ब्रह्मस्वरूप बेदिल की पुण्य तिfथ
हिंदी, उर्दू, फारसी का तालमेल ‘बेदिल साहब
धामपुर। ब्रह्म स्वरूप बेदिल फक्कड़ व्यक्ति का नाम है, जो कविता और दोस्ती के लिए प्रसिद्ध रहा।
बेदिल साहब की धामपुर में कपडे़ की दुकान और अखबारों की एजेंसियां थी। सबेरे अखबार बांटने निकलते तो कब लौटे ये किसी को पता नहीं होता था। कोई कवि या शायर मिल जाए तो फिर तो राम ही मालिक है कि कब वापसी हो। नया शेर या कविता तो कई बार अखबार के खरीदारों के हिस्से में भी आ जाती थी।
बेदिल साहब पूरी तरह मस्त थे। खुलकर हंसते थे। अपनी कविता या शेर कहकर खुद ही जोर से हंस पड़ते थे। पान खाने के इतने शौकीन थे कि उनके मुंह में हर समय पान रहता था और अधिकतर बात करते समय पान का पीक मुंह से बहकर गालों पर आ जाता था। बेदिल की शिक्षा कोई ज्यादा न थी किंतु स्वाध्याय के बूते पर उनका हिंदी, उर्दू और फारसी में बड़ा दखल था, तीनों भाषाओं के शब्द उनकी रचनाओं में जगह-जगह प्रयोग भी हुए हैं। 16 जुलाई 1917 में जन्में बेदिल का 19 दिसंबर 1991 में निधन हुआ। आज उनकी बीसवीं पुण्य तिथि है, किंतु ऐसा उनके चाहने वालों को नहीं लगता कि बेदिल हमारे बीच नही हैं।
नहटौर के जैन विद्या मंदिर इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य के दौरान प्राय: अधिकतर शाम धामपुर की गलियों में कवियों और शायरों के साथ घूमते गुजरती थीं। उन्हीं अनेक शाम के मेरे साथी बेदिल भी रहे। उनकी मस्ती उनका अंदाज-ए-बयां मै आज तक नहीं भूल पाया। कभी धामपुर जाता हूं तो ऐसा लगता है कि जाने किधर से बेदिल निकल कर आएंगे और कंधे पर हाथ मार शेर सुनाने लगेंगे। उनकी बीसवीं पुण्य तिथि पर उनके कुछ कता, शेर श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैं।
- वक्त रुकता नहीं है, रोके से,
घी निकलता नहीं है, फोके से। उनको कुछ और ही बनाना था, आदमी बन गया है धोके से।
- जिंदगी एक चराग है बेदिल,
इसमें सांसों का तेल जलता है। सांस पूरे हुए बुझी बाती,
इसमें धुआं नहीं निकलता है।
- यू तो सब अपनी अपनी कहते हैं,
भेद दुनिया का कौन पाता है।
एक मेला सा लग रहा है यहां,
एक आता है, एक जाता है।
- जिंदगी और मौत बस एक ही लिबास,
एक पहना एक उतारा, धर दिया।
आदमी है किस कदर का बदहवास,
जो भी पहना वो पुराना कर दिया।
- मत बिठाना, मत उठाना मुझको दोस्त,
खुद ही आ जाऊंगा मैं, खुद ही चला जाऊंगा।
- यों तो दुनिया तमाम उनकी है,
एक हमीं गैर है किसी के लिए।
प्रस्तुति : अशोक मधुप’
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