उत्तर प्रदेश की प्रमुख सचिव रही नीरा यादव को नौयडा के जमीन घोटाले में हाल में चार साल की सजा हुई है। वर्तमान में वे तीन चार दिन जेल में रहकर जमानत पर छूट आई है। जेल में उनकी रात बड़ी कष्ट कर गुजरी हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उनकी पहली पूरी रात बड़ी बैचेनी के साथ गुजरी। बेशकीमती बिस्तर में सोने वाली और सुखसुविधाओं में रहने वाली नीरा यादव को ओ़ने के लिए मात्र तीन कंबल दिए गए । खाने में शलजम की सब्जी और सूखी रोटी मात्र से काम चलाना पड़ा। नीरा यादव जिस अपराध के लिए सजा काट रही है। वह उनका अकेले का अपराध नहीं है। उन्होंने कुछ बड़े नेताओं ,अधिकारियों को खुश करने और अपने परिचितों तथा परिवारजनों को लाभ पंहुचाने के लिए ऐसा किया है। अकेले अपने लिए ही नहीं किया। किंतु अपराध की सजा अकेले उन्हें ही भोगनी पड़ रही हैं। जिनके लिए अपराध किया वे सुख से मस्ती मार रहें है। उनकी इस यात्रा का उनमें से कोई साथी नही रहा जिनके लिए यह घोटाला किया गया। सतयुग के बारे में कथा प्रचलित है कि एक डाकू था, जो आने जाने वालों को लूटता था। एक दिन उसने उधर से गुजरते एक साधु को लूटना चाहा तो साधु ने कहा कि लूट तो लो किंतु एक काम करो कि जिन परिवारजनों के लिए तुम यह अपराध कर रहे हो उनसे एक बार पूछ तो आओ क्या वह भी तुम्हारे पाप के भागी होंगे। डाकू ने परिवार जनों से पूछा तो उन्होंने पाप में साझीदार होने से साफ मनाकर दिया। यह सुन डाकू की आंख खुल गई । उसने लोगों को लूटना छोड़ दिया । वहसाधु बन कर तपस्या और ध्यान में लग गया। बाद में वह बहुत बड़ा विद्वान हुआ। अनेक महत्वपूर्ण रचनांए लिखी।
सतयुग को बीते कई हजार साल बीत गए किंतु उस समय की डाकू से साधु बनने वाली कथा आज भी सही बैठती है। हम गलत काम करते यह नहीं सोचते कि हम जिनके लिए कर रहे है,वे हमारे पाप के कितने भागीदार होंगे। उसके लिए दंड तो हमें ही भुगतना पड़ेगा। बेईमान, रिश्वतखोर का लांछन हमें ही उठाना होगा। अगर नीरा यादव ने डाकू से साधु बनने की कहानी को ध्यान दे लिया होता तो शायद वे यह गलती न करतीं।
बहुत पहले की बात है मेरा बड़ा बेटा जो अब इंजीनियर है,उस समय दस ग्यारह साल का रहा होगा। उसने अपनी मां से कहा कि पड़ौसी अकेले कमाते है किंतु उनके पास रंगीन टीवी और बाइक है। आप दोनों नौकरी करते हो हमारे पास यह सुविधांए क्यों नहीं। मैने दोनों बच्चों से कहा कि क्या जो दूसरे करते है, मै भी वहीं करुं। बड़ा तो शांत नजर झुकाए पावं के अंगूठे से जमीन कुरेदता रहा, कितुं उससे तीन साल छोटे बेटे ने उत्तर दिया। पापा हम इससे भी खराब हालत में रह लेंगे किंतु हम यह नहीं चाहेंगे कि कोई हमारे बाप को चोर रिश्वतखोर कहे।
यह बात लगभग बीस साल पुरानी हो गई। इस दौरान वक्त बहुत आगे आ गया। नदियों का प्रवाह बहुत बहुत आगे निकल गया । सूरज का तेज कुछ कम हुआ तो तिमिर कुछ और ब़ा। भौतिकवाद का प्रवाह समाज में छा गया। धन गया गया कुछ नहीं गया ,स्वास्थ्य गया कुछ जाता है, सदाचार जिस नर का गया कि कहावत अब गौण हो गई। युवा पी़ी के मिथक बदल गए। रोज नए घोटाले और बेइमानी के किस्से प्रकाश में आने लगे तो युवा पी़ी उसे हकीकत मानने लगीं। पहले आप के सम्मान की बात करने वाले बच्चे अब कहते है कि क्या बिगड़ता है किसी का। रोज नए से नए घोटाले हो रहें है। जेल की नौबत आती है तो डाक बंगलों को जेल में बदल दिया जाता है। बेइमानी करने वाले को थोड़ी बहुत परेशानी भले ही हो उनके परिवार तो सुखी है। क्या बिगड़ रहा है किसी का दशकों बीत जाते हैं मुकदमों के निर्णय नही आते। और लोअर कोर्ट से सुपरिम कोर्ट तक का सफर बहुत बड़ा है।
नीरा यादव हो या सत्यम में घोटाला करने वाले उसके संस्थापक रामलिंगम राजू अपनी करनी के लिए जेल अपमान , परेशानी उन्हीं को झेलनी पड़ रही है, जिनके लिए गलती और घोटाले किए , वे आराम से हैं। काश बेइमानी की और कदम ब़ाते समय आदमी कुछ देर को उसका परिणाम सोच ले तो ऐसा करे ही नहीं। किंतु लगता यह है कि हर बेईमान अपने को अमर मान कर हजारों साल सुख चैन से रहने का प्रबंध करने में लगा है।
अशोक मधुप
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