Tuesday, January 25, 2011

राष्ट्रीय मतदाता दिवस

आज राष्ट्रीय मतदाता दिवस है। चुनाव आयोग के निर्देश पर देख भर में रैली निकालकार और इेंेश्तहार पोष्टर आदि के द्वारा मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान चलाया जाएगा। मतदाताओं को शपथ दिलाई जाएगी कि वह जागरूक हों और निर्भिक होकर देश के विकास के लिए योगदान करें।
देश का लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदाता का महत्वपूर्ण स्थान है। उसके मत के द्वारा प्रदेश और केंद्र की सरकार बनती है। वही आम आदमी को विधान सभा और संसद का सदस्य बनाकर प्रदेश और केंद्र के सर्वोच्च सदन में बैठाता है।
विधायक और सांसद बनाने का उसका अभिप्रायः यह है कि वह जाकर अपने क्षेत्र के विकास की योजना बनवा कर उनका लाभ मतदाता तक पंहुचना सकें। क्षेत्र में शिक्षा ,स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर पैदा कराने के लिए काम करें। गांव गांव तक स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था कराना और सड़कों का जाल बिछाना भी, बिजली की उपलब्धता उनके कार्य क्षेत्र का हिस्सा है। उसके यह कार्य भी है कि वे व्यवस्था बनवाएं कि उनके क्षेत्र में ठंड ,भूख और उपचार के अभाव में किसी की मौत न हो। इसके लिए शासन ने
विधायक और सांसद निधि की व्यवस्था भी की। हुआ इसका उल्टा, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि अपने को सरकार समझ बैठे और क्षेत्र के विकास एवं नागरिकों के विकास की जगह अपना पेट भरने और परिवार , रिश्तेदार नाती पोती का विकास कराने उनकी बेरोजगारी मिटाने में लग गए। विधायक और सांसद निधि उनके अपने लिए प्रयुक्त होने लगी। अधिकांश नेताओं ने स्कूल खोल लिए और
विधायक और संसद निधि से उनका विकास करने लगे। क्षेत्र के विकास की प्राथमिकता गौण हो गई। अपने और अपने परिवार का विकास आगे आ गया। क्योंकि नेता ने मान लिया कि अब पांच साल तक वह कहीं जाने वाला नहीं है। इसके बाद का पता नही अतः जितना अपना विकास संभव हो कर लिया जाए। संविधान बनाते समय हमने यह नहीं सोचा कि यदि हमारा जनप्रतिनिधि नाकारा निकल जाए या अपराध में लग जाए, जन विरोधी काम करने लगे तो उसे वापस बुलाया जा सकें। यदि यह व्यवस्था होती तो आज जितनी गंदगी राजनीति में आई है, इतनी शायद न आ पाती। देश में फैले भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद से आज आम आदमी निराश हुआ है। बेइमानी रिश्वत खोरी के आगे उसकी समस्यांए नजर अंदाज हो रही हैं। सड़के बिल्डिंग पुल बनते बाद में है,टूट पहले जाते हैं। गुंडो बेइमानों मवालियों के सत्ताधारियों से गठजोड़ और अपनी सही समस्या का निदान न होते देख उसने वर्तमान हालात को अपनी नियति समझ लिया और निराश होकर घर बैठना बेहतर समझा। वह देखता है कि चुनाव होने से कोई फर्क नहीं पड़ना। सांपनाथ की जगह नागनाथ को ले लेनी है। बेरोजगारी भ्रष्टाचार ऐसे ही बने रहेंगे जैसे है। तो फिर क्यों वोट डाला जाए।
आज देश का आम नागरिक अपनी समस्या से जूझ रहा है और वोट देने को वह फालतू का काम मानता है। यही नहीं उच्च सेवाओं नौकरियों एंव उद्योगों में कार्य करने वाले वोअ डालने के दिन को घर में रहकर आराम करने के दिन के रूप में मनाना जयादा बेहतर समझते हैं। ये सम रहे है कि इनके वोट देने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
ऐसे निराशा के माहौल में इन प्रकार के आयोजन एक सरकारी आयोजन ही बनकर रह जाते हैं। आम आदमी की भागीदारी नही हो पाती।
अशोक मधुप

Sunday, January 23, 2011

नीरा यादव को जेल और पुरानी कहानी


उत्तर प्रदेश की प्रमुख सचिव रही नीरा यादव को नौयडा के जमीन घोटाले में हाल में चार साल की सजा हुई है। वर्तमान में वे तीन चार दिन जेल में रहकर जमानत पर छूट आई है। जेल में उनकी रात बड़ी कष्ट कर गुजरी हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उनकी पहली पूरी रात बड़ी बैचेनी के साथ गुजरी। बेशकीमती बिस्तर में सोने वाली और सुखसुविधाओं में रहने वाली नीरा यादव को ओ़ने के लिए मात्र तीन कंबल दिए गए । खाने में शलजम की सब्जी और सूखी रोटी मात्र से काम चलाना पड़ा। नीरा यादव जिस अपराध के लिए सजा काट रही है। वह उनका अकेले का अपराध नहीं है। उन्होंने कुछ बड़े नेताओं ,अधिकारियों को खुश करने और अपने परिचितों तथा परिवारजनों को लाभ पंहुचाने के लिए ऐसा किया है। अकेले अपने लिए ही नहीं किया। किंतु अपराध की सजा अकेले उन्हें ही भोगनी पड़ रही हैं। जिनके लिए अपराध किया वे सुख से मस्ती मार रहें है। उनकी इस यात्रा का उनमें से कोई साथी नही रहा जिनके लिए यह घोटाला किया गया। सतयुग के बारे में कथा प्रचलित है कि एक डाकू था, जो आने जाने वालों को लूटता था। एक दिन उसने उधर से गुजरते एक साधु को लूटना चाहा तो साधु ने कहा कि लूट तो लो किंतु एक काम करो कि जिन परिवारजनों के लिए तुम यह अपराध कर रहे हो उनसे एक बार पूछ तो आओ क्या वह भी तुम्हारे पाप के भागी होंगे। डाकू ने परिवार जनों से पूछा तो उन्होंने पाप में साझीदार होने से साफ मनाकर दिया। यह सुन डाकू की आंख खुल गई । उसने लोगों को लूटना छोड़ दिया । वहसाधु बन कर तपस्या और ध्यान में लग गया। बाद में वह बहुत बड़ा विद्वान हुआ। अनेक महत्वपूर्ण रचनांए लिखी।
सतयुग को बीते कई हजार साल बीत गए किंतु उस समय की डाकू से साधु बनने वाली कथा आज भी सही बैठती है। हम गलत काम करते यह नहीं सोचते कि हम जिनके लिए कर रहे है,वे हमारे पाप के कितने भागीदार होंगे। उसके लिए दंड तो हमें ही भुगतना पड़ेगा। बेईमान, रिश्वतखोर का लांछन हमें ही उठाना होगा। अगर नीरा यादव ने डाकू से साधु बनने की कहानी को ध्यान दे लिया होता तो शायद वे यह गलती न करतीं।
बहुत पहले की बात है मेरा बड़ा बेटा जो अब इंजीनियर है,उस समय दस ग्यारह साल का रहा होगा। उसने अपनी मां से कहा कि पड़ौसी अकेले कमाते है किंतु उनके पास रंगीन टीवी और बाइक है। आप दोनों नौकरी करते हो हमारे पास यह सुविधांए क्यों नहीं। मैने दोनों बच्चों से कहा कि क्या जो दूसरे करते है, मै भी वहीं करुं। बड़ा तो शांत नजर झुकाए पावं के अंगूठे से जमीन कुरेदता रहा, कितुं उससे तीन साल छोटे बेटे ने उत्तर दिया। पापा हम इससे भी खराब हालत में रह लेंगे किंतु हम यह नहीं चाहेंगे कि कोई हमारे बाप को चोर रिश्वतखोर कहे।
यह बात लगभग बीस साल पुरानी हो गई। इस दौरान वक्त बहुत आगे आ गया। नदियों का प्रवाह बहुत बहुत आगे निकल गया । सूरज का तेज कुछ कम हुआ तो तिमिर कुछ और ब़ा। भौतिकवाद का प्रवाह समाज में छा गया। धन गया गया कुछ नहीं गया ,स्वास्थ्य गया कुछ जाता है, सदाचार जिस नर का गया कि कहावत अब गौण हो गई। युवा पी़ी के मिथक बदल गए। रोज नए घोटाले और बेइमानी के किस्से प्रकाश में आने लगे तो युवा पी़ी उसे हकीकत मानने लगीं। पहले आप के सम्मान की बात करने वाले बच्चे अब कहते है कि क्या बिगड़ता है किसी का। रोज नए से नए घोटाले हो रहें है। जेल की नौबत आती है तो डाक बंगलों को जेल में बदल दिया जाता है। बेइमानी करने वाले को थोड़ी बहुत परेशानी भले ही हो उनके परिवार तो सुखी है। क्या बिगड़ रहा है किसी का दशकों बीत जाते हैं मुकदमों के निर्णय नही आते। और लोअर कोर्ट से सुपरिम कोर्ट तक का सफर बहुत बड़ा है।
नीरा यादव हो या सत्यम में घोटाला करने वाले उसके संस्थापक रामलिंगम राजू अपनी करनी के लिए जेल अपमान , परेशानी उन्हीं को झेलनी पड़ रही है, जिनके लिए गलती और घोटाले किए , वे आराम से हैं। काश बेइमानी की और कदम ब़ाते समय आदमी कुछ देर को उसका परिणाम सोच ले तो ऐसा करे ही नहीं। किंतु लगता यह है कि हर बेईमान अपने को अमर मान कर हजारों साल सुख चैन से रहने का प्रबंध करने में लगा है।

अशोक मधुप

Saturday, January 8, 2011

कोठी में मोर

देश का राष्ट्रीय पक्षी मोर जंगलों से भी गायब होता जा रहा है, ऐसे में शहर में मोर के होने की बात पर यकीन नही होता। किंतु बिजनौर शहर में एक कोठी ऐसी भी है, जिसमें मोर रहते ही नहीं, बल्कि स्वच्छंद विचरण करते और अपनी प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते हैं। यह जिलाधिकारी की कोठी है, जिसमें शाम के समय मोरों को नाचते देखना बिजनौर के लोगों के लिए आम बात है ।

मोर की आबादी बदलते पर्यावरण, जंगलों और वनों के कम होते क्षेत्र और उसमें बढ़ती इनसानी दखल अंदाजी के कारण घटती जा रही है। प्रतिबंध के बावजूद मोरों का शिकार जारी है। पर्यावरणविद मानते हैं कि अगर यही हाल रहा, तो आनेवाले समय में मोर किताबों में ही रह जाएंगे।

ऐसे मुश्किल दौर में बिजनौर के जिलाधिकारी की कोठी में मोरों का संरक्षण बड़ी बात है। लेकिन ये मोर पालतू नहीं हैं। ये अपने आप यहां विचरते रहते हैं। जिलाधिकारी की यह कोठी ब्रिटिश काल की है। कोठी कब बनी, इसके बारे में कुछ पता नहीं चलता, लेकिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में तत्कालीन अंगरेज कलेक्टर अलेक्जेंडर ने रूहेला सरदार नजीबुद्दौला के पोते नवाब महमूद को जिले की कमान इसी कोठी में सौंपी थी। लगभग एक वर्ष तक नवाब महमूद ने यहीं से जनपद का प्रशासन संभाला।

बिजनौर हालांकि जिला मुख्यालय है, पर यहां की आबादी एक लाख के करीब है। शहर के बीचोबीच 17 एकड़ भूमि में जिलाधिकारी की कोठी स्थित है। कोठी तो सीमित क्षेत्र में ही है, बाकी हिस्से में खेत और बडे़-बडे़ पेड़ हैं। कोठी के चारों ओर चारदीवारी है। कोठी के पेड़ भी काफी पुराने और घने हैं। इस कोठी में लगभग पचास मोर रहते हैं। कोई नहीं जानता कि ये मोर यहां कब से हैं। स्थानीय लोग इसे काफी समय पहले से देखने की बात करते हैं। डीएम कोई भी बनके आया हो, सभी का इन्हें प्यार मिला है। उनके बच्चे भी मोरों को देखकर प्रसन्न होते हैं और इनके दाने-पानी की व्यवस्था करते हैं।

कोठी के दक्षिणी हिस्से में इनके लिए मिट्टी के बरतन में पानी रखा रहता है। शाम के समय तो कुछ मोर घूमते हुए कोठी के गेट तक आ जाते हैं और जिलाधिकारी के कर्मचारियों के हाथ से सामान लेकर खाते रहते हैं। कोठी का स्टाफ भी इनका बड़ा ध्यान रखता है। सभी अपने पास इनके खाने के लिए कुछ न कुछ रखता है। कोठी के स्टाफ के मुताबिक ये मोर उनसे हिल-मिल गए हैं। शाम के समय ये काफी देर तक नाचते रहते हैं। डीएम की कोठी होने के कारण यहां आम लोगों की आवाजाही प्रतिबंधित है, किंतु यहां किसी काम से आने वाले लोग इन मोरों को निहार कर आनंदित हुए बिना नहीं रहते।

अशोक मधुप
 


Amar Ujala Me editorial page per sabse aalag me 8 december 11 me prakashit

Wednesday, January 5, 2011

अपनी लाइन लंबी करो, दूसरे की छोटी नहीं :अतुल माहेश्वरी

 अशोक मधुप

सोमवार को मैं दफ्तर में बैठा था कि एक फोन ने मुझे स्तब्ध कर दिया। समझ नहीं आया कि क्या हुआ?, कैसे हुआ? कुछ देर मेरी चेतना शून्य सी हो गई। एक ऐसा व्यक्ति जिसमें नेतृत्व का गुण था। मार्गदर्शन और निर्देशन की काबिलियत थी। कभी मन भटका तो उनसे बात की और चुटकियों में समस्या का हल करने वाले अमर उजाला के एमडी अतुल माहेश्वरी नहीं रहे, सुन कर यकीन नहीं हुआ। अतुलजी के अचानक चले जाने की सुन गहरा आघात लगा। मेरे से उम्र में छोटे थे, लेकिन मेरे लिए एक अभिभावक के रूप में रहे। मैंने 1977-78 के आसपास अमर उजाला बरेली में काम शुरू किया। उस समय एक स्थानीय दैनिक में काम करता था। किसी बात पर बिजनौर के पे्रस कर्मचारी हड़ताल पर चले गए, इससे बिजनौर में निकलने वाले सभी समाचार पत्रों का प्रकाशन बंद हो गया। हड़ताल 26 दिन तक चली। तब बिजनौर में अमर उजाला की 125 प्रतियां आती थीं। अखबार के विस्तार को बेहतर मौका था। मैने आदरणीय अतुलजी से बात की। मैंने कहा कि प्रेस एंपलाइज संकट में हैं। हम श्रमिकों की मदद कर अन्य अखबारों को ठप कर सकते हैं! इससे हड़ताल लंबी चलेगी और हमारी प्रसार संख्या बढ़ जाएगी। उन्होंने मुझे समझाया कि अखबार के प्रसार के लिए यह हथकंडा ठीक नहीं हैं। अतुलजी ने कहा कि हमें दूसरों को नुकसान पहुंचा कर आगे नहीं बढ़ना चाहिए। हम बिजनौर मुख्यालय से निकलने वाले अखबार के बंद होने पर प्रयास करें तो बेहतर है, लेकिन किंतु श्रमिकों को धन देकर हड़ताल को लंबा चलाना ठीक नहीं है। ऐसा ही उस समय हुआ जब बिजनौर में श्री सूर्यप्रताप सिंह डीएम थे। तहसील दिवस में जूस पीने से उनकी तबियत खराब हुई। एक समाचार पत्र ने प्रकाशित किया की डीएम को मारने की कोशिश की गई। समाचार प्रकाशित करने वाला स्थानीय दैनिक उस समय बिजनौर में सर्वाधिक प्रसार संख्या में था। इस प्रकरण में कुछ कर्मचारियों पर कार्रवाई होनी तय थी। उस समाचार पत्र ने सिर्फ डीएम के पक्ष को प्रकाशित किया। दूसरे पक्ष की उपेक्षा की गई। हमने दोनों पक्षों की आवाज को लोगों के सामने लाने का प्रयास किया। हमनेजहर देने के प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच की आवाज उठाई। समाचार छापने का क्रम चल ही रहा था कि स्थानीय दैनिक ने अमर उजाला परिवार से जुड़े आईएएस दीपक सिंघल के विरुद्घ समाचार प्रकाशित कर दिया। मेरी अतुलजी से बात हुई। मैंने कहा कि हम भी उनके खिलाफ छापेंगे। अतुलजी ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। बोले, अपनी लाइन लंबी करो, दूसरों की छोटी करने में मत लगो। समय बीत गया। आज उस समाचार पत्र की प्रसार संख्या सिमट चुकी है। एक दिन किरतपुर से लौटते समय अतुलजी मेरे साथ बिजनौर कार्यालय आ गए। वह जब मिलते थे, सभी परिचित और जानकारों के बारे में पूछा करते थे। स्थानीय समाचार पत्र के बारे में चर्चा हुई। मैंने बताया कि 400 या 500 प्रतियां ही छप रही हैं। उन्होंने कहा-याद है मैंने कहा था कि अपनी लाइन बड़ी करते रहो।

यादों में लौटता हूं तो याद आता है कि मैं आज जिस मकान में रहता हूं मकान मालिक उसे बेच रहे थे। उनका पहला ऑफर मेरे लिए था। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे। मैं बरेली गया था अतुलजी से बात हुई । मैंने कहा कुछ रुपयों की जरूरत होगी। उन्होंने कहा बैनामा होने से एक दिन पहले बता देना। मैंने फोन किया तो रात को टैक्सी से ड्राफट मिल गया।

बरेली से प्रकाशित होने वाले अमर उजाला में उर्दू शायर स्व. निश्तर खानकाही व्यंग्य लिखते थे, मेरठ संस्करण में व्यंग्य छपना बंद हो गया। अतुलजी ने इस बारे में मुझसे जानकारी मांगी। निश्तर खानकाही से मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि कुछ लेख का पारिश्रमिक नहीं मिला है। मैने अतुलजी को बताया। अतुलजी ने शीघ्र ही उन्हें पारिश्रमिक भिजवाया। अतुलजी के साथ बिताए गए छोटे से सफर में उनकी मदद करने की फेहरिस्त बहुत लंबी है। अतुलजी ने कितने लोगों की मदद की, शायद यह उन्हें भी याद नहीं होगा।

अतुलजी बहुत ही सरल और विनम्र थे। उनके साथ काम करते हुए कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि हम मालिक के साथ हैं। हमेशा उन्होंने दोस्ताना व्यवहार कायम रखा। एक बार मै बरेली गया था। देर रात को टेलीपि्रंटर पर खबर आ गई कि रूस के राष्ट्रपति नहीं रहे। कार्यालय के पत्रकार साथी गोपाल विनोदी वामपंथी विचारधारा के थे। अतुलजी ने विनोदीजी एवं अन्य सभी साथियों को बुलाया। अतुलजी ने कहा कि रूस के राष्ट्रपति का निधन हो गया है। शायद विनोदजी को मौका मिल जाए।

 5december 2011 ke amar ujala me prakashit

Sunday, January 2, 2011

45 साल में नहीं सुधरी भूदान गांव की तस्वीर

चारों कालोनियों के संपर्क मार्ग जर्जर
अशोक मधुप





बिजनौर। भूदान की इन चारों कालोनी के सपंर्क मार्ग बहुत ही खराब है। नजदीक में टांडा माई दास पड़ता है। इसकी यहां से दूरी पांच किलोमीटर है। वन के इस रास्ते पर दो नदियां हैं। अच्छा रास्ता कंडी रोड से है। गांव से कंडी रोड का लगभग एक किलोमीटर मार्ग कच्चा और खराब है। कंडी रोड से बढ़ापुर 29 किलोमीटर दूर पड़ता है। इस मार्ग पर जंगली हाथी के समूह घूमते रहते हैं। कई बार इनका सामना हो जाता है।

अस्पताल तो हैं पर डॉक्टर ही नहीं

बिजनौर। चारों कालोनी की पांच हजार की आबादी में सरकारी चिकित्सा परामर्श, आया आदि की कोई व्यवस्था नहीं। टांडा माई दास में सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं हैं लेकिन वहां चिकित्सक नहीं मिलता। इन्हें तो उपचार या कक्षा आठ से ऊपर की शिक्षा के लिए सुलभ जगह 19 किलो मीटर दूर कोटद्वार ही है। रुक्मिणी और माया जैसे कई विद्यार्थी हैं जो कोटद्वार पढ़ने के लिए साइकिल से प्रतिदिन आते जाते हैं। गांव में बेसिक शिक्षा का एक प्राइमरी और एक जूनियर स्कूल है। इनमें एक एक शिक्षक और एक एक शिक्षा मित्र तैनात हैं। शिक्षक यदाकदा ही यहां आते हैं। शिक्षा मित्र गांव के होने के कारण गांव में ही रहते और स्कूल चलाते हैं। गांव वाले बताते हैं कि यहां तैनात एक शिक्षक ने अपनी जगह एक टीचर रख रखा है। वह प्रतिदिन पढ़ाता है। उसे वह छह सौ रुपये महीना भुगतान करता है।

बहुत खराब हालत है बस्ती की

स्र


बिजनौर। भूदान आंदोलन में भूमिहीनों को भूपति बनना बड़ा कष्टकर रहा। दान में मिली जमीन 45 साल बीतने के लिए बाद भी खेती योग्य नहीं हो सकी।

आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के तहत बिजनौर जनपद में भी लगभग 700 एकड़ भूमि दान की गई थी। यह जमीन वन क्षेत्र में स्थित है। यहां बढ़ापुर से कंडी रोड होकर जाना पड़ता है। वन के इस मार्ग से इन गांव की दूरी 29 किलोमीटर है। प्रशासन ने 1965 में इस जमीन के 25- 25 बीघे के पट्टे करके लगभग 90 भूमिहीनों में जमीन बांट दी। यहां चार कालोनी बसी। इन कालोनी में 45 साल बाद आज भी न बिजली पहुंची, न ही सिंचाई के साधन विकसित हुए। किसान आज भी बारिश पर निर्भर है। आज इन गांवों की आबादी पांच हजार के करीब है, पर हैंडपंप छह ही हैं। यहीं नहीं पानी बहुत गहराई में है। जिस कारण नल लग नहीं पाते। गांव चारों ओर से नदियों से घिरे हैं। ऐसे में यहां बरसात में आवाजाही नहीं हो पाती। चिकित्सा सुविधा के लिए टांडा माईदास जाना पड़ता है। पांच किलो मीटर के इस वन मार्ग में दो नदियां पड़ती हैं। रात में टांडामाई दास में चिकित्सक नहीं मिलते। इन खराब परिस्थितियों में मजबूरन काफी पट्टेधारक अपनी भूमि दूसरों को सौंप अन्य जगह चले गए हैं। यहां एक प्राइमरी और एक जूनियर स्कूल है, लेकिन तैनात होने के बाद भी शिक्षक पढ़ाने नहीं आते। गांव के दो शिक्षा मित्र हैं, वे ही दोनों स्कूल चला रहे हैं। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वन क्षेत्र के बीच के मार्ग कंडी रोड से 19 किलोमीटर दूर पढ़ने कोटद्वार जाना होता है।

ढिबरी और लालटेन का ही है सहारा

बिजनौर। भूदान कालोनी में गांव वालों ने घरों के आगे बल्लियां लगा रखी है। वे कहते हैं कि इससे वन्य प्राणी दूर रहते हैं। बिजली न होने के कारण ढिबरी और लालटेन का ही प्रयोग करते हैं। डीलर तेल देने उनके गांव ही आता है, लेकिन पांच की जगह ढाई लीटर तेल देता है। शंकुतला देवी, बिट्ट आदि का कहना है कि विधायक वोट मांगने ही उनके यहां आए थे।

उसके बाद कोई नहीं आया। सांसद अजरूद्दीन की तो उन्होंने कभी सूरत ही नहीं देखी है। पूर्व प्रधान निजामुलहसन का कहना है कि यदि गांव में बिजली आ जाए और सिंचाई के साधन बढ़ जाए तो यहां के रहने वालों का जीवन स्तर सुधर सकता है। संपर्क मार्ग भी शीघ्र बनने चाहिए।

बिजनौर। आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में भूदान आंदोलन प्रारंभ किया। उन्होंने जमीनदारों और राजा-महाराजाओं से जमीन दान में लेकर भूमिहीनों में बांटना प्रारंभ किया। इसी समय जमींदारी प्रथा खत्म हो रही थी। सरकार द्वारा भूमि की सीमा निर्धारित कर दी गई। लोगों ने निर्धारित सीमा से अधिक भूमि हाथ से जाती देख उसे भूदान में देना अच्छा समझा।

जनपद में लगभग 700 एकड़ सन 60 के आसपास भूदान में मिली जमीन के पट्टे होने और उन पर कालोनी बनने में कई साल लग गए। भूदान में मिली जमीन में चार कालोनी बसाई गई। कालोनी को एक-दो, तीन-चार नंबर दिए गए। 65 के आसपास यहां आकर वह लोग बसे जिन्हें जमीन मिली। यहां आने वालों के नए सपने थे। कलवा सिंह बिजनौर के पास पमड़ावली से यहां आए तो गंगा राम सिंह कुम्हेड़ा से। कई गढ़वालियों को यहां भूमि मिली तो कई बोक्सा परिवार बसाए गए। चार नंबर कालोनी को तो बोक्सा कालोनी का ही नाम पड़ा। सबके सपने थे, जमीन पर जीतोड़ मेहनत कर संपन्नता की और बढ़ना। जमीन मिली थी लेकिन घर खुद बनाने थे। पट्टे पाने वाले गरीब थे। अत: कच्ची पक्की झोंपड़ी डाल कर बस गए, लेकिन 45 साल में इनके हाथ बेबसी ओर मजबूरी के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा।

कलवा सिंह का कहना है कि 45 साल बाद भी गांव में बिजली नहीं पहुंची, जबकि उत्तराखंड की लाइन गांव से तीन किलोमीटर दूर है, तो उत्तर प्रदेश की बिजली लाइन दो किलोमीटर दूर। कृषि पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है। वन क्षेत्र होने के कारण वन्य प्राणियों का आवाजाही बनी रहती है।

जो फसलों को तबाह कर देते हैं। गांव परनवाला में तो एक गांव बसने के समय का कुआं ही है। इसका भी कई बार पानी काफी खरब हो जाता है।
 
Amarujala meerut ki bijnor dak me 2 january 2011 me prakashit