केंद्र सरकार ने कानून बनाकर छह से चौदह साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार दे दिया है। यह अधिकार देते समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत नौजवानों का देश है। बच्चों व नौजवानों की शिक्षा तथा उनके हुनर से देश खुशहाल एवं ताकतवर बन सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के कार्यों में भी प्रदेश के बच्चों और युवाओं को घर के पास शिक्षा उपलब्ध कराना शामिल है। इसी संदर्भ में उसने देहात तक स्कूल खोलने और उनके लिए शिक्षकों के रिक्त पद भरने का निर्णय लिया है। ऐसे में, उत्तर प्रदेश में बीएड की डिगरी की मांग अचानक बढ़ गई है।
अब तक बीएड में दाखिले के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर परीक्षाएं आयोजित होती थीं। पर उनमें धांधली की शिकायत के बाद पूरे प्रदेश के लिए संयुक्त टेस्ट प्रक्रिया शुरू हुई। पहली बार कानपुर विश्वविद्यालय ने बीएड की प्रवेश परीक्षा कराई। दूसरा सत्र शून्य रहा और इस साल यह परीक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय करा रहा है। बीएड की यह परीक्षा प्रदेश भर में छह मई को होनी थी, किंतु पेपर आउट होने के कारण अब यह जून में होने जा रही है। कानपुर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित परीक्षा में लगभग छह लाख परीक्षार्थी शामिल हुए थे, इस बार करीब सात लाख युवक-युवतियों ने इसके लिए आवेदन किया है।
इतनी बड़ी संख्या में परीक्षार्थियों के होने के बावजूद पूरे राज्य में कुल 12 परीक्षा केंद्र बनाए गए हैं। ये सारे केंद्र विश्वविद्यालय मुख्यालय में ही बने। विश्वविद्यालय स्तर पर केंद्र निर्धारण करते समय परीक्षा आयोजकों ने परीक्षा में बैठने वालों की सुविधाओं का ध्यान नहीं रखा। 72 जनपदों वाले इस प्रदेश में 12 केंद्र बनाना समझ से परे है। बनारस में दो विश्वविद्यालय हैं। उन दोनों को केंद्र बनाया गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मात्र मेरठ, बरेली और आगरा तीन केंद्र बनाए गए हैं। इतने बडे़ क्षेत्र में सिर्फ तीन केंद्र बनाना परीक्षार्थियों को परेशान करना ही है। परीक्षा केंद्र बनाते समय मुरादाबाद और सहारनपुर जैसे कई मंडलों को नजर अंदाज किया गया, तो नोएडा, गाजियाबाद और अलीगढ़ जैसे बड़े नगरों की भी उपेक्षा की गई। पांच मई को होने वाली परीक्षा के लिए लखनऊ और कानपुर में डेढ़-डेढ़ लाख, मेरठ में साढ़ सत्तर हजार, बरेली में पचहत्तर हजार, गोरखपुर में चौहतर हजार परीक्षार्थी पंहुचे थे। यही हालत अन्य केंद्रों की भी रही। हालत यह थी कि परीक्षा के पहले दिन होटल, धर्मशाला, लॉज आदि में रहने के लिए कहीं जगह नहीं मिली। हजारों परीक्षार्थियों को बस स्टैंडों या रेलवे स्टेशनों पर रात बितानी पड़ी।
यह परीक्षा जिला स्तर पर भी कराई जा सकती थी। इससे छात्रों और अभिभावकों को राहत मिलती। प्रदेश की बसपा सरकार ने अपने तीन साल के कार्यकाल में बालिकाओं के लिए महामाया जैसी कई योजनाएं तो लागू की हैं, किंतु इस प्रवेश परीक्षा की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया। पहली बार इस परीक्षा के विश्वविद्यालय स्तर पर कराने के लिए ज्यादा आवाज नहीं उठी थी, किंतु इस बार आवाज उठ रही है। इसे जिलास्तर पर कराने का ज्ञापन अनेक संगठनों ने सरकार को दिया है। बहरहाल, जिस प्रकार हमारे नेता एसी कमरों में बैठकर गरीबों की योजनाएं बनाते हैं, उसी प्रकार शिक्षा जगत के उच्चाधिकारी भी महानगरों के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर ऐसी तुगलकी योजनाएं बनाने लगे हैं। कोई भी योजना बनाते समय जनता की सुविधाओं का ध्यान रखना वे भूल जाते हैं।
(लेखक अमर उजाला से जुड़ हैं)
उत्तर प्रदेश
अशोक मधुप
मेरा यह लेख अमर उजाला में 14 जून 2010 के अंक में छपा है
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