Wednesday, October 21, 2015

व‌िजयदशमी

व‌िजयदशमी 
कल विजयदशमी है। दशहरा का पर्व। बचपन से जवानी तक इस पर्व को मनाने का बेइतहां  इंतजार रहता था।
आठ दस दिन पूर्व से रामलीला शुरू हो जाती। उससे पहले उसकी रिहर्सल शुरू होती। दिन छिपे से कई- कई घंटे तक अभ्यास चलता। डाईलॉग बोलना ,एकट‌ि्ंग  कराना सीनियर द्वारा सिखाया जाता। दशहरा के अगले दिन भरत मिलाप के जुलूस के साथ  रामलीला खत्म हो जाती।  उसके बाद शुरू होता नाटकों के मंचन का दौर। उनकी रिहर्सल चलती।
भरत  मिलाप के जुलूस में अखाड़े निकलते। कलाकार उसमें अपनी कला का प्रदर्शन करते। कोई लाठी केे करतब ‌दिखाता। कोई  बरैटी घुमाता। तलवार चलाना तो बस किसी -किसी के बस की बात होती। अखाड़ों में अलग -अलग तरह के करबत  दिखाने के लिए युवाओं को काफी पहले से तैयार किया जाने लगता। अखाड़े एक तरह की युद्ध कला स‌िखाना था। युवाओं को जरूरत के लिए तैयार करने , युद्ध के लिए   शिक्ष‌ित करने का माध्यम। दशहरा आने से पहले का 15- 20 दिन का समय बहुत व्यस्त ‌होता युवा और बच्चों के लिए। रात की रामलीला के लिए तो बड़ा अभ्यास करना होता था।
 जिनको रात की लीला में रोल करने का  मौका न मिलता।  उनकी कोशिश होती ‌कि दिन की लीला में ही कोई पार्ट मिल जाए। राम की बानर और रावण  की राक्षस सेना में तो उन्हें भी जगह मिल जाती थी, जिन्हें कुछ नहीं करना होता था । बानर सेना में मुंह लाल रंगवाकर और लाल कपड़े पहन कमर में पूंछ लगवानी होती। रावण की सेना की पहचान काले चेहरे नीला कोट और बड़ी बड़ी मूंछ होती। 
दिन की रामलीला के कलाकारों का रात की लीला के कलाकारों जैसा रूतबा तो नहीं होता था। किंतु राम बारात, भरत मिलाप के जुलूस में दिन के कलाकारों को ही मौका मिलता । जुलूस के दौरान भक्तों द्वारा उनकी  खूब खातिरदारी होती। कुछ भक्त तो राम -सीता -लक्ष्मण  और हनुमान के चरण पूजते।क्या समा होता‍?
अब तो रामलीला स्क्रीन पर दिखाई जाने लगी। रामलीला का युग गया। टीवी आ जाने के बाद रामलीला देखने वालों का टोटा हो गया। परिणाम हुआ कि स्टेज के कलाकार खत्म होने लगे। किसी की रंग मंच में रूचि नहीं रही। नई प्रतिभाएं इस क्षेत्र में आनी बंद हो गईं। रामलीला और नाटक के देखने वाले जब नही रहे,तो कलाकार किसके लिए अभ्यास करें।
अखाडे भी अब परम्परा निभाने के ल‌िए ही रह गए। नए कलाकार भी इधर नहीं आ रहे। लाठी और तलवार का युग रहा नहीं। तो इनमें लोगों को रूचि भी नही रह गई। अब कुछ रह गया तो रस्म पूरी करना ही है।
दशहरा पूजन के बाद दशहरा मेले में जाने से पूर्व  नील कंठ देखने की परंपरा थी। दशहरा पूजने के बाद पर‌िवार के पुरूष नीलकंठ देखने जंगलों में निकल जाते। दशहरा पूजन के बाद नील कंठ देखना शुभ संमझा जाता था। अब तो दशहरा पूजन के बाद नील कंठ देखने निकलना सपनों की बात रह गई। अखबारी जिंदगी में दशहरा पूजन भी भागदौड़ में ही होता। सवेरे की मी‌ट‌िंग और मुख्यालय की रिपोर्ट‌िंग की प्रक्रिया और शाम केेेे समाचार भेजने की आपाधापी में नीलकंठ को देखने जंगल में यार दोस्तों के साथ जाना तो एक मृग मरीचिका बन गया। दशहरा मेला देखना जीवन यात्रा में कब छूट गया , पता ही नही चला।   
अशोक मधुप
www.likhadi.blogspot.in

1 comment:

kuldeep thakur said...

जय मां हाटेशवरी...
अनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 11/10/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।