प्रारंभ में आदमी जंगल में रहता। शिकार करता और अपना पेट भरता। ये जंगल का कानून था। समय सबको बदलता है। इस व्यवस्था में बदलाव शुरू हुआ। पहले महिला -पुरूष अकेले थे। इसके बच्चे हुए। इनकी संख्या बढ़ी।धीरे - धीरे परिवार बनने बना।
परिवार बनने के साथ इस कानून को बदलने की प्रक्रिया प्रांरभ हुई।जंगल राज में शक्ति संपन्न की महत्ता थी। परिवार बनने पर सबके लिए संसाधन के बंटवारे की बात हुई। संसाधनों के बंटवारे पर काम शुरू हुआ। परिवार के लिए नियम कायदे बनने लगे। कई परिवारों का कबीला बना। यहां संसाधनों के कबीले में बांटने की बात हुई। इन संसाधनों के बंटवारे की व्यवस्था बनाने के लिए एक प्रमुख की जरूरत हुई।ऐसे व्यक्ति की जो ताकतवर को कमजोर का हक न मारने दें। जो सही को सही कह सके, जनता के साथ न्याय कर सके , ऐसा ही व्यक्ति कबीले का मुखिया बना।
विकास के सिद्वान्त के अनुसार कबीले बढ़ने लगे । कई कबीलों बने ।इन कबीलों की बस्ती बनी।इन बस्तियों के गांव बने। गांवों की सुरक्षा और व्यवस्था के लिए कबीले के प्रमुख की तरह इनका भी एक प्रमुख बनाया गया। कई गांव के प्रमुखों पर व्यवस्था बनाने के लिए समाज ने जरूरत महसूस की। इस संरचना में राजा की उत्पत्ति हुई। एक कबीला प्रमुख बना। कई कबीलों और गांव पर राजा बना।
राजा की व्यवस्था निर्माण के समय किसी के दिमाग में आया कि राजाओं के ऊपर भी व्यवस्था की देेखरेख करने वाला कोई होगा। इसी सोच से ईश्वर की उत्पत्ति हुई। राजा अपनी राज व्यवस्था देखने वाला और ईश्वर राजा प्रजा सबका नियन्ता।सबका दाता। सबका खेवन हार। सबके ऊपर शासन करने वाला हो गया।
ईश्वर बनाने की प्रक्रिया में धर्म और समाज की व्यवस्था करने वालों ने अपने को सबसे ऊपर रखा।राजा की व्यवस्था बनाने वाले ने राजा को प्रमुख रखा किंतु राजा से गुरू को भी बड़ा बना दिया। परिवार के लिए सलाह हो या राज्य के लिए कोई व्यवस्था । इसके लिए गुरू का निर्णय राजा से ऊपर रहा । किसी भी राजा की हिम्मत नहीं हुई कि अपने गुरू की बात टाल दे। गुरू का वाक्य उनके लिए ब्रहम वाक्य बन गया। ऐसा वाक्य जिसे टाला नहीं जा सकता। इस व्यवस्था में ब्राहण सर्वोपरि है। ब्राहण हत्या ,ब्रह्म हत्या हो गई। वो हत्या जिससे बढ़कर कोई पाप नहीं हो सकता। राजगुरू राजा से ऊपर पंहुच गया। व्यवस्था बनाने वाला ब्राह्मण श्रेष्ठ हो गया।
राजा राजगुरू और व्यवस्था बनाने वाला ब्राह्मण आम जनता से ऊपर हो गया।।व्यवस्था बना दी कि जिस अपराध को करने में आग आदमी का सिर काटना चाहिए। ब्राहमण के लिए उसका सिर घुटना देना काफी है। क्योकि व्यवस्था बनाने वाले सत्ता के नजदीक थे, तो उन्होंने सत्ता के बाद अपना लाभ देखा। अपने हिसाब से नियम बनाए। अपने को प्रमुख बनाए रखने के लिए काम किया।यहीं सब गड़बड़ हुआ।
राज व्यवस्था में गुरू को बड़ा दर्जा मिला। राजा से भी बड़ा। राजाज्ञा से बड़ी गुरू आज्ञा हो गई।
धर्म में इससे भी आगे हो गया। धर्म में गुरू भक्त को गोविदं से मिलवाने का माध्यम बन गया। इस व्यवस्था में गुरू गोविंद (भगवान) से ऊपर जा बैठा। गुरू गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाय, बलियारी गुरू आपने गोविंद दिया बताए। जैसे दोहे लिखे गए। गुरू महिला पर साहित्य रखा गया। भगवान की व्यवस्था बनाने वालों ने अपने को भगवान से बड़ा बनाया।
ये गुरू सर्व सत्ता संपन्न हो गए। भगवान को मिलवाने वाले गुरू भगवान बन बैठे।खुद को भगवान घोषित करने लगे।भक्तों के लिए सही रूप में यहीं भगवान हो गए।भक्त इन्हें भगवान मानने लगे।इनके कहने पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करना आम हो गया। इसे ये बड़ा पूण्य मानने लगे। राम-रहीम के कहने पर
अपनी बेटी डेरे में सेवा के देते इन्हें झिझक महसूस नहीं होती। बेटी को डेरे को सौंपते उसे समझातें हैं मनसा, वाचा कर्मणा भगवान की सेवा करना । बेटी डेरे और आश्रम के हाल देख ,मां बाप को मर्यादा के तहत सब सही नहीं बताती। बस इशारों में इतना ही कहती है कि यहां कुछ गड़बड़ है। ठीक नहीं है। मां -बाप अपनी बेटी की बात पर यकीन नहीं करते। कहतें हैं। तेरा मन भटक रहा है। भगवान में मन लगा। भगवान की सेवाकर । उनका कहा मान । उनके लिए बेटी छोटी पड़ गई। गुरू बड़ा हो गया। जब गुरू बड़ा हो गया तो फिर उसके पापाचार का विरोध कैसे हो।
समाज में परेशानी ज्यादा है। कोई बेटे की नौकरी के लिए परेशान है। किसी को बिटिया के लिए ठीक से वर नहीं मिल रहा। जो मिल रहा है वह दहेज ज्यादा मांग रहा है। कहीं भाइयों में बटवारें का विवाद है। कोई इसलिए परेशान है कि इसके माता- पिता संपत्ति का भाइयों में बराबर बंटवारा नहीं कर रहे। किसी को डर है कि उसका पिता भाई कें बटवांरे में ज्यादा संपत्ति न दे दे। किसी की पत्नी पड़ौसी से लगी है तो किसी का पति दूसरी महिला के चक्कर में पड़ा है। पति- पत्नी इसलिए परेशान हैं कि बेटा बेटी उनकी बताई जगह शादी करने को तैयार नहीं हैं। कहीं परिवार में पति बीमार है तो कहीं पत्नी में ।
हालात यह है कि समाज का लगभग प्रत्येक आदमी किसी ने किसी कारण परेशान है।किसी न किसी समस्या से ग्रस्त है। ऐसे में आदमी अपनी समस्या का निदान खोजना चाहता है। इस दौरान इन गुरूओं और उनके शिष्यों के आडंबर की कहानियों उस तक पंहुचती रहती हैं। वह इन्हें सत्य मान लेता है। इन समस्याओं का निदान उसे गुरू की शरण ही नजर आती है। अब चाहे गुरू समोसा हरी चटनी से खाने को कहे या लाल से।शुगर के मरीज को जमकर मीठा खाने की सलाह ही क्यों न दें।
इन गुरूओं ,बाबाओं और भगवानों के बड़े बडे मायाजाल है। इनकी अपनी अपनी कथांए हैं। अपना अपना प्रचार तंत्र है। इसमें इन्होंने नई नई कथाएं फैला रखी है। अपनी गाथांए फैला रखी हैं। कोई कहता है कि उसके बाबा ने कैँसर के मरीज को भभूत देकर ठीक कर दिया। कोई कहता है कि बाबा के आशीर्वाद से उसका मुकदमा छूट गया। नही तो ऐसा लग रहा था हकि उसे फांसी नहीं तो आजीवन कारावास जरू र होता। एक बाबा के बारे में तो प्रसिद्घ है कि उनके बीमारी की जगह हाथ फैरने से बीमारी ठीक हो जाती है।किसी के छूने मात्र से जिन्न या भूत भाग जाता है। जो जितना बड़ा गुरू है। जितना बड़ा महात्मा हैै, उसका उतना ही बड़ा माया जाल है। कहीं निर्मल बाबा की दुनिया है। कहीं राम रहीम का डेरा। कहीं आश्राराम बापू का आश्रम।
इसी धर्म की व्यवस्था के मायाजाल में धर्म ज्ञानी किसी की सुनने को तैयार नहीं। महाराजा जनक की सभा में इसी कारण , इससी अहम ,इसी शक्ति के बल पर गार्गी को सुनना पडता है। उसे आगह करते कहा जाता है- बस गार्गी बस । आगे बोली तो सिर धड़ से अलग हो जाएगा। बेचारी गार्गी शास्त्र ही जानती थी। शास्त्रार्थ ही समझती थी। तलवार नहीं। इसीलिए नही समझ पाई कि कैसे सिर अलग हो जाएगा।ऐसा ही यहां होता है। इस व्यवस्था के खिलाफ बोलने वाले की जवान बंदकर दी जाती है। कही धन से कही ताकत से। फंस जाने पर ये दंगे करवाने से भी बाज नहीं आते।
एक बात और गुरू शिष्य केे गलत रास्ते से रोकने वाला है, किंतु गुरू को रोकने वाला कोई नहीं। अपने को सबसे ऊपर मानने वाले गुरू केे सही या गलत बताने वाला कोई नहीं। रामायण में रावण को विभीषण,कुंभकरण पत्नी मंदोदरी सही गलत का ज्ञान तो कराने का प्रयास करतें हैँ । इन गुरूओं को तो कोई कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं हैं। क्योंकि भक्तों के लिए इनका एक-एक शब्द भगवान का आदेश है। एक एक वाक्य ब्र्र्र्रह्म है।ऐसा भगवान का आदेश जहां किंतु -परंतु को जगह नहीं है। धन के लोभ में न पड़ने की सलाह देने वाले गुरू खुद धन के चक्कर में पड़ जातें हैं। काम को पाप बताने वाले आशाराम बापूू,रामरहीम खुद काम और कामनी के रम जातें है। भक्त इनके पापकर्म को जानते भी कृष्ण की रासलीला समझ सबको नजर अंदाज कर देतें हैं। वे उनके पापाचार को गलत नही मानते। गलत मानते तो गोपियों संग कृष्ण का कृत्य रासलीला न होती ।
किसी विद्वान ने धर्म को अफीम का नशा कहा गया है। ये नशा हम भारतीयों के रोम- रोम मे समा गया है। भगवान का परिचय कराने वाले वालें गुरूओं की सर्वोपरि सत्ता से हम निकल नहीं पाते। इस नशे में फंसकर उसके बाहर की दुनिया हमें नजर नहीं आती। गुरूओं का मायाजाल हमें इससे मुक्ति से बाहर की सोचने नहीं देता।
अशोक मधुप
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