Thursday, December 25, 2025

एक्सप्रेस वे पर लोगों को चलना सिखाना होगा

 एक्सप्रेस वे पर लोगों को चलना सिखाना होगा

अशोक मधुप
वरिष्ठ पत्रकार
विकास की रफ़्तार तभी सुखद है जब वह सुरक्षित हो। भारत सरकार ने पिछले 10 वर्षों में जो बुनियादी ढांचा खड़ा किया है, विशेषकर सड़क तंत्र में जो क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं, वे अभूतपूर्व हैं। जहाँ पहले दो शहरों के बीच का सफर घंटों और दिनों में तय होता था, आज वह समय काफी कम हो गया है। लेकिन इस भौतिक प्रगति के बीच एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है। क्या हम इन आधुनिक सड़कों पर चलने के लिए मानसिक और तकनीकी रूप से तैयार हैं? अब समय आ गया है कि हम ईंट और डामर की सड़कों से आगे बढ़कर 'मानव व्यवहार' में सुधार पर निवेश करें। याद रखिए, एक्सप्रेसवे केवल मंजिल तक जल्दी पहुँचने के लिए नहीं हैं, बल्कि सुरक्षित पहुँचने के लिए हैं। यदि हम गति के साथ गरिमा और अनुशासन नहीं अपना सकते, तो ये चमचमाती सड़कें हमारे लिए वरदान के बजाय अभिशाप सिद्ध होंगी। अब जरूरत है कि"हाईवे और एक्सप्रेसवे बनाने से पहले लोगों को उन पर चलना सिखाना चाहिए"—यह केवल एक सुझाव नहीं, बल्कि समय की मांग है। केवल कंक्रीट के जाल बिछाने से राष्ट्र का कल्याण नहीं होगा, बल्कि उन सड़कों पर सुरक्षित सफर सुनिश्चित करना भी सरकार और नागरिक दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है।
भारत में सड़क निर्माण की गति पिछले दस वर्षों (2014-2024) में सांख्यिकीय और भौगोलिक दोनों दृष्टि से ऐतिहासिक रही है। 2014 के आसपास देश में राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई लगभग 91,287 किलोमीटर थी, जो 2024 तक बढ़कर 1,46,000 किलोमीटर से अधिक हो गई है। 2014-15 में सड़क निर्माण की दर लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन थी, जो वर्तमान में बढ़कर औसतन 28 से 37 किलोमीटर प्रतिदिन तक पहुँच चुकी है।
भारत ने 'भारतमाला परियोजना' के तहत विश्व स्तरीय एक्सप्रेसवे का जाल बिछाया है। दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे, पूर्वांचल एक्सप्रेसवे यमुना एक्सप्रेसवे और समृद्धि महामार्ग जैसे गलियारे भारत की नई पहचान बन चुके हैं। अटल टनल और चेनाब ब्रिज जैसे इंजीनियरिंग के चमत्कार इसी दशक की देन हैं, जिन्होंने दुर्गम क्षेत्रों को मुख्यधारा से जोड़ा है।
इतना सब हुआ। सड़कों की चौड़ाई तो बढ़ी है, लेकिन सुरक्षा के मोर्चे पर हम अब भी संघर्ष कर रहे हैं। पिछले पांच वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि हमारी लापरवाही की कीमत बहुत भारी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2019 में हुई 4,49,002 दुर्घटनाओं 1,51,113मौत हुईं। 2020 में हुई 3,66,138 दुर्घटनाओं में 1,31,714 व्यक्ति मरे। 2021 में हुए 4,12,432 एक्सीडेंट में 1,53,972 व्यक्ति मौत के मुंह में समा गए। 2022 में हुई 4,61,312 दुर्घटनाओं मे 1,68,491 जान गईं। 2023 हुई 4,80,000+ (अनुमानित) में 1,70,000 व्यक्ति मौत के शिकार हुए। ये आंकड़े बताते हैं कि दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। घायलों की संख्या तो मरने वालों से काफी ज्यादा होनी चाहिए। अभी यमुना एक्सप्रेसवे पर हुए हादसे में 19 लोग मरे। 100 से ज्यादा घायल हुए।
आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लगभग 70 प्रतिशत से अधिक दुर्घटनाएं 'ओवरस्पीडिंग' यानी अत्यधिक गति के कारण होती हैं। एक्सप्रेसवे पर दुर्घटनाओं की गंभीरता सामान्य सड़कों से कहीं अधिक होती है क्योंकि यहाँ वाहनों की गति बहुत तेज़ होती है। एक्सप्रेसवे सामान्य सड़कें नहीं हैं। यहाँ ड्राइविंग के अपने नियम हैं, जिन्हें भारतीय चालकों को सीखना होगा। इन पर चलते समय लेन का अनुशासन का पालन करना होगा । भारत में सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग भारी वाहन सबसे दाईं ओर चलाते हैं, जबकि वह लेन केवल ओवरटेकिंग के लिए होती है। तेज़ रफ़्तार वाली सड़कों पर गलत लेन में वाहन चलाना आत्महत्या के समान है।
एक्सप्रेसवे पर केवल अधिकतम गति ही नहीं, बल्कि न्यूनतम गति का पालन भी जरूरी है। धीमी गति से चल रहे वाहन तेज़ रफ्तार वाहनों के लिए अवरोध बन जाते हैं, जिससे टक्कर की संभावना बढ़ जाती है। एक्सप्रेसवे की सीमेंट वाली सड़कों पर टायर बहुत जल्दी गर्म होते हैं। यदि टायर पुराने या घिसे हुए हैं, तो वे फट सकते हैं। लोगों को यह सिखाना जरूरी है कि लंबी यात्रा से पहले अपने वाहनों की तकनीकी जांच कैसे करें। एक्सप्रेसवे पर चढ़ने और उतरने के लिए बने रास्तों (रैम्प) का सही उपयोग करना अधिकांश लोगों को नहीं आता। अचानक मुख्य मार्ग पर वाहन मोड़ देना घातक होता है।
वाहनों की संख्या और लाइसेंस धारकों के बीच का यह अंतर यह दर्शाता है कि हमारी सड़कों पर 'अकुशल' चालकों की फौज मौजूद है। एक्सप्रेसवे जैसी तेज़ रफ़्तार वाली सड़कों पर यह स्थिति और भी घातक हो जाती है। एक आदर्श स्थिति में, सड़क पर चल रहे हर वाहन के अनुरूप कम से कम एक वैध लाइसेंस होना चाहिए। हालांकि, भारत में स्थिति काफी चिंताजनक है। राष्ट्रीय रजिस्टर के अनुसार, देश में कुल ड्राइविंग लाइसेंसों की संख्या लगभग 21 से 23 करोड़ के बीच है। यदि हम 35 करोड़ पंजीकृत वाहनों की तुलना 23 करोड़ लाइसेंसों से करें, तो स्पष्ट होता है कि वाहनों और चालकों के बीच 12 करोड़ का भारी अंतर है।
विभिन्न क्षेत्रीय परिवहन कार्यालयों (RTO) और पुलिस द्वारा चलाए गए जांच अभियानों के अनुसार, बिना लाइसेंस वाहन चलाने वालों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एक अनुमान के अनुसार, देश में लगभग 25से 30 प्रतिशत लोग बिना किसी वैध ड्राइविंग लाइसेंस के सड़कों पर वाहन चला रहे हैं। सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि हादसों में जान गंवाने वाले या दोषी पाए जाने वाले चालकों में से लगभग 65 प्रतिशत युवाओं के पास वैध लाइसेंस नहीं होता। ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में यह प्रतिशत और भी अधिक है, जहाँ लगभग 40 प्रतिशत दोपहिया चालक बिना लाइसेंस के गाड़ी दौड़ा रहे हैं।
एक पुरानी रिपोर्ट (सेव लाइफ फाउंडेशन) यह भी बताती है कि जिनके पास लाइसेंस है, उनमें से भी 10 में से छह लोगों ने बिना किसी व्यावहारिक ड्राइविंग टेस्ट के इसे प्राप्त किया है, जो सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ा खतरा है।
इसलिए बिना ड्राइविंग लाइसेंस पकड़े जाने पर केवल जुर्माना नहीं, बल्कि वाहन को लंबे समय के लिए ज़ब्त करना होगा। नाबालिगों द्वारा गाड़ी चलाने पर अभिभावकों को जेल की सजा का प्रावधान में कड़ाई जरूरी है। डिजिटल तकनीक का उपयोग कर हर मोड़ पर बिना लाइसेंस वाले पर कार्रवाई अमल में लानी होगी।
इन एक्सप्रेसवे पर चलना सिखाने के लिए सिर्फ शिक्षा पर्याप्त नहीं है; अनुशासन के लिए कानून का भय भी आवश्यक है। गलत वाहन चलाने वालों, शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों और उल्टी दिशा (रॉन्ग साइड) में चलने वालों पर इतनी सख्ती होनी चाहिए कि वे दोबारा नियम तोड़ने की हिम्मत न करें। बार-बार नियम तोड़ने वालों का ड्राइविंग लाइसेंस स्थायी रूप से रद्द कर दिया जाना चाहिए। हर कुछ किलोमीटर पर कैमरे और रडार होने चाहिए जो नियम तोड़ते ही चालान सीधे चालक के पते पर भेजें। नियम पन मानने वालों पर जुर्माना केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि दंडात्मक होना चाहिए ताकि वह व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव डाले।
यमुना एक्सप्रेसवे पर हुई दुर्घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस एक्सप्रेसवे पर प्रत्येक किलोमीटर पर कैमरे लगाने का निर्णय लिया है। यह तो पूरे देश के महत्वपूर्ण मार्ग पर करना होगा, तभी दुर्घटनाएं रूकेंगी।
सड़क सुरक्षा को केवल पुलिस का विषय न मानकर इसे शिक्षा का हिस्सा बनाना होगा। विद्यालयों में बच्चों को बचपन से ही सड़क के संकेतों, लेन अनुशासन और जीवन के मूल्य के बारे में सिखाया जाना चाहिए। जब तक सुरक्षा की भावना हमारे संस्कार में नहीं आएगी, तब तक आधुनिक सड़कें केवल मृत्यु के गलियारे बनी रहेंगी।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Sunday, December 21, 2025

भारतीय संगीत के अनमोल रत्न: वसंत देसाई

 भारतीय संगीत के अनमोल रत्न: वसंत देसाई


​भारतीय चित्रपट संगीत के स्वर्ण युग में कई ऐसे दिग्गज हुए जिन्होंने अपनी स्वर लहरियों से जन-मानस को मंत्रमुग्ध कर दिया। इन्हीं में से एक ऐसा नाम है जिसने शास्त्रीय संगीत की मर्यादा और सुगम संगीत की सरलता के बीच एक सेतु का निर्माण किया—वसंत देसाई। वे केवल एक संगीतकार ही नहीं, बल्कि एक निष्ठावान साधक थे, जिनके संगीत में शुद्धता, सात्विकता और राष्ट्रीयता की स्पष्ट झलक मिलती थी।


​जन्म और प्रारंभिक जीवन


​वसंत देसाई का जन्म ९ जून, १९१२ को महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले के कुदाल नामक स्थान पर हुआ था। उनका बचपन कोंकण की प्राकृतिक सुंदरता के बीच बीता, जिसका प्रभाव उनके संगीत में भी सदैव दिखाई दिया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्तर पर हुई, किंतु बचपन से ही उनका रुझान कला और संगीत की ओर था। वे केवल सुरों के ही प्रेमी नहीं थे, बल्कि अभिनय में भी उनकी गहरी रुचि थी। यही कारण था कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक अभिनेता के रूप में की थी।


​प्रभात फिल्म कंपनी और कलात्मक यात्रा


​वसंत देसाई के व्यक्तित्व को निखारने में 'प्रभात फिल्म कंपनी' का बहुत बड़ा योगदान रहा। वे कोल्हापुर चले आए और प्रसिद्ध फिल्म निर्माता वी. शांताराम के सानिध्य में कार्य करना प्रारंभ किया। प्रारंभ में उन्होंने फिल्मों में छोटे-मोटे अभिनय किए और कोरस (सामूहिक गायन) में हिस्सा लिया। महान संगीतज्ञ मास्टर कृष्णराव और उस्ताद अमीर खान जैसे दिग्गजों के संपर्क में आने से उनकी संगीत प्रतिभा को एक नई दिशा मिली। उन्होंने संगीत की बारीकियों को बहुत गहराई से सीखा और धीरे-धीरे पार्श्व संगीत और स्वतंत्र संगीत निर्देशन की ओर कदम बढ़ाया।


​संगीत शैली और विशेषताएँ


​वसंत देसाई का संगीत अपनी सादगी और गहराई के लिए जाना जाता है। उन्होंने कभी भी संगीत में शोर-शराबे या अनावश्यक वाद्ययंत्रों का प्रयोग नहीं किया। उनका मानना था कि संगीत की आत्मा उसके शब्दों और रागों की शुद्धता में होती है। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय रागों का प्रयोग फिल्मी गानों में इतनी कुशलता से किया कि वे आम आदमी की जुबान पर चढ़ गए।

​उनकी संगीत रचनाओं में भक्ति रस, देशभक्ति और प्रकृति के प्रति प्रेम स्पष्ट रूप से झलकता है। उन्होंने लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत का जो सम्मिश्रण प्रस्तुत किया, वह आज भी संगीत के विद्यार्थियों के लिए एक शोध का विषय है।


​अमर कृतियाँ और मील के पत्थर


​वसंत देसाई ने कई ऐतिहासिक फिल्मों में कालजयी संगीत दिया। फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' में उनका संगीत नृत्य और शास्त्रीयता का अद्भुत संगम था। इसी प्रकार, फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' का गीत "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" आज भी भारतीय विद्यालयों और संस्थानों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। यह गीत उनके संगीत की आध्यात्मिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है।

​उनकी अन्य महत्वपूर्ण फिल्मों में 'शकुंतला', 'गूँज उठी शहनाई', 'आशीर्वाद' और 'गुड्डी' शामिल हैं। फिल्म 'गुड्डी' का गीत "हमको मन की शक्ति देना" आज भी नैतिकता और संकल्प की अनौपचारिक प्रार्थना बन चुका है। 'गूँज उठी शहनाई' में उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई का जिस प्रकार उपयोग किया, उसने फिल्म संगीत को एक नई ऊँचाई प्रदान की।


​राष्ट्रभक्ति और सामाजिक योगदान


​वसंत देसाई केवल फिल्मों तक ही सीमित नहीं रहे। उनके भीतर राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने सामूहिक गान (कोरस) की परंपरा को बहुत बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि सामूहिक गायन से एकता और अनुशासन की भावना जागृत होती है। उन्होंने हज़ारों बच्चों को एक साथ देशभक्ति के गीत गाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य के सांस्कृतिक विभाग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और लोक कलाओं के संरक्षण हेतु निरंतर कार्य किया।


​सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सम्मान


​वसंत देसाई अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अत्यंत सरल और सौम्य स्वभाव के धनी थे। वे प्रचार-प्रसार से दूर रहकर अपनी साधना में लीन रहते थे। संगीत जगत में उन्हें जो सम्मान मिला, वह उनके कठिन परिश्रम और कला के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतिफल था। उन्हें अपने जीवनकाल में कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, किंतु उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार श्रोताओं का वह अटूट प्रेम था जो उनकी रचनाओं को आज भी जीवित रखे हुए है।


​जीवन का दुखद अंत


​भारतीय संगीत का यह दैदीप्यमान नक्षत्र २२ दिसंबर, १९७५ को एक अत्यंत दुखद दुर्घटना में सदा के लिए अस्त हो गया। एक लिफ्ट दुर्घटना में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। उनके निधन से भारतीय संगीत जगत में जो रिक्तता उत्पन्न हुई, उसे कभी भरा नहीं जा सका। भले ही वे आज हमारे बीच भौतिक रूप से उपस्थित नहीं हैं, किंतु उनकी स्वर लहरियाँ और उनके द्वारा रचित अमर प्रार्थनाएँ आने वाली पीढ़ियों को सदैव शांति और शक्ति प्रदान करती रहेंगी।

​वसंत देसाई का जीवन हमें यह सिखाता है कि कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और समाज का कल्याण होना चाहिए। उनका संगीत आज भी भारतीय संस्कृति की सुगंध बिखेर रहा है।

Saturday, December 20, 2025

भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति : जीवन, साधना और योगदान

 प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति : जीवन, साधना और योगदान

भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली महान नृत्यांगनाओं में यामिनी कृष्णमूर्ति का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने नृत्य को केवल कला का माध्यम नहीं माना, बल्कि उसे साधना, अनुशासन और आध्यात्मिक अनुभूति का स्वरूप प्रदान किया। उनकी नृत्य शैली में शुद्धता, सौंदर्य और भावाभिव्यक्ति का ऐसा अद्भुत संगम दिखाई देता है, जिसने दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया। वे भारतीय सांस्कृतिक विरासत की सशक्त प्रतिनिधि रहीं।

यामिनी कृष्णमूर्ति का जन्म बीस दिसंबर उन्नीस सौ चालीस को तमिलनाडु के चिदंबरम नगर में हुआ। उनका परिवार विद्वान और सांस्कृतिक वातावरण से जुड़ा हुआ था। बचपन से ही उन्हें कला, संगीत और नृत्य के प्रति आकर्षण था। परिवार ने उनकी रुचि को पहचाना और उन्हें शास्त्रीय नृत्य की विधिवत शिक्षा दिलाने का निर्णय लिया। यही निर्णय उनके जीवन की दिशा तय करने वाला सिद्ध हुआ।

उन्होंने बहुत कम आयु में नृत्य की शिक्षा आरंभ कर दी थी। उन्हें भारत के प्रसिद्ध गुरुओं से प्रशिक्षण प्राप्त हुआ। उन्होंने भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों में गहन साधना की। कठोर अभ्यास, अनुशासन और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण उनके प्रशिक्षण की विशेषता रही। वे घंटों अभ्यास करती थीं और नृत्य की सूक्ष्म से सूक्ष्म बारीकियों को आत्मसात करती थीं।

यामिनी कृष्णमूर्ति ने जब मंच पर पहली बार प्रस्तुति दी, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि वे साधारण नृत्यांगना नहीं हैं। उनकी देह की भंगिमाएं, नेत्रों की भाषा, मुद्राओं की शुद्धता और भावों की गहराई दर्शकों को गहराई से प्रभावित करती थी। उनके नृत्य में सौंदर्य के साथ-साथ गंभीरता और आध्यात्मिक भाव भी स्पष्ट रूप से झलकता था।

उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य शैली को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनकी प्रस्तुति में शास्त्रीय मर्यादा का पूर्ण पालन होता था, साथ ही उसमें नवीनता और सजीवता भी दिखाई देती थी। उन्होंने कुचिपुड़ी नृत्य को भी विशेष पहचान दिलाई। इन दोनों नृत्य शैलियों में उनकी समान दक्षता उन्हें अन्य कलाकारों से अलग बनाती है।

यामिनी कृष्णमूर्ति ने भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारतीय शास्त्रीय नृत्य का व्यापक प्रचार किया। उन्होंने अनेक देशों में मंच प्रस्तुतियां दीं और भारतीय संस्कृति की गरिमा को विश्व के सामने प्रस्तुत किया। उनकी नृत्य प्रस्तुतियों ने विदेशी दर्शकों को भारतीय दर्शन, परंपरा और सौंदर्यबोध से परिचित कराया। वे सांस्कृतिक दूत के रूप में भारत का गौरव बनीं।

उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया गया। ये सम्मान न केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों का प्रतीक हैं, बल्कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रतिष्ठा को भी दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें कई सांस्कृतिक संस्थानों और सभाओं द्वारा भी सम्मान प्रदान किया गया।

यामिनी कृष्णमूर्ति केवल एक महान नृत्यांगना ही नहीं, बल्कि एक श्रेष्ठ गुरु भी थीं। उन्होंने अपने ज्ञान और अनुभव को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए नृत्य प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। उनके शिष्य आज देश और विदेश में भारतीय शास्त्रीय नृत्य का प्रचार कर रहे हैं। गुरु और शिष्य परंपरा को उन्होंने पूरी निष्ठा और आदर के साथ निभाया।

निजी जीवन में यामिनी कृष्णमूर्ति अत्यंत अनुशासित और सरल स्वभाव की थीं। उनका जीवन कला और साधना को समर्पित था। वे मानती थीं कि नृत्य केवल मंच प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसी विचारधारा ने उन्हें जीवनभर प्रेरित किया। उन्होंने कभी भी कला से समझौता नहीं किया और शुद्धता को सर्वोच्च स्थान दिया।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक वे नृत्य और कला से सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। वे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में भाग लेती थीं और युवाओं को मार्गदर्शन देती थीं। उनका व्यक्तित्व प्रेरणास्रोत था और उनकी उपस्थिति मात्र से ही वातावरण में गरिमा का संचार हो जाता था।

यामिनी कृष्णमूर्ति का निधन तीस अगस्त दो हजार चौबीस को हुआ। उनके निधन से भारतीय कला जगत को अपूरणीय क्षति पहुंची। हालांकि वे शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं रहीं, लेकिन उनकी कला, शिक्षाएं और योगदान सदैव जीवित रहेंगे। वे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का अमर स्रोत हैं।

समग्र रूप से यामिनी कृष्णमूर्ति भारतीय शास्त्रीय नृत्य की एक उज्ज्वल ज्योति थीं। उनका जीवन परिचय समर्पण, साधना और सांस्कृतिक गौरव की कहानी है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सच्ची कला समय और सीमाओं से परे होती है। भारतीय नृत्य परंपरा में उनका स्थान सदैव सर्वोच्च रहेगा और उनका नाम श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता रहेगा।



भारतीय सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री नलिनी जयवंत : जीवन और कृतित्व

 भारतीय सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री नलिनी जयवंत : जीवन और कृतित्व

भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग में जिन अभिनेत्रियों ने अपनी सशक्त अभिनय प्रतिभा, गरिमामय व्यक्तित्व और सजीव अभिव्यक्ति से दर्शकों के मन पर अमिट छाप छोड़ी, उनमें नलिनी जयवंत का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने अपने अभिनय से न केवल नायिका की पारंपरिक छवि को सुदृढ़ किया, बल्कि संवेदनशील और सशक्त स्त्री पात्रों को भी नई पहचान दी। उनका जीवन संघर्ष, साधना और सिनेमा के प्रति समर्पण का अनुपम उदाहरण है।

नलिनी जयवंत का जन्म चौदह फरवरी उन्नीस सौ छब्बीस को मुंबई में हुआ। उनका परिवार शिक्षित और सांस्कृतिक मूल्यों से परिपूर्ण था। बचपन से ही उनमें कला के प्रति विशेष रुचि दिखाई देती थी। संगीत, नृत्य और अभिनय की ओर उनका झुकाव स्वाभाविक था। परिवार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में ही हुई, जहां उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ रंगमंच और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की।

फिल्मी दुनिया में उनका प्रवेश किशोरावस्था में ही हो गया था। आरंभिक दौर में उन्हें छोटे और सहायक भूमिकाएं मिलीं, किंतु उनकी सहज अभिनय शैली और प्रभावशाली उपस्थिति ने शीघ्र ही फिल्म निर्माताओं का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने जिस भी भूमिका को निभाया, उसमें स्वाभाविकता और गहराई स्पष्ट दिखाई देती थी। धीरे-धीरे वे मुख्य नायिका के रूप में स्थापित होने लगीं।

नलिनी जयवंत का अभिनय सौंदर्य केवल बाहरी आकर्षण तक सीमित नहीं था। उनकी आंखों की अभिव्यक्ति, संवाद अदायगी और भावनात्मक संतुलन उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग पहचान देता था। वे दुख, प्रेम, संघर्ष और आत्मसम्मान जैसे भावों को अत्यंत सजीव ढंग से प्रस्तुत करती थीं। यही कारण था कि दर्शक उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते थे।

उनके फिल्मी जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में सामाजिक और पारिवारिक कथानक वाली रचनाएं शामिल रहीं। उन्होंने कई ऐसे पात्र निभाए जो उस समय की सामाजिक परिस्थितियों, स्त्री की पीड़ा और उसके आत्मसम्मान को उजागर करते थे। उनकी भूमिकाओं में एक गरिमा और गंभीरता रहती थी, जो दर्शकों को सोचने पर विवश कर देती थी। वे केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं थीं, बल्कि समाज का आईना भी प्रस्तुत करती थीं।

नलिनी जयवंत ने अपने अभिनय करियर में अनेक प्रसिद्ध कलाकारों के साथ काम किया। उनके सह कलाकारों के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने खूब सराहा। पर्दे पर उनकी उपस्थिति संतुलित और प्रभावशाली रहती थी। वे कभी भी अपने अभिनय को अतिरंजित नहीं करती थीं, बल्कि सहजता के साथ पात्र में ढल जाती थीं। यही विशेषता उन्हें एक सशक्त अभिनेत्री के रूप में स्थापित करती है।

उनके अभिनय की सराहना आलोचकों द्वारा भी की गई। उन्हें कई बार प्रशंसा और सम्मान प्राप्त हुए। उनकी फिल्मों को न केवल व्यावसायिक सफलता मिली, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उन्हें महत्वपूर्ण माना गया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सिनेमा में सफलता के लिए केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि गहन अभिनय क्षमता और अनुशासन भी आवश्यक है।

निजी जीवन में नलिनी जयवंत अत्यंत सादगीपूर्ण और आत्मसम्मान से परिपूर्ण महिला थीं। उन्होंने फिल्मी चकाचौंध से दूर रहकर एक संतुलित जीवन जीना पसंद किया। अभिनय के साथ-साथ वे साहित्य और संगीत में भी रुचि रखती थीं। उनका जीवन अनुशासन और आत्मनियंत्रण का उदाहरण था। उन्होंने कभी भी अनावश्यक विवादों या प्रचार से स्वयं को नहीं जोड़ा।

अपने करियर के उत्कर्ष काल में भी उन्होंने सीमित फिल्मों में काम किया। वे केवल वही भूमिकाएं स्वीकार करती थीं जिनमें उन्हें सार्थकता दिखाई देती थी। इस चयनशीलता के कारण उनका फिल्मी जीवन अपेक्षाकृत संक्षिप्त रहा, किंतु अत्यंत प्रभावशाली रहा। उनकी प्रत्येक भूमिका दर्शकों के मन में स्थायी स्मृति बनकर रह गई।

समय के साथ उन्होंने सिनेमा से दूरी बना ली और शांत जीवन को अपनाया। यह निर्णय उनके आत्मसम्मान और स्वाभाविक प्रवृत्ति को दर्शाता है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कलाकार का मूल्य उसके कार्य से होता है, न कि निरंतर परदे पर बने रहने से। उनके द्वारा निभाए गए पात्र आज भी सिनेमा प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

नलिनी जयवंत का निधन बीस दिसंबर उन्नीस सौ छानवे को हुआ। उनके निधन से भारतीय सिनेमा ने एक संवेदनशील और सशक्त अभिनेत्री को खो दिया। हालांकि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनका अभिनय, उनकी फिल्में और उनकी गरिमामय छवि आज भी जीवित है। वे उन अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिन्होंने सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

समग्र रूप से देखा जाए तो नलिनी जयवंत भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। उनका जीवन परिचय संघर्ष, साधना और आत्मसम्मान की कहानी है। उन्होंने अपने अभिनय से यह प्रमाणित किया कि सच्ची कला समय की सीमाओं से परे होती है। आज भी जब उनके अभिनय को स्मरण किया जाता है, तो उनके व्यक्तित्व की गरिमा और कला की ऊंचाई स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकती ।

चौदह बरस की हीरोइन
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हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे- चमनलाल देसाई। वीरेन्द्र देसाई इन्हीं चमनलाल देसाई के पुत्र थे। उनकी एक कंपनी थी 'नेशनल स्टूडियोज़'। एक दिन दोनों पिता-पुत्र फ़िल्म देखने सिनेमाघर पहुँचे। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थीं, जिनकी आयु उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। दोनों पिता-पुत्र की जोड़ी ने दिल ही दिल में इस लड़की को अपनी अगली फ़िल्म की हीरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फ़िल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक दोनों को न हुई।
एक दिन वीरेन्द्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुँचे तो देखा कि नलिनी वहाँ मौजूद थीं। नलिनी को देखते ही उनकी आँखों में चमक आ गई और बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में अभिनेत्री नूतन और तनूजा की माँ और काजोल की नानी के रूप में अधिक जाना गया, नलिनी जयवंत के मामा की बेटी थीं। इस बार वीरेन्द्र देसाई ने बिना देर किए नलिनी के सामने फ़िल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन माँगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फ़िल्मों के सख्त विरोधी थे। लेकिन वीरेन्द्र देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से मकान में आश्रय मिला हुआ था। इस प्रकार नलिनी जयवंत की पहली फ़िल्म थी 'राधिका', जो 1941 में प्रदर्शित हुई। वीरेन्द्र देसाई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे- हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी आदि। फ़िल्म में संगीत अशोक घोष का था। इस फ़िल्म के दस में से सात गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी।
बीस दिसम्बर 2010 को इस बॉलीवुड फिल्म अभिनेत्री की चेम्बूर, मुम्बई में मृत्यु हुई।
रजनीकांत शुक्ला



Wednesday, December 17, 2025

वीआईपी दर्शन पर सुप्रिम आदेश, निर्णय केंद्र करे

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अशोक मधुप

वरिष्ठ  पत्रकार

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मंदिरों में 'वीआईपी दर्शन' सुविधा को चुनौती देने वाली याचिका भले ही खारिज कर दी, किंतु इस याचिका पर कोर्ट द्वारा कही गई बातों की गूंज दूर तक जाएगी। यह  गूंज केंद्र सरकार को  विवश करेगी कि वह मंदिरों में हाने वाले वीवीआईपी  दर्शन पर  रोक लगाने वाला निर्णय लें ।  कार्ट की ये गूंज  आने वाले समय  में मंदिरों के वीवीआईपी दर्शन कर रोक लगाने का रास्ता प्रशस्त करेगी।

मुख्य न्यायाधीश  संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि यह एक नीतिगत मामला है इस पर केंद्र सरकार को विचार करना होगा। बेंच ने यह भी कहा कि वीआईपी के लिए ऐसा विशेष व्यवहार मनमाना है। यह याचिका मंदिरों की तरफ से वसूले जाने वाले वीआईपी दर्शन शुल्क को समाप्त करने की मांग कर रही थी। मुख्य न्यायाधीश  ने कहा कि बेंच इस मुद्दे से सहमत है, लेकिन अनुच्छेद 32 के तहत निर्देश जारी नहीं कर सकती। उन्होंने कहा, 'हालांकि हमारी राय है कि मंदिरों में प्रवेश के संबंध में कोई विशेष व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन हमें नहीं लगता कि यह अनुच्छेद 32 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने का उपयुक्त मामला है।' यह आदेश में दर्ज किया गया लेकिन मामला सरकार के विचार के लिए छोड़ दिया गया।मुख्य न्यायधीश खन्ना ने कहा कि यह मामला कानून-व्यवस्था का प्रतीत होता है और याचिका इस पहलू पर होनी चाहिए थी। बेंच ने कहा, 'हम स्पष्ट करते हैं कि याचिका खारिज होने से संबंधित अधिकारियों को जरूरत के हिसाब से कार्रवाई करने से नहीं रोका जाएगा।

याचिकाकर्ता के वकील ने कहा, 'आज 12 ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ इस प्रैक्टिस को फॉलो करते हैं। ये मनमाना और भेदभाव वाला है। यहां तक कि गृह मंत्रालय ने भी आंध्र प्रदेश से इसकी समीक्षा करने को कहा है। चूंकि, भारत में 60 प्रतिशत पर्यटन धार्मिक है, इसलिए ये भगदड़ की प्रमुख वजह भी है।' सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका विजय किशोर गोस्वामी ने डाली थी। उन्होंने मंदिरों में अतिरिक्त शुल्क लेकर 'वीआईपी दर्शन' के चलन को आर्टिकल 14 के तहत समानता के अधिकार और आर्टिकल 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन बताया। उन्होंने दलील दी कि जो लोग इस तरह का शुल्क अदा करने में असमर्थ हैं, ये उनके खिलाफ भेदभाव है। याचिका में जोर देकर कहा गया था कि कई मंदिर 400 से 500 रुपये में लोगों के लिए विशेष दर्शन की व्यवस्था करते हैं। इससे आम श्रद्धालु और खासकर महिलाएं, स्पेशली एबल्ड लोग और सीनियर सिटिजंस को दर्शन में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह मामला देश भर के मंदिरों में आम लोगों और वीआईपी के बीच भेदभाव के मुद्दे को उठाता है। वीआईपी दर्शन की सुविधा से आम लोगों को लंबी कतारों में इंतजार करना पड़ता है, जबकि वीआईपी आसानी से दर्शन कर लेते हैं।

ये एकजगह नही है,श्रृद्धालू को इस समस्या से सभी  जगह रूबरू होना पड़ता है।  जगह –जगह मंदिरों में इस समस्या का सामना करना पड़ा है। लगभग  40 साल पहले हम कोलकत्ता  गए। कालिका जी मंदिर में हम श्रृद्धालुओं की लाइन में लगे थे कि  हमारे एक साथी ने देखा  और हमें इशारा कर अपने पास बुला लिया। यहां पुजारी पांच रूपया प्रति व्यक्ति लेकर सीधे दर्शन करा  रहे थे। अभी  वेट द्वारिका जाना   हुआ। हम परिवार के छह सदस्य थे। एक पंडित जी ने हमसे पांच सौ रूपये लिए।अलग लाइन से हमें आराम से दर्शन कराए। भीड़− भाड़ भी बची।वैसे दर्शन में दो से तीन घंटे लगते  पांच सौ रूपये में आधा घंटा में दर्शन कर मंदिर से बाहर आ गए। करीब दस साल पहले हम गुजरात में अम्बा जी गए थे। दर्शन की लाइन में  लगे थे कि कर्मचारियों ने यह कह कर हमके रोक दिया कि दर्शन का समय समाप्त हो गया, जबकि कुछ अन्य को लगातार प्रदेश  दिया जा रहा। किसी तरह  हम अन्यों  वाली पंक्ति में शामिल हुए। तब दर्शन हुए। दर्शन भी  बड़े  आराम से हुए। काफी समय हम मंदिर में रूके , जबकि ऐसा  पहले संभव नही था। इस तरह का भेदभाव हमें कई जगह देखने को  मिला। उज्जैन में तो  आप  पंडित को पांच  सौ के आसपास रूपये दीजिए।वह मंदिर के गर्भ गृह में ले जाकर पूजन अर्चन कराते हैं। जो ये रकम नही देते वे गर्भगृह के बाहर ही दूर से दर्शन कर तृप्त  हो जाते हैं।ओंकारेश्वर में तो पंडित जी पूजा भी आराम से और श्रद्धालुओं की पंक्ति से अलग लेकर कराते हैं। मथुरा  जी के बांके बिहारी मंदिर में सुपरिम आदेश   से  यह व्यवस्था रूकी है, अन्यथा लगभग सभी मंदिरों की हालत ऐसी ही है।      

सुपरिम कोर्ट ने याचिका तो खारिज कर दी, किंतु इस  वीआईपी दर्शन पर रोक वाली गेंद केंद्र सरकार के पाले में यह कह कर डाल दी । बेंच ने कहाकि बेंच इस मुद्दे से सहमत है, लेकिन अनुच्छेद 32 के तहत निर्देश जारी नहीं कर सकती। मुख्य न्यायाधीश  संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि यह एक नीतिगत मामला है इस पर केंद्र सरकार को विचार करना होगा। बेंच ने यह भी कहा कि वीआईपी के लिए ऐसा विशेष व्यवहार मनमाना है।

सुपरिम कोर्ट का  यह  निर्देश  अब केंद्र सरकार को विवश करेगा कि मंदिरों में आम आदमी के साथ हो रहे भेदभाव को रोके और बांके बिहारी मंदिर की तरह पैसा लेकर कराए जा रहे वीआईपी दर्शन  की व्यवस्था  खत्म  करे। व्यवस्था  अयोध्या  जी के श्रीराम मंदिर जैसी हो, जहां श्रद्धालू बिना भेदभाव आराम से 25−30 मिनट में दर्शन कर बाहर आ सके।

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)


Sunday, December 14, 2025

अमर उजाला की स्थापना के 25 साल पूरे होने पर अखबार में मेरा लेख

 12 दिसम्बर को अमर उजाला मेरठ 32वे साल में प्रवेश पर गया।इस गौरवशाली पल के लिए अमर उजाला प्रबधन को बधाई।


Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश

मेरा यह लेख अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश पर मेरठ के सभी संसकरण में छपा है

सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित

अमर उजाला सदैव सत्य का पक्षधर रहा है। चाहे उसके पत्रकारों को एनएसए लगाकर जेल डालने का प्रयास किया गया हो या फिर सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों की हत्या की गई हो, अमर उजाला के कदम हर मुश्किल वक्त में निर्बाध रूप से आगे बढ़ते रहे। 24 वर्ष के स्वर्णिम सफर में समाज को जागरूक करने के साथ-साथ अमर उजाला अपने अंदर भी कई बदलाव लाया है। इस सफर में अमर उजाला को कई खट्टे-मीठे उतार चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा है।

अमर उजाला मेरठ के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उत्तरांचल के साथी उमेश डोभाल की वहां के शराब माफियाओं ने हत्या कर दी, तो एक रात आफिस से कार से घर लौटते समय ट्रक से टकराने पर डेस्क के साथी नौनिहाल शर्मा काल के गले में चले गए। अमर उजाला के गंगोह के साथी राकेश गोयल पर प्रशासन के विरुद्ध खबर लिखने पर एनएसए लगी। भाकियू के आंदोलन में स्वामी ओमवेश के साथ लेखक को भी एनएसए में निरुद्ध करने का प्रयास किया।

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सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित


बिजनौर में बरेली से अमर उजाला आता था। बरेली की दूरी ज्यादा होने के कारण समाचार समय से नहीं जा पाते थे। सीधी फोन लाइन बरेली को नहीं थी। कभी मुरादाबाद को समाचार लिखाने पड़ते तो कभी लखनऊ को। एक-दो बार दिल्ली भी समाचार नोट कराने का मौका मिला। ऐसे में तय हुआ कि बिजनौर को सीधे टेलीपि्रंटर लाइन से जोड़ा जाए। इसके लिए कार्य भी प्रारंभ हो गया। एक दिन श्री राजुल माहेश्वरी जी का फोन आया कि टीपी लाइन बरेली से नहीं मेरठ से देंगे। वहां से नया एडीशन शुरू होने जा रहा है।

मेरठ में कहां, क्या हो रहा है?, यह जानने की उत्सुकता थी तो मै और मेरे साथी कुलदीप सिंह एक दिन बस में बैठ मेरठ चले गए। मेरठ में वर्तमान आफिस की साइड में पुराना आफिस होता था। उसके हाल में एक मेज पर राजेंद्र त्रिपाठी बैठे मिले। राजेंद्र त्रिपाठी ने पत्रकारिता बिजनौर से ही शुरू की थी, इसलिए पुराना परिचय था। उन्होंने मेरठ के प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी दी और पूरी यूनिट लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

12 दिसंबर 1986 का दिन आया और समाचार पत्र का पूजन के साथ शुभारंभ हुआ। बिजनौर के लिए समाचार पत्र नया नहीं था। पूरा नेटवर्क भी बना था सो परेशानी नहीं आई। बिजनौर में समाचार पत्र लाने-ले जाने के लिए बरेली की ही टैक्सी लगी। बिजनौर-बरेली रूट पर एंबेसडर गाड़ी लगी । इसका चालक लच्छी था। कई दिन उसके साथ अखबार मेरठ से लाना पड़ा। फरवरी 87 में हरिद्वार लोकसभा क ा उपचुनाव हुआ। चूंकि अमर उजाला का नेटवर्क पूरी तरह नहीं बना था, इसलिए मुझे उस चुनाव का कवरेज करने के लिए भेजा गया और मैने पूरे चुनाव के दौरान रुड़की और हरिद्वार से चुनाव कवरेज भेजी।

तब टाइपराइटर से अखबार छापा गया

अमर उजाला मेरठ को इन 24 साल में कई खट्टे-मीठे अनुभव का सामना करना पड़ा। पहले समाचार टाइप होते । उनके पि्रंट निकलते और उन्हे पेज के साइज के पेपर पर चिपकाया जाता था। अब यह काम कंप्यूटर करता है। समाचार के पि्रंट निकालने के लिए दो पि्रंटर होते थे। एक पि्रंटर खराब हो गया। उसे ठीक करने इंजीनियर दिल्ली से आया किंतु वह खराबी नहीं पकड़ पाया। उसने खराब प्रिंटर को सुधारने के लिए चालू दूसरे प्रिंटर को खोल दिया, जिससे चालू प्रिंटर भी खराब हो गया। ऐसे में समस्या पैदा हो गई कि कैसे अखबार निकले? तय किया गया कि खबरें टाइपराइटर पर टाइप करवाई जाएं। सो कुछ पुरानी खबरें , कुछ इधर-उधर से आए समाचार लगाकर अखबार निकाला गया। इस अंक की विश्ेष बात यह रही कि इसमें अधिकतर खबरें और उनके हैडिंग टाइपराइटर से टाइप किए थे।

आग भी नहीं रोक पाई संस्करण को

ऐसे ही एक रात शॉर्ट सर्किट से अमर उजाला मेरठ के कार्यालय में आग लग गई । करीब सौ कंप्यूटर जल गए। ऐसी हालत में अखबार निकालना एक चुनौती थी। किंतु अगले दिन का अंक पूर्ववत: निकला और अखबार पर इस घटना का कोई असर दिखाई नहीं दिया। अमर उजाला का विस्तार क्षेत्र कभी गाजियाबाद नोएडा दिल्ली, बुलंदशहर और पूरे गढ़वाल में था। प्रसार बढ़ने के साथ नए-नए संस्करण निकलते चले गए।

श्याम-श्वेत से रंगीन तक का सफर

24 साल में अमर उजाला में बहुत परिवर्तन आया आठ पेज का अखबार आज औसतन 20 पेज पर आ गया। श्याम-श्याम में छपने वाला अमर उजाला आज पूरी तरह रंगीन हो गया। पहले स्थानीय महत्वपूर्ण समाचार अंतिम पेज पर छपते थे और बाकी उसी के पिछले के पेपर पर छपती थी। इसके बाद पेज पांच से स्थानीय समाचार छपने लगे और अब ये पेज दो से शुरू होने लगे। अनेक प्रकार के झंझावात और परेशानी को झेलते हुए अमर उजाला मेरठ 25 साल में प्रवेश कर रहा है। किंतु वह अपने रास्ते से नहीं भटका। जनसमस्या उठाने से कभी मुंह नहीं मोड़ा। समय के साथ कदम से कदम मिलाने में कभी झिझक नहीं महसूस की। समाचार पत्र नए जमाने के तेवर और तकनीक से तालमेल बनाने के प्रयास हमेशा जारी रहे।

मुरारी लाल महेश्वरी और अतुल महेश्वरी के निधन के बाद भी अमर उजाला की मशीन बंद नहीं हुए परिवार के सदस्य अंतिम संस्कार में लग रहे बाकी स्टाफ ने पहले की तरह काम किया और अखबार वैसे ही निकला जैसे निकलता था मुलायम सिंह की सरकार में अमर उजाला और जागरण के खिलाफ हल्ला बोल अभियान शुरू किया गया दोनों अखबारों के हो करो एजेंट और पत्रकारों को पीटा गया इसके बावजूद भी अखबार नहीं झुके और लास्ट में माफी मांगने के लिए मुलायम सिंह यादव अमर उजाला के संपादक अशोक अग्रवाल के घर गए अमर उजाला अशोक अग्रवाल के सामने मुलायम सिंह यादव का हाथ जोड़ फोटो छापकर इस कहानी का अंत किया

मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक थे जिन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला। उनका राजनीतिक सफर समाजवादी विचारधारा और पिछड़ा वर्ग की राजनीति से जुड़ा रहा। हालांकि उनके मुख्यमंत्री काल में कई विवादास्पद घटनाएं हुईं जिनमें से एक प्रमुख था अमर उजाला और दैनिक जागरण समाचार पत्रों के खिलाफ चलाया गया हल्ला बोल अभियान। यह अभियान मीडिया और राजनीति के बीच टकराव का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया और लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता के प्रश्न को उजागर किया।

यह घटना मुख्य रूप से मुलायम सिंह यादव के दूसरे मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान 2003-2007 के बीच की अवधि से संबंधित है। उस समय उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे। अमर उजाला और दैनिक जागरण उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े हिंदी समाचार पत्र थे जिनकी पहुंच और प्रभाव राज्य भर में व्यापक था। इन दोनों अखबारों ने समाजवादी पार्टी की सरकार की नीतियों और कार्यशैली की आलोचना करने वाली खबरें प्रकाशित कीं।

मुलायम सिंह यादव की सरकार के खिलाफ इन समाचार पत्रों में कई आरोप प्रकाशित किए गए थे। इनमें प्रशासनिक विफलता, कानून व्यवस्था की खराब स्थिति, भ्रष्टाचार के आरोप और सरकार की विभिन्न नीतियों की आलोचना शामिल थी। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में बढ़ते अपराध, माफिया और अपराधियों के राजनीतिक संरक्षण के आरोप इन अखबारों में नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। समाजवादी पार्टी और उसके नेताओं के विरुद्ध विभिन्न आरोपों को भी इन अखबारों ने प्रमुखता से छापा।

इसके अलावा इन समाचार पत्रों ने कुछ विशिष्ट घटनाओं और मुद्दों को भी उठाया जिनसे मुलायम सिंह यादव की सरकार की छवि खराब हुई। प्रशासनिक निर्णयों पर सवाल उठाए गए और सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेही पर संदेह व्यक्त किया गया। कई बार इन अखबारों में संपादकीय और लेख प्रकाशित हुए जो सरकार के लिए आलोचनात्मक थे। मुलायम सिंह यादव और उनकी सरकार को लगा कि ये अखबार उनके खिलाफ एक सुनियोजित अभियान चला रहे हैं।

इस स्थिति के जवाब में मुलायम सिंह यादव की सरकार और समाजवादी पार्टी ने हल्ला बोल अभियान शुरू किया। यह अभियान इन दोनों समाचार पत्रों के खिलाफ एक संगठित विरोध था। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इन अखबारों का बहिष्कार करने के लिए कहा गया। कई स्थानों पर इन अखबारों की प्रतियां जलाई गईं और विरोध प्रदर्शन किए गए। पार्टी के नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इन अखबारों की आलोचना की और उन पर पक्षपात और झूठी खबरें छापने के आरोप लगाए।

हल्ला बोल अभियान के दौरान समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया कि ये अखबार राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं और किसी विशेष राजनीतिक दल के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। यह दावा किया गया कि विपक्षी दलों और उनके समर्थक व्यवसायिक घराने इन अखबारों को प्रभावित कर रहे हैं। पार्टी ने कहा कि पत्रकारिता के नाम पर एकतरफा और भ्रामक समाचार पर



हल्ला बोल अभियान के दौरान समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया कि ये अखबार राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं और किसी विशेष राजनीतिक दल के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। यह दावा किया गया कि विपक्षी दलों और उनके समर्थक व्यवसायिक घराने इन अखबारों को प्रभावित कर रहे हैं। पार्टी ने कहा कि पत्रकारिता के नाम पर एकतरफा और भ्रामक समाचार प्रकाशित किए जा रहे हैं जो जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव और उनके समर्थकों का मानना था कि ये अखबार समाजवादी पार्टी और उसकी सरकार की उपलब्धियों को नजरअंदाज करते हैं और केवल नकारात्मक पहलुओं को उजागर करते हैं।

समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में विरोध प्रदर्शन किए। कई शहरों और कस्बों में इन अखबारों की प्रतियों को सार्वजनिक रूप से जलाया गया। अखबारों के दफ्तरों के बाहर नारेबाजी की गई और धरना प्रदर्शन किए गए। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक सभाओं और मीडिया के सामने इन अखबारों की तीखी आलोचना की। कुछ स्थानों पर अखबार विक्रेताओं और वितरकों पर भी दबाव डाला गया कि वे इन अखबारों को न बेचें। हालांकि सरकारी तौर पर किसी प्रतिबंध की घोषणा नहीं की गई थी लेकिन व्यावहारिक रूप से इन अखबारों के वितरण और बिक्री में बाधाएं उत्पन्न की गईं।

इस अभियान ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी और पूरे देश में इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गई। पत्रकार संगठनों, मीडिया घरानों और नागरिक समाज के संगठनों ने इस अभियान की कड़ी निंदा की। इसे प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला बताया गया और लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध कार्रवाई करार दिया गया। देश भर के पत्रकारों और संपादकों ने एकजुट होकर इस अभियान का विरोध किया। राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और मुलायम सिंह यादव की सरकार की आलोचना की।

विपक्षी दलों ने भी इस अवसर का लाभ उठाया और समाजवादी पार्टी पर तानाशाही रवैया अपनाने का आरोप लगाया। भाजपा, कांग्रेस और बसपा जैसे दलों ने इस अभियान को लोकतंत्र विरोधी बताया और मुलायम सिंह यादव पर प्रेस को दबाने की कोशिश करने का आरोप लगाया। विधानसभा में भी इस मुद्दे पर हंगामा हुआ और विपक्ष ने सरकार से स्पष्टीकरण मांगा। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और प्रेस परिषद जैसे संस्थानों ने भी इस मामले में रुचि दिखाई और चिंता व्यक्त की।

अमर उजाला और दैनिक जागरण ने भी इस अभियान के खिलाफ मजबूती से अपना पक्ष रखा। दोनों अखबारों के संपादकों और प्रबंधन ने स्पष्ट किया कि वे निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं और किसी राजनीतिक दबाव में नहीं आएंगे। उन्होंने कहा कि समाचार पत्र का कर्तव्य है कि वह सरकार की गलतियों और कमियों को उजागर करे चाहे कोई भी सत्ता में हो। इन अखबारों ने अपने समाचार कवरेज में कोई बदलाव नहीं किया और सरकार की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग जारी रखी। उन्होंने इस अभियान को भी अपने अखबारों में विस्तार से कवर किया और संपादकीय में इसकी निंदा की।

जनता की प्रतिक्रिया मिली जुली थी। समाजवादी पार्टी के कट्टर समर्थकों ने अभियान का समर्थन किया और अखबारों को पक्षपाती बताया। हालांकि एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने इस अभियान को गलत माना और प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया। कई पाठकों ने इन अखबारों के प्रति अपना समर्थन जताया और उनकी बिक्री में कोई विशेष गिरावट नहीं आई। वास्तव में कुछ विश्लेषकों का मानना था कि इस विवाद ने इन अखबारों की लोकप्रियता को और बढ़ा दिया क्योंकि लोगों में यह जानने की उत्सुकता बढ़ी कि आखिर इन अखबारों में ऐसा क्या छप रहा है जिससे सरकार इतनी परेशान है।

हल्ला बोल अभियान कुछ सप्ताह तक जोरशोर से चला लेकिन धीरे-धीरे इसकी तीव्रता कम होती गई। इसके खत्म होने के पीछे कई कारण थे। सबसे महत्वपूर्ण कारण था राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी व्यापक निंदा जिससे समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव की छवि को नुकसान पहुंच रहा था। यह अभियान उल्टा पड़ गया और जो अखबार सरकार की आलोचना कर रहे थे उन्हें और अधिक सहानुभूति मिलने लगी। मीडिया में यह चर्चा होने लगी कि सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों का उल्लंघन कर रही है और प्रेस की आजादी को कुचलने की कोशिश कर रही है।

दूसरा महत्वपूर्ण कारण था कि यह अभियान व्यावहारिक रूप से सफल नहीं हो रहा था। इन अखबारों की बिक्री और प्रसार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। पाठक इन अखबारों को खरीदते रहे और अखबारों ने अपनी रिपोर्टिंग में कोई समझौता नहीं किया। जनता के एक बड़े वर्ग ने इस अभियान को नकारात्मक रूप से देखा और समाजवादी पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा। पार्टी के भीतर भी कुछ नेताओं ने इस अभियान की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाए और सुझाव दिया कि इसे समाप्त किया जाना चाहिए।

तीसरा कारण था राजनीतिक दबाव और व्यावहारिक चुनौतियां। विपक्षी दल इस मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाने की तैयारी कर रहे थे और समाजवादी पार्टी को आने वाले चुनावों में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता था। पार्टी के रणनीतिकारों ने महसूस किया कि यह अभियान राजनीतिक रूप से हानिकारक साबित हो रहा है और इससे पार्टी की जमीनी स्तर पर छवि खराब हो रही है। मध्यम वर्ग और शहरी मतदाता जो समाचार पत्रों के नियमित पाठक थे वे इस अभियान से नाराज थे।

अंततः समाजवादी पार्टी के नेतृत्व ने धीरे-धीरे इस अभियान से दूरी बनानी शुरू कर दी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इस विषय पर बोलना कम कर दिया। मुलायम सिंह यादव ने स्वयं इस मुद्दे पर कोई विशेष बयान नहीं दिया और अभियान को अनौपचारिक रूप से समाप्त होने दिया गया। पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए गए कि वे इन अखबारों के खिलाफ कोई विरोध प्रदर्शन न करें और मामले को शांत होने दें। कुछ हफ्तों में यह अभियान पूरी तरह से खत्म हो गया और स्थिति सामान्य हो गई।

हालांकि अभियान समाप्त हो गया लेकिन इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव लंबे समय तक रहे। इस घटना ने उत्तर प्रदेश में मीडिया और राजनीति के रिश्तों को प्रभावित किया। यह एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया कि किस तरह राजनीतिक दल मीडिया की आलोचना से नाराज होकर दबाव की रणनीति अपना सकते हैं लेकिन लोकतंत्र में ऐसी रणनीति सफल नहीं होती। इस घटना ने प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को और अधिक रेखांकित किया और यह स्पष्ट हुआ कि लोकतंत्र में मीडिया को सरकार के कार्यों की निगरानी और आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है।

इस अभियान के बाद समाजवादी पार्टी और इन अखबारों के बीच संबंध तनावपूर्ण रहे लेकिन कोई सीधा टकराव नहीं हुआ। अखबारों ने सरकार की निष्पक्ष रिपोर्टिंग जारी रखी और सरकार ने भी सीधे तौर पर इन अखबारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। 2007 में जब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और मायावती के नेतृत्व में बसपा की सरकार बनी। कई राजनीतिक विश्लेषकों ने माना कि हल्ला बोल अभियान जैसे विवादों ने भी समाजवादी पार्टी की हार में योगदान दिया।

यह घटना भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण सबक बनी कि मीडिया के खिलाफ सीधा अभियान चलाना राजनीतिक रूप से हानिकारक हो सकता है। बाद के वर्षों में राजनीतिक दलों ने मीडिया से निपटने के लिए अधिक सूक्ष्म और परोक्ष तरीके अपनाए। हल्ला बोल अभियान प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में याद किया जाता है और यह दिखाता है कि लोकतंत्र में जनता और मीडिया की शक्ति राजनीतिक दबाव से अधिक मजबूत होती है।

• अशोक मधुप

Sunday, December 7, 2025

कुमार साहनी

 कुमार साहनी (1940-2024) भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता के रूप में दर्ज हैं, जिन्होंने अपनी कलात्मक और बौद्धिक दृष्टि से फिल्मों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि चिंतन और अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) या कला सिनेमा (Art Cinema) आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्मों से हटकर, गहन, काव्यात्मक, और अक्सर गूढ़ विषयों पर फिल्में बनाईं। साहनी को भारतीय सिनेमा का “विद्रोही कवि” या “दार्शनिक” कहा जाता है, जिनकी फिल्मों ने दशकों तक दर्शकों और आलोचकों दोनों को चुनौती दी और प्रेरित किया।

​प्रारंभिक जीवन और वैचारिक आधार

​कुमार साहनी का जन्म 1940 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे से फिल्म निर्देशन में शिक्षा प्राप्त की। FTII में, वह प्रख्यात फिल्म निर्माता ऋत्विक घटक के छात्र रहे, जिनकी गहरी वैचारिक समझ और कलात्मक स्वतंत्रता का प्रभाव साहनी के शुरुआती काम पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। साहनी ने केवल निर्देशन नहीं सीखा, बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा, भारतीय शास्त्रीय संगीत, कला इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसने उनके सिनेमाई दर्शन की नींव रखी।
​स्नातक होने के बाद, साहनी को 1960 के दशक के अंत में फ्रांस जाने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने महान फ्रांसीसी निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसों के साथ काम किया। ब्रेसों की Minimalism (अतिसूक्ष्मवाद) और अभिनेताओं के उपयोग की विशिष्ट शैली ने साहनी के सिनेमा को और अधिक परिष्कृत किया। साहनी की कलात्मक दृष्टि ऋत्विक घटक के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थवाद और रॉबर्ट ब्रेसों के औपचारिक अनुशासन का एक अनूठा संगम थी।

​सिनेमाई शैली: कविता, प्रतीक और दर्शन

​कुमार साहनी की फिल्में उनकी अत्यंत व्यक्तिगत और काव्यात्मक शैली के लिए जानी जाती हैं। उनकी फिल्में कथावाचन के पारंपरिक रैखिक तरीके का पालन नहीं करतीं; इसके बजाय, वे प्रतीकों, इमेजरी, और एक विशिष्ट लय पर निर्भर करती हैं। उनकी फिल्मों में अक्सर धीमी गति, लंबा टेक (long takes), और एक ध्यानपूर्ण चुप्पी होती है जो दर्शकों को फिल्म के भीतर के दर्शन को समझने के लिए मजबूर करती है।
​साहनी ने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मिथकों और लोककथाओं से प्रेरणा ली, लेकिन उन्हें एक आधुनिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी फिल्में सत्ता संरचनाओं, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, और व्यक्ति की आंतरिक दुविधाओं पर सवाल उठाती हैं। उनकी शैली को अक्सर “विचारों का सिनेमा” कहा जाता है, जहाँ चरित्र और कथानक से अधिक महत्वपूर्ण वह विचार या अवधारणा होती है जिसे वह व्यक्त करना चाहते हैं।

​प्रमुख फिल्में और योगदान

​साहनी के करियर में फिल्मों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन उनका महत्व बहुत अधिक है।

​’माया दर्पण’ (1972): यह साहनी की पहली फीचर फिल्म थी और इसे भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण शुरुआती कला फिल्मों में से एक माना जाता है। यह एक सामंती पृष्ठभूमि की महिला की निराशा और स्वतंत्रता की लालसा को एक स्तंभित, प्रतीकवादी शैली में दर्शाती है। इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता।

​’तरंग’ (1984): यह फिल्म साहनी के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। यह पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग के शोषण पर केंद्रित है, जिसे एक जटिल और परतदार तरीके से फिल्माया गया है।

​’ख्याल गाथा’ (1989): साहनी की यह कृति भारतीय शास्त्रीय संगीत (विशेषकर ख्याल गायकी) और उसके इतिहास पर एक अर्ध-वृत्तचित्र, अर्ध-काल्पनिक फिल्म है। यह भारतीय संस्कृति के सौंदर्यशास्त्र और उसकी निरंतरता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करती है।

​’कस्बा’ (1991): यह फिल्म चेखव की कहानी पर आधारित है और एक छोटे शहर की नैतिकता के पतन को दिखाती है, जिसमें साहनी की विशेषता वाली सूक्ष्मता और सामाजिक आलोचना निहित है।

​’बवंडर’ (1996): यह उनकी अंतिम फीचर फिल्म थी, जो राजस्थान की एक महिला की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिसने सामंती व्यवस्था और यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

​विरासत और प्रभाव

​कुमार साहनी का काम भारतीय सिनेमा के छात्रों, गंभीर फिल्म प्रेमियों और निर्देशकों की पीढ़ियों के लिए एक पाठ्यपुस्तक जैसा है। वे उन निर्देशकों में से थे जिन्होंने सौंदर्यशास्त्र और राजनीति को एक साथ लाने की हिम्मत की। उनकी फिल्मों को समझना हमेशा आसान नहीं रहा, लेकिन उनकी कलात्मक ईमानदारी और समझौता न करने वाले दृष्टिकोण ने उन्हें एक पंथ का दर्जा दिया।
​साहनी ने केवल फिल्में नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण लेख भी लिखे। उन्होंने हमेशा फिल्मों को एक व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ में देखा, जहाँ सिनेमा अन्य कला रूपों—संगीत, नृत्य, चित्रकला और साहित्य—से संवाद करता है।
​कुमार साहनी का निधन 2024 में हुआ, लेकिन उनका काम भारतीय सिनेमा को लगातार याद दिलाता रहेगा कि सिनेमा केवल एक उद्योग नहीं, बल्कि एक कला, एक दर्शन, और समाज को बदलने की शक्ति रखने वाला माध्यम भी है। वे सही मायने में भारतीय कला सिनेमा के एक स्तंभ थे।




Monday, December 1, 2025

बहुमुखी प्रतिभा का सशक्त चेहरा : फिल्म अभिनेता राकेश बेदी

 राकेश बेदी का जन्म 1 दिसंबर 1954 को दिल्ली में हुआ। वे एक भारतीय फ़िल्म, रंगमंच और टेलीविज़न अभिनेता हैं । उन्हें मुख्यतः मेरा दामाद, चश्मे बद्दूर (1981), और ये जो है ज़िंदगी (1984), श्रीमान श्रीमती (1995) और यस बॉस (1999-2009) जैसी फ़िल्मों में उनकी हास्य भूमिकाओं के लिए जाना जाता है।

बेदी ने अपनी पढ़ाई दिल्ली में पूरी की। उन्होंने दिल्ली के एंड्रयूजगंज स्थित केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाई की। स्कूल के दौरान, बेदी मोनो एक्टिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे। बेदी ने नई दिल्ली के थिएटर ग्रुप पिएरोट्स ट्रूप के साथ भी काम किया है और पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से अभिनय की पढ़ाई की है।
बेदी ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत 1979 में संजीव कुमार अभिनीत फ़िल्म हमारे तुम्हारे में एक सहायक अभिनेता के रूप में की और फिर 150 से अधिक फिल्मों और कई टीवी धारावाहिकों में अभिनय किया। उनकी कुछ सबसे यादगार भूमिकाएँ 1981 की फ़िल्म चश्मे बद्दूर में फारूक शेख और रवि बासवानी के साथ थीं और के. बालचंदर द्वारा निर्देशित एक दूजे के लिए और टीवी सिटकॉम श्रीमान श्रीमती (1995), यस बॉस (1999-2009) में मोहन श्रीवास्तव के रूप में, उनकी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक है और इसके लिए उन्हें बहुत सराहना मिली।
उन्होंने ज़ीक्यू पर एक विज्ञान शो, साइंस विद ब्रेनकैफे की मेजबानी की और मुंबई में थिएटर करना जारी रखा। विशेष रूप से, उन्होंने विजय तेंदुलकर के लोकप्रिय वन-मैन प्ले मसाज में 24 अलग-अलग किरदार निभाए। 2012 में, वह अपने पहले टेलीविजन ड्रामा डेली सोप, शुभ विवाह में दिखाई दिए। 2015 से, वह टेलीविजन शो भाबी जी घर पर हैं! में दिखाई देते हैं!


फिल्म और रंगमंच की दुनिया में राकेश बेदी अपनी सादगी, सहज अभिनय और स्वभाविक हास्य के बल पर दर्शकों के दिलों में विशेष स्थान बनाया। हिन्दी फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों में सक्रिय रहने वाले राकेश बेदी ने अभिनय को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे समाज और मनुष्य की भावनाओं को सहज रूप में व्यक्त करने का माध्यम बनाया। उनकी अभिनय यात्रा चार दशक से अधिक समय में फैली है, जिसमें उन्होंने हर प्रकार की भूमिका निभाई और अपनी अलग पहचान स्थापित की।


यद्यपि राकेश बेदी ने विविध भूमिकाएँ निभाईं, परन्तु हास्य कलाकार के रूप में उन्हें विशेष लोकप्रियता मिली। हिन्दी फ़िल्मों और धारावाहिकों में उनका हास्य कभी भी आक्रामक या असभ्य नहीं रहा, बल्कि सादगी से भरा, सरल और घरेलwपन लिये हुए रहा। उनके संवादों की प्रस्तुति, चेहरे की भाव-भंगिमाएँ और समयानुसार प्रतिक्रिया दर्शकों को सहज ही हँसा देती थी। इसी स्वाभाविकता ने उन्हें हिन्दी सिनेमा की हास्य परम्परा में एक सम्मानजनक स्थान दिय


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थ


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थे।


राकेश बेदी का रंगमंच से विशेष लगाव रहा है। फ़िल्मों और धारावाहिकों के व्यस्त समय में भी उन्होंने नाटकों से दूरी नहीं बनाई। रंगमंच ने उनके अभिनय को माँजने का काम किया। मंच पर वे हर बार नई ऊर्जा, नया रूप और नया अनुभव लेकर आते हैं। उनका मानना है कि रंगमंच किसी भी कलाकार को नई दृष्टि देता है और निरन्तर अभ्यास करवाता है। उनकी अनेक नाट्य प्रस्तुतियाँ आज भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय है!

राकेश बेदी की अभिनय शैली बड़े स्वाभाविक ढंग से दर्शक को छू लेती है। वे पात्र को वही रूप देते हैं, जैसा वह कथानक में दिखता है—न अधिक, न कम। चरित्र निर्माण में उनकी सबसे बड़ी विशेषता है सूक्ष्म अवलोकन शक्ति। वे जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों का उपयोग अपनी भूमिकाओं में करते हैं, जिससे उनका अभिनय जीवंत हो उठता है। उनका चेहरा सहज ही भावना व्यक्त कर देता है और संवादों की प्रस्तुति में भी वे अत्यधिक सरलता बनाए रखते हैं।लम्बे समय से राकेश बेदी भारतीय फ़िल्म और मनोरंजन जगत का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने ढेरों फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों के माध्यम से जो योगदान दिया है, वह अत्यन्त मूल्यवान है। अनेक पुरस्कार और सम्मान उन्हें प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनके अनुसार सबसे बड़ा सम्मान दर्शकों का विश्वास और स्नेह है। वे नवोदित कलाकारों को हमेशा यह सीख देते हैं कि अभिनय केवल प्रतिभा नहीं, बल्कि निरन्तर अभ्यास और अनुशासन का विषय है


राकेश बेदी ने मनोरंजन जगत के संसार में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। वे उन कलाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने कला को बाज़ार की वस्तु नहीं बनने दिया, बल्कि उसे संस्कृतिमय और मानवीय स्पर्श प्रदान किया। उनकी विनम्रता, सहजता और दार्शनिक दृष्टि उन्हें सामान्य कलाकारों से अलग बनाती है। आज भी वे सक्रिय हैं और दर्शकों को उत्कृष्ट मनोरंजन प्रदान कर रहे हैं। निःसन्देह, राकेश बेदी भारतीय अभिनय जगत के उन स्तंभों में से हैं, जिनकी उपस्थिति ने मनोरंजन को सौम्यता और संवेदनशीलता के साथ समृद्ध किया है।

Tuesday, November 25, 2025

अयोध्या जी , बहुत सुलभ हैं रामलला के दर्शन



अशोक मधुप 

वरिष्ठ पत्रकार

रामलला के दर्शन के लिए यदि अयोध्या जी जा रहे हैं तो निश्चित होकर जाएं। ये मानकर जाए कि भगवान के घर जा रहे हैं। उनकी  शरण में जा रहे  हैं। बस फिर किसी चिंता की जरूरत नहीं। दर्शन के लिए किसी की सिफारिश मत कराइए। सीधे  जाइए। दर्शन करिए और 20 से 30 मिनट में दर्शन कर मंदिर से बाहर आ जाइए। हमारा  दावा है  विश्व के किसी भी धर्म के तीर्थस्थल से इससे ज्यादा सुलभ दर्शन कहीं संभव नही हैं। 

राम मंदिर आज हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ  बन गया है। प्रतिदिन 80 हजार से एक लाख भक्त  राम लला के  दर्शन कर उन्हें प्रणाम करते हैं। कई अवसर पर तो ये संख्या डेढ़  लाख से ज्यादा हो जाती है। आज दुनिया भर में बसे लगभग हर  सनातनी के मन में एक ही इच्छा है किसी तरह वह अयोध्या जाकर राम मंदिर के दर्शन कर सके। भगवान राम को शीष  नवाए।  हाल ही में हम पत्रकारों के एक सम्मेलन में अयोध्या जी में थे। रामलला के दर्शनों के लिए आ रही श्रद्धालुओं की भीड़ को देख मेरे एक साथी लखनऊ के  वरिष्ठ  पत्रकार दिनेश शर्मा ने कहा था कि अयोध्या जी  आने वाले समय में हिंदुओं का प्रमुख श्रद्धा का केंद्र होगा। यहां  प्रत्येक हिंदू −  सनातनी  आकर शीश नवाना अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाएगा। शीश  नवाकर अपने को कृतार्थ  मानेगा।

अयोध्या में राम मंदिर बनने  से पहले  कभी श्रद्धालुओं को  संकरी गलियों से गुजरने के बाद टेढ़े मेढ़े और उभर खाबड़ रास्तों से गुजरकर मंदिर तक पहुंचना होता था। आम श्रद्धालुओं के लिए ये यात्रा और कितनी दुरूह रहती होगी, यह समझते बनता है।  इस सबके बावजूद यहां आने वाले  श्रद्धालुओं का उत्साह और जोश देखते बनता था।अब  मंदिर परिसर बन गया। भव्य मंदिर बन गया। 25 नंवबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर पर भव्य ध्वजारोहण करेंगे। भव्य  समारोह होगा। इस आयोजन के प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए दुनिया भर से हजारों प्रमुख व्यक्ति आ रहे है। उम्मीद है कि ध्वजारोहण के दिन अयोध्या में  वीवपीआई पी के एक सौ  के आसपास जेट आएंगे। 

अयोध्या आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु इस बात को लेकर आंशकित होता  हैं, कि इतनी भीड़ में दर्शन कैसे होंगे? पूजा कैसे होगी ? प्रसाद कैसे चढ़ेगा? सब चाहते हैं कि मंदिर आगमन की स्मृति फोटो के रूप में अपने पास सुरक्षित रखें। यहां स्थिति   अन्य मंदिर से बिल्कुल भिन्न  है। यहां  न पूजा की व्यवस्था है,  न प्रसाद चढ़ने का प्रबंध। यहां पूजन कराने वाले पुजारी भी  नही है। यहां  तो  बस  मंदिर आइए।  राम लला के दर्शन  करिए। प्रभु को शीश  नवाइए और बाहर आ जाइए। यहां प्रसाद लेकर जाने की जरूरत नही है। मंदिर की ओर से प्रत्येक श्रद्धालु को प्रसाद मिलता है। मंदिर परिसर में मोबाइल वर्जित है । परेशानी उन्हें होती है जो सुरक्षा कर्मियों की नजर बचाकर मोबाइल  मंदिर में लेकर जाना  चाहते हैं।  सुरक्षा जांच में मोबाइल पकड़ा जाता है। इन मोबाइल ले जाने वालों को लौटकर मंदिर के गेट पर आकर लॉकर  में फोन रखकर फिर दर्शन को जाना  पड़ता है। इस तरह इन्हें अन्य श्रद्धालुओं से एक डेढ़ किलोमीटर ज्यादा चलना होता है। मंदिर में अपना सामान करने के लिए  लॉकर की व्यापक व्यवस्था है, किंतु इस काम में लगभग  आधा घंटा लग जाता  है। अच्छा यह है कि अपना पर्स, लैदर की बैल्ट, मोबाइल और कैमरा  अपने कमरे पर छोड़ कर आए। अपनी आईडी और जरूरत के लिए रुपये अपनी जेब में रखलें । हमने ऐसा ही किया । इससे मंदिर के लॉकर में सामान जमा करने का हमारा आधे से एक घंटा बच गया।  हम दर्शन कर  20 से 25 मिनट में मदिर से बाहर आ गए। व्हील चेयर लेने वालों और दिव्यांग के लिए तो और सुविधा है।  उनका जाने का रास्ता अलग से है।  

भारत के उत्तर-प्रदेश राज्य में स्थित अयोध्या, जो पारंपरिक रूप से एक अलग त्वरित तीर्थ-नगर थी, अब आधुनिकता और भक्ति के संगम का उदाहरण बनती जा रही है। खास कर राम जन्मभूमि (जिसके अंतर्गत राम मंदिर का निर्माण हुआ) के बाद इस नगर में बड़े पैमाने पर विकास कार्य चल रहे हैं।   ये कार्य सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। यहां 15− 16 करोड़ के करीब यात्री अब प्रतिवर्ष  आने लगे हैं। आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ेगी ही। इस बढ़ती संख्या ने होटल, गेस्ट-हाउस, परिवहन-सेवाएँ, स्थानीय व्यापार व स्मृति-चिंतन (souvenir) उद्योग को गति दी है। अतः अयोध्या अब सिर्फ भक्ति-की जगह नहीं बल्कि एक सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था (हॉस्पिटैलिटी, रिटेल, परिवहन) का केन्द्र बनती जा रही है। इस प्रकार मंदिर-के पश्चात् अयोध्या की पहचान बदल रही है। अब अयोध्या  “भक्ति नगर” से “भक्ति + विकास नगर” की ओर  बढ़ रही है।विकास-यात्रा में पहुँचना और सहज अनुभव देना अहम है। इसलिए अयोध्या में कई बुनियादी संरचना-परियोजनाएँ लाई गई हैं।

एयर-कनेक्टिविटी के लिए महर्षि वाल्मीकि अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा का निर्माण हुआ है। इसमें आने वाले चरणों में टर्मिनल विस्तार व रनवे विस्तार भी शामिल है। अयोध्या में  रेलवे स्टेशन व आधुनिकीकृत सड़कें बनायी गई हैं। अयोध्या धाम रेलवे स्टेशन  विश्व का श्रेष्ठतक  रेलवे स्टेशन बनाने का  प्रयास है। यहां  यात्रियों के लिए तीन सौ के आसपास डार्मेट्री और कुछ रिटायरिंग रूम बनाये गए हैं। अन्य काम जारी है।

राम मंदिर के आसपास के तीर्थ स्थलों के  लिए  पैदल जाने के लिए मार्ग विकसित किया जा रहा है ।  इसे भक्ति पथ  नाम दिया गया यह मार्ग, रामपथ से निकलता हुआ मंदिर के आसपास श्रद्धालुओं के चलने-वाले हिस्सों को सजाता है एवं पैदल यात्रियों के लिए खास व्यवस्था करता है।  इसमें दुकानों-घरों को अलग रंग-रूप दिया गया है। भक्ति पथ वाले हिस्सों में ‘सफ़ेद एवं भोरका’ रंग के बजाय एक विशिष्ट सजावट का उपयोग हुआ है। भक्ति पथ मंदिर-मार्ग के उन हिस्सों को सूचीबद्ध करता है जहाँ पैदल-यात्रा अधिक होती है, अतः इस तरह से इसका उद्देश्य अभ्यागतों को आरामदायक एवं सुरक्षित चलने-वाले मार्ग देना है।

राम मंदिर तक पंहुच के मार्ग का नाम राम पथ दिया गया है।यह एक प्रकार से रिंग रोड जैसा है।इस मार्ग  को भव्य रूप दिया जा रहा। यह मार्ग लगभग 13 किलोमीटर लंबा है और प्रमुख रूप से सहादतगंज से लेकर नया घाट (या नायाघाट) तक जाता है। इस मार्ग के दोनों किनारों पर दुकानों-घरों की एकरूप रूप से मरम्मत एवं पेंटिंग की गई है। सभी को एक समान रंग-रूप में सजाया गया है। सड़क को चौड़ा किया गया है और मुख्य रूप से 40 फीट या उससे अधिक चौड़ाई वाला बना कर बनाया गया है ताकि भीड़-भाड़ व आने-जाने में आराम हो सके। लाईटिंग-सिस्टम, फावड़े-प्लांटर्स, पेड़-पौधे, फुटपाथ, मिडियन में धार्मिक प्रतीक-स्तंभ जैसी सुविधाएं लगाई गई हैं। स्थानीय प्रशासन ने श्रद्धालुओं के लिए इस मार्ग पर गोल्फ कार्ट  (इलेक्ट्रिक बग्गी)  चलाई है। इसका प्रतियात्री किराया 20 रुपया रखा गया है।इस किराए के से आप इस मार्ग के किसी भी स्थान तक  जा सकतें हैं।इन सरकारी गोल्फ कार्ट   के कारण ई−रिक्शा चालक भी मनमाने दाम नही वसूल कर पाते।

पुरानी परंपरा के हिस्से के रूप में 84 कोसी परिक्रमा मार्ग को श्रद्धा-परिक्रमा मार्ग नाम दिया गया है। इसे राष्ट्रीय राजमार्ग −  का दर्जा  (एनएच-227B) मिला है । इससे अयोध्या और आसपास के तीर्थस्थलों का जुड़ाव बढ़ा है। इसको भी भव्य रूप दिया  जा रहा है। इसके पुलों और फ्लाई ओवर के दोनों ओर भगवान राम के जीवन से संबधित झांकी बनाई  जा रही है । नगर के बीच से एक पंचकोसी प्रतिक्रमा के विकास पर भी काम चल रहा है।

इन परिवहन सुधारों से न केवल तीर्थ-यात्रियों की सहजता बढ़ी है बल्कि स्थानीय व्यापार-संवाद व रोजगार-अवसरों में भी इजाफा हुआ है। आधुनिक विकास सिर्फ बड़ी इमारतें या सड़कें नहीं बल्कि बेहतर जीवन-मान और पर्यावरण-संगत विकास भी है। अयोध्या में इस दिशा में कई कदम उठाए गए हैं। अयोध्या को ‘मॉडल सोलर सिटी’ घोषित किया गया है। ४० मेगावाट का सौर संयंत्र सरयू नदी के किनारे स्थापित किया गया है। इससे शहर की मांग की लगभग २५-३० प्रतिशत ऊर्जा पूरा हो रही है।  यहां ५५० एकड़ के “नव्या अयोध्या” टाउनशिप का विकास हुआ है, जिसमें स्मार्ट बिजली-डक्स, भूमिगत नाली-प्रणाली है। सरयू नदी के घाटों का सौंदर्यीकरण व लॉन्ग वॉक-वे बनाए गए हैं, जिससे पर्यटक अनुभव बेहतर हुआ है। सरयू घाट की आरती देखने को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रोड उमड़ती है। इस आरती को देखने का  अभी सही प्रबंध  नही है। उसे बनाने की जरूरत है।बड़े बड़े टीवी भी इसे देखने के लिए लगाए  जा  सकते  हैं। इनसे श्रद्धालु सरयू किनारे कहीं भी बैंच या फर्श  पर बैठकर आराम से आरती देख ले।   


मंदिर-के बाद अयोध्या में अब सिर्फ दर्शन तक सीमित नहीं रही बल्कि सांस्कृतिक और अनुभव-आधारित पर्यटन पर भी ध्यान गया है। नए संग्रहालय व सांस्कृतिक केंद्र  बनाएं जा रहे हैं। मंदिर परिसर के आस-पास संग्रहालय, रामायण अध्ययन संस्थान जैसी योजनाएं चल रही हैं। 

उत्सव व कार्यक्रम को रोचक बनाया जा रहा है। दीपोत्सव में लाखों दीये, ड्रोन-शो आदि का आयोजन हुआ है जो सिर्फ स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण बना है। पारंपरिक हस्तशिल्प व पर्यटन-वस्तुओं को बढ़ावा मिल रहा है। इससे स्थानीय कारीगरों को नए −नए अवसर मिल रहे हैं। 

राम मंदिर के बाद अयोध्या में जो विकास गति पकड़ी है, वह सिर्फ पूजा-पथ नहीं बल्कि समृद्धि-पथ है। तीर्थयात्रा से बढ़कर यह अब अनुभव-और-उद्यम-नगर बनता जा रहा है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि यह विकास वैश्विक दर्जे का होने के साथ-साथ स्थानीय अनुभव-सक्षम और पर्यावरण-अनुकूल भी बने। 

अयोध्या का  प्राचीन समय नाम साकेत है। साकेत भगवान राम के समय का भव्य नगर । आज का  नगर उससे भी  विशाल आकार ले रहा है। भगवान राम के साकेत( अयोध्या  जी) पर महाकवि मैथिलीशरण गुप्त का काव्य   साकेत की ये पंक्तियां इस नगर का भव्य चित्रण करती हैं।−

देख लो, साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। 

केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे।

सोहती हैं विविध-शालाएँ बड़ी; छत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ी। 

गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी, छोड़ती हैं छाप, जो उन पर पड़ी! 

स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बने,इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तने। 

देव-दंपती अट्ट देख सराहते; उतरकर विश्राम करना चाहते। 

फूल-फलकर, फैलकर जो हैं बढ़ी, दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ी

पौरकन्याएँ प्रसून-स्तूप कर, वृष्टि करती हैं यहीं से भूप पर। 

फूल-पत्ते हैं गवाक्षों में कढ़े, प्रकृति से ही वे गए मानो गढ़े। 

दामनी भीतर दमकती है कभी, चंद्र की माला चमकती है कभी। 

सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले,प्रेम के आदर्श पारावत पले। 

केश-रचना के सहायक हैं शिखी, चित्र में मानो अयोध्या है लिखी !

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक राधेश्याम कथावाचक

 न्म: 25 नवंबर 1890, बरेली, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 26 अगस्त 1963 (लगभग 73 वर्ष की आयु)

भारतीय धार्मिक कथा परंपरा में अनेक वक्ताओं ने अपनी वाणी, विद्वता और मनोहर प्रस्तुति से जन-मानस को प्रभावित किया है, लेकिन जिन कुछ नामों ने कथा-शास्त्र को नयी गरिमा और व्यापक लोकप्रियता प्रदान की, उनमें राधेश्याम कथावाचक का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने केवल कथा सुनाई नहीं, बल्कि उसे जीवंत कर दिया। उनके कथन में अध्यात्म की गहराई, भक्ति की सुवास, साहित्य की मधुरता और संस्कृति की जड़ों से निकली निष्कपट सरलता एक साथ दिखाई देती है। वे कथा को मनोरंजन या प्रवचन मात्र नहीं, बल्कि भाव-जागरण, सामाजिक सुधार और आत्म-चिंतन का माध्यम मानते थे। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें अपने समय का अत्यंत प्रभावशाली कथावाचक बनाया।

राधेश्याम कथावाचक प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक थे जिसमें रामायण, भागवत पुराण, शिवपुराण और देवी भागवत जैसी महान ग्रंथों का सरस वर्णन होता है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे शास्त्रों की विद्वता को सरल भाषा में ढालकर आम जन तक पहुँचाने में सर्वथा सक्षम थे। सामान्य जन वेद-पुराणों के गूढ़ सिद्धांत आसानी से नहीं समझ पाते, परंतु राधेश्याम जी उन्हें रोज़मर्रा के उदाहरणों, जीवंत उपमाओं और सहज संवाद शैली में खोलकर प्रस्तुत करते थे। इसीलिए उनकी कथाओं में न केवल बुजुर्ग, बल्कि युवा वर्ग भी बड़ी संख्या में सम्मिलित होता था।

कथावाचन की कला में स्वर, भाव और पात्र-अभिनय अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। राधेश्याम कथावाचक इन तीनों तत्वों में निपुण थे। उनका स्वर इतना मधुर और भावपूर्ण था कि कथा की प्रत्येक घटना सुनने वालों के हृदय पर सीधी छाप छोड़ती थी। वे किसी प्रसंग को केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे पूरी आत्मा से जीते थे। जब वे राम वनवास का दृश्य सुनाते, तो ऐसा लगता मानो अयोध्या का समूचा वातावरण श्रोता सभा में उतर आया है। जब वे कृष्ण की बाल लीलाएँ वर्णित करते, तो बच्चे तक मंत्रमुग्ध हो जाते। कथा के विभिन्न पात्रों—जैसे कौशल्या, जनक, सीता, हनुमान, पात्र, गोपियाँ—के संवाद वे अलग-अलग आवाज़ और भाव से प्रस्तुत करते, जिससे दर्शकों को ऐसा लगता मानो वे स्वयं उस दृश्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हों।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का एक प्रमुख आकर्षण था उनका गहरी आध्यात्मिक अनुभूति से भरा हुआ दृष्टिकोण। वे केवल घटनाओं का वर्णन नहीं करते थे, बल्कि उनके भीतर छिपे चिरंतन संदेश को उजागर करते थे। उदाहरण के लिए, रामायण के प्रसंगों में वे बताते कि राम का चरित्र एक आदर्श पुरुष के रूप में क्यों महत्वपूर्ण है, उनकी नीतियाँ आधुनिक जीवन में क्या संदेश देती हैं, और कैसे उनके आचरण से वर्तमान सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। इसी प्रकार भागवत कथा में वे कृष्ण की लीलाओं में छिपे प्रेम, करुणा, समर्पण और धर्म-आधारित जीवन की शिक्षा पर विशेष बल देते थे। उनकी कथा में उपदेश नहीं, बल्कि अनुभूति होती थी; इसलिए लोग संदेश को सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे।

कथावाचन में उनका एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी था कि वे धार्मिक ग्रंथों को सामाजिक मूल्यों और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ते थे। उनका मानना था कि कथा का लक्ष्य केवल भक्ति जगाना नहीं, बल्कि समाज को सजग, नैतिक और संस्कारित बनाना भी है। इसलिए वे कथा के माध्यम से नशा-मुक्ति, शिक्षा, स्त्री-सम्मान, परिवार की एकता, युवा-सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी सहजता से जोड़ देते थे। वे कहते थे कि धर्म वही है जो समाज को उन्नति की ओर ले जाए, और अध्यात्म वह है जो मनुष्य को विनम्र और संवेदनशील बनाए।

राधेश्याम जी की कथाओं की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, वहाँ हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ग्रामीण क्षेत्र हो या महानगर, मंदिर हो या मैदान—हर जगह उनकी कथा सुनने वालों का उत्साह एक जैसा रहता था। वे मंच पर आते ही अपनी मधुर वाणी और सौम्य व्यक्तित्व से ऐसा वातावरण बना देते थे कि लोग कथा समाप्त होने तक अपनी जगह से हिलना भी नहीं चाहते थे। उनकी कथा की विशेषता यह भी थी कि वे दर्शकों के साथ गहरा संवाद स्थापित करते थे। वे बीच-बीच में श्रोताओं से प्रश्न पूछते, उदाहरण साझा करते और उन्हें आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करते।

उनके व्यक्तित्व का एक और अद्भुत पक्ष था उनकी सरलता और विनम्रता। लोकप्रियता के शिखर पर रहने के बावजूद वे स्वयं को एक साधारण कथाकार ही मानते थे। वे कहते थे कि “कथा मेरा नहीं, भगवान का काम है। मैं तो केवल माध्यम हूँ।” इस विनम्रता ने उन्हें और भी अधिक प्रिय बना दिया था। लोग उन्हें कथा-वाचक से अधिक एक सच्चे संत के रूप में देखते थे।

कथावाचन की परंपरा में राधेश्याम कथावाचक का स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने नई पीढ़ी के कथाकारों को प्रशिक्षित किया। वे अपने शिष्यों में कथा के शास्त्रीय स्वरूप के साथ-साथ उसकी सामाजिक और भावनात्मक संवेदना भरते थे। उनका जोर रहता था कि कथाकार केवल वक्ता न बने, बल्कि समाज के लिए एक पथ-प्रदर्शक हो। आज अनेक युवा कथाकार उनके मार्गदर्शन से प्रेरणा लेकर मंच पर सक्रिय हैं।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का सबसे बड़ा आधार उनकी साधना और धार्मिक अनुशासन था। वे प्रतिदिन नियमित पूजा, ध्यान और शास्त्र अध्ययन करते थे। वे मानते थे कि कथाकार की वाणी तभी प्रभावशाली हो सकती है जब उसका जीवन भी उतना ही पवित्र और संयमित हो। उनके जीवन की यह अनुशासनप्रियता उनकी कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती थी। यही कारण था कि वे कथा सुनाते समय केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे, बल्कि अनुभव की गहराई भी साझा करते थे।

उनके जीवन की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने कथा को आधुनिक तकनीक और मंचीय शैली के साथ भी जोड़ा। वे नई पीढ़ी की रुचियों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुति शैली में छोटे-छोटे बदलाव लाते, लेकिन कथा की शास्त्रीयता से कभी समझौता नहीं करते थे। उनके प्रवचनों की वीडियो रिकॉर्डिंग, ऑनलाइन प्रसारण और डिजिटल संग्रह आज भी लाखों लोगों तक पहुँच रहे हैं।

राधेश्याम कथावाचक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कथा केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना है। यह मनुष्य के भीतर छिपे दिव्य गुणों को जगाने का माध्यम है। उनकी कथाएँ सुनकर असंख्य लोगों के जीवन में परिवर्तन आया—किसी ने नशा छोड़ा, किसी ने परिवार को संभाला, किसी ने सेवा का मार्ग चुना और किसी ने धर्म का सही स्वरूप समझा। यही एक महान कथावाचक की पहचान है कि उसकी कथा मंच पर समाप्त नहीं होती, बल्कि लोगों के जीवन में उतरकर अपना प्रभाव छोड़ती है।

आज भी राधेश्याम कथावाचक की विद्वता, आत्मीयता और आध्यात्मिक गहराई कथाकारों के लिए आदर्श है। उन्होंने कथा-वाचन को एक नया आयाम दिया, उसे समाजोसुधारक शक्ति से जोड़कर उसे जीवंत बनाया। उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों तक प्रेरणा बनकर पहुँचेगा, क्योंकि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कथा केवल इतिहास का बयान नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का मार्ग भी है।

इस प्रकार, राधेश्याम कथावाचक भारतीय कथा परंपरा के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं जिन्होंने अपनी वाणी, सरलता, आध्यात्मिक शक्ति, सामाजिक चेतना और अनोखी प्रस्तुति शैली से कथा को नया जीवन दिया। उनका जीवन संदेश देता है कि जब वाणी साधना से जुड़ती है, तो वह केवल सुनने वालों को आनंद ही नहीं देती, बल्कि उन्हें आंतरिक रूप से बदल देती है। यही राधेश्याम कथावाचक की अमूल्य विरासत है, और यही उन्हें भारतीय अध्यात्म और कथा-साहित्य की दुनिया में अमर बनाती है।

पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर, 1890 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में हुआ था। उनका जन्म बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था, उनके पिता का नाम पंडित बांकेलाल था।

उनके परिवार की आर्थिक स्थिति प्रारंभ में बहुत साधारण थी। उनके कच्चे घर में गरीबी थी, और बचपन में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। हालांकि, उनके पिता को नाटकों, भजन-गायकियों की परंपरा की समझ थी, और इसी के चलते राधेश्याम को संगीत, गायन और नाटक की दुनिया में शुरुआती रूचि मिली।

बचपन से ही नाटकीय और लोक गायन-शैली के वातावरण में पले-बढ़े थे। बरेली में नाटक कम्पनियाँ (पारसी थिएटर कंपनियाँ) उनके इलाके के “चित्रकूट महल” नामक स्थान में रिहर्सल के लिए रुकती थीं, और राधेश्याम वहाँ के संगीत-रागों और गायन से काफी प्रभावित हुए।हारमोनियम बजाना और गायन उन्होंने अपने पिता और नाटक कंपनियों के कलाकारों से सीखा था।उनकी रामकथा (राधेश्याम रामायण) खास शैली में लिखी गई — लोक-नाट्य ढंग और “तर्ज़ राधेश्याम” नामक छंद में।उनकी लेखन शैली और संगीत समझ उनकी आत्म-अध्ययन, संगीत-अनुभव और लोक परंपरा के गहरे जुड़ाव से आई थी — वे मात्र कथावाचक नहीं, बल्कि नाटककार, पद्यकार और संगीतकार भी थे।


पंडित राधेश्याम कथावाचक का निधन 73 साल की आयु में 26 अगस्त, 1963 को हुआ था।राधेश्याम कथावाचक ने रामायण को खड़ी बोली में 25 खंडों में पद्य के रूप में लिखा, जिसे आज “राधेश्याम रामायण” के नाम से जाना जाता है और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय हुआ।उनके लेखन, कथावाचन और नाट्यकला में पारसी रंगमंच शैली का बहुत बड़ा असर था। उन्होंने अपने जीवन में करीब 57 पुस्तकें लिखीं और अनेक पुस्तकों का संपादन किया। कथावाचन और मंचीय काम में उनका लगभग 45 वर्षों का सक्रिय योगदान रहा।