देश का राष्ट्रीय पक्षी मोर जंगलों से भी गायब होता जा रहा है, ऐसे में शहर में मोर के होने की बात पर यकीन नही होता। किंतु बिजनौर शहर में एक कोठी ऐसी भी है, जिसमें मोर रहते ही नहीं, बल्कि स्वच्छंद विचरण करते और अपनी प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते हैं। यह जिलाधिकारी की कोठी है, जिसमें शाम के समय मोरों को नाचते देखना बिजनौर के लोगों के लिए आम बात है ।
मोर की आबादी बदलते पर्यावरण, जंगलों और वनों के कम होते क्षेत्र और उसमें बढ़ती इनसानी दखल अंदाजी के कारण घटती जा रही है। प्रतिबंध के बावजूद मोरों का शिकार जारी है। पर्यावरणविद मानते हैं कि अगर यही हाल रहा, तो आनेवाले समय में मोर किताबों में ही रह जाएंगे।
ऐसे मुश्किल दौर में बिजनौर के जिलाधिकारी की कोठी में मोरों का संरक्षण बड़ी बात है। लेकिन ये मोर पालतू नहीं हैं। ये अपने आप यहां विचरते रहते हैं। जिलाधिकारी की यह कोठी ब्रिटिश काल की है। कोठी कब बनी, इसके बारे में कुछ पता नहीं चलता, लेकिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में तत्कालीन अंगरेज कलेक्टर अलेक्जेंडर ने रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के पोते नवाब महमूद को जिले की कमान इसी कोठी में सौंपी थी। लगभग एक वर्ष तक नवाब महमूद ने यहीं से जनपद का प्रशासन संभाला।
बिजनौर हालांकि जिला मुख्यालय है, पर यहां की आबादी एक लाख के करीब है। शहर के बीचोबीच 17 एकड़ भूमि में जिलाधिकारी की कोठी स्थित है। कोठी तो सीमित क्षेत्र में ही है, बाकी हिस्से में खेत और बडे़-बडे़ पेड़ हैं। कोठी के चारों ओर चारदीवारी है। कोठी के पेड़ भी काफी पुराने और घने हैं। इस कोठी में लगभग पचास मोर रहते हैं। कोई नहीं जानता कि ये मोर यहां कब से हैं। स्थानीय लोग इसे काफी समय पहले से देखने की बात करते हैं। डीएम कोई भी बनके आया हो, सभी का इन्हें प्यार मिला है। उनके बच्चे भी मोरों को देखकर प्रसन्न होते हैं और इनके दाने-पानी की व्यवस्था करते हैं।
कोठी के दक्षिणी हिस्से में इनके लिए मिट्टी के बरतन में पानी रखा रहता है। शाम के समय तो कुछ मोर घूमते हुए कोठी के गेट तक आ जाते हैं और जिलाधिकारी के कर्मचारियों के हाथ से सामान लेकर खाते रहते हैं। कोठी का स्टाफ भी इनका बड़ा ध्यान रखता है। सभी अपने पास इनके खाने के लिए कुछ न कुछ रखता है। कोठी के स्टाफ के मुताबिक ये मोर उनसे हिल-मिल गए हैं। शाम के समय ये काफी देर तक नाचते रहते हैं। डीएम की कोठी होने के कारण यहां आम लोगों की आवाजाही प्रतिबंधित है, किंतु यहां किसी काम से आने वाले लोग इन मोरों को निहार कर आनंदित हुए बिना नहीं रहते।
अशोक मधुप
Amar Ujala Me editorial page per sabse aalag me 8 december 11 me prakashit
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