Wednesday, August 10, 2022

आजादी के अमृत महोत्सव से गायब है पूण्य भूमि बिजनौर


बिजनौर के आजादी के अमृत महोत्सव पर चिंगारी सांध्य में मेरा लेख-
आजादी के अमृत महोत्सव से गायब है पूण्य भूमि बिजनौर
अशोक मधुप
हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। क्रांतिकारियों का स्मरण कर रहे हैं, किंतु उन जगह की किसी को याद नहीं, जहां क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। उनके शहीद स्थल किसी को याद नहीं।इन शहीदस्थल पर जाकर श्रद्धासुमन अर्पित करने का किसी को ख्याल नहीं।गुलामी के प्रतीक स्थानों के नाम बदलने की आजतक किसी ने नहीं सोची। बिजनौर का मुहल्ला पामरगंज अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर का नाम बसा है। इसका नाम बदलकर जिले के किसी क्रांतिकारी के नाम पर हो सकता है।
1857 की क्रांति की सबसे बड़ी गवाह बिजनौर जिलाधिकारी की पुरानी कोठी है।यहीं अंग्रेज कलेक्टर अलेक्जेंडर शेक्सपीयर ने छह –सात जून की रात में नजीबाबाद के नवाब महमूद को जिले का कार्य सौंपा था। इसके बाद जिले के अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार रूड़की के लिए रवाना हो गए।एक साल बाद जब अंग्रेज सेना के बूते फिर जिले में काबिज हुआ तो उसने बेइंतहां जुल्म किए। दिल्ली की सेना के कमांडर इन चीफ गवर्नर जनरल बख्त खान की पैदायश स्थल नजीबाबाद के नजीबुद्दौला के परिवार का महल में हुई थी। अंग्रेजों ने जनपद में दुबारा काबू आते ही इस महल को बारूद से तहस−नहस कर दिया था। अब तो महल के नाम पर यह मुहल्ला महल सराय है। महल के अगले भाग में पुलिस थाना बन गया। इस महल का गेट और कुछ हिस्सा ही शेष बचा है, बाकी कहीं−कहीं कोई टूटी फूटी दीवार दिखाई देती है। पत्थरगढ़ के किले को भी तोप से उड़ा दिया।
इसके बाद बिजनौर आकर अंग्रेजों ने बिजनौर कलेक्ट्रट के वट वृक्ष पर क्रांतिकारियों को फांसी दीं।पुराने लोग बताते आए हैं कि जनता में भय पैदा करने के लिए यहां कई−कई दिन इन क्रांतिकारियों के शव लटके रहे। इस वट वृक्ष को वकीलों के चैंबर बनाने के लिए प्रशासन ने 2012 में कटवा दिया।इसकी साइड का एक वट अभी भी मौजूद है।इस जगह पर प्रशासन की ओर से कोई कार्यक्रम नहीं होता।
बिजनौर शहर का मंडी पामर गंज भी एक ऐसी ही पूण्य भूमि है। मंडी पामर गंज बिजनौर शहर की अनाज मंडी हैं। यहीं क्रांतिकारियों को सामूहिक फांसी दी गई।1857 में जनपद में तैनात रहे डिप्टी कलेक्टर जार्ज पामर के नाम पर इसका नाम रखा गया था। आज भी ये ही नाम चल रहा है किसी ने इस मुहल्ले का नाम बदलने का प्रयास नही किया। न किसी भाजपाई को इसके नाम बदलने की याद आई।हमें आजादी मिले लगभग 75 साल हो गए पर ये गुलामी की तख्ती अभी भी हमारे गले में लटकी है। यहां इन शहीदों की याद में कोई कार्यक्रम तो क्या होता किसी ने इसका नाम बदलने की आवाज नहीं उठाई ।
धामपुर के भामाशाह हरसुखराय लोहिया को खोजना भी किसी ने गंवारा नही किया।किसी ने उस महान आत्मा का पता करना भी गवांरा नही किया। किसी ने उनकी और उनके परिवार की खोज नही की। यह भी जानना गवांरा नही किया कि धामपुर के इस भामाशाह का क्याॽ
बरेली से मुरादाबाद जा रहे ब्रिटिश सेना के विद्रोही जवान रूड़की से विद्रोह कर बरेली जा रहे थे। इसी दिन धामपुर के रईस हरसुखराय लोहिया की बेटी की बारात आई हुई थी। उसके लिए उनकी कोठी पर खाना बन रहा था।
हरसुख राय लोहिया ने इन क्रांतिकारी जवानों को रोक लिया। बुलाकर अपने आवास पर ले गए। बारात के लिए तैयार किया गया भोजन इन्हें खिला दिया।कहा जाता है कि इस पूण्य कार्य में बारातियों का भी बड़ा सहयोग रहा।
सर सैयद अपनी पुस्तक सरकशे बिजनौर में इस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हरसुख राय लोहिया से जवानों को शानदार भोजन और मिठाई खिलाई। उनके और धामपुरवासियों के व्यवहार से प्रसन्न इन जवानों ने धामपुर में कोई लूटपाट नहीं की। ये प्रसन्न होकर आगे गए।जबकि नगीना में इन्होंने तहसील से सरकारी खजाना और वहां के सपंन्न लोगों से लूटमार की थी।धामपुर में हरसुख राय लोहिया की स्मृति और सम्मान में कोई कार्यक्रम नही होता।
1943 में अंग्रेज भारत छोड़ो आदोलन के दौरान बापू महात्मा गांधी नगीना और धामपुर आए। उनकी यहां बड़ी सभांए हुई।पैजनियां में काकोरी कांड के फरार क्रांतिकारियों ने काफी दिन गुप्त प्रवास किया। नूरपुर में थाने पर तिंरगा फहराने का प्रयास करते आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गाली चलाई ।
जिला सूचना विभाग की पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक’ के अनुसार 16 अगस्त 1942 को नूरपुर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं ने अलग-अलग गांवों से जुलूस निकाला ।पुलिस ने फीना वाले जुलूस को नूरपुर से बाहर तितर −बितर करने की कोशिश की और लाठी चार्ज कर किया। जुलूस थोड़ा पीछे हट गया लेकिन थोड़ी देर बाद पूरा जुलूस नूरपुर धामपुर वाली पक्की सड़क पर थाने के पास जमा हो गया। जुलूस में दस से 15 हजार लोग थे । उनके हाथों में तिरंगे झंडे थे। सभी का उद्देश्य थाने पर शांतिपूर्वक तिरंगा लहराना था। दरोगा नूरपुर की जनता व आसपास के मुखिया चौकीदारों को साथ लेकर जुलूस को पीछे धकेलने की कोशिश की। भीड़ थाने पर झंडा फहराना चाहती थी। इससे अफरा तफरी मच गई। पुलिस ने भीड़ पर गोलियां बरसा दीं। तीन आदमी गोली लगने से गिर गए। गुनियापुर के परवीन सिंह गोली लगने से वहीं शहीद हो गए। रिक्खी सिंह ने जेल अस्पताल में आकर दम तोड़ा। मुंशीराम के पैर में गोली लगी। पुलिस ने उन्हें जेल में बंद कर दिया। फायरिंग के बाद जुलूस तितर −बितर हो गया और पुलिस का आतंक मच गया। पुलिस ने गांवों में लूट और लोगों से मारपीट शुरू कर दी। प्रदर्शन के मामले में 32 लोग गिरफ्तार किए गए। इन पर छह हजार रुपये सामूहिक जुर्माना हुआ और छह छह साल की कैद हुई। सेशन कोर्ट में अपील में 16 लोगों को बरी कर दिया गया और बाकी को दो दो साल की सजा हुई। बाद में केस हाईकोर्ट गया। इस बारे में उन्होंने अपने निर्णय में लिखा कि उनकी भुगती हुई सजा ही काफी है। 24 अप्रैल 1944 को सभी को रिहा कर दिया गया।
आजादी के बाद नूरपुर में इस घटना की स्मृति में शहीद स्मारक बना। घटना के दिन हर साल 16 अगस्त को यहां मेला लगता है।श्रद्धालू शहीद स्मारक पर आकर दीप जलाते और श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। प्रशासन की ओर से श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया जाता है।पास के गांव पैजनियां में कई प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के अज्ञातवास स्थल पर भी स्मारक बना है।

आजादी के अमृत महोत्सव का मुख्य कार्यक्रम जिलाधिकारी की कोठी के प्रांगण में होना चाहिए। पामरगंज का नाम बदला जाना चाहिए। कलेक्ट्रेट और पामरगंज में शाहीद स्मारक बनने चाहिए। उनकी स्मृति में कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए। नजीबाबाद में थाने की जगह जनरल बख्त खान और अन्य क्रातिकारियों की याद में शहीद स्मारक बनना चाहिए।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)












सात अगस्त चिंगारी सांध्य






Saturday, July 16, 2022

देश से दूर मरने वालों क्रातिकारियों की कौन सोचे? 19 गस्त 2023 राष्ट्रदूत रायपुर मध्य प्रदेश

देश से दूर मरने  वालों क्रातिकारियों की  कौन सोचे?

अशोक मधुप  

प्रधानमंत्री ने लाल किले से देश के शहीदों का स्मरण किया।  उन्हें श्रद्धा सुमन भेंट किए।देश की भावी योजनांए बताईं किंतु उन क्रांतिकारियों के अवशेष भारत लाने की बात नही की जो देश से बहुत दूर  शहीद हुए।देश में उनके स्मारक बनाने पर भी कोई  बात नही हुई।

भारत के कई वीर और क्रांतिकारी देश के लिए लड़ते देश  से दूर शहीद हुए । आजादी के 75 साल बीतने पर भी हम  उनके अवशेष ,उनकी देह देश में लाकर सम्मान के साथ उनका  अंतिम संस्कार नही कर सके।  उनकी समाधि भी नही बना सके। दिल्ली के अंतिम बाहशाह का यह शेर सभी पर  उपयुक्त बैठता है कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।

1857 क्रांति में शामिल रहे सैनिक अलम बेग की खोपड़ी ब्रिटेन से भारत आई है। अब उसकी जांच होगी और परिजनों का पता लगाकर अंतिम संस्कार के लिए उन्हें सौंपी जाएगी। अजनाला हत्याकांड से बचकर निकले अलम बेग की खोपड़ी लंदन के एक पब में रखी थी।कानपुर में उनकी हत्या करके अंग्रेज अधिकारी ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को वार ट्रॉफी के रूप में भेंट करने के लिए सिर ले गए थे। इसके बाद खोपड़ी को एक पब की शोभा बढ़ाने के लिए रखा गया। खोपड़ी कब और किन प्रयासों से भारत लाई गई, इसका कोई जिक्र नहीं। सूत्रों का दावा है कि इसी साल खोपड़ी भारत लाई गई है।अलम बेग की खोपड़ी तो भारत आ गई किंतु अनेक  वीर ऐसे हैं, जिनके अवशेष  भारत आने का बर्षों  इंतजार कर रहे हैं।

1857 के आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर को अंग्रेज गिरफ्तार कर रंगून ले गई। वहीं अंग्रेज  की गिरफ्त और भूखमरी के से हालात में उनकी मौत हुई। ऐसा कहा जाता है कि बहादुरशाह जफर मृत्यु के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी।बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही सात  नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई। उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया। इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया ।  सबसे पहले आजादी के पुरोधा सुभाष  चंद्र बोस उनकी मजार पर गए।वहीं से देश के नाम संबोधन किया।पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी उनके दरगाह पर गए । उन्होंने अंतिम मुगल बादशाह को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद, वह दिल्ली के लिए रवाना हो गए। इनसे  पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी जब 2012 में इस साउथ-ईस्ट एशियाई देश का दौरा किया था, तो वह इस मजार पर गए थे।  दो दो प्रधानमंत्री बहादुर शाह जफर के मजार पर गए पर किसी ने उनकी इच्छा दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होने की पूरी करनी गंवारा नही की। जबकि बहादुर शाह जफर ने तो अपनी कब्र के  के लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी।

उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले का लाल जनरल बख्त खान किसी को याद नहीं। 1857 में दिल्ली से लेकर पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले इस वीर को मौत भी मिली तो वतन से बहुत दूर। वहां जहां इसकी कुर्बानी को कोई याद करने वाला भी नहीं।

बख्तखान का जन्म बिजनौर जनपद के  नजीबाबाद में हुआ था। बख्तखान रोहिल्ला पठान नजीबुदौला के भाई अब्दुल्ला खान के बेटे थे। 1817 के आसपास वे ईस्ट इंडिया कम्पनी में भर्ती हुए। पहले अफगान युद्ध में वे बहुत ही बहादुरी के साथ लड़े। उनकी बहादुरी देख उन्हें सूबेदार बना दिया गया। 40 वर्षों तक बंगाल में घुड़सवारी करके और पहले एंग्लो-अफगान युद्ध को देखकर जनरल बख्त खान ने काफी अनुभव लिया । मेरठ में सैनिक विद्रोह के समय वे बरेली में तैनात थे । अपने आध्यात्मिक गुरू सरफराज अली के कहने पर वह आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। मई खत्म होते होते बख्तखान एक क्रांतिकारी बन गए। बरेली में शुरूआती अव्यवस्था, लूटमार के बाद बख्त खान को क्रांतिकारियों का नेता घोषित किया।

बरेली में विद्रोह करके एक जुलाई को बख्त खान अपनी फौज और चार हजार मुस्लिम लड़ाकों के साथ दिल्ली पंहुचे। इसी समय बहादुर शाह जफर को देश का सम्राट घोषित किया गया। सम्राट के बड़े बेटे मिर्जा मुगल को मुख्य जनरल का खिताब दिया गया। बख्त खान को सम्राट शाह जफर ने उन्हें सेना के वास्तविक अधिकार और साहेब ए आलम बहादुर (लॉर्ड गवर्नर जनरल)  का खिताब दिया।
इसके बाद बख्त खान के नेतृत्व में लंबी जंग लड़ी गई। बख्त खान ने बहादुर शाह जफर को सुरक्षा प्रदान की। दिल्ली को अच्छा प्रशासन देने की कोशिश की। लेकिन दूसरे स्थान से आए सैनिक और राजपरिवार तथा दरबार के कुछ व्यक्तियों के षडयंत्र के आगे कोई बस न चला।अंग्रेजों की षडयंत्र के तहत 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर रंगून जेल भेज दिया।
बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार के बाद बख्त खान ने दिल्ली छोड़ दी । वह लखनऊ और शाहजहांपुर में विद्रोही बलों में शामिल हो अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ते रहे। अंतिम दिनों में बख्त खान स्वात घाटी में बस गए । 13 मई 1859 को गंभीर रूप से घायल हो गए। बख्त खान को वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में दफनाया गया।

किसी देशवासी ने नही सोचा कि उनके शव को भारत वापस लाया जाए। उनको सम्मान के साथ  दफनाकर भव्य स्मारक बनाया जाए। पाकिस्तान में बख्त खान के नमापर फिल्में बनी किंतु भारत में उनके नाम परकुछ नही हुआ।

 क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब प्रांत के संगरूर जिले के  सुनाम  गाँव में एक सिख परिवार में हुआ था। सन 1901 में उधमसिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधमसिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्तासिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: उधमसिंह और साधुसिंह के रूप में नए नाम मिले। इतिहासकार मालती मलिक के अनुसार उधमसिंह देश में सर्वधर्म सम्भाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर 'राम मोहम्मद सिंह आजाद' रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है।

 1917 में उनके बड़े भाई के देहांत के बाद1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शमिल हो गए। उधमसिंह १३ अप्रैल १९१९ को घटित जालियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से वीर उधमसिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ'डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। अपने इस ध्येय को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीकानैरोबीब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुँचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना ध्येय को पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत के यह वीर क्रांतिकारी, माइकल ओ'डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगे।

उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी. यहां माइकल ओ'डायर भी वक्ताओं में से एक था. उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए. अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली. इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके.

बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियां दाग दीं. दो गोलियां माइकल ओ'डायर को लगीं ,इससे उसकी तत्काल मौत हो गई. उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी. उन पर मुकदमा चला। चार  जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।

   पूर्व मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सुनाम में शहीद की याद में बने म्यूजियम और पार्क का उद्घाटन किया। यहां ऊधम सिंह से जुड़ी यादों को संजोकर रखा गया है।

म्यूजियम में शहीद ऊधम सिंह से संबंधित वो तमाम चीजें रखी गई हैं जो आने वाली पीढ़ियों को उनके देशभक्ति के जज्बे की याद दिलाएंगी। यहां ऊधम सिंह की वो फोटो भी लगाई गई है जिसमें ब्रिटिश सरकार के अफसर उन्हें हथकड़ी लगाकर ले जा रहे हैं और ऊधम सिंह मुस्कुरा रहे हैं। म्यूजियम में शहीद ऊधम सिंह का अस्थि कलश भी रखा गया है। ऊधम सिंह को लंदन में फांसी दिए जाने के बाद यह अस्थि कलश 31 साल तक वहीं पड़ा था और बाद में इसे पंजाब लाया गया।उधम सिंह की डायरी और पिस्तौल हम आज तक लंदन से नही मंगा  सके । न ही कोई प्रयास  हुआ।

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर उनके नाम के द्वीप पर (On Netaji Subhash Chandra Bose Island) बनने वाले नेताजी को समर्पित राष्ट्रीय स्मारक के मॉडल  का अनावरण किया  । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को पराक्रम दिवस के अवसर पर देश के महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस को श्रद्धांजलि देते हुए भारत के इतिहास में उनके अद्वितीय योगदान को याद किया।

इसके बावजूद किसी को जापान से उनकी अस्थि  लाने की याद नही आई। 1960 के उस प्रस्ताव की किसी को याद नहीं। दूसरी लोकसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा था। दो  दिसंबर 1960 को निचले सदन में एक प्रस्ताव रखा गया कि जापान के रेंकोजी मंदिर से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अस्थियों को भारत लाया जाए। नेताजी की अस्थियों के लिए दिल्ली के लालकिले का सामने एक भव्य स्मारक बनाने की भी बात थी उसमें। भारतीय संसद में और संसद के बाहर, पूरे देश में यह मुद्दा गरम था। मांग हो रही थी कि अगर सरकार मानती है कि रेंकोजी मंदिर में जो अस्थि-अवशेष नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के हैं, तो उन्हें भारत मंगवा लेना चाहिए।
संसद के इस प्रस्ताव के संबंध में उसी दिन दो दिसंबर 1960 को नेहरूजी ने डॉ. बिधान चन्द्र रॉय को एक पत्र लिखा। बिधान चन्द्र रॉय तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। नेहरूजी का वह पत्र गोपनीय था। उसमें नेहरूजी ने लिखा कि नेताजी की अस्थियों को भारत लाने की कोशिश भारत सरकार तभी करेगी, जब नेताजी का परिवार उसके लिए पहल करे। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन, इसी पत्र में वह नेताजी के लिए लालकिले के सामने स्मारक का प्रस्ताव ठुकरा देते हैं। नेहरू लिखते हैं, ‘मैं नहीं सोचता हूं कि उस तरह की चीज यानी नेताजी का स्मारक लालकिले के सामने बन सकता है। नेहरूजी को ऐसा क्यों लगता था, यह तो उन्हें ही पता होगा, लेकिन उनका यह कहना कि वैसी चीज (नेताजी का स्मारक) लालक़िले के सामने नहीं बन सकती, यह तो समझ से परे है।   

नेहरू  जी नही चाहते थे, स्मारक नही बना,सुभाष च्रद बोस के नाम पर दीप का नाम रखकर समर्पित राष्ट्रीय स्मारक  बन गया  किंतु  जापान के मंदिर में रखी सुभाष  चंद बोस की अस्थियां आज भी इस इंतजार में हैं  कि उनका  देश उन्हें वापस लेकर आए।

प्रसिद्ध चौहान  राजा पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गोरी के बीच   तराइन की दूसरी लड़ाई 1192 में हुई।  तराइन के पहले युद्ध में परास्त होने वाले एवं बिना दंड छोडदिए गए मुहम्मद गौरी की विजय हुई।जनश्रुति के अनुसार मुहम्मद गौरी पृथवीराज चौहान को गरफतार कर गजनी लेगया। पृथ्वीराज रासो  का दावा है कि पृथ्वीराज को एक कैदी के रूप में ग़ज़नी ले जाया गया और अंधा कर दिया गया। यह सुनकर   उनके मित्र कवि चंद बरदाई ने गज़नी की यात्रा की और मोहम्मद ग़ोरी को चकमा दिया जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद की आवाज़ की दिशा में तीर चलाया और उसे मार डाला। कुछ ही समय बाद, पृथ्वीराज और चंद बरदाई ने एक दूसरे को मार डाला।

इतिहासकार राजा पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु  के बारे में अलग− अलग  बाते कहते  हैं।  उनकी मौत की सच्चाई  आज तक पतानही चली।उनका अंतिम संस्कार कहां हुआ यह भी पता  नहीं।

 दस्यू रही फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राणा  एक वीडियो क्‍लिप जारी करके अंतिम हिन्‍दू सम्राट पृथ्‍वीराज चौहान की समाधि ढूँढकर उनकी अस्थियाँ भारत लेकर आने की कोशिश का दावा किया। शेर सिंह  राणा के दावे और उसके द्वारा लाई गई अस्थियों की किसी ने जांच कराना गवांरा नही की।  आज तक किसी ने यह पता  लगाना  गवांरा  नही किया कि गजनी में पृथवीराज चौहान की कब्र है , या नहीं।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ  पत्रकार है)

 











Sunday, July 3, 2022

नानौर के जंगल में है सीता मंदिर

 अशोक मधुप 

बिजनौर जनपदवासियों को यह पता भी  नही कि चांदपुर  बाष्टा क्षेत्र के नानौर के जंगल में  सीता मंदिर भी है। पुराने लोग कहते हैं कि सीता यहीं धरती में समाई थी।

इस मंदिर को , सीता मंदिर , सीता बनी और सीतामठ कई नाम से पुकारा जाता है।अब तो यह स्थान कुछ विकसित हो गया, किंतु अब से चालिस −पचास साल पहले यहां कुछ भी नही था। दिन में चरवाहे  पशु चराते और शाम को घार वापस हो जाते।




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बिजनौर जनपद के इतिहास पर आजतक कोई कार्य नहीं हुआ। जिला गजेटियर से अलग किसी ने कुछ नही किया। न कोई महत्वपूर्ण स्थल घूमा, नहीं कोई जानकारी करने की कोशिश की। इस बारे में कभी किसी जानकार से पूछा तो सबने कहा कि सर सैयद की किताब सरकशे  बिजनौर में जिले का इतिहास है। सच्चाई यह है कि सरकशे  बिजनौर सर सैयद की डायरी है। इसमें उन्होंने 1857 के विद्रोह के समय बिजनौर की तैनाती के दौरान की घटनांए  दर्ज की हैं। जनपद के इतिहास  और ऐतिहासिक स्थलों पर अभी  और खोज कार्य की जरूरत है −−−अशोक मधुप

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लेखक तीन −चार बार इस स्थान पर गया। अंतिम बार बिजनौर हलचल चैनल  चलाने के दौरान लेखक और उसके साथ आज के आज तक के जिला प्रभारी संजीव शर्मा  थे । हम  यहां कई घंटे रूके। लेखक ने हर बार महसूस किया कि मंदिर का द्वार छोटा  है किंतु गुंबद जितना ऊंचा है , गुंबद  उतना ऊंचा  मंदिर के अंदर से नजर नही आता। गुबंद में ऊपर चारों और एक निर्धारित ऊंचाई पर गोल −गोल रोशनदान बने थे।एक साईड में छोटा  द्वार भी है। लेखक ने पशु  चरा रहे लोगों से पूछा कि गुंबद में यह दरवाजा कैसा हैॽ क्या गुंबद खोखला है। उन्होंने हां कहा।गुंबद तक जाने का कोई रास्ता नही था।मेरे कहने पर श्री संजीव शर्मा मंदिर के किनारे की ईंट पकड़कर ऊपर चढ़ गए।मंदिर के कंगूरों से होते वे झुककर दरवाजे से अंदर चले गए।उन्होंने बताया कि ऊपर  कमरा  है। इसमें पांच− छह   आदमी आराम से रह सकतें हैं।छत में चारों ओर बने छेद रोशनी और हवा के   साथ − साथ चारों और देखने  और नजर रखने के लिए भी अच्छा  माध्यम थे। मंदिर के बीच में कोई मूर्ति आदि नहीं लगी थी।एक शिला थी। इस पर कुछ खुदा है। लगता था कि कोई शिलालेख हो।पास में एक कुआं भी था।  इसमें पेड़ उग आए थे। नीचे पुरानी मुगल काल की झामें की ईंट लगी थी। इनके ऊपर लखोरी ईं ट से चिनाई हुई थी। बाद में आज की ईंट से चिनाई  हुई है।  मंदिर भी ब्रिटिश  काल के पहले प्रयोग होने वाली लखौरी (छोटी) ईंट से बना था।

आसपास के लोग बताते हैं कि कभी यहां से होकर गंगा बहती थी। यहीं वाल्मीकि का आश्रम था। यहीं सीता जमीन में समाईं थी। जिला गजेटियर इसके बारे में ज्यादा कुछ नही कहता है।वह कहता है कि जनश्रुति है कि यहां  सीता भूमि में समाई थीं किंतु अनेक जगह के बारे में इस तरह की मान्यता है।

कुछ कहते हैं कि ये क्षेत्र कभी भूड़ का रेतीला जंगल था। जनपद के रेतीले जंगल में ही सीताबनी  नाम की घास  होती थी। बिजनौर जनपद के वन और वन्य संपदा के जानकार, भाकियू के वरिष्ठ नेता दिगंबर सिंह और पीतंबर सिंह ग्राम (बल्दिया), केलनपुर के भोपाल सिहं  दीवान जी आदि पुराने व्यक्ति  बताते हैं कि सीतावनी  तीन चार फिट लंबी घास होती थी। इसकी पत्ती पतली और लंबी होती थी।ये घर के आंगन में झाडू लगाने और पशुओं के नीचे बिछाने के काम आती थी।  वन संपदा के प्रसिद्ध  जानकार खान जफर सुलतान कहते हैं कि सीताबनी  घास में तीतर बहुत होती था। ये तीतर के छिपने के लिए सबसे बेहतर झाड़ी थी। वे कहते हैं कि इसमें हिरन भी होता था। जनपद से भूड़ खत्म हो गई तो ये घास भी गायब हो गई।

चांदपुर क्षेत्र के रहने वाले जनपद के इतिहास के बड़े जानकार प्रोफेसर खालिद अलवी कहते हैं कि चांदपुर के नानौर −दत्याना आदि  जंगल में  सीता बनी नामक झाड़ी ज्यादा होती थी। इसी की  वजह से इस स्थान को सीताबन कहा जाता  रहा होगा। हो सकता है कि सीतावन में बना मंदिर सीतामठ या  सीतावनी  या सीता  मंदिर  कहा  जाता रहा हो।     

मंदिर के  गुंबद का बना कमरा बताता है कि यह गुंबद उस समय के मंदिर में रहने वालों के लिए सुरक्षित जगह रही होगी। वे इसमें वन्य प्राणियों से भी  सुरक्षित होंते और एक दो हमलावर से भी।गुंबद के कमरे तक पंहुचने का  न  कोई  जीना है न स्पोर्ट। मंदिर के कंगूरों से होकर  कक्ष के द्वार तक जाया जा सकता है।द्वार से अंदर जाने का प्रयास करने वाला आदमी अंदर बैठे व्यक्ति के  आक्रमण का     

सीधे शिकार हो सकता है।यह भी हो सकता है कि यह स्थल गंगा पर नजर रखने के लिए प्रयोग होता हो। ऊपर गुंबद में बैठे व्यक्ति दिखाई भी नहीं पड़ते होंगे। मंदिर के बीच में लगी शिला को देखकर  लेखक को सदा लगा कि यह कोई शिला लेख  है।

अब मंदिर की देखरेख करने वालों मंदिर के पुराने अस्तित्व में काफी बदलाव कर दिया। मंदिर के बीच में शिवलिंग की स्थापना कर दी। शिलालेख साइड में लगवाई गई प्रतिमा के दीप या पूजन सामग्री प्रयोग करने के काम आने लगा।गुंबद के गोला छेद बंद कराकर द्वार  बड़ा कर  दिया गया। कुंए की  सफाई कर उसे  अब प्रयोग में लाया जाने लगा।

पर इस मदिर पर अभी खोज कार्य  होना चाहिए। पुरातत्व विभाग  को यहां आकर उसकी प्राचीनता और मंदिर में लगे  शिलालेख जैसे पत्थर की जांच करनी चाहिए।   

अशोक मधुप 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Monday, May 2, 2022

 

परशुराम  जंयती पर तीन मई  पर विशेष

गौरी शंकर सुकोमल जी ने लिखी 0





 परशुराम पर भगवान परशु रामायण

अशोक मधुप

आज भगवान परशुराम की जयंती  अक्षय तृतीया है। आज भगवान परशुराम का अवतरण दिवस है।दुनिया के सात अमर व्यक्तियों में भगवान परशुराम की भी गणना होती है।भगवान परशुराम पर भक्तों और श्रद्धालुओं द्वारा  सदियों से लिखा जा रहा है।सबने अपने – अपने   दृष्टिकोण से भगवान परशुराम को पढ़ा, देखा और लिया।

उत्तर प्रदेश के धामपुर नगर के तो विद्वान पंडित गौरी शंकर शर्मा सुकोमल ने भगवान परशुराम के जीवन चरित्र  पर पूरी परशु रामायण लिख दी। इस परशु रामायण की विशेष बात यह है कि ये गेय है। राधेश्याम कथा वाचक की रामायण की तर्ज पर लिखी ये रामायण गाई जा सकती है। गाई जाती है। गाई जा रही है।

 17 फरवरी 1943 में जन्में पंडित गौरी शंकर शर्मा सुकोमल बीए, साहित्य रत्न हैं। वे मूल  रूप से पत्रकार और  लेखक हैं। रंगमंच और कथावाचन से जुडे गौरीशंकर शर्मा जी के मन में

आया कि भगवान परशुराम पर तथ्यात्मक  रूप से  कुछ नही मिलता।ये  विचार आते ही उन्होंने भगवान परशुराम पर रामायण लिखने का निर्णय लिया। ये भगवान परशुराम पर मिले साहित्य के अध्ययन में लग गए।इस विषय पर उपलब्ध साहित्य का अध्ययन किया। तर्कना पर कसा। इस कार्य में कई  साल लग गए। दिन रात लगकर  जब विषय सामग्री एकत्र हुई तो प्रश्न था कि भाषा− शैली क्या हो। ये  रामायण  आम आदमी तक कैसे पंहुचे और लोकप्रिय हो ,गाई भी जा सके। इसके बाद इन्होंने विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का  अध्ययन किया।विद्वानों से विचार किया। बताया गया कि भगवान राम पर बहुत कुछ लिखा गया।किंतु राधे श्याम कथा वाचक की रामायण ज्यादा गेय है।निर्णय हुआ कि राधेश्याम शर्मा कथा वाचक की रामायण की त्तर्ज पर इसे लिखा जाए।इस पर  इन्होंने राधेश्याम शर्मा की रामायण के शिल्प को समझा। उसका मनन किया।

इसके बाद जो लिखना शुरू किया तो परशु रामायण को पूरी करके रूके। इस कार्य के लिए इन्होंने दिन −रात एक कर दिए।परशु रामायण  तो तैयार हो गई किंतु इसके प्रकाशन की समस्या आई । कहीं से भी मदद न मिलने पर सुकोमल जी निराश नही हुए।उन्होंने अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अपनी गृहणी के जेवर भी बेच दिए।   

श्री गौरी शंकर सुकोमल जी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सामग्री संजोने और एकत्र करने में तीन−  चार साल लग गए। परशु रामायण  में अपनी  बात शीर्षक के अंतर्गत वह स्वीकार करते हैं कि मैं मूल रूप से कवि और साहित्यकार हूं फिर भी इसे कथावाचन के उद्देश्य से लिखने का प्रयास किया। इन्होंने  अपने ग्रन्थ का आधार बनाया डा. डी आर शर्मा के शोध ग्रन्थ भगवान परशुराम को । सुकोमल जी बताते हैं कि वह गद्य में है। उन्होंने अपनी पुस्तक का कथा  वाचन के हिसाब से गेय बनाया। अपनी कसौटी पर आए तर्क को शामिल किया।

कुल 12 संर्गो में विभक्त परशु रामाणय को को 224 शीर्षक में विभक्त किया गया है। यह परशु रामाणय 500 पृष्ठों  में है। 17 बार क्षत्रियों के विनाश की बात पर वह कहते है कि भगवान परशुराम ने से दुष्टों का संघार किया जो  आर्य  विरोधी थे। इसे गलत रूप में समाज में प्रचारित किया गया।

परशु रामायण के कुछ अंश−

महर्षि जमदग्नि के वध  का जब समाचार, चंहु और गया।

ऋषिगण, संबंधी, राजागण, सबके मन को झकझोर गया।

सब समझ गए, सब जान गए, इसमें कोई संदेह नहीं,

यह क्रूर कृत्य अर्जुन सुत का, इसमें कोई अंदेह नहीं।

मिल गया शोक संदेश तभी,आश्रम परशुराम लौट आए।

युवको की आर्य सेना भी, वह साथ− साथ लेते आए।−−−−

माता का ये रूदन सुन , बिलख उठे भ्रगुनाथ।

सांत्वना  भरे शब्द कुछ, बोले तक मुनि नाथ।

पृथ्वी पर जिसने जन्म लिया, वह निश्चय एक दिन मरता है।

जो जलता है, वह बुझता है, जो फलता है, वह झरता है।

हे माता क्यों अज्ञान युक्त, तुम रिश्तों का दम भरती हो1

जो नही शोक करने लायक, उसका क्यों गम करती हो।

कुछ चले गए इस दुनिया से, बाकी के भी सब फानी हैं।

दोनों पर जिनको शोक नहीं,बस वे ही सच्चे ज्ञानी हैं।

यह नही आत्मा नाशवान, एक अदभुत सुंदर ज्योति है।

वस्तु ये एक अनादि है, जो सबके अंदर होती है।

क्षण भंगुर है सुख−दुख सभी,जो  इस शरीर  पर आते हैं।

तुम सहन करो सब धीरज से,ये अपना चक्र चलाते हैं।

−−−

लाचार हो गया भ्रगुवंशी, भ्रगुकुल का गौरव रखना है।

मदमत्त हुए हैह्यवंशी,  इसका फल उनको चखना है।

  अब आर्य धरा पर ये श्रत्रप,  चैन नही ले पांएगे।

जो प्रजा विरोधी राजा हैं, सीधे यमलोक में जांएगे।

मैं शपथ पूर्वक कहता हूं, चुन− चुन दुष्टों को मारूंगा।

संस्थापन धर्म हेतु अब, राक्षस नरेश संहारूंगा।

पंडित  गौरी शंकर शर्मा सुकोमल जी लिखी परशु रामायण का अध्ययन करने वाले विद्वानों की राय है कि  ये परशु रामायण मात्र कथा काव्य नही है।ये एतिहासिक तथ्यों को विश्लेषण  हैं।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ  पत्रकार हैं)