Sunday, December 21, 2025

भारतीय संगीत के अनमोल रत्न: वसंत देसाई

 भारतीय संगीत के अनमोल रत्न: वसंत देसाई


​भारतीय चित्रपट संगीत के स्वर्ण युग में कई ऐसे दिग्गज हुए जिन्होंने अपनी स्वर लहरियों से जन-मानस को मंत्रमुग्ध कर दिया। इन्हीं में से एक ऐसा नाम है जिसने शास्त्रीय संगीत की मर्यादा और सुगम संगीत की सरलता के बीच एक सेतु का निर्माण किया—वसंत देसाई। वे केवल एक संगीतकार ही नहीं, बल्कि एक निष्ठावान साधक थे, जिनके संगीत में शुद्धता, सात्विकता और राष्ट्रीयता की स्पष्ट झलक मिलती थी।


​जन्म और प्रारंभिक जीवन


​वसंत देसाई का जन्म ९ जून, १९१२ को महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले के कुदाल नामक स्थान पर हुआ था। उनका बचपन कोंकण की प्राकृतिक सुंदरता के बीच बीता, जिसका प्रभाव उनके संगीत में भी सदैव दिखाई दिया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्तर पर हुई, किंतु बचपन से ही उनका रुझान कला और संगीत की ओर था। वे केवल सुरों के ही प्रेमी नहीं थे, बल्कि अभिनय में भी उनकी गहरी रुचि थी। यही कारण था कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक अभिनेता के रूप में की थी।


​प्रभात फिल्म कंपनी और कलात्मक यात्रा


​वसंत देसाई के व्यक्तित्व को निखारने में 'प्रभात फिल्म कंपनी' का बहुत बड़ा योगदान रहा। वे कोल्हापुर चले आए और प्रसिद्ध फिल्म निर्माता वी. शांताराम के सानिध्य में कार्य करना प्रारंभ किया। प्रारंभ में उन्होंने फिल्मों में छोटे-मोटे अभिनय किए और कोरस (सामूहिक गायन) में हिस्सा लिया। महान संगीतज्ञ मास्टर कृष्णराव और उस्ताद अमीर खान जैसे दिग्गजों के संपर्क में आने से उनकी संगीत प्रतिभा को एक नई दिशा मिली। उन्होंने संगीत की बारीकियों को बहुत गहराई से सीखा और धीरे-धीरे पार्श्व संगीत और स्वतंत्र संगीत निर्देशन की ओर कदम बढ़ाया।


​संगीत शैली और विशेषताएँ


​वसंत देसाई का संगीत अपनी सादगी और गहराई के लिए जाना जाता है। उन्होंने कभी भी संगीत में शोर-शराबे या अनावश्यक वाद्ययंत्रों का प्रयोग नहीं किया। उनका मानना था कि संगीत की आत्मा उसके शब्दों और रागों की शुद्धता में होती है। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय रागों का प्रयोग फिल्मी गानों में इतनी कुशलता से किया कि वे आम आदमी की जुबान पर चढ़ गए।

​उनकी संगीत रचनाओं में भक्ति रस, देशभक्ति और प्रकृति के प्रति प्रेम स्पष्ट रूप से झलकता है। उन्होंने लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत का जो सम्मिश्रण प्रस्तुत किया, वह आज भी संगीत के विद्यार्थियों के लिए एक शोध का विषय है।


​अमर कृतियाँ और मील के पत्थर


​वसंत देसाई ने कई ऐतिहासिक फिल्मों में कालजयी संगीत दिया। फिल्म 'झनक झनक पायल बाजे' में उनका संगीत नृत्य और शास्त्रीयता का अद्भुत संगम था। इसी प्रकार, फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' का गीत "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" आज भी भारतीय विद्यालयों और संस्थानों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। यह गीत उनके संगीत की आध्यात्मिक शक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है।

​उनकी अन्य महत्वपूर्ण फिल्मों में 'शकुंतला', 'गूँज उठी शहनाई', 'आशीर्वाद' और 'गुड्डी' शामिल हैं। फिल्म 'गुड्डी' का गीत "हमको मन की शक्ति देना" आज भी नैतिकता और संकल्प की अनौपचारिक प्रार्थना बन चुका है। 'गूँज उठी शहनाई' में उन्होंने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई का जिस प्रकार उपयोग किया, उसने फिल्म संगीत को एक नई ऊँचाई प्रदान की।


​राष्ट्रभक्ति और सामाजिक योगदान


​वसंत देसाई केवल फिल्मों तक ही सीमित नहीं रहे। उनके भीतर राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने सामूहिक गान (कोरस) की परंपरा को बहुत बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि सामूहिक गायन से एकता और अनुशासन की भावना जागृत होती है। उन्होंने हज़ारों बच्चों को एक साथ देशभक्ति के गीत गाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य के सांस्कृतिक विभाग में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और लोक कलाओं के संरक्षण हेतु निरंतर कार्य किया।


​सादगीपूर्ण व्यक्तित्व और सम्मान


​वसंत देसाई अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अत्यंत सरल और सौम्य स्वभाव के धनी थे। वे प्रचार-प्रसार से दूर रहकर अपनी साधना में लीन रहते थे। संगीत जगत में उन्हें जो सम्मान मिला, वह उनके कठिन परिश्रम और कला के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतिफल था। उन्हें अपने जीवनकाल में कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, किंतु उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार श्रोताओं का वह अटूट प्रेम था जो उनकी रचनाओं को आज भी जीवित रखे हुए है।


​जीवन का दुखद अंत


​भारतीय संगीत का यह दैदीप्यमान नक्षत्र २२ दिसंबर, १९७५ को एक अत्यंत दुखद दुर्घटना में सदा के लिए अस्त हो गया। एक लिफ्ट दुर्घटना में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। उनके निधन से भारतीय संगीत जगत में जो रिक्तता उत्पन्न हुई, उसे कभी भरा नहीं जा सका। भले ही वे आज हमारे बीच भौतिक रूप से उपस्थित नहीं हैं, किंतु उनकी स्वर लहरियाँ और उनके द्वारा रचित अमर प्रार्थनाएँ आने वाली पीढ़ियों को सदैव शांति और शक्ति प्रदान करती रहेंगी।

​वसंत देसाई का जीवन हमें यह सिखाता है कि कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और समाज का कल्याण होना चाहिए। उनका संगीत आज भी भारतीय संस्कृति की सुगंध बिखेर रहा है।

Saturday, December 20, 2025

भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति : जीवन, साधना और योगदान

 प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति : जीवन, साधना और योगदान

भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली महान नृत्यांगनाओं में यामिनी कृष्णमूर्ति का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने नृत्य को केवल कला का माध्यम नहीं माना, बल्कि उसे साधना, अनुशासन और आध्यात्मिक अनुभूति का स्वरूप प्रदान किया। उनकी नृत्य शैली में शुद्धता, सौंदर्य और भावाभिव्यक्ति का ऐसा अद्भुत संगम दिखाई देता है, जिसने दर्शकों को मंत्रमुग्ध किया। वे भारतीय सांस्कृतिक विरासत की सशक्त प्रतिनिधि रहीं।

यामिनी कृष्णमूर्ति का जन्म बीस दिसंबर उन्नीस सौ चालीस को तमिलनाडु के चिदंबरम नगर में हुआ। उनका परिवार विद्वान और सांस्कृतिक वातावरण से जुड़ा हुआ था। बचपन से ही उन्हें कला, संगीत और नृत्य के प्रति आकर्षण था। परिवार ने उनकी रुचि को पहचाना और उन्हें शास्त्रीय नृत्य की विधिवत शिक्षा दिलाने का निर्णय लिया। यही निर्णय उनके जीवन की दिशा तय करने वाला सिद्ध हुआ।

उन्होंने बहुत कम आयु में नृत्य की शिक्षा आरंभ कर दी थी। उन्हें भारत के प्रसिद्ध गुरुओं से प्रशिक्षण प्राप्त हुआ। उन्होंने भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसे शास्त्रीय नृत्य रूपों में गहन साधना की। कठोर अभ्यास, अनुशासन और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण उनके प्रशिक्षण की विशेषता रही। वे घंटों अभ्यास करती थीं और नृत्य की सूक्ष्म से सूक्ष्म बारीकियों को आत्मसात करती थीं।

यामिनी कृष्णमूर्ति ने जब मंच पर पहली बार प्रस्तुति दी, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि वे साधारण नृत्यांगना नहीं हैं। उनकी देह की भंगिमाएं, नेत्रों की भाषा, मुद्राओं की शुद्धता और भावों की गहराई दर्शकों को गहराई से प्रभावित करती थी। उनके नृत्य में सौंदर्य के साथ-साथ गंभीरता और आध्यात्मिक भाव भी स्पष्ट रूप से झलकता था।

उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य शैली को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनकी प्रस्तुति में शास्त्रीय मर्यादा का पूर्ण पालन होता था, साथ ही उसमें नवीनता और सजीवता भी दिखाई देती थी। उन्होंने कुचिपुड़ी नृत्य को भी विशेष पहचान दिलाई। इन दोनों नृत्य शैलियों में उनकी समान दक्षता उन्हें अन्य कलाकारों से अलग बनाती है।

यामिनी कृष्णमूर्ति ने भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारतीय शास्त्रीय नृत्य का व्यापक प्रचार किया। उन्होंने अनेक देशों में मंच प्रस्तुतियां दीं और भारतीय संस्कृति की गरिमा को विश्व के सामने प्रस्तुत किया। उनकी नृत्य प्रस्तुतियों ने विदेशी दर्शकों को भारतीय दर्शन, परंपरा और सौंदर्यबोध से परिचित कराया। वे सांस्कृतिक दूत के रूप में भारत का गौरव बनीं।

उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे सर्वोच्च नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया गया। ये सम्मान न केवल उनकी व्यक्तिगत उपलब्धियों का प्रतीक हैं, बल्कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रतिष्ठा को भी दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें कई सांस्कृतिक संस्थानों और सभाओं द्वारा भी सम्मान प्रदान किया गया।

यामिनी कृष्णमूर्ति केवल एक महान नृत्यांगना ही नहीं, बल्कि एक श्रेष्ठ गुरु भी थीं। उन्होंने अपने ज्ञान और अनुभव को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए नृत्य प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। उनके शिष्य आज देश और विदेश में भारतीय शास्त्रीय नृत्य का प्रचार कर रहे हैं। गुरु और शिष्य परंपरा को उन्होंने पूरी निष्ठा और आदर के साथ निभाया।

निजी जीवन में यामिनी कृष्णमूर्ति अत्यंत अनुशासित और सरल स्वभाव की थीं। उनका जीवन कला और साधना को समर्पित था। वे मानती थीं कि नृत्य केवल मंच प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसी विचारधारा ने उन्हें जीवनभर प्रेरित किया। उन्होंने कभी भी कला से समझौता नहीं किया और शुद्धता को सर्वोच्च स्थान दिया।

अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक वे नृत्य और कला से सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। वे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में भाग लेती थीं और युवाओं को मार्गदर्शन देती थीं। उनका व्यक्तित्व प्रेरणास्रोत था और उनकी उपस्थिति मात्र से ही वातावरण में गरिमा का संचार हो जाता था।

यामिनी कृष्णमूर्ति का निधन तीस अगस्त दो हजार चौबीस को हुआ। उनके निधन से भारतीय कला जगत को अपूरणीय क्षति पहुंची। हालांकि वे शारीरिक रूप से हमारे बीच नहीं रहीं, लेकिन उनकी कला, शिक्षाएं और योगदान सदैव जीवित रहेंगे। वे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का अमर स्रोत हैं।

समग्र रूप से यामिनी कृष्णमूर्ति भारतीय शास्त्रीय नृत्य की एक उज्ज्वल ज्योति थीं। उनका जीवन परिचय समर्पण, साधना और सांस्कृतिक गौरव की कहानी है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सच्ची कला समय और सीमाओं से परे होती है। भारतीय नृत्य परंपरा में उनका स्थान सदैव सर्वोच्च रहेगा और उनका नाम श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता रहेगा।



भारतीय सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री नलिनी जयवंत : जीवन और कृतित्व

 भारतीय सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री नलिनी जयवंत : जीवन और कृतित्व

भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम युग में जिन अभिनेत्रियों ने अपनी सशक्त अभिनय प्रतिभा, गरिमामय व्यक्तित्व और सजीव अभिव्यक्ति से दर्शकों के मन पर अमिट छाप छोड़ी, उनमें नलिनी जयवंत का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने अपने अभिनय से न केवल नायिका की पारंपरिक छवि को सुदृढ़ किया, बल्कि संवेदनशील और सशक्त स्त्री पात्रों को भी नई पहचान दी। उनका जीवन संघर्ष, साधना और सिनेमा के प्रति समर्पण का अनुपम उदाहरण है।

नलिनी जयवंत का जन्म चौदह फरवरी उन्नीस सौ छब्बीस को मुंबई में हुआ। उनका परिवार शिक्षित और सांस्कृतिक मूल्यों से परिपूर्ण था। बचपन से ही उनमें कला के प्रति विशेष रुचि दिखाई देती थी। संगीत, नृत्य और अभिनय की ओर उनका झुकाव स्वाभाविक था। परिवार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में ही हुई, जहां उन्होंने अध्ययन के साथ-साथ रंगमंच और सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की।

फिल्मी दुनिया में उनका प्रवेश किशोरावस्था में ही हो गया था। आरंभिक दौर में उन्हें छोटे और सहायक भूमिकाएं मिलीं, किंतु उनकी सहज अभिनय शैली और प्रभावशाली उपस्थिति ने शीघ्र ही फिल्म निर्माताओं का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने जिस भी भूमिका को निभाया, उसमें स्वाभाविकता और गहराई स्पष्ट दिखाई देती थी। धीरे-धीरे वे मुख्य नायिका के रूप में स्थापित होने लगीं।

नलिनी जयवंत का अभिनय सौंदर्य केवल बाहरी आकर्षण तक सीमित नहीं था। उनकी आंखों की अभिव्यक्ति, संवाद अदायगी और भावनात्मक संतुलन उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग पहचान देता था। वे दुख, प्रेम, संघर्ष और आत्मसम्मान जैसे भावों को अत्यंत सजीव ढंग से प्रस्तुत करती थीं। यही कारण था कि दर्शक उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते थे।

उनके फिल्मी जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में सामाजिक और पारिवारिक कथानक वाली रचनाएं शामिल रहीं। उन्होंने कई ऐसे पात्र निभाए जो उस समय की सामाजिक परिस्थितियों, स्त्री की पीड़ा और उसके आत्मसम्मान को उजागर करते थे। उनकी भूमिकाओं में एक गरिमा और गंभीरता रहती थी, जो दर्शकों को सोचने पर विवश कर देती थी। वे केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं थीं, बल्कि समाज का आईना भी प्रस्तुत करती थीं।

नलिनी जयवंत ने अपने अभिनय करियर में अनेक प्रसिद्ध कलाकारों के साथ काम किया। उनके सह कलाकारों के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने खूब सराहा। पर्दे पर उनकी उपस्थिति संतुलित और प्रभावशाली रहती थी। वे कभी भी अपने अभिनय को अतिरंजित नहीं करती थीं, बल्कि सहजता के साथ पात्र में ढल जाती थीं। यही विशेषता उन्हें एक सशक्त अभिनेत्री के रूप में स्थापित करती है।

उनके अभिनय की सराहना आलोचकों द्वारा भी की गई। उन्हें कई बार प्रशंसा और सम्मान प्राप्त हुए। उनकी फिल्मों को न केवल व्यावसायिक सफलता मिली, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उन्हें महत्वपूर्ण माना गया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि सिनेमा में सफलता के लिए केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि गहन अभिनय क्षमता और अनुशासन भी आवश्यक है।

निजी जीवन में नलिनी जयवंत अत्यंत सादगीपूर्ण और आत्मसम्मान से परिपूर्ण महिला थीं। उन्होंने फिल्मी चकाचौंध से दूर रहकर एक संतुलित जीवन जीना पसंद किया। अभिनय के साथ-साथ वे साहित्य और संगीत में भी रुचि रखती थीं। उनका जीवन अनुशासन और आत्मनियंत्रण का उदाहरण था। उन्होंने कभी भी अनावश्यक विवादों या प्रचार से स्वयं को नहीं जोड़ा।

अपने करियर के उत्कर्ष काल में भी उन्होंने सीमित फिल्मों में काम किया। वे केवल वही भूमिकाएं स्वीकार करती थीं जिनमें उन्हें सार्थकता दिखाई देती थी। इस चयनशीलता के कारण उनका फिल्मी जीवन अपेक्षाकृत संक्षिप्त रहा, किंतु अत्यंत प्रभावशाली रहा। उनकी प्रत्येक भूमिका दर्शकों के मन में स्थायी स्मृति बनकर रह गई।

समय के साथ उन्होंने सिनेमा से दूरी बना ली और शांत जीवन को अपनाया। यह निर्णय उनके आत्मसम्मान और स्वाभाविक प्रवृत्ति को दर्शाता है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि कलाकार का मूल्य उसके कार्य से होता है, न कि निरंतर परदे पर बने रहने से। उनके द्वारा निभाए गए पात्र आज भी सिनेमा प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

नलिनी जयवंत का निधन बीस दिसंबर उन्नीस सौ छानवे को हुआ। उनके निधन से भारतीय सिनेमा ने एक संवेदनशील और सशक्त अभिनेत्री को खो दिया। हालांकि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, परंतु उनका अभिनय, उनकी फिल्में और उनकी गरिमामय छवि आज भी जीवित है। वे उन अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिन्होंने सिनेमा को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

समग्र रूप से देखा जाए तो नलिनी जयवंत भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। उनका जीवन परिचय संघर्ष, साधना और आत्मसम्मान की कहानी है। उन्होंने अपने अभिनय से यह प्रमाणित किया कि सच्ची कला समय की सीमाओं से परे होती है। आज भी जब उनके अभिनय को स्मरण किया जाता है, तो उनके व्यक्तित्व की गरिमा और कला की ऊंचाई स्पष्ट रूप से अनुभव की जा सकती ।

चौदह बरस की हीरोइन
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हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे- चमनलाल देसाई। वीरेन्द्र देसाई इन्हीं चमनलाल देसाई के पुत्र थे। उनकी एक कंपनी थी 'नेशनल स्टूडियोज़'। एक दिन दोनों पिता-पुत्र फ़िल्म देखने सिनेमाघर पहुँचे। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थीं, जिनकी आयु उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। दोनों पिता-पुत्र की जोड़ी ने दिल ही दिल में इस लड़की को अपनी अगली फ़िल्म की हीरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फ़िल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक दोनों को न हुई।
एक दिन वीरेन्द्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुँचे तो देखा कि नलिनी वहाँ मौजूद थीं। नलिनी को देखते ही उनकी आँखों में चमक आ गई और बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में अभिनेत्री नूतन और तनूजा की माँ और काजोल की नानी के रूप में अधिक जाना गया, नलिनी जयवंत के मामा की बेटी थीं। इस बार वीरेन्द्र देसाई ने बिना देर किए नलिनी के सामने फ़िल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन माँगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फ़िल्मों के सख्त विरोधी थे। लेकिन वीरेन्द्र देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से मकान में आश्रय मिला हुआ था। इस प्रकार नलिनी जयवंत की पहली फ़िल्म थी 'राधिका', जो 1941 में प्रदर्शित हुई। वीरेन्द्र देसाई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे- हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी आदि। फ़िल्म में संगीत अशोक घोष का था। इस फ़िल्म के दस में से सात गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी।
बीस दिसम्बर 2010 को इस बॉलीवुड फिल्म अभिनेत्री की चेम्बूर, मुम्बई में मृत्यु हुई।
रजनीकांत शुक्ला



Wednesday, December 17, 2025

वीआईपी दर्शन पर सुप्रिम आदेश, निर्णय केंद्र करे

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अशोक मधुप

वरिष्ठ  पत्रकार

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मंदिरों में 'वीआईपी दर्शन' सुविधा को चुनौती देने वाली याचिका भले ही खारिज कर दी, किंतु इस याचिका पर कोर्ट द्वारा कही गई बातों की गूंज दूर तक जाएगी। यह  गूंज केंद्र सरकार को  विवश करेगी कि वह मंदिरों में हाने वाले वीवीआईपी  दर्शन पर  रोक लगाने वाला निर्णय लें ।  कार्ट की ये गूंज  आने वाले समय  में मंदिरों के वीवीआईपी दर्शन कर रोक लगाने का रास्ता प्रशस्त करेगी।

मुख्य न्यायाधीश  संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि यह एक नीतिगत मामला है इस पर केंद्र सरकार को विचार करना होगा। बेंच ने यह भी कहा कि वीआईपी के लिए ऐसा विशेष व्यवहार मनमाना है। यह याचिका मंदिरों की तरफ से वसूले जाने वाले वीआईपी दर्शन शुल्क को समाप्त करने की मांग कर रही थी। मुख्य न्यायाधीश  ने कहा कि बेंच इस मुद्दे से सहमत है, लेकिन अनुच्छेद 32 के तहत निर्देश जारी नहीं कर सकती। उन्होंने कहा, 'हालांकि हमारी राय है कि मंदिरों में प्रवेश के संबंध में कोई विशेष व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन हमें नहीं लगता कि यह अनुच्छेद 32 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने का उपयुक्त मामला है।' यह आदेश में दर्ज किया गया लेकिन मामला सरकार के विचार के लिए छोड़ दिया गया।मुख्य न्यायधीश खन्ना ने कहा कि यह मामला कानून-व्यवस्था का प्रतीत होता है और याचिका इस पहलू पर होनी चाहिए थी। बेंच ने कहा, 'हम स्पष्ट करते हैं कि याचिका खारिज होने से संबंधित अधिकारियों को जरूरत के हिसाब से कार्रवाई करने से नहीं रोका जाएगा।

याचिकाकर्ता के वकील ने कहा, 'आज 12 ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ इस प्रैक्टिस को फॉलो करते हैं। ये मनमाना और भेदभाव वाला है। यहां तक कि गृह मंत्रालय ने भी आंध्र प्रदेश से इसकी समीक्षा करने को कहा है। चूंकि, भारत में 60 प्रतिशत पर्यटन धार्मिक है, इसलिए ये भगदड़ की प्रमुख वजह भी है।' सुप्रीम कोर्ट में ये याचिका विजय किशोर गोस्वामी ने डाली थी। उन्होंने मंदिरों में अतिरिक्त शुल्क लेकर 'वीआईपी दर्शन' के चलन को आर्टिकल 14 के तहत समानता के अधिकार और आर्टिकल 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन बताया। उन्होंने दलील दी कि जो लोग इस तरह का शुल्क अदा करने में असमर्थ हैं, ये उनके खिलाफ भेदभाव है। याचिका में जोर देकर कहा गया था कि कई मंदिर 400 से 500 रुपये में लोगों के लिए विशेष दर्शन की व्यवस्था करते हैं। इससे आम श्रद्धालु और खासकर महिलाएं, स्पेशली एबल्ड लोग और सीनियर सिटिजंस को दर्शन में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह मामला देश भर के मंदिरों में आम लोगों और वीआईपी के बीच भेदभाव के मुद्दे को उठाता है। वीआईपी दर्शन की सुविधा से आम लोगों को लंबी कतारों में इंतजार करना पड़ता है, जबकि वीआईपी आसानी से दर्शन कर लेते हैं।

ये एकजगह नही है,श्रृद्धालू को इस समस्या से सभी  जगह रूबरू होना पड़ता है।  जगह –जगह मंदिरों में इस समस्या का सामना करना पड़ा है। लगभग  40 साल पहले हम कोलकत्ता  गए। कालिका जी मंदिर में हम श्रृद्धालुओं की लाइन में लगे थे कि  हमारे एक साथी ने देखा  और हमें इशारा कर अपने पास बुला लिया। यहां पुजारी पांच रूपया प्रति व्यक्ति लेकर सीधे दर्शन करा  रहे थे। अभी  वेट द्वारिका जाना   हुआ। हम परिवार के छह सदस्य थे। एक पंडित जी ने हमसे पांच सौ रूपये लिए।अलग लाइन से हमें आराम से दर्शन कराए। भीड़− भाड़ भी बची।वैसे दर्शन में दो से तीन घंटे लगते  पांच सौ रूपये में आधा घंटा में दर्शन कर मंदिर से बाहर आ गए। करीब दस साल पहले हम गुजरात में अम्बा जी गए थे। दर्शन की लाइन में  लगे थे कि कर्मचारियों ने यह कह कर हमके रोक दिया कि दर्शन का समय समाप्त हो गया, जबकि कुछ अन्य को लगातार प्रदेश  दिया जा रहा। किसी तरह  हम अन्यों  वाली पंक्ति में शामिल हुए। तब दर्शन हुए। दर्शन भी  बड़े  आराम से हुए। काफी समय हम मंदिर में रूके , जबकि ऐसा  पहले संभव नही था। इस तरह का भेदभाव हमें कई जगह देखने को  मिला। उज्जैन में तो  आप  पंडित को पांच  सौ के आसपास रूपये दीजिए।वह मंदिर के गर्भ गृह में ले जाकर पूजन अर्चन कराते हैं। जो ये रकम नही देते वे गर्भगृह के बाहर ही दूर से दर्शन कर तृप्त  हो जाते हैं।ओंकारेश्वर में तो पंडित जी पूजा भी आराम से और श्रद्धालुओं की पंक्ति से अलग लेकर कराते हैं। मथुरा  जी के बांके बिहारी मंदिर में सुपरिम आदेश   से  यह व्यवस्था रूकी है, अन्यथा लगभग सभी मंदिरों की हालत ऐसी ही है।      

सुपरिम कोर्ट ने याचिका तो खारिज कर दी, किंतु इस  वीआईपी दर्शन पर रोक वाली गेंद केंद्र सरकार के पाले में यह कह कर डाल दी । बेंच ने कहाकि बेंच इस मुद्दे से सहमत है, लेकिन अनुच्छेद 32 के तहत निर्देश जारी नहीं कर सकती। मुख्य न्यायाधीश  संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि यह एक नीतिगत मामला है इस पर केंद्र सरकार को विचार करना होगा। बेंच ने यह भी कहा कि वीआईपी के लिए ऐसा विशेष व्यवहार मनमाना है।

सुपरिम कोर्ट का  यह  निर्देश  अब केंद्र सरकार को विवश करेगा कि मंदिरों में आम आदमी के साथ हो रहे भेदभाव को रोके और बांके बिहारी मंदिर की तरह पैसा लेकर कराए जा रहे वीआईपी दर्शन  की व्यवस्था  खत्म  करे। व्यवस्था  अयोध्या  जी के श्रीराम मंदिर जैसी हो, जहां श्रद्धालू बिना भेदभाव आराम से 25−30 मिनट में दर्शन कर बाहर आ सके।

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)


Sunday, December 14, 2025

अमर उजाला की स्थापना के 25 साल पूरे होने पर अखबार में मेरा लेख

 12 दिसम्बर को अमर उजाला मेरठ 32वे साल में प्रवेश पर गया।इस गौरवशाली पल के लिए अमर उजाला प्रबधन को बधाई।


Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश

मेरा यह लेख अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश पर मेरठ के सभी संसकरण में छपा है

सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित

अमर उजाला सदैव सत्य का पक्षधर रहा है। चाहे उसके पत्रकारों को एनएसए लगाकर जेल डालने का प्रयास किया गया हो या फिर सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों की हत्या की गई हो, अमर उजाला के कदम हर मुश्किल वक्त में निर्बाध रूप से आगे बढ़ते रहे। 24 वर्ष के स्वर्णिम सफर में समाज को जागरूक करने के साथ-साथ अमर उजाला अपने अंदर भी कई बदलाव लाया है। इस सफर में अमर उजाला को कई खट्टे-मीठे उतार चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा है।

अमर उजाला मेरठ के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उत्तरांचल के साथी उमेश डोभाल की वहां के शराब माफियाओं ने हत्या कर दी, तो एक रात आफिस से कार से घर लौटते समय ट्रक से टकराने पर डेस्क के साथी नौनिहाल शर्मा काल के गले में चले गए। अमर उजाला के गंगोह के साथी राकेश गोयल पर प्रशासन के विरुद्ध खबर लिखने पर एनएसए लगी। भाकियू के आंदोलन में स्वामी ओमवेश के साथ लेखक को भी एनएसए में निरुद्ध करने का प्रयास किया।

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सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित


बिजनौर में बरेली से अमर उजाला आता था। बरेली की दूरी ज्यादा होने के कारण समाचार समय से नहीं जा पाते थे। सीधी फोन लाइन बरेली को नहीं थी। कभी मुरादाबाद को समाचार लिखाने पड़ते तो कभी लखनऊ को। एक-दो बार दिल्ली भी समाचार नोट कराने का मौका मिला। ऐसे में तय हुआ कि बिजनौर को सीधे टेलीपि्रंटर लाइन से जोड़ा जाए। इसके लिए कार्य भी प्रारंभ हो गया। एक दिन श्री राजुल माहेश्वरी जी का फोन आया कि टीपी लाइन बरेली से नहीं मेरठ से देंगे। वहां से नया एडीशन शुरू होने जा रहा है।

मेरठ में कहां, क्या हो रहा है?, यह जानने की उत्सुकता थी तो मै और मेरे साथी कुलदीप सिंह एक दिन बस में बैठ मेरठ चले गए। मेरठ में वर्तमान आफिस की साइड में पुराना आफिस होता था। उसके हाल में एक मेज पर राजेंद्र त्रिपाठी बैठे मिले। राजेंद्र त्रिपाठी ने पत्रकारिता बिजनौर से ही शुरू की थी, इसलिए पुराना परिचय था। उन्होंने मेरठ के प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी दी और पूरी यूनिट लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

12 दिसंबर 1986 का दिन आया और समाचार पत्र का पूजन के साथ शुभारंभ हुआ। बिजनौर के लिए समाचार पत्र नया नहीं था। पूरा नेटवर्क भी बना था सो परेशानी नहीं आई। बिजनौर में समाचार पत्र लाने-ले जाने के लिए बरेली की ही टैक्सी लगी। बिजनौर-बरेली रूट पर एंबेसडर गाड़ी लगी । इसका चालक लच्छी था। कई दिन उसके साथ अखबार मेरठ से लाना पड़ा। फरवरी 87 में हरिद्वार लोकसभा क ा उपचुनाव हुआ। चूंकि अमर उजाला का नेटवर्क पूरी तरह नहीं बना था, इसलिए मुझे उस चुनाव का कवरेज करने के लिए भेजा गया और मैने पूरे चुनाव के दौरान रुड़की और हरिद्वार से चुनाव कवरेज भेजी।

तब टाइपराइटर से अखबार छापा गया

अमर उजाला मेरठ को इन 24 साल में कई खट्टे-मीठे अनुभव का सामना करना पड़ा। पहले समाचार टाइप होते । उनके पि्रंट निकलते और उन्हे पेज के साइज के पेपर पर चिपकाया जाता था। अब यह काम कंप्यूटर करता है। समाचार के पि्रंट निकालने के लिए दो पि्रंटर होते थे। एक पि्रंटर खराब हो गया। उसे ठीक करने इंजीनियर दिल्ली से आया किंतु वह खराबी नहीं पकड़ पाया। उसने खराब प्रिंटर को सुधारने के लिए चालू दूसरे प्रिंटर को खोल दिया, जिससे चालू प्रिंटर भी खराब हो गया। ऐसे में समस्या पैदा हो गई कि कैसे अखबार निकले? तय किया गया कि खबरें टाइपराइटर पर टाइप करवाई जाएं। सो कुछ पुरानी खबरें , कुछ इधर-उधर से आए समाचार लगाकर अखबार निकाला गया। इस अंक की विश्ेष बात यह रही कि इसमें अधिकतर खबरें और उनके हैडिंग टाइपराइटर से टाइप किए थे।

आग भी नहीं रोक पाई संस्करण को

ऐसे ही एक रात शॉर्ट सर्किट से अमर उजाला मेरठ के कार्यालय में आग लग गई । करीब सौ कंप्यूटर जल गए। ऐसी हालत में अखबार निकालना एक चुनौती थी। किंतु अगले दिन का अंक पूर्ववत: निकला और अखबार पर इस घटना का कोई असर दिखाई नहीं दिया। अमर उजाला का विस्तार क्षेत्र कभी गाजियाबाद नोएडा दिल्ली, बुलंदशहर और पूरे गढ़वाल में था। प्रसार बढ़ने के साथ नए-नए संस्करण निकलते चले गए।

श्याम-श्वेत से रंगीन तक का सफर

24 साल में अमर उजाला में बहुत परिवर्तन आया आठ पेज का अखबार आज औसतन 20 पेज पर आ गया। श्याम-श्याम में छपने वाला अमर उजाला आज पूरी तरह रंगीन हो गया। पहले स्थानीय महत्वपूर्ण समाचार अंतिम पेज पर छपते थे और बाकी उसी के पिछले के पेपर पर छपती थी। इसके बाद पेज पांच से स्थानीय समाचार छपने लगे और अब ये पेज दो से शुरू होने लगे। अनेक प्रकार के झंझावात और परेशानी को झेलते हुए अमर उजाला मेरठ 25 साल में प्रवेश कर रहा है। किंतु वह अपने रास्ते से नहीं भटका। जनसमस्या उठाने से कभी मुंह नहीं मोड़ा। समय के साथ कदम से कदम मिलाने में कभी झिझक नहीं महसूस की। समाचार पत्र नए जमाने के तेवर और तकनीक से तालमेल बनाने के प्रयास हमेशा जारी रहे।

• अशोक मधुप

Sunday, December 7, 2025

कुमार साहनी

 कुमार साहनी (1940-2024) भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता के रूप में दर्ज हैं, जिन्होंने अपनी कलात्मक और बौद्धिक दृष्टि से फिल्मों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि चिंतन और अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) या कला सिनेमा (Art Cinema) आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्मों से हटकर, गहन, काव्यात्मक, और अक्सर गूढ़ विषयों पर फिल्में बनाईं। साहनी को भारतीय सिनेमा का “विद्रोही कवि” या “दार्शनिक” कहा जाता है, जिनकी फिल्मों ने दशकों तक दर्शकों और आलोचकों दोनों को चुनौती दी और प्रेरित किया।

​प्रारंभिक जीवन और वैचारिक आधार

​कुमार साहनी का जन्म 1940 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे से फिल्म निर्देशन में शिक्षा प्राप्त की। FTII में, वह प्रख्यात फिल्म निर्माता ऋत्विक घटक के छात्र रहे, जिनकी गहरी वैचारिक समझ और कलात्मक स्वतंत्रता का प्रभाव साहनी के शुरुआती काम पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। साहनी ने केवल निर्देशन नहीं सीखा, बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा, भारतीय शास्त्रीय संगीत, कला इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसने उनके सिनेमाई दर्शन की नींव रखी।
​स्नातक होने के बाद, साहनी को 1960 के दशक के अंत में फ्रांस जाने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने महान फ्रांसीसी निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसों के साथ काम किया। ब्रेसों की Minimalism (अतिसूक्ष्मवाद) और अभिनेताओं के उपयोग की विशिष्ट शैली ने साहनी के सिनेमा को और अधिक परिष्कृत किया। साहनी की कलात्मक दृष्टि ऋत्विक घटक के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थवाद और रॉबर्ट ब्रेसों के औपचारिक अनुशासन का एक अनूठा संगम थी।

​सिनेमाई शैली: कविता, प्रतीक और दर्शन

​कुमार साहनी की फिल्में उनकी अत्यंत व्यक्तिगत और काव्यात्मक शैली के लिए जानी जाती हैं। उनकी फिल्में कथावाचन के पारंपरिक रैखिक तरीके का पालन नहीं करतीं; इसके बजाय, वे प्रतीकों, इमेजरी, और एक विशिष्ट लय पर निर्भर करती हैं। उनकी फिल्मों में अक्सर धीमी गति, लंबा टेक (long takes), और एक ध्यानपूर्ण चुप्पी होती है जो दर्शकों को फिल्म के भीतर के दर्शन को समझने के लिए मजबूर करती है।
​साहनी ने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मिथकों और लोककथाओं से प्रेरणा ली, लेकिन उन्हें एक आधुनिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी फिल्में सत्ता संरचनाओं, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, और व्यक्ति की आंतरिक दुविधाओं पर सवाल उठाती हैं। उनकी शैली को अक्सर “विचारों का सिनेमा” कहा जाता है, जहाँ चरित्र और कथानक से अधिक महत्वपूर्ण वह विचार या अवधारणा होती है जिसे वह व्यक्त करना चाहते हैं।

​प्रमुख फिल्में और योगदान

​साहनी के करियर में फिल्मों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन उनका महत्व बहुत अधिक है।

​’माया दर्पण’ (1972): यह साहनी की पहली फीचर फिल्म थी और इसे भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण शुरुआती कला फिल्मों में से एक माना जाता है। यह एक सामंती पृष्ठभूमि की महिला की निराशा और स्वतंत्रता की लालसा को एक स्तंभित, प्रतीकवादी शैली में दर्शाती है। इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता।

​’तरंग’ (1984): यह फिल्म साहनी के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। यह पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग के शोषण पर केंद्रित है, जिसे एक जटिल और परतदार तरीके से फिल्माया गया है।

​’ख्याल गाथा’ (1989): साहनी की यह कृति भारतीय शास्त्रीय संगीत (विशेषकर ख्याल गायकी) और उसके इतिहास पर एक अर्ध-वृत्तचित्र, अर्ध-काल्पनिक फिल्म है। यह भारतीय संस्कृति के सौंदर्यशास्त्र और उसकी निरंतरता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करती है।

​’कस्बा’ (1991): यह फिल्म चेखव की कहानी पर आधारित है और एक छोटे शहर की नैतिकता के पतन को दिखाती है, जिसमें साहनी की विशेषता वाली सूक्ष्मता और सामाजिक आलोचना निहित है।

​’बवंडर’ (1996): यह उनकी अंतिम फीचर फिल्म थी, जो राजस्थान की एक महिला की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिसने सामंती व्यवस्था और यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

​विरासत और प्रभाव

​कुमार साहनी का काम भारतीय सिनेमा के छात्रों, गंभीर फिल्म प्रेमियों और निर्देशकों की पीढ़ियों के लिए एक पाठ्यपुस्तक जैसा है। वे उन निर्देशकों में से थे जिन्होंने सौंदर्यशास्त्र और राजनीति को एक साथ लाने की हिम्मत की। उनकी फिल्मों को समझना हमेशा आसान नहीं रहा, लेकिन उनकी कलात्मक ईमानदारी और समझौता न करने वाले दृष्टिकोण ने उन्हें एक पंथ का दर्जा दिया।
​साहनी ने केवल फिल्में नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण लेख भी लिखे। उन्होंने हमेशा फिल्मों को एक व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ में देखा, जहाँ सिनेमा अन्य कला रूपों—संगीत, नृत्य, चित्रकला और साहित्य—से संवाद करता है।
​कुमार साहनी का निधन 2024 में हुआ, लेकिन उनका काम भारतीय सिनेमा को लगातार याद दिलाता रहेगा कि सिनेमा केवल एक उद्योग नहीं, बल्कि एक कला, एक दर्शन, और समाज को बदलने की शक्ति रखने वाला माध्यम भी है। वे सही मायने में भारतीय कला सिनेमा के एक स्तंभ थे।




Monday, December 1, 2025

बहुमुखी प्रतिभा का सशक्त चेहरा : फिल्म अभिनेता राकेश बेदी

 राकेश बेदी का जन्म 1 दिसंबर 1954 को दिल्ली में हुआ। वे एक भारतीय फ़िल्म, रंगमंच और टेलीविज़न अभिनेता हैं । उन्हें मुख्यतः मेरा दामाद, चश्मे बद्दूर (1981), और ये जो है ज़िंदगी (1984), श्रीमान श्रीमती (1995) और यस बॉस (1999-2009) जैसी फ़िल्मों में उनकी हास्य भूमिकाओं के लिए जाना जाता है।

बेदी ने अपनी पढ़ाई दिल्ली में पूरी की। उन्होंने दिल्ली के एंड्रयूजगंज स्थित केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाई की। स्कूल के दौरान, बेदी मोनो एक्टिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे। बेदी ने नई दिल्ली के थिएटर ग्रुप पिएरोट्स ट्रूप के साथ भी काम किया है और पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से अभिनय की पढ़ाई की है।
बेदी ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत 1979 में संजीव कुमार अभिनीत फ़िल्म हमारे तुम्हारे में एक सहायक अभिनेता के रूप में की और फिर 150 से अधिक फिल्मों और कई टीवी धारावाहिकों में अभिनय किया। उनकी कुछ सबसे यादगार भूमिकाएँ 1981 की फ़िल्म चश्मे बद्दूर में फारूक शेख और रवि बासवानी के साथ थीं और के. बालचंदर द्वारा निर्देशित एक दूजे के लिए और टीवी सिटकॉम श्रीमान श्रीमती (1995), यस बॉस (1999-2009) में मोहन श्रीवास्तव के रूप में, उनकी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक है और इसके लिए उन्हें बहुत सराहना मिली।
उन्होंने ज़ीक्यू पर एक विज्ञान शो, साइंस विद ब्रेनकैफे की मेजबानी की और मुंबई में थिएटर करना जारी रखा। विशेष रूप से, उन्होंने विजय तेंदुलकर के लोकप्रिय वन-मैन प्ले मसाज में 24 अलग-अलग किरदार निभाए। 2012 में, वह अपने पहले टेलीविजन ड्रामा डेली सोप, शुभ विवाह में दिखाई दिए। 2015 से, वह टेलीविजन शो भाबी जी घर पर हैं! में दिखाई देते हैं!


फिल्म और रंगमंच की दुनिया में राकेश बेदी अपनी सादगी, सहज अभिनय और स्वभाविक हास्य के बल पर दर्शकों के दिलों में विशेष स्थान बनाया। हिन्दी फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों में सक्रिय रहने वाले राकेश बेदी ने अभिनय को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे समाज और मनुष्य की भावनाओं को सहज रूप में व्यक्त करने का माध्यम बनाया। उनकी अभिनय यात्रा चार दशक से अधिक समय में फैली है, जिसमें उन्होंने हर प्रकार की भूमिका निभाई और अपनी अलग पहचान स्थापित की।


यद्यपि राकेश बेदी ने विविध भूमिकाएँ निभाईं, परन्तु हास्य कलाकार के रूप में उन्हें विशेष लोकप्रियता मिली। हिन्दी फ़िल्मों और धारावाहिकों में उनका हास्य कभी भी आक्रामक या असभ्य नहीं रहा, बल्कि सादगी से भरा, सरल और घरेलwपन लिये हुए रहा। उनके संवादों की प्रस्तुति, चेहरे की भाव-भंगिमाएँ और समयानुसार प्रतिक्रिया दर्शकों को सहज ही हँसा देती थी। इसी स्वाभाविकता ने उन्हें हिन्दी सिनेमा की हास्य परम्परा में एक सम्मानजनक स्थान दिय


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थ


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थे।


राकेश बेदी का रंगमंच से विशेष लगाव रहा है। फ़िल्मों और धारावाहिकों के व्यस्त समय में भी उन्होंने नाटकों से दूरी नहीं बनाई। रंगमंच ने उनके अभिनय को माँजने का काम किया। मंच पर वे हर बार नई ऊर्जा, नया रूप और नया अनुभव लेकर आते हैं। उनका मानना है कि रंगमंच किसी भी कलाकार को नई दृष्टि देता है और निरन्तर अभ्यास करवाता है। उनकी अनेक नाट्य प्रस्तुतियाँ आज भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय है!

राकेश बेदी की अभिनय शैली बड़े स्वाभाविक ढंग से दर्शक को छू लेती है। वे पात्र को वही रूप देते हैं, जैसा वह कथानक में दिखता है—न अधिक, न कम। चरित्र निर्माण में उनकी सबसे बड़ी विशेषता है सूक्ष्म अवलोकन शक्ति। वे जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों का उपयोग अपनी भूमिकाओं में करते हैं, जिससे उनका अभिनय जीवंत हो उठता है। उनका चेहरा सहज ही भावना व्यक्त कर देता है और संवादों की प्रस्तुति में भी वे अत्यधिक सरलता बनाए रखते हैं।लम्बे समय से राकेश बेदी भारतीय फ़िल्म और मनोरंजन जगत का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने ढेरों फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों के माध्यम से जो योगदान दिया है, वह अत्यन्त मूल्यवान है। अनेक पुरस्कार और सम्मान उन्हें प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनके अनुसार सबसे बड़ा सम्मान दर्शकों का विश्वास और स्नेह है। वे नवोदित कलाकारों को हमेशा यह सीख देते हैं कि अभिनय केवल प्रतिभा नहीं, बल्कि निरन्तर अभ्यास और अनुशासन का विषय है


राकेश बेदी ने मनोरंजन जगत के संसार में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। वे उन कलाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने कला को बाज़ार की वस्तु नहीं बनने दिया, बल्कि उसे संस्कृतिमय और मानवीय स्पर्श प्रदान किया। उनकी विनम्रता, सहजता और दार्शनिक दृष्टि उन्हें सामान्य कलाकारों से अलग बनाती है। आज भी वे सक्रिय हैं और दर्शकों को उत्कृष्ट मनोरंजन प्रदान कर रहे हैं। निःसन्देह, राकेश बेदी भारतीय अभिनय जगत के उन स्तंभों में से हैं, जिनकी उपस्थिति ने मनोरंजन को सौम्यता और संवेदनशीलता के साथ समृद्ध किया है।