क्या फौलाद का पेट संभव है? आप कहेंगे नहीं,मैं कहूंगा हां।एक आदमी का नहीं आज सभी भारतीयों का पेट फौलाद का है।
आज देश में सपंन्नता है। प्रायः सभी तरह का अनाज उपलब्ध है।कभी गेंहू अमेरिका से आता था , आज सारे देश में गेंहू उगता है। लगभग सभी देशवासी गेंहू की रोटी खाते हैं।
साढ -सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था । खेती के साधन नहीं थे। बिजली नहीं थी। फसले प्रकृति पर निर्भर थीं। बारिश पड़ जाती तो फसल हो जाती, न पड़ती तो रूखाः सूखा खाकर जीवन जीना पड़ता। प्रायः अनाज में बाजरा, जौ, चना आदि की रोटी बनती। मक्का उत्पादित क्षेत्र में मक्का से रोटी बनती। गेंहू तो किसी बहुत संपन्न परिवार में खाया जाता। गेंहू बहुत मंहगा होता। मोटा अनाज सस्ता। इसीलिए सब प्रायः मोटा अनाज ही खाते।
अमेरिका से आया लाल गेंहू राशन में मिलता। गरीब परिवार इसे राशन में लेकर खुले बाजार में बेच देते। इस घटिया गेंहू के भी अच्छे पैसे मिल जाता। उस समय राशन का गेंहू भी आय का साधन था। राशन में चीनी लेकर बाजार में बेच दी जाती। सभी प्रायः गुड़ खाते । ज्यादातर परिवार में चाय भी गुड़ की बनती।
गेंहू के बारे में बुजुर्ग कहते -गेंहू को पचाने के लिए फौलाद का पेट चाहिए। इसे पचाना आसान नहीं।मेरे बाबा हकीम राम किशन लाल तो इस कहावत को बार- बार दुहराते थे।
वक्त बीतता गया। कब गेंहू आम आदमी को उपलब्ध हो गया , पता ही नहीं चला। कब सब भारत वासियों के पेट फौलाद के हो गए इसका ज्ञान ही नही हुआ। आज पुराने बुजुर्ग होते और सबकों गेंहू खाते देखते तो अचंभा करते।
साढ सततर के दशक और अब के खान -पान में कितना फर्क हो गया। यह मेरी पीढ़ी के व्यक्ति ही समझ सकतें हैं? उस समय के आम आदमी के खाने वाला अनाज आज संपन्न परिवार में टैक्ट चैंज करने के काम आता है।शादी - विवाह के समारोह में चने ,मक्का , बाजरे की रोटी जायके के लिए खाई जाती है। होटलों में खाना खाते प्रायः बेसन की रोटी की डिमांड जरूर होती है।
हमारे समय के लकड़ी को रांध कर चिकना बनाने वाले रंधे से सिल्ली से बर्फ घिसकर अलग किया जाता था। इस बर्फ पर रंग- बिरंगा शर्बत डालकर बर्फ बेचने वाला देता और हम उसे बड़े चाव से खाते। तिलली पर दूध को जमाकर बनाई चुसकी गली कूंचों की शान थी। दुपहर में इन्हें बेचने वाला आता। आवाज लगाता।बच्चे बर्फ लेने दौड पड़ते। आज यह डंडी पर घिसकर चिपकाया बर्फ और चुसकी बड़े लोगों की दावतों की शान बन गईं।
एक बात और खरीदने वाले सब पैसे ही लेकर नही जाते थे। इस समय वस्तु विनिमय का भी समय था। जिनके पास रुपये पैसे नहीं होते,वे अपने कमीज के अगले पल्ले में अनाज भरकर ले जाते और उसके बदले जरूरत का सामान ले आते। आज भी कहीं- कहीं गांव में ऐसा चलन है।
बात थी फौलाद के पेट की।गेंहू पचाने के लिए फौलाद का पेट चाहिए की कभी कहावत थी । वक्त ने उसे बदल दिया। आज सभी के पेट फौलाद के हो गए।
अशोक मधुप
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