Sunday, March 4, 2018

वही पार्क है

   वही पार्क है,
पुराना पार्क।
जहाँ हम तुम मिला करते थे।
एक दूसरे को निहारते
घंटो बैठे रहते थे मौन।
खामोश।
कभी कुछ कहने की
 जरूरत ही नहीं पड़ी।
क्योंकि आजतक वे
शब्द ही नही बन सके,
जो मन की बात कह पाते।
जो मनका हाल 
जवां पर ले आते।
जो ह्रदय के भाव
बयां कर सकते।
ऐसे में बस  प्रभावी
होता है मौन।
बिना कहे,बिना बोले
एक दूसरे की बात
समझ लेता मन।
जान लेता भाव।
एक दूसरे को निहारते
कभीं तुम हंस देतीं
कभी मैं मुस्करा देता।
कर बार मेँ हंसता,
तुम मुस्करातीं।
लगातार ऐसे ही चलता रहता
बातों का सिलसिला।
आज बहुत दिन बाद,
बहुत साल  बाद
लगभग 5 दशक के
अंतराल के बाद
यहाँ आया हूँ।
पार्क वही है पुराना
जाना पहचाना।
इसके चप्पे चप्पे को
पहचानता हूँ मै।
वह पेड़ आज भी वहीं है
जिसपर तुमने अपना नाम
लिखकर दिल का निशान
बनवाकर मेरे से  दिलके 
आरपार बनवाया था
 तीर का निशान।
उसके बाद लिखवाया था
मुझसे मेरा नाम।
कहा था इस पेड़ के रहते
 ये नहीं मिटेगी,
तुम्हारे मेरे प्रेम की निशानी।
हम साथ रहें या ना रहें
जब भी यहाँ आएंगे।
इसे देखकर आ जाएगी,
एक दूसरे की याद।
मैं उसी पेड़ में नीचे खड़ा
निहार रहा हूँ उस लिखे को।
महसूस कर रहा हूँ तुम्हारी लिखावट।
महसूस कर रहा हूँ
 तुम्हारी सासों की सुगंध।
तुम्हारे शरीर को मादकता।
तुम्हारी हंसी की 
खिलखिलाहट।
सब कुछ
5 दशक के
अंतराल के बाद भी।
धीरे से तुम्हारे नाम
और तुम्हारे द्वारा बनाए
दिल के निशांन पर
उंगलियां घुमाता हैं।
महसूस करता हूँ तुम्हारा 
स्पर्श। तुम्हारी छूअन।
लगता है कि इतने 
अंतराल के बाद भी,
इसमें बसा है तुम्हारा रोम रोम।
एक जोड़े को पास से 
निकलते देख,
वहाँ से हटकर 
आ जाता हूँ
उस झाड़ी के पास,
जिनके नीचे घासपर
जहां तुम ओर मैं
आमने सामने बैठे 
रहते थे।
एक दूसरे को 
देखते रहते थे।
निहारते रहते थे।
कटिंग के बाद भी यह
 झाड़ी अब काफी बड़ी ही गई।
पर उस जगह पर हरी दूब
आज भी कालीन सी बिछी हुई है।
बनाया हुआ है
हरा मखमली बिछोना।
लगता है कि हमारे बाद
यहाँ आकर कोई नही बैठा।
शायद यह दूब 
इतने साल बाद भी
कर रही है
तुम्हारे मेरे आकर
आमने सामने बैठने का इंतजार।
उसे शायद ये पता नहीं
कि यहाँ आकर 
बैठने वाला जोड़ा
अब कभी लौटकर नहीं आ आएगा।
मन भारी होने लगता है
इस जगह को देखकर।
ये यहाँ से हट कर
पूरे पार्क का चक्कर  लगता हूँ।
पार्क में चांदनी का वह 
पेड़ अब भी है
जिसके सफेद फूलों के 
कालीन पर हम बहुत बहुत देर 
बैठे रहते थे।
हरसिंगार का वह पेड़
अब भी वहीँ है,
जिसके नीचे हम बहुत देर 
खड़े रहते थे।
जिसके सफेद पीले फूल 
हमपर झरते रहते थे।
कई बार मैं जोर से हारसिंगार को हिलाता।
वह भी प्रसन्न हो अपने फूलों
की कर देता
हम पर बारिश।
पार्क बहुत बदल गया
लग गए फव्वारे
रंग बिरंगी लाइट।
सैकड़ों तरह के फूलों के
पौधे।
पर चांदनी ,हारसिंगार 
के पेड़ वहीं हैं।
हमारी बैठने की जगह
की झाड़ियां भी वहीं है।
किन्तु ये सब बूढ़े हो गए
मेरी तरह।
तुम कालेज के समय
जो बिछड़ी तो
फिर नही मिलीं।
शायद तुम भी तो
जो गइं होंगी बूढ़ी
झाड़ी ,इन दोनों दरख़्त
ओर मेरी तरह।
तुम्हारे चेहरे पर भी
उभर आईं होंगी झुर्रियां।
आखों पर लग गया होगा
चश्मा।
 बालो में उतर आई होगी 
चांदनी।
वास्तव में बहुत कुछ
 बदल गया ।
वक्त भी,चांदनी ओर हारसिंगार का पेड़
 तुम भी
ओर मैं खुद भी।
अशोक मधुप

No comments: