Saturday, July 10, 2010

रोशनी बांटने की मिसाल

शनी बांटने की मिसाल
अशोक मधुप
published on : Saturday, July 10, 2010    12:31 AM in amarujala
महर्षि दधीचि ने मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियां दान की थीं, लेकिन बिजनौर जनपद के धामपुर निवासी हरीश चंद्र आत्रेय ने अपनी आंखें तो मानव कल्याण के लिए दीं ही, उन्होंने सात हजार से ज्यादा लोगों की आंखें लेकर लोगाें को रोशनी देने के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के आई बैंक को भेजीं। बिजनौर जैसे पिछड़े और छोटे जनपद से प्रतिमाह दस से पंद्रह आंखें लेकर ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट को भेजना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। दूसरों को जीवन पर्यंत रोशनी देने में लगे रहे डॉ. हरीश चंद्र आत्रेय की कल पहली पुण्यतिथि है।
बिजनौर जनपद के रतनगढ़ गांव के रहने वाले हरीशचंद आत्रेय का जन्म १२ जनवरी, १९२२ को कनखल, हरिद्वार में हुआ था। हरिद्वार महाविद्यालय में अध्ययन के दौरान वर्ष १९३९ में उन्होंने १५ सदस्यीय छात्र जत्थे के साथ चंद्राकिरण शारदा (अजमेर) के नेतृत्व में गुलबर्गा (कर्नाटक) में आयोजित सत्याग्रह अभियान में भाग लिया। उसके बाद वह १३ महीने गुलबर्गा, उस्मानाबाद, औरंगाबाद एवं निजामाबाद की जेलों में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कैद करके रखे गए। जेल की दुर्दशा पर सत्याग्रहियों ने भूख हड़ताल की, तो अंगरेजों ने कैदियों पर गोली चलाई। एक गोली उनके बाएं हाथ में लगी, जिसका निशान जीवन पर्यंत रहा।
आजादी मिलने के बाद धामपुर में उन्होंने अपना आवास बना लिया। जंगलों की सैर करना और शिकार खेलना उनका शौक था। शिकार के दौरान एक भूखे अंधे शेर को एक गीदड़ द्वारा मांस लाकर देने की घटना से प्रभावित होकर उन्होंने कभी शिकार न करने और नेत्रहीनों को रोशनी दिखाने का संकल्प लिया। उसी घटना से प्रभावित होकर उन्होंने धामपुर में आई बैंक बनाया। वर्ष १९८४ में देश में कुल १७० आंखें प्रत्यारोपित की गईं। इनमें से ११५ आंखें धामपुर के आई बैंक के माध्यम से उपलब्ध कराई गई थीं। नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के कारण वर्ष २००८ में भाऊराव देवरस सेवा न्यास ने उन्हें सम्मानित किया था।
डॉ. आत्रेय द्वारा स्थापित आई बैंक से हर महीने १५ आंखें राष्ट्र को समर्पित की जाती थीं। लगातार इतने नेत्रदान देश में तो छोड़िए, समूचे दक्षिण-पश्चिम एशिया में एक रिकॉर्ड है। एम्स में प्रतिवर्ष प्रत्यारोपित होने वाले नेत्रों में लगभग तीन चौथाई योगदान धामपुर आई बैंक का होता था।
पिछले साल ११ जुलाई की रात आधुनिक युग के इस दधीचि ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं। उनकी आंखें स्वाभाविक ही आई बैंक को भिजवा दी गईं। वह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी उपलब्धि पूरे क्षेत्र को प्रोत्साहित करती है।


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