नवरात्र पर विशेष
मातृशक्ति की आराधना के पर्व नवरात्रि में कन्याओं को भगवती का शुद्धत्तम रूप मानने और पूजने का चलन है। इसे उत्साह और उमंग से पूरा भी किया जाता है, लेकिन व्यवहार में कन्याओं के प्रति कुछ अलग ही नजरिया है।
अशोक मधुप
नवरात्र प्रारंभ हो गए हैं। आज दूसरा दिन है। इन दिनों देवियों की पूजा की जाती है। खासतौर पर शक्तिरूपिणी दुर्गा की। शक्ति के विभिन्न रूपों की आराधना करते हुए दुर्गा सप्तशती का जो स्तोत्र इन दिनों पढ़ा जाता है, उसमें प्रकृति में विद्यमान सभी तत्वों का स्मरण किया जाता है। उन तत्वों में भगवती को देवी और शक्ति के रूप में आराधा जाता है। शक्ति का मूल स्वरूप स्त्री ही है। उस स्मरण में कन्या को भी शक्ति का निर्दोष निष्कलुष और निर्मल रूप मानते हुए नमन किया हुआ है। स्तोत्र में ही नहीं पूजा आराधना में भी कन्याओं की पूजा की जाती है। पूरे नौ दिन उन्हें अलग -अलग तरह के उपहार देकर भोजन कराकर देवी को प्रसन्न करने का उपक्रम किया जाता है। नवरात्र के सभी दिनों में कन्या पूजन नहीं किया जाता हो तो भी अष्टमी और नवमी के दिन तो उन्हें जिमाते और पूजते हैं ।
साल में दो नवरात्रों में चार से अठारह दिन हम यह कार्य करते हैं, जबकि अन्य दिन प्राय कन्याओं की उपेक्षा करते हैं। वह उपेक्षा और तिरस्कार भू्रण हत्या के स्तर पर पहुंच जाता है। नवरात्र पर कन्या जिमा कर अपने पर गर्व महसूस करते हैं कि हम उनकी पूजा कर और भोजन करा कर बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। अब ऐसा नहीं है । आज जरूरत कन्याओं को जिमाने की कम उन्हें कहें जिंदा रखने या जन्म लेने देने को उन्हें पलने बड़ा होने देने की ज्यादा है।
दोनों नवरात्रों पर मातृ शक्ति की आराधना में हर कोई श्रद्धालु लीन हो जाता है। इन दिनों हम मातृ शाक्ति रूपी देवियों की पूजा करते है। उपवास रखते हैं। हम मानते हैं कि देवियों में बड़ी शक्ति है। अष्टमी और नवमी के दिन हम अपने घरों में बुलाकर देवियों की प्रतीक कन्याओं की पूजा करते हैं और पूरे श्रद्घाभाव के साथ उन्हें भोजन कराते हैं। यह सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। जहां धार्मिक श्रद्घा के साथ हम देवियों की पूजा करते हैं, वहीं समाज में आई कुरुति, दहेज के कारण हम नहीं चाहते कि हमारे परिवार में लड़कियां हो। हम जन्म लेने से पहले गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कराते हैं और यदि लड़की है तो गर्भपात कराकर उसे दुनिया में कदम रखने से पहले ही मौत की नींद सुला देते हैं।
जब देश में बालिकाएं नहीं जन्मेंगी तो जाहिर है प्रकृति का चक्र बदलेगा, और उसका असर नई पीढ़ी के जन्म और उदय पर भी पड़ेगा। धीरे- धीरे ऐसी स्थिति आएगी कि मनुष्य समाज का आकार सिकुड़ने लगेगा। इससे पहले स्त्रियों की संख्या कम हो जाने से हमारा सामाजिक ढांचा छिन्न -भिन्न हो जाएगा। इस परिवर्तन को लेकर समाज शास्त्री अभी से चिंतित है। आज देश भर में इसके लिए आंदोलन चल रहे हैं तो अन्य कई संगठन भू्रण हत्या रोकने पर काम कर रहे हैं।
ं वर्तमान हालात को देखते हुए आशीर्वाद देने का तरीका भी बदल रहा है। कभी लोग महिलाओं को पुत्रवान होने का आशीर्वाद देते थे। अब भी देते हैं, लेकिन कन्या भू्रण की हत्या के विरोध में लगे सामाजिक संगठन संतानवान होने का आर्शीवाद देने की तैयारी कर रहे हैं। इससे पुत्र पुत्री का भेद मिटेगा। और भू्रण हत्या रूकेगी।
पुत्र की चाह हमारी संस्कृति के उस दर्शन की देन है कि पुत्रवान ही मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। अंतिम संस्कार पुत्र के हाथों की होना चाहिए। समाज में बहुत परिवर्तन आ रहा है। कन्याओं वाले कई परिवार अपनी बेटियों पर गर्व कर रहे हैं और बिना भेदभाव से भाव से उन्हें पाल पोष कर योग्य बना रहे हैं। अब तो कन्याएं भी अपने पिताओं की कई जगह कपाल क्रिया करने लगी हैं। बेटे की तरह मां बाप का सहारा बन रही हैं।
बिगड़ते सामाजिक ढांचे के बचाने के लिए आज जरूरत कन्याओं को जिमाने के साथ उन्हें जीवानें , जीवित रखने की है। अष्टमी और नवमी के दिन कन्याओं को जिमाने के साथ साथ यदि उनके जीवित रखने तथा गर्भ में हत्या न करने का संकल्प ले तो निश्चित रूप से समाज के बिगड़ते ढांचे को बचाने में मददगार हो सकते हैं।
बढ़ती भक्ति-घटती शक्ति
कन्याओं को जन्म लेने ही नहीं देने की बढ़ती प्रवृत्ति के नतीजे अभी से दिखाई देने लगे हैं। जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार महिलाओं की संख्या अब कुल आबादी में प्रति हजार 933 रह गई है, जबकि 1991 में महिलाआें की संख्या प्रति हजार पर 970 थी। विडंबना यह कि नवरात्र आराधना और शक्तिपूजा में लोगों का रुझान बेतहाशा बढ़ा है।
यह अनुपात शहरी और पढ़े-लिखे और संपन्न वर्ग में ज्यादा गड़बड़ाया है। हरियाणा और गुजरात में यह संख्या क्रमश: 818 और 883 रह गई है। माना जा रहा है कि देश भर में यह महिलाओं की संख्या प्रति हजार 800 के आसपास होगी। ।
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