए एमओयू साइन कर रहा है। बासित ने ये भी कहा कि आने वाले दिनों में ये भी हो सकता है कि ईरान और यूएई जम्‍मू कश्‍मीर में अपने काउंसलेट खोल दें। उन्‍होंने कहा कि हाल के कुछ समय में पाकिस्‍तान को कश्‍मीर के मुद्दे पर मुंह की खानी पड़ी है। इस मुद्दे पर वो पूरी तरह से अलग-थलग पड़ चुका है।

छोटी−मोटी बात पर सरकार की आलोचना करने वाला आज देश का विपक्ष इस महत्वपूर्ण उपलब्धि पर चुप्पी साध जाएमीडिया में खबर को जगह न मिले,  इस पर संपादकीय न लिखे जांएतो यह आपकी सोच को बताता है।

 अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

Saturday, October 16, 2021

अमेरिका में भारतीय भी मनाते हैं हैलोवीन फेसबुक 31 अक्तूबर 2021

अमेरिका में भारतीय भी मनाते हैं हैलोवीन
अशोक मधुप
हेलोवीन ईसाइयों का त्योहार है पर अमेरिका में रहने वाले रहने वाले भारतीय भी इसे उत्साह से मनाते हैं।
हैलोवीन शब्द का इस्तेमाल पहली बार 16वीं शताब्दी में हुआ था। इसके बारे में बहुत सी अलग- अलग कहानी है।हर जगह की अपनी कहानी । माना जाता है कि किसान लोग बुरी आत्माओं से फसलों को बचाने के लिए भूतिया कपड़े पहनते हैं ताकि बुरी आत्माओं को डराकर भगाया जा सके। ऐसे में हेलोवीन ही वो दिन है जिस दिन किसान भूतिया कपड़े पहनकर आत्माओं को डराते हैं। यह भी मान्यता है कि 31 अक्टूबर का दिन फसल कटाई का आखिरी दिन होता है। ऐसे में पूर्वजों की आत्माएं फसल की कटाई में हाथ बंटाने के लिए आती हैं। अमेरिका में बसे भारतीय अपने भारतीय पर्व की तरह इस हैलोवीन डे को भी उत्साह के साथ मनाते हैं।
तीन साल पहले अक्टूबर माह में हम पति−पत्नी अमेरिका में थे।बेटा अंशुल कुमार वहां फ्लोरिडा राज्य के टेम्पा शहर में रहता है। ये पर्व मुख्य रूप से 31 अक्टूबर को मनाया जाता है। पर्व से एक सप्ताह पहले से लोगों के घरों के दरवाजे पर भूत और अस्थि पंजर के पोस्टर दिखाई देने लगे। कुछ ने अस्थि पंजर के डिजाइन घर के द्वार के पास लगा लिए । बेटा अंशुल भी एक ऐसा काले रंग का गुब्बारा लेकर आया। उसने गुब्बारा फुलाकर ऊपर अपने कमरे की बालकनी में लगा दिया। उसमें लाइट की भी व्यवस्था थी।लाइट के जलने पर यह जगमगाता भूत ही लग रहा था। वह
वॉलमार्ट से एक पैकेट भी लाया।इसमें से निकला धागा सा घर के बाहर पेड़ों की झाडियों फैला शुरू दिया। बताया कि पापा यहां ईसाई लोग 31 अक्टूबर को हेलोवीन डे मनाते हैं। वे यह मानते हैं इस दिन रात के समय भूत घूमते हैं। इसलिए दरवाजों के बाहर भूत की उपस्थिति जैसी चीजें तैयार की जाती है। पेड़ पौधों पर मकड़ियों के जाले लगा दिए जाते हैं, जिससे लगे कि यह खंडहर है और यहां भूत प्रेत रहते हैं। दरवाजों के बाहर भूत की तस्वीरें चिपका दी जाती है। मान्यता है कि इसे देख रात में घूमने निकले भूत दूर से ही वापिस चले जातें हैं।
30 की शाम में अंशुल ने मुझसे कहा कि पापा तैयार हो जाओ ।सोसाइटी के हेलोवीन फंक्शन में चलना है। मैं ,पत्नी निर्मल शर्मा,पोती अदिति अंशुल के साथ कार्यक्रम में चले गए। हॉल में अंधेरा हो रहा था। लाइटों की शेड चमक रहे थे। बच्चे भूत के कपड़े पहने हुए, भूत का डरावना मुखोटा लगाए हॉल में गोल-गोल घूमकर डांस कर रहे थे। काफी देर तक कार्यक्रम चला।
उसके बाद युवा और बड़े व्यक्तियों ने भूत बने बच्चों को टॉफी और चॉकलेट बांटी। सोसाइटी की ओर खाने की व्यवस्था थी। हमने खाना खाया और चले आए।
अगले दिन सोसायटी में रहने वाले भारतीय इस पर्व को मनाने वाले थे। दोपहर में भारतीय बच्चे और महिलाएं चेहरे पर तरह-तरह के मुखोटे लगाएं सोसाइटी में भारतीय परिवारों के घर गए। इन घरों पर आने वाले बच्चों को तोहफे में टॉफी और चॉकलेट दी गईं। युवक अपने− अपने आफिस गए थे, इसलिए वे कार्यक्रम से दूर रहे।
हमारा घर सोसाइटी के शुरुआत में पड़ता था। सोसाइटी के बैक साइड से भूत बने आए बच्चे और महिलाएं हमारे घर आईं। यहां बच्चों को चॉकलेट दिये गए। घर के बाहर सबने ग्रुप कराया और आगे बढ़ गए।
भूत बने भारतीय बच्चे मास्क लगाए खूब मनोरंजन कर रहे थे। एक दूसरे को डरा रहे थे । कुछ बच्चे आपस में मास्क बदलकर फोटो भी करा रहे थे।हेलोवीन में कद्दू की लालटेन बनाने की परंपरा है। सूखे कद्दू को खोखला करके उसमें डिजाइन से आदमी का चेहरा बनाया जाता है। कद्दू में छेद किए जाते हैं। इस कद्दू के बीच में रोशनी के लिए मोमबत्ती लगाई जाती है। इसे लेकर हेलोवीन की रात में लोग घूमते हैं। बाद में अपने दरवाजे पर टांग देते हैं।
इस त्योहार का प्रचार हुआ तो मांग के अनुरूप कद्दू की बनी लालटेन मिलनी बन्द हो गई। कद्दू की जगह प्लास्टिक की लालटेन ने ले ली है। भारतीय बच्चे भी अपने हाथों में लालटेन लिए हुए थे। पर इनमें रोशनी नही थी।बड़ों से मिलने टॉफी और चॉकलेट उसमें रखते जा रहे थे।
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Saturday, October 2, 2021

गांधी जयंती पर मेरा लेख

 प्रभासाक्षी में मेरा स्तम्भ।इसी लेख को सनशाइन न्यूज पोर्टल और घमासान.काम पोर्टल ने भी चलाया।आभार सम्पादक जी।


 

स्तंभ

गांधीजी के जमाने का नहीं, बहुत पुराना है शांति और अहिंसा का संदेश

अशोक मधुप Oct 02, 2021 10:13

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गांधीजी के जमाने का नहीं, बहुत पुराना है शांति और अहिंसा का संदेश

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स्तंभ

शांति अहिंसा का संदेश महात्मा गांधी का संदेश नहीं था। यह भारत का युगों-युगों का संदेश है। उन्होंने भारत के प्राचीन शान्ति और अहिंसा के आदेश को आगे बढ़ाया। प्रारंभ से भारतवासी शांति और अहिंसा के पुजारी रहे हैं। उन्होंने कभी अपनी ओर से युद्ध नहीं छेड़ा।

आज गांधी जयन्ती है। महात्मा गांधी का जन्मदिन। वही महात्मा गांधी, जिनका देश को आजादी दिलाने में बड़ा योगदान माना जाता है। आजादी के इस आंदोलन के साथ उन्होंने शांति और अहिंसा का संदेश दिया। कोशिश की कि अंग्रेज अहिँसा की शक्ति को पहचानें। अंग्रेज जो खुद ईसाई थे। वे प्रभु यीशु के अनुयायी थे। प्रभु यीशु जो अपने शत्रुओं को भी क्षमा करने की बात करते थे। अपने को नुकसान पहुंचाने वालों को माफ करने में जिनका यकीन था।


शांति अहिंसा का संदेश महात्मा गांधी का संदेश नहीं था। यह भारत का युगों-युगों का संदेश है। उन्होंने भारत के प्राचीन शान्ति और अहिंसा के आदेश को आगे बढ़ाया। प्रारंभ से भारतवासी शांति और अहिंसा के पुजारी रहे हैं। उन्होंने कभी अपनी ओर से युद्ध नहीं छेड़ा। अपने आप तलवार नही उठाई। उनकी कोशिश रही कि सब शांति से निपट जाए। पर जब सामने वाले ने शांति और अहिंसा को मानने वाले की कायरता समझी तो मजबूरी में उन्हें युद्ध करना पड़ा। महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी दोनों का युग एक था। दोनों युद्ध के विपरीत थे। दोनों ने शांति की बात की। ऐसा नहीं है कि यह भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के समय में हुआ हो। ये तो आदि काल से चला आया है। यह तो आर्यवृत की संस्कृति है। विरासत है।

महाभारत काल में भी कौरव पांडव के बीच युद्ध ना हो, इसके लिए बार-बार प्रयास हुए। युद्ध टालने के लिए समझौते के प्रस्ताव लेकर दूत गए। महाभारत काल में तो भगवान श्रीकृष्ण पांडव के दूत बनकर स्वयं कौरवों के पास पहुंचे। किसी भी प्रस्ताव पर तैयार न होने पर उन्होंने दुर्योधन से पांडवों को सिर्फ पांच गांव देने का ही प्रस्ताव किया। इस प्रस्ताव को स्वीकार न करने के बाद ही पांडवों को युद्ध का निर्णय लेना पड़ा। कौरवों ने भगवान श्रीकृष्ण का पांच गांव देने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो महाभारत जैसा विनाशकारी युद्ध ना होता। एक ही परिवार वाले एक दूसरे के खून के प्यासे ना बनते। महाभारत काल में अनगिनत महाबली योद्धा थे। ये सब कुरुक्षेत्र के मैदान की भेंट चढ़ गए। यदि दुर्योधन ने शान्ति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो कुरुक्षेत्र के मैदान में लाशों के ढेर न लगते। और सब शांति के साथ में निपट गया होता। एक महाविनाश बच जाता।

ऐसे ही भगवान राम ने महाबली रावण के पास शांति का प्रस्ताव भेजा। सीता का पता लगाने के नाम पर पहले हनुमान श्रीलंका गए। रावण को समझाया। ना मानने पर लंका जलाकर यह भी बता दिया कि भगवान राम की सेना का एक ही वीर श्रीलंका को जला सकता है तो श्रीराम और उनकी सेना तो उनका महाविनाश करने में भी पूरी तरह सक्षम है। पर रावण नहीं माना। इसके बाद भी युद्ध की शुरुआत से पूर्व भगवान राम ने रावण के पास अंगद को शांति का प्रस्ताव लेकर भेजा। भगवान राम चाहते थे कि किसी तरह रावण को सद्बुद्धि आ जाए। वह माता सीता को ससम्मान वापस कर दे और महाविनाश बच जाए। अंगद ने भरपूर कोशिश की। सब प्रकार से महाबली रावण को समझाना चाहा। हठी स्वभाव के कारण शांति का प्रस्ताव स्वीकार न करने पर भगवान राम और रावण का महा भीषण युद्ध हुआ। दोनों पक्षों को क्षति तो हुई पर श्रीलंका के मेघनाथ और कुंभकरण जैसे महाबली इस युद्ध की भेंट चढ़ गये। एक राक्षस संस्कृति इस विनाश की भेंट चढ़ गई।


-अशोक मधुप

Monday, August 23, 2021

नजीबाबाद के चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालय केम्पस में मुंशी अमन सिंह के
नाम पर
                   पर बना अमनचौक





     मुंशी अमन सिंह के नाम पर 
     बना अमन गेट









नजीबाबाद के चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार देश का जाना मना विश्वविद्यालय है। उसकी स्थापना 1902 में स्वामी श्रद्धानंद जी हरिद्वार से उत्तर में कांगड़ी गांव में तबके बिजनौर जनपद में की। आज इसका केम्पस हरिद्वार से चार किलोमीटर दूर दक्षिण में है।इसके तीन संभाग है। मुख्य केम्पस हरिद्वार( केवल पुरुषों के लिए है )। 2,कन्या गुरुकुल महाविद्यालय हरिद्वार/ केवल कन्याओं के लिए है -कन्या गुरुकुल महाविद्यालय देहरादून- केवल कन्याओं के लिए आज इसमें हजारों छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं इसका अपना बहुत बड़ा संकाय है किंतु यह भी नहीं जानते किसके लिए बिजनौर जनपद के नजीबाबाद के रहने वाले चौधरी अमन सिंह ने अपना 1200 बीघा जमीन का कागड़ी गांव और अपने पास एकत्र सम्पूर्ण राशि ₹11000 इसकी स्थापना के समय इस विद्यालय को दान की थी। मुंशी अमन सिंह की जगह हरिद्वार से सटे पहाड़ियों में स्थित कांगड़ी गांव में है । ऐसी ही जगह पहाड़ियों में महात्मा मुंशीराम का अपना गुरुकुल बनाने का सपना था। कांगडी उस समय बिजनौरं जनपद में होती थी। अब हरिद्वार जिला बनने के बाद यह हरिद्वार में चला गया। 19वीं शताब्दी में भारत में दो प्रकार की शिक्षापद्धतियाँ प्रचलित थीं। पहली पद्धति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित की गई सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की प्रणाली थी और दूसरी संस्कृत, व्याकरण, दर्शन आदि भारतीय वाङ्मय की विभिन्न विद्याओं को प्राचीन परंपरागत विधि से अध्ययन करने की पाठशाला पद्धति। अत: सरकारी शिक्षा पद्धति में भारतीय वाङ्मय की घोर उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी तथा पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया। इस शिक्षा पद्धति का प्रधान उद्देश्य मेकाले के शब्दों में 'भारतीयों का एक ऐसा समूह पैदा करना था, जो रंग तथा रक्त की दृष्टि से तो भारतीय हो, परंतु रुचि, मति और अचार-विचार की दृष्टि से अंग्रेज हो'। इसलिए यह शिक्षापद्धति भारत के राष्ट्रीय और धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी। दूसरी शिक्षा प्रणाली, पंडितमंडली में प्रचलित पाठशाला पद्धति थी। इसमें यद्यपि भारतीय वाङ्मय का अध्ययन कराया जाता था, तथापि उसमें नवीन तथा वर्तमान समय के लिए आवश्यक ज्ञान विज्ञान की घोर उपेक्षा थी। उस समय देश की बड़ी आवश्यकता पौरस्त्य एवं पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान का समन्वयय करते हुए दोनों शिक्षा पद्धतियों के उत्कृष्ठ तत्वों के सामंजस्य द्वारा एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना था। इस महत्वपूर्ण कार्य का संपन्न करने में गुरुकुल काँगड़ी ने बड़ा सहयोग दिया। गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम पिछली शताब्दी के भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में असाधारण महत्व रखने वाले आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया । महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30,000 रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और अविचल निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। किन्तु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी समय नजीबाबाद के धर्मनिष्ठ रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, 4 मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तीव्र गति से होने लगा। 1907 ई. में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 ई. में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन १९१६ में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। आरम्भ से ही सरकार के प्रभाव से सर्वथा स्वतंत्र होने के कारण ब्रिटिश सरकार गुरुकुल कांगड़ी को चिरकाल तक राजद्रोही संस्था समझती रही। 1917 ई. में वायसराय लार्ड चेम्ज़फ़ोर्ड के गुरुकुल आगमन के बाद इस संदेह का निवारण हुआ। 1921 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। 1923 ई. में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया।… 24 सितंबर 1924 ई. को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 ई. को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 ई. में इसका प्रबन्ध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभा का संगठन हुआ। अमन सिंह को सम्मान देने के लिए विश्व विद्यालय केम्पस में इनके नाम से अमन चौक बना हुआ है। विश्व विद्यालय का प्रवेश द्वार भी इनके नाम पर है।उसका नाम अमन द्वार है।अशोक मधुप

Sunday, August 22, 2021

अलीगढ़ का शराब कांड व्यवस्था जन्य है

अलीगढ़ का शराब कांड व्यवस्था जन्य है अशोक मधुप अलीगढ़ में जहरीली शराब पीने से मरने वालों की संख्या 80 से ज्यादा हो गर्इ।एक साल में उत्तर प्रदेश में विषाक्त शराब पीने से 150 के आसपास मौत हुर्इं हैं। ये एक बड़ी संख्या है। 2008 से 2020 तक के 12 साल में नकली और मिलावटी शराब पीने से 452 व्यक्ति मरे हैं।ये सरकारी आंकड़े हैं। मौत तो इससे काफी ज्यादा बतार्इ जा रही हैं। अलीगढ़ में शराब से हुर्इ मौत अलग हैं।ये घटना बिल्कुल अलग है।ये गांव में देहात में बन और बिक रही शराब से मौत होने की घटना नहीं है।यह मौत उस शराब से हुर्इ है, जो सरकारी ठेकों से बेची जा रही है।अब तक शराब से मौत सस्ती के चक्कर में गांव की बनी कच्ची शराब से होती थीं।ठेकों की शराब मंहगी होती हैं। सरकार को इससे काफी टैक्स मिलता है।सरकार के देख रेख में ये ठेके चलते हैं। गरीब नसेड़ी −सस्ती के चक्कर में गांव की बनी शराब खरीद कर प्रयोग करता है। गांव− देहात में शराब बनाने वालों को इनके बनाने की जानकारी ज्यादा नहीं होती। न उनके पास शराब की तेजी नापने के उपकरण होते हैं। इसीलिए उसके कर्इ बार परिणाम गलत आते हैं। ये ही मौत का कारण बनते हैं किंतु इस बार की घटना इससे अलग है। मरने वालों ने इस बार शराब सरकारी ठेके से खरीदी। उन ठेकों से जिनकी गुणावत्ता और सही माल की आपूर्ति के लिए पूरा प्रशासनिक अमला है। पुलिस और प्रशासन की तो संयुक्त जिम्मेदारी है ही। दो सौ ग्राम का 42 डिगरी का (पव्वा ) शराब की बोलत फैक्ट्री से नौ −सवा नौ रुपये के आसपास चलती है। ये ठेकेदार को 66.70 रुपये की मिलती है। इस प्रकार ये पव्वा कहलाने वाली दो सौ ग्राम शराब पर सरकार 56 रुपये के आसपास टैक्स लेती है। 13 रुपये के आसपास लाइसैंसी अपना खर्च लेकर ग्राहक को 80 रुपये के आसपास बेचते हैं। 56 रुपये के टैक्स के बाद सरकार का लाइसैंस शुल्क आदि भी होता है। दस रुपये की शराब पर लाइसैंस शुल्क और टैक्स लगभग 58− 60 के आसपास पड़ता है। दस रुपये की शराब 80 रुपये में खरीदने वाला ग्राहक समझता है कि उसे सही शराब मिल रही है। ऐसे में ठेके से जहरीली शराब मिल रही है तो प्रदेश की मशीनरी जिम्मेदार है। प्रदेश की व्यवस्था दोषी है। इसकी जिम्मेदारी इन सबकी है।ठेकों से बिकने वाली शराब की गुणावत्ता के लिए प्रदेश में अलग से पूरा आबकारी विभाग है। इस विभाग के अधिकारी जिम्मेदार हैं।आबकारी विभाग के वे सिपाही जिम्मेदार हैं जो वर्षों से एक ही जगह जमे हैं। इन विभागीय अधिकारियों −कर्मचारियों पर मरने वालों की हत्या के मुकदमें चलने चाहिए। सरकार ठेकों से बिकने वाली शराब से मोटा टैक्स लेती है। प्रति बोतल टैक्स निर्धारित है। इसलिए उसकी भी जिम्मेदारी बनती है। मरने वाले के परिवार को मुआवजा दे। जहरीली शराब पीने से मौत होती रहती हैं। मौत होने पर शोर मचता है। कुछ अधिकारियों पर कार्रवार्इ का चाबुक चलता है। कुछ दिन बाद सब ठीक हो जाता है। अधिकारी बहाल हो जाते हैं। कुछ दिन बाद फिर नया कांड हो जाता है।ये अलग तरह की घटना है। इसमें हुर्इ मौत व्यवस्था जन्य हैं।इन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। अलीगढ़ में तैनात आबकरी विभाग का अमला इन मौत के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। इन पर हत्या के मुकदमें दर्ज होने चाहिए। साथ ही मृतकों के परिवार को दिया जाने वाला मुआवजा इनके वेतन से वसूला जाना चाहिए। इस प्रकरण में इतनी कठोर कार्रवार्इ होनी चाहिए कि आगे से कोर्इ ऐसा करने का दुस्साहस न कर सके। अशोक मधुप

Tuesday, August 17, 2021

चिकित्सक सिर्फ चिकित्सा कार्य ही करेंगे

अशोक मधुप उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महत्वपूर्ण निर्णय लिया है। निर्णय है कि अब सरकारी चिकित्सक सिर्फ चिकित्सा कार्य ही करेंगे।उनसे प्रशासनिक कार्य नहीं लिया जाएगा। प्रशासनिक कार्य के लिए अब एमबीए युवा रखे जाएंगे। यह एक बड़ा निर्णय है। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। आज यह चिकित्सा मे लागू किया जा रहा है। आगे कृषि, शिक्षा और तकनीकि सेवाओं में भी लागू होगा। इस व्यवस्था की लंबे समय से मांग चल रही थी। चिकित्सकों की कमी से जूझ रही उत्तर प्रदेश की स्वास्थय सेवा को इस निर्णय से बड़ी राहत मिलेगा। प्रशासनिक कार्य में मुक्ति पाकर चिकित्सक अब सिर्फ अपना कार्य ही करेंगे।अब तक व्यवस्था यह है कि सीनियर चिकित्सक प्रशासनिक कार्य देखता है। वह ही अस्पताल की व्यवस्था देखता है, वह ही सीएमएस और डिप्टीसीएमओ, सीएमओ,डिप्टी डाइरेक्टर, डाइरेक्टर आदि बनता है। वह ही प्रशासनिक कार्य करता है। चिकित्सा कार्य की जगह अब उसका कार्य मींटिग करना,व्यवस्था देखना, शिकायत सुनना और उनकी जांच करने तक रह जाता है। शासन के आदेश का पालन , मांगी गई जानकारी पत्रों के जवाब में ही पूरा दिन लग जाता है। इस आदेश से अब ऐसा नहीं होगा। ये अपना चिकित्सा कार्य करेंगे। प्रशासनिक कार्य के लिए अब एमबीए तैनात किए जांएगे।सीनियर चिकित्सक प्रशासनिक कार्य संभालने के बाद अपना चिकित्सा कार्य लगभग छोड़ देते हैं। वेचिकित्सा कार्य करना चाहतें हैं किंतु प्रशासनिक कार्य में मरीजों को देखने के लिए समय ही नहीं निकाल पाते।प्रशासनिक पद पर आने तक उनका काफी लंबा अनुभव हो जाता है। जरूरत ये ही कि वह अपना पुराना कार्य ही करें। इससे वे नए के मुकाबले मरीज को ज्यादा लाभ दे सकतें हैं। पर ऐसा होता नहीं। प्रशासनिक कार्य कोई भी कर सकता है । इसके लिए अलग से स्टाफ होना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस निर्णय से दो लाभ होगें। प्रशासनिक कार्य में अब तक प्रदेश भर में लगभग सात सौ से एक हजार के आसपास सीनियर चिकित्सक लगे होंगे। एक झटके में हमें इतने योग्य चिकित्सक मिल जाएंगे। इनकी जगह एमबीए रखे जाएंगे।इस प्रकार प्रदेश के एक हजार के आसपास एमबीए युवाओं को रोजगार मिल जाएगा। बहुत समय से मांग की जा रही है कि बिजली,सिंचाई, कृषि और शिक्षा, तकनीकि शिक्षा आदि में विशेषज्ञों की कमी देखते हुए तकनीकि स्टाफ से प्रशासनिक कार्य न लिया जाए।इसके लिए अलग से स्टाफ रखा जाए। बिजली विभाग के वरिष्ठ इंजीनियर , सिचांई विभाग का तकनीकि स्टाफ , इंजीनियर अपना काम करे। प्रशासनिक कार्य के मुकाबले वह अनुभवी होने के कारण अपना कार्य ज्यादा बेहतर कर सकते हैं। कृषि विशेषज्ञ कृषि की नई योजनांए, नई रिसर्च पर ज्यादा बेहतर काम कर सकते हैं।प्रशासन का काम देखने के लिए अलग से अधिकारी होने चाहिए। विभागों के सीनियर विशेषज्ञों से प्रशासनिक कार्य लेकर उनकी प्रतिभा को क्षति पहुंचाई जाती है।ऐसे ही शिक्षा में हो, शिक्षक अपना काम करें। व्यवस्था देखने को प्रशासनिक अधिकारी अलग से हों। योगी आदित्यनाथ के इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे। प्रशासनिक कार्य से विशेषज्ञों को मुक्तकर उनसे उनका कार्य लिया जाएगा। इनकी जगह पर एमबीए रखे जाने से खाली घूम रहे एमबीए युवाओं को रोजगार मिलेगा। अशोक मधुप 8 jun 2021

Saturday, August 14, 2021

स्वामी रामदेव और एलोपैथिक चिकित्सकों में जवानी जंग

अशोक मधुप स्वामी रामदेव और एलोपैथिक चिकित्सकों में इस समय जवानी जंग जारी है।रामदेव आयुर्वेद और एलोपैथिक चिकित्सक अपनी −अपनी पैथी की महत्ता बताने में लगे हैं। दोनों अपनी – अपनी चिकित्सा पद्यति के गुण गाते नहीं अघा रहे ।अपनी चिकित्सा पद्यति का बड़ा बताने के चक्कर में दूसरी को नीचा दिखाने, कमतर बताने में लगे हैं। हालाकि स्वामी रामदेव केंद्रीय स्वास्थय मंत्री हर्षवर्धन के कहने पर खेद व्यक्त कर चुके हैं।इसके बावजूद जवानी जंग रूकने का नाम नहीं ले रही। जबकि दोनों की अपनी जगह अलग −अलग महत्ता है। दोनों का अलग−अलग महत्व है। एलोपैथी का गंभीर रोगों के उपचार में कोई जवाब नहीं है तो सदियों से भारतीयों का उपचार कर रही आयुर्वेद उपचार पद्यति का भी कोर्इ तोड़ नही हैं। कोरोना महामारी जब शुरू हुई तब तक उसका कोई उपचार नहीं था। उसकी भयावहता से सब सहमें थे। दुनिया डरी थी। सबको अपनी जान की चिंता थी । ऐसे गंभीर समय में एलोपैथिक चिकित्सक और स्टाफ आगे आया। उसने प्राणों की परवाह नहीं की। मरीज की जान बचाने के लिए दिनरात एक कर दिया। जो बन सकता था किया। उपलब्ध संसाधनों से वे लोगों की जान बचाने में लग गए।वैज्ञानिक आगे आए।उन्होंने एक वर्ष की अवधि में दुनिया को कोरोना की वैक्सीन उपलब्ध करा दी।ये आधुनिक चिकित्सा पद्यति का करिश्मा था। उसका कमाल था। कोराना के आने के समय जब दुनिया के पास इसका कोई उपचार नहीं था। इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी,तब हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्यति आगे आई । आयुर्वेद आगे आया।उसने बताया कि सदियों से प्रयोग किया जा रहा आयुष काढ़ा, इस महामारी से लड़ने के लिए हमें सुरक्षा कवच देगा। हमारी इम्युनिटी बढ़ाएगा। रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत करेगा। आयुर्वेद सदियों से बैकटीरिया जनित बीमारी से लड़ने के लिए नीम की महत्ता बताता रहा है। चेचक के मरीज के कमरे के बाहर नीम की टूटी टहनियां परिवार की महिलांए लंबे समय से रखती रहीं हैं। बीमार को नीम के पत्ते पके पानी में स्नान कराने का पुराना प्रचलन है। मान्यता है कि नीम बीमारी के कीटाणु मारता है। बुखार होने , ठंड लगने में तुलसा की चाय पीने का हमारे यहां पुराना चलन है। गिलोय भी इसी तरह की है। ऐसी बीमारी के समय गिलोय का काढा पीने का पुराना प्रचलन है। जब एलोपैथी के पास कोई दवा नहीं थी। उस समय भी हमारी परंपरागत पद्यति हमें बचा रहा थी। प्लेग , चेचक कोरोना जैसी बीमारी से लड़ने में मदद दे रही थी। हाथ मिलाने की परम्परा हमारी नहीं है। विदेशी है। हमारी दूर से हाथ जोड़कर प्रणाम करने की परंपरा है। इसका कोरोना काल में पूरी दुनिया ने लोहा माना।उसे कोरोना से बचाव में कारगर हथियार के रूप में स्वीकार किया। पुराना किस्सा है एक वैद्य जी की प्रसिद्ध दूर नगर के वैद्य जी को मिली। उन्होंने नए विख्यात हो रहे वैद्य जी का ज्ञान परखने का निर्णय लिया। एक शिष्य के उनके पास कोर्इ कार्य बताकर भेजा। पहले यात्रा पैदल होती थी। इसलिए आदेश किया कि आराम कीकर के पेड़ के नीचे करना। उसने ऐसा ही किया। वैद्य जी के पास जब वह पंहुचा तो उसकी बहुत खराब हालत थी। शरीर से जगह− जगह से खून बह रहा था । देखने से ऐसा लगता था कि वह कोढ़ का मरीज हो। वैद्य जी से वह मिला। उन्हें दूसरे वैद्य जी का संदेश दिया। वैद्य जी ने बीमारी के बारे में पूछा। उसने बता दिया।गुरू जी ने कीकर के वृक्ष के नीचे आराम करने को कहा था। । वैद्य जी समझ गये कि ये कीकर के नीचे आराम करने से हुआ है। वैद्य जी ने उसे नीम का काढ़ा पिलाया। पानी में नीम के पत्ते पकाकर स्नान कराया। जाते समय कहा कि रास्ते में नीम के पेड़ के नीचे विश्राम करते जाना। जब वह अपने गुरू जी के पास पंहुचा तो वह पूरी तरह स्वस्थ था। उसकी बीमारी खत्म हो गई थी। उसका शरीर पहले जैसा कांतिमान हो गया था। यह हमारी परंपरागत चिकित्सा है। इसे हम आयुर्वेद कहते हैं। यह पूर्वजों से चला आ रहा हमारा ज्ञान है। हमारी रसोई के मसाले पूरा आयुर्वेद है। इंसान का पूरा इलाज कर सकतें हैं। अशोक मधुप (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, August 6, 2021

पूरा हिंदुस्तान आपका तो खालिस्तान की मांग क्यों ॽ



 पूरा हिंदुस्तान आपका तो खालिस्तान की मांग क्यों 

अशोक मधुप

 हाल में केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक कार्यक्रम में कहा कि कुछ लोग खालिस्तान की मांग क्यों करते हैं जबकि पूरा हिन्दुस्तान उनका है। उन्होंने  यह टिप्पणी उस समय की जब वह केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी के साथ शाइनिंग सिख यूथ ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक के विमोचन में शामिल हो रहे थे। रक्षा मंत्री ने कहा,‘भारतीय संस्कृति को अतीत में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा था। अगर भारतीय संस्कृति आज कायम है तो यह सिख समुदाय के कारण है। सिख समुदाय का गौरवशाली इतिहास है । विडंबना यह है कि उनमें से बहुत से लोग उनका इतिहास नहीं जानते हैं। रक्षा मंत्री ने कहा,‘मैं कहूंगा कि अपने युवाओं को सिख समुदाय का इतिहास सिखाएं। यह देश सिख समुदाय के योगदान को कभी नहीं भूलेगा। कुछ लोग खालिस्तान की मांग करते हैं। आप खालिस्तान के बारे में क्यों बात करते हैंजब पूरा हिंदुस्तान आपका है?’ उन्होंने कहा,‘इस साल हम गुरु तेग बहादुर की 400 वीं जयंती (प्रकाश पर्व) मना रहे हैं। गुरु तेग बहादुर के नाम पर शौर्य हैसाहस है और उनका नाम और काम दोनों ही हमें प्रेरणा देते हैं। सिख समुदाय अपनी जातिधर्म के बावजूद सभी के लिए लंगर की सेवा करता है। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी सिख धर्म के इतिहास और बलिदान की सराहना करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में सिख समुदाय का बहुत बड़ा योगदान था। जब हमें आजादी मिली और विभाजन की त्रासदी का सामना करना पड़ातो सिखों ने बहुत कुछ झेला।

 उन्होंने यह भी कहा कि  सिख समुदाय ने राम मंदिर आंदोलन में बड़ा योगदान दिया।निहंग सिखों ने पहले इसके लिए आंदोलन किया।

मैं राजनाथ सिंह का यह  बयान पढ़ रहा हूं तो मेरी आखों के सामने एक  दृश्य आ जाता है।

 24 अगस्त ।दिल्ली का एयरपोर्ट।

अफगानिस्तान से वहां बसे भारतीयों को लेकर एक विमान  एयरपोर्ट  पर उतरता है। विमान में अफगानिस्तान से आने वालों में   अफगानी  सिख भी हैं। सिख समाज अपने साथ  गुरू ग्रंथ साहब के तीन पावन स्वरूप भी लाया है। गुरूग्रन्थ साहिब के स्वरूप को  रिसीव करने के लिए केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी खुद एयरपोर्ट पहुंचे। उनके साथ केंद्रीय मंत्री पी मुरलीधारन भी मौजूद थे। अफगानी भारतीयों का स्वागत करने काफी संख्या में भाजपा कार्यकर्ता भी एयर पोर्ट  आए हैं।  केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी  गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियों को सिर पर रखकर रिसीव किया। नंगे पांव गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियों को सिर पर रखे  वह एयर पोर्ट से बाहर आ रहे हैं। अलग तरह का दृश्य है। गुरू ग्रन्थ साहब का सम्मान का नजारा देखते ही बनता है।कोई किसी तरह का भेद भाव  नहीं। जो व्यक्ति यह दृश्य देख रहा है, वह हाथ जोड़कर गुरू ग्रन्थ साहिब के स्वरूप को प्रणाम कर रहा है। नतमस्तक हो रहा है।से ही तो हिंदू समाज रामायण और गीता का सम्मान करता  है।

इनके आगमन पर  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहा,“हम अफगानिस्तान से मात्र अपने भाई-बहनों को ही नहीं लाये हैं बल्कि सिर पर रखकर गुरु ने साहिब भी लाये हैं

  मैं  सोच रहा हूं कि अफगानिस्तान से देश  वापस लाने वाले हिंदू− मुस्लिम – सिख में कोई भेदभाव नहीं। सब भारत माता के लाल है। सब भारत मां के सपूत। देश का व्यवहार सबके प्रतिएक सा है।फिर खालिस्तान क्यों

खालिस्तान के बारे में सोचता हूं कि आज सिख समाज पूरे  भारत  में कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है।खालिस्तान की मांग करने वालों  के लिए ,उनकी आंख खोलने के  लिए संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार के विचार काफी है। संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार पंजाब के Nangal (नंगल) और लुधियाना में हुए कार्यक्रमों  में पूछा गया कि खालिस्तान के  बारे में आपकी क्या राय है।उन्होंने बोलते हुए कहा था−  "हिंदुस्तान ही खालिस्तान है" और "सारा खालिस्तान ही हिंदुस्तान है"।

उन्होंने स्पष्ट किया कि  जब देश को और धर्म को आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत शीश देने वाले वीरों की आवश्यकता थी तब "पिता दशमेश" गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने "ख़ालसा पंथ" का सृजन करते हुए "संत-सिपाही" परंपरा की नींव डाली । इसमें हर जातिवर्ण और क्षेत्र के लोग शामिल हुए ताकि धर्म बच सके। यानि खालसा पंथ लोगों को समाज को और राष्ट्र को जोड़ने के लिए आया था । दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने इस पवित्र शब्द का दुरूपयोग कर इस शब्द का प्रयोग भारत को तोड़ने के लिए और लोगों को बांटने के लिए इस्तेमाल किया और नाम दिया "खालिस्तान"।

तो ऐसा करने वालों को ये जरूर सोचना चाहिए कि वो "दशम पातशाह" की शिक्षाओं का अनुकरण कर रहे हैं या उसके विपरीत जा रहे हैंउन्हें ये जरूर सोचना चाहिए कि उनके आचरण से पवित्र "खालसा" शब्द शोभित हो रहा है अथवा इस पवित्र शब्द दुरूपयोग हो रहा है?

इसके बाद उन्होंने प्रश्न करने वाले से कहा-

सतगुरु "नानक देव जी" की प्राकट्य स्थली 'तलवंडी साहिबवर्तमान पाकिस्तान में है। चतुर्थ पातशाही "गुरु रामदास जी" की प्राकट्य स्थली चूना मण्डीलाहौर में है । वह भी दुर्भाग्य से आज पाकिस्तान में आता है। दशम पातशाह "गुरु गोविंद सिंह जी" का प्रकाश बिहार के पटना साहिब में हुआ था तो जहाँ तक खालिस्तान का ही प्रश्न है तो मुझे आपसे इतना पूछना है कि जो खालिस्तान आप मांग रहे हो उसमें हमारे गुरुओं की ये प्राकट्य स्थली शामिल होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?उन्होंने आगे कहा- "करतारपुर साहिब" जहाँ गुरु नानक देव जी ज्योति-जोत में समाये थे वो आज पाकिस्तान में हैं। पंचम "गुरु अर्जुन देव" जी ने 'लाहौरमें शरीर छोड़ा था । दशम पातशाह "गुरु गोविंद सिंह जी" महाराज 'नांदेड़ साहिब', महाराष्ट्र में ज्योति-ज्योत में समाये थे। मुझे आपसे इतना ही पूछना है कि जो खालिस्तान आप मांग रहे हो उसमें हमारे गुरुओं के ज्योति-ज्योत में समाने की ये स्थली होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?

उन्होंने आगे कहा- "दशमेश पिता" ने जब "खालसा "सजाया था तो शीश देने जो पंच प्यारे आगे आये थे ।उनमें से एक 'भाई दयाराम लाहौर से थे। दूसरे मेरठ के 'भाई धरम सिंह जीथे। तीसरे जगन्नाथपुरीउड़ीसा के 'हिम्मत सिंह जीथे। चौथे द्वारकागुजरात के युवक 'मोहकम चन्द जीथे और पांचवें कर्नाटक के बीदर से भाई 'साहिब चन्द सिंहजी थे । मेरा प्रश्न ये है कि उस खालिस्तान के अंदर इन पंच प्यारों की जन्म-स्थली होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?

तो उन्होंने आगे कहा- सिख धर्म के अंदर पांच  तख्त बड़ी महत्ता रखते हैंइनमें से एक तख्त श्री पटना साहिब में है जो बिहार की राजधानी पटना शहर में स्थित है। 1666 में "गुरु गोबिंद सिंह जी" महाराज का यहाँ प्रकाश हुआ था और आनंदपुर साहिब में जाने से पहले उन्होंने यहाँ अपना बचपन यहाँ बिताया था । लीलाएं की थी। इसके अलावा पटना में गुरु नानक देव जी और गुरु तेग बहादुर जी के भी पवित्र चरण पड़े थे। एक और तख़्त श्री हजूर साहिब महाराष्ट्र राज्य के नांदेड़ में है। तो मेरा प्रश्न ये है कि ये सब पवित्र स्थल आपके खालिस्तान में होने चाहिए कि नहीं होने चाहिए?

उन्होंने  आगे कहा- महाराजा रणजीत सिंह ने जिस विशाल राज्य की स्थापना की था, उसकी राजधानी लाहौर थी। उनके महान सेनापति हरिसिंह नलवा की जन्म स्थली और शरीर त्याग स्थली दोनों ही आज के पाकिस्तान में हैइसके अलावा अनगिनत ऐसे संत जिनका बाणी पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब में है वो सब भारत के अलग-अलग स्थानों में जन्में थे । मेरा प्रश्न है कि आपके इस खालिस्तान में ये सब जगहें आनी चाहिए कि नहीं आनी चाहिए?

प्रश्नकर्ता से उन्होंने  कहा- इन सारे प्रश्नों के उत्तर तभी मिल सकते हैं और ये सारे ही स्थल तभी खालिस्तान के अंदर तभी आ सकते हैं जब आप और मैं ये मानें कि सारा "हिंदुस्तान ही खालिस्तान है" और "सारा खालिस्तान ही हिंदुस्तान है"।

 मान लो अगर आपने खालिस्तान ले भी लिया तो क्या इन जगहों पर वीजा और पासपोर्ट लेकर आओगे जो आज तुम्हारे अपने हैआप तो बड़े छोटे मन के हो जो इतने से खालिस्तान मांग कर खुश हो रहे हो और मैं तो आपको खालिस्तान में पूरा अखंड हिंदुस्तान दे रहा हूँ। है हिम्मत मेरे साथ ये आवाज़ उठाने की?

संघ प्रचारक भारत के कुछ और प्रसिद्ध गुरूद्वारों का जिक्र नहीं कर पांए। उनकायहां करना जरूरी है।

देश के अन्य प्रसिद्ध गुरूद्वारे

देश के कुछ महत्वपूर्ण गुरूद्वारे हैं−गुरुद्वारा पौंटा साहिब,( हिमाचल प्रदेश )माना जाता है कि पौंटा साहिब पर सिखों के 10वें  गुरु गोबिंद सिंह ने सिख धर्म के शास्त्र दसम् ग्रंथ या 'दसवें सम्राट की पुस्तकका एक बड़ा हिस्सा लिखा था।स्थानीय लोगों का कहना है कि गुरु गोबिंद सिंह चार साल यहां रुके थे।

जम्मू कश्मीर का गुरुद्वारा मटन साहिब अनंतनाग भी विश्व प्रसिद्ध है। यह श्रीनगर से 62 किलोमीटर की दूरी पर है। बताया जाता है कि श्री गुरुनानक देव जी अपनी यात्रा के दौरान यहां 30 दि‍न  ठहरे थे।

कनार्टक का गुरुद्वारा श्री नानक झिर साहिबएक ऐतिहासिक जगह  है। रोजाना लगभग चार  से पांच  लाख लोग इस गुरुद्वारे में माथा टेकने आते हैं।

 

उत्तरांचल का गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब सिखों का एक विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक पवित्र गुरूद्वारा है।यह गुरूद्वारा जिला उधमसिंह नगर के खटीमा क्षेत्र में देवहा जलधरा के किनारे बसा हुआ है  यह स्थान सिखों के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थानों में से एक है  गुरुद्वारे का निर्माण सरयू नदी पर किया गया है। और नानक सागर डेम पास में ही स्थित है। जिसे नानक सागर के नाम से जाना जाता है यह वह स्थान है जहाँ सिक्खों के प्रथम गुरू नानकदेव जी और छठे गुरू हरगोविन्द साहिब के चरण पड़े । इस  राज्य में तीन सिख पवित्र स्थानों में से एक है  अन्य पवित्र स्थानों में गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब और रीता साहिब हैं ।

दिल्ली के तो आठ  गुरूद्वारे विश्व प्रसिद्ध हैं।

 

ये हैं−गुरूद्वारा बंगला साहिब,गुरुद्वारा शीशगंज, गुरूद्वारा रकाब गंज, गुरुद्वारा बाबा बंदा सिंह बहादुर, गुरुद्वारा माता सुंदरी,गुरूद्वारा बालासाहिब, गुरुद्वारा मोती बाग साहिब और गुरूद्वारा दमदमा साहिब प्रसिद्ध  हैं।

इनके अलावा देश भर में और भी महत्वपूर्ण  गुरूद्वारे हैं।विशेष बात यह है कि इन गुरूद्वारों में बड़ी तादाद में हिंदू भी जाकर माथा  नवाते हैं।से में खालिस्तान बनने पर क्या होगाखालिस्तान के बाहर के गुरूद्वारों में तो बिना पास्पोर्ट औरा वीजा के जाना संभव नहीं होगा। फिर हिदूं भी गुरूद्वारों में जाते कतरांएगे। से में गलत मांग क्यों की जाए

आज पूरा देश  सब भारतवासियों का है, सबको सब जगह जाने की छूट है, फिर से  रास्ते क्यों देखें, जे व्यवधान पैदा करें।

   अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

छह अक्तूबर के प्रभासाक्षी और चिंगारी में मेरा लेख