Sunday, January 2, 2011

45 साल में नहीं सुधरी भूदान गांव की तस्वीर

चारों कालोनियों के संपर्क मार्ग जर्जर
अशोक मधुप





बिजनौर। भूदान की इन चारों कालोनी के सपंर्क मार्ग बहुत ही खराब है। नजदीक में टांडा माई दास पड़ता है। इसकी यहां से दूरी पांच किलोमीटर है। वन के इस रास्ते पर दो नदियां हैं। अच्छा रास्ता कंडी रोड से है। गांव से कंडी रोड का लगभग एक किलोमीटर मार्ग कच्चा और खराब है। कंडी रोड से बढ़ापुर 29 किलोमीटर दूर पड़ता है। इस मार्ग पर जंगली हाथी के समूह घूमते रहते हैं। कई बार इनका सामना हो जाता है।

अस्पताल तो हैं पर डॉक्टर ही नहीं

बिजनौर। चारों कालोनी की पांच हजार की आबादी में सरकारी चिकित्सा परामर्श, आया आदि की कोई व्यवस्था नहीं। टांडा माई दास में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं हैं लेकिन वहां चिकित्सक नहीं मिलता। इन्हें तो उपचार या कक्षा आठ से ऊपर की शिक्षा के लिए सुलभ जगह 19 किलो मीटर दूर कोटद्वार ही है। रुक्मिणी और माया जैसे कई विद्यार्थी हैं जो कोटद्वार पढ़ने के लिए साइकिल से प्रतिदिन आते जाते हैं। गांव में बेसिक शिक्षा का एक प्राइमरी और एक जूनियर स्कूल है। इनमें एक एक शिक्षक और एक एक शिक्षा मित्र तैनात हैं। शिक्षक यदाकदा ही यहां आते हैं। शिक्षा मित्र गांव के होने के कारण गांव में ही रहते और स्कूल चलाते हैं। गांव वाले बताते हैं कि यहां तैनात एक शिक्षक ने अपनी जगह एक टीचर रख रखा है। वह प्रतिदिन पढ़ाता है। उसे वह छह सौ रुपये महीना भुगतान करता है।

बहुत खराब हालत है बस्ती की

स्र


बिजनौर। भूदान आंदोलन में भूमिहीनों को भूपति बनना बड़ा कष्टकर रहा। दान में मिली जमीन 45 साल बीतने के लिए बाद भी खेती योग्य नहीं हो सकी।

आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के तहत बिजनौर जनपद में भी लगभग 700 एकड़ भूमि दान की गई थी। यह जमीन वन क्षेत्र में स्थित है। यहां बढ़ापुर से कंडी रोड होकर जाना पड़ता है। वन के इस मार्ग से इन गांव की दूरी 29 किलोमीटर है। प्रशासन ने 1965 में इस जमीन के 25- 25 बीघे के पट्टे करके लगभग 90 भूमिहीनों में जमीन बांट दी। यहां चार कालोनी बसी। इन कालोनी में 45 साल बाद आज भी न बिजली पहुंची, न ही सिंचाई के साधन विकसित हुए। किसान आज भी बारिश पर निर्भर है। आज इन गांवों की आबादी पांच हजार के करीब है, पर हैंडपंप छह ही हैं। यहीं नहीं पानी बहुत गहराई में है। जिस कारण नल लग नहीं पाते। गांव चारों ओर से नदियों से घिरे हैं। ऐसे में यहां बरसात में आवाजाही नहीं हो पाती। चिकित्सा सुविधा के लिए टांडा माईदास जाना पड़ता है। पांच किलो मीटर के इस वन मार्ग में दो नदियां पड़ती हैं। रात में टांडामाई दास में चिकित्सक नहीं मिलते। इन खराब परिस्थितियों में मजबूरन काफी पट्टेधारक अपनी भूमि दूसरों को सौंप अन्य जगह चले गए हैं। यहां एक प्राइमरी और एक जूनियर स्कूल है, लेकिन तैनात होने के बाद भी शिक्षक पढ़ाने नहीं आते। गांव के दो शिक्षा मित्र हैं, वे ही दोनों स्कूल चला रहे हैं। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वन क्षेत्र के बीच के मार्ग कंडी रोड से 19 किलोमीटर दूर पढ़ने कोटद्वार जाना होता है।

ढिबरी और लालटेन का ही है सहारा

बिजनौर। भूदान कालोनी में गांव वालों ने घरों के आगे बल्लियां लगा रखी है। वे कहते हैं कि इससे वन्य प्राणी दूर रहते हैं। बिजली न होने के कारण ढिबरी और लालटेन का ही प्रयोग करते हैं। डीलर तेल देने उनके गांव ही आता है, लेकिन पांच की जगह ढाई लीटर तेल देता है। शंकुतला देवी, बिट्ट आदि का कहना है कि विधायक वोट मांगने ही उनके यहां आए थे।

उसके बाद कोई नहीं आया। सांसद अजरूद्दीन की तो उन्होंने कभी सूरत ही नहीं देखी है। पूर्व प्रधान निजामुलहसन का कहना है कि यदि गांव में बिजली आ जाए और सिंचाई के साधन बढ़ जाए तो यहां के रहने वालों का जीवन स्तर सुधर सकता है। संपर्क मार्ग भी शीघ्र बनने चाहिए।

बिजनौर। आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में भूदान आंदोलन प्रारंभ किया। उन्होंने जमीनदारों और राजा-महाराजाओं से जमीन दान में लेकर भूमिहीनों में बांटना प्रारंभ किया। इसी समय जमींदारी प्रथा खत्म हो रही थी। सरकार द्वारा भूमि की सीमा निर्धारित कर दी गई। लोगों ने निर्धारित सीमा से अधिक भूमि हाथ से जाती देख उसे भूदान में देना अच्छा समझा।

जनपद में लगभग 700 एकड़ सन 60 के आसपास भूदान में मिली जमीन के पट्टे होने और उन पर कालोनी बनने में कई साल लग गए। भूदान में मिली जमीन में चार कालोनी बसाई गई। कालोनी को एक-दो, तीन-चार नंबर दिए गए। 65 के आसपास यहां आकर वह लोग बसे जिन्हें जमीन मिली। यहां आने वालों के नए सपने थे। कलवा सिंह बिजनौर के पास पमड़ावली से यहां आए तो गंगा राम सिंह कुम्हेड़ा से। कई गढ़वालियों को यहां भूमि मिली तो कई बोक्सा परिवार बसाए गए। चार नंबर कालोनी को तो बोक्सा कालोनी का ही नाम पड़ा। सबके सपने थे, जमीन पर जीतोड़ मेहनत कर संपन्नता की और बढ़ना। जमीन मिली थी लेकिन घर खुद बनाने थे। पट्टे पाने वाले गरीब थे। अत: कच्ची पक्की झोंपड़ी डाल कर बस गए, लेकिन 45 साल में इनके हाथ बेबसी ओर मजबूरी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।

कलवा सिंह का कहना है कि 45 साल बाद भी गांव में बिजली नहीं पहुंची, जबकि उत्तराखंड की लाइन गांव से तीन किलोमीटर दूर है, तो उत्तर प्रदेश की बिजली लाइन दो किलोमीटर दूर। कृषि पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। वन क्षेत्र होने के कारण वन्य प्राणियों का आवाजाही बनी रहती है।

जो फसलों को तबाह कर देते हैं। गांव परनवाला में तो एक गांव बसने के समय का कुआं ही है। इसका भी कई बार पानी काफी खरब हो जाता है।
 
Amarujala meerut ki bijnor dak me 2 january 2011 me prakashit

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