Monday, April 5, 2010

जब महिला आगे बढ़ी या बढ़ाने की बात चली ,हर बार ऐसा ही हुआ

आधी दुनिया अर्थात गाडी के दूसरे पहिए को बराबरी का दर्जा देने की बात जब भी उठी है, तभी उसका विरोध हुआ है। महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की बात हर जगह मचों से उठती तो है, चर्चे होते हैं, दावे किए जाते हैं किंतु उन्हें जब अधिकार देने की बात आती है तो हंगामे होते हैं। सदन नही चलने दिए जाते ,विधेयक की प्रतियां फाड़ दी जाती है। ऐसा तब होता है जबकि उन्हें बराबरी का अधिकार नही दिया जा रहा। मात़्र ३३ प्रतिशत हिस्सा देने की बात हो रही है। बराबरी के अधिकार अर्थात आधी दुनिया को आधा हिस्सा देने की बात उठी तो हालत क्या होगा,यह इसी हंगामे को देखकर समझा जा सकता है।

हाल में महिलाआं कों विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में रखा गया तो हमारे नेताओं को यह बर्दा श्त नहीं हुआ। अपनी जगह राबडी को बिहार का मुख्यमत्री बनाने वाले लालू यादव और अपनी पुत्र वधू को राजनीति में उतारने में लगे मुलायम सिंह को यह बर्दाश्त नही हुआ।विधेयक की प्रस्तुति के समय राज्य सभा में हंगामा ही नही हुआ , अपितु विधेयक का विरोध करने वाले सदस्यों ने राज्य सभा में विधेयक की प्रतियां तक फाड़ डालीं। विधेयक लाने वाले और उसका समर्थन करने वाले दल ही इसे लेकर एकमत नही हैं। हरेक की अपनी ढपली और अपना राग है।किंतु वे ज्यादा खुलकर नही बोल रहे।

यत्र नार्यस्य पूजयंते रमयंते तत्र देवता वेदो में कहा गया है। किंतु यह सब उन नारों जैसा ही है जिन्हें हम अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग करते रहें हैं। हम जनता को रिझाने के लिए नारा लगाते हैं ,गरीबी हटाआंे किंतु वह हटती नहीं,दिन दूनी रात चौगुनी की तरह से तरक्की जरूर करती जाती है।

अंधिकांश राजनैतिक दल समाजवाद लाने और पूंजीवाद खत्म करने की बात करतें हैं किंतु न कभी समाजवाद आता है और न पूंजीवाद खत्म होता है। यह नारे लगते हैं और लगते रहेंगे किंतु इनसे कोई क्रांति या बदलाव आने वाला नही है।

वेदों में यह जरूर कहा गया हो कि जहां नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते है किंतु सच्चाई के धरातल पर सब इसके विपरीत है। वैदिक काल में महिलाओं को बड़ा सम्मान था, उन्हें बराबरी का दर्जा भी था, किंतु इतिहास और अन्य स्थानों पर कितनी विदुषिंयों का जिक्र आता है। कुछ प्रसिद्ध होने वाली जिन विदुषियों को हम जानतें हैं, उन्हें उंगलियों के पोरवों पर ही गिना जा सकता है।

जब भी नारी आगे बढ़ी उसे रोका गया। जब उसके हक की बात आइे उसको धोखा दिया गया। छला गया। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के समय गार्गी के प्रश्नों ने बौखलाएं याज्ञवल्कय कह ही उठते हैं, बस गार्गी और नही , अब एक शब्द भी जवान से निकाला तो सिर अलग हो जाएगा, गार्गी हक्की बक्की रह जाती है। शास्त्रार्थ में पराजय को पुरूष का अहम बर्दास्त करने का तैयार नहीं,इसी लिए वह शास्त़्रों की जगह शस्त्रों की भाषा  बोलने लगा। राजा जनक की भरी सभा में गार्गी को इस प्रकार की उम्मीद नहीं थी। वह चुप हो जाती हैं। इस कहानी में कहीं ऐसा नही आता कि किसी ने याज्ञवल्कय की धमकी को गलत बताया हों । शास्त्रार्थ के निर्णायक जनक भी चुप रहते है।

विद्योतमा अपने समय की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी घोषणा थी कि जों विद्वान उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा , वह उससे शादी कर लेंगीं। उनकी प्रतिभा से परेशान एवं शास्त्रार्थ में परास्त विद्वान ऋषि मुनियों ने उससे अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक नितांत बेवकूफ से शास्त्रार्थ कराने का निर्णय लिया। उन्हें कालीदास नामक ऐसा व्यक्ति मिल भी गया जो उसी साख को काट रहा था, जिसपर कि यह बैठा था। उस समय के सारे विद्वान, ऋषि और मुनियों ने षड्यंत्र कर विद्योतमा को कालीदास से शास्त़्रार्थ पर परास्त करा दिया। विद्योतमा ने अपनी प्रतीज्ञानुसार परास्त होने वाले से विवाह कर दिया। इस कहानी में कोई विद्वान ऐसा नहीं मिलता, जिसने विद्योतमा के साथ हो रहे इस छल का विरोध किया हो। कोई ऐसा नही था जिसने कहा हो यह छल है,धोखा है, जो किया जा रहा है, वह शास्त्र और धर्म सम्मत नही है।

महाभारत काल की सबसे सुंदर नारी द्रोपदी थी। यह उसका सौंदर्य ही था कि उस समय के अधिंकाश बाहुबलियों ने उसे भोगना चाहा,चाहे स्वेच्छा से या बलपूर्वक। उन्हीं की भावनाओं का परिणाम हैं कि उसके सौंदर्य को, कलंकित करने उसके अहम को सरे आम नीचा दिखाने के लिए उसका भरे दरबार में चीरहरण किया गया। इससे पहले रामायण काल में उस समय की सर्वसुंदरी सुर्पनखा की नाक कान काट उसका अपमान किया गया तो कही सीता का हरण हुआ। हुआ उस नारी के साथ जिसे वेदों में पूजनीय कहा गया।

समय बदला किंतु नही बदला नारी के अपमान होने का सिलसिला। पुरूष की मौत पर नारी को सती होना पड़ा तो पतियों के मरने पर जोहर भी उन्हे की करना पड़ा। पतियों की दीर्घायु की कामना के लिए करवा चौथ का उपवास भी नारी के लिए ही आवश्यक किया गया। पुरूषों को कही शांस्त्रों में नहीं आया कि उसे पत्नी के मरने पर जलकर मर जाना चाहिए।

संपति में हमने बेटी को बराबर का हक नही दिया,तो मरने के बाद बेटों से ही तर्पण कराकर मोक्ष की बात भी हमने ही की। जहां बस चला ,हमने महिलाओं को छलां ।आधी दुनिया को धोखा दिया। उसे हमने कहीं नकाब पहनाकर परदे मे रखा तो कहीं घूंघट में दबाया।

उसकी अस्मिता की सुरक्षा के नाम पर बालपन ही में विवाह कर उसका बचपन हमने ही छीना। सती होने की परंपरा पर रोक लगी तो विधवा विवाह को हमने गलत बताया और महिलाओं की इस आधी दुनिया के लिए अलग से कानून बनाए।इस तरह के कानून पुरूषों के लिए कहीं नही बने। महाकवि तुलसीदास ने तो ढोल गंवार शुद्र,पशु, नारी। ये सब ताडन के अधिकारी बताकर इनके अस्तित्व को नकार दिया।
यह आज की बात नहीं महिलाओं के आगे लाने की बात जब भी हुई ,या वह अपने प्रयासों से आगे आई , उन्हें ऐसे ही छला गया। कभी अग्नि परीक्षा ली गई तो कभी किसी के कहने पर उसे वन में छुडवा दिया गया। उसकी पीड़ा उसकी भावना को कभी किसी ने नहीं समझा।

अशोक मधुप

2 comments:

BrijmohanShrivastava said...

ऐतिहासिक तथ्यों और वर्तमान परिस्थियों में नारी की स्थिति दिखलाने वाला लेख वाकई बजनदार है एक एक बात सच है क्या पता ये हालात कब तक रहेंगे

सहसपुरिया said...

good post