लिखाड़ी
इस ब्लाँग पर दिए लेख लेखक की संपत्ति है। कृपया इनका प्रयोग करते समय ब्लाँग और लेखक का संदर्भ अवश्य दें।
Thursday, October 23, 2025
Wednesday, October 22, 2025
कविता से तलवार का काम लेने वाला कवि अदम गोंडवी
अदम गोंडवी भारतीय कवि थे। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा। मंच पर मुशायरों के दौरान जब अदम गोंडवी ठेठ गंवई अंदाज़में हुंकारते थे तो सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे। अदम गोंडवी की पहचान जीवन भर आम आदमी के शायर के रूप में ही रही। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बनाई थी। अदम गोंडवी कवि थे और उन्हें कविता में गंवई जिंदगी की बजबजाहट, लिजलिजाहट और शोषण के नग्न रूपों को उधेड़ने में महारत हासिल थी। वह अपने गांव के यथार्थ के बारे में कहा करते थे- "फटे कपड़ों में तन ढ़ाके गुजरता है जहां कोई/समझ लेना वो पगडंडी ‘अदम’ के गांव जाती है।"
भारतीय जनकवि अदम गोंडवी हिंदी साहित्य के उन विरल कवियों में से हैं जिन्होंने कविता को सत्ता या अकादमिक गलियारों से निकालकर सीधे जनता के बीच पहुंचाया। उन्होंने शब्दों को शस्त्र बनाया और अपने समय की सामाजिक असमानता, राजनीतिक भ्रष्टाचार और जातीय भेदभाव पर गहरी चोट की। एदम गोंडवी का नाम आते ही वह लोकभाषा में लिखी गई कविताएं याद आती हैं जो आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष को स्वर देती हैं।
जीवन परिचय
अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनका जन्म 22 दिसंबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के परसपुर ब्लॉक के आटा ग्राम में हुआ था। वे एक साधारण किसान परिवार से थे और बचपन से ही ग्रामीण जीवन की विषमताओं, गरीबी और जातिगत असमानताओं से परिचित थे। यही अनुभव बाद में उनकी कविताओं की आत्मा बने।
दम गोंडवी की औपचारिक शिक्षा बहुत आगे तक नहीं जा सकी, लेकिन उन्होंने जीवन के कठोर अनुभवों से सीखा। साहित्य और राजनीति दोनों में उनकी रुचि थी। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे और डॉ. राममनोहर लोहिया तथा बाबा नागार्जुन जैसे कवियों से प्रेरणा ली। उनका जीवन भले सादगी से भरा रहा, परंतु उनकी कविता ने सत्ता के गलियारों तक आवाज़ पहुँचाई।
1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यन्त कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया। 2007 में उन्हें अवधी/हिंदी में उनके योगदान के लिए शहीद शोध संस्थान द्वारा माटी रतन सम्मान से सम्मानित किया गया था। 18 दिसंबर 2011 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं।
कविता का स्वरूप और विषयवस्तु
अदम गोंडवी की कविताएँ जनजीवन की वास्तविकता का दस्तावेज़ हैं। उन्होंने शहरी चमक-दमक से दूर गांवों के भूले-बिसरे लोगों, दलितों, किसानों, मजदूरों और वंचित वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी।
उनकी भाषा खड़ीबोली और अवधी का मिश्रण है — सहज, बोलचाल की और जनता से जुड़ी हुई। यही कारण है कि उनकी कविताएं पाठशालाओं की चारदीवारी से निकलकर जनसभाओं और आंदोलनों का हिस्सा बन गईं।
वे ‘कविता को जन के पक्ष में हस्तक्षेप का माध्यम’ मानते थे। उनके अनुसार,
> “कविता अगर अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती, तो वह कविता नहीं, शृंगार मात्र है।”
सामाजिक चेतना और राजनीतिक व्यंग्य
एदम गोंडवी की रचनाओं में समाज की सच्चाई का नंगा चेहरा दिखाई देता है। उन्होंने गरीबी, भूख, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार को खुलकर चुनौती दी। उनकी कविताओं में गुस्सा भी है, व्यंग्य भी, और गहरी करुणा भी।
उनकी प्रसिद्ध कविता ‘चमारों की गली’ में भारतीय समाज की जातिवादी संरचना पर तीखा प्रहार किया गया है —
“तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो,
इधर परधान साहब बेटियों को बेच देते हैं।”
यह कविता केवल एक गांव की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र का कटु यथार्थ बयान करती है।
एदम गोंडवी की कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। उनकी प्रसिद्ध काव्य-संग्रहों में प्रमुख हैं —
1. धरती की सतह पर
2. समर शेष है
3. संपूर्ण कविताएँ (संकलन)
उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ हैं —
चमारों की गली,धरती की सतह पर,जाति पर व्यंग्य करती कविता ‘मुसलमान’, सामाजिक असमानता पर ‘जनता की भाषा में’, ‘संविधान क्या तुम्हें बचा पाएगा’,‘तुम्हारी सभ्यता’ ‘सवाल पूँछता है जनता
अदम गोंडवी की पंक्तियाँ सीधे हृदय को छूती हैं —
> “जो चुप रहेगी भाषा, वो कायर कहलाएगी,
जो सच कहेगी भाषा, वो बागी कहलाएगी।”
> “सच बोलना अगर गुनाह है तो मैं गुनहगार हूँ,
झूठ की मंडी में सच्चाई का कारोबार हूँ।”
> “मुसलमान और हिन्दू दो हैं ऐसे दर्द के साथी,
एक का जख्म राम कहे, दूजा खुदा पुकारे।”
---कविता में लोकधारा का प्रभाव
अदम गोंडवी की कविता में अवधी लोकधारा और भक्ति परंपरा का गहरा प्रभाव है। उनकी कविता में तुलसीदास की करुणा, कबीर की सच्चाई और नागार्जुन की जनपक्षधरता दिखाई देती है। वे ‘लोककवि’ इस अर्थ में हैं कि उनकी कविता जनता की ज़ुबान में बोलती है और जनता के पक्ष में खड़ी होती है।
--साहित्यिक योगदान और प्रभाव
अदम गोंडवी ने हिंदी कविता को वह आवाज़ दी जो जन आंदोलनों और सामाजिक बदलाव की मांग करती है। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और नई पीढ़ी के कवियों को जनपक्षधरता का मार्ग दिखाती हैं।
वे न पुरस्कार के भूखे थे, न प्रसिद्धि के। उन्होंने कहा था —
> “मुझे अपने शब्दों पर भरोसा है,
ये किसी पुरस्कार से ज़्यादा कीमती हैं।”
उनकी कविताएँ आज भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि संघर्ष का दस्तावेज़ भी है।
उपसंहार
अदम गोंडवी की कविताएँ भारतीय लोकतंत्र की अंतःकथाएँ हैं — वह लोकतंत्र जो आज भी गांवों, झोपड़ियों और खेतों में अधूरा है। उन्होंने जनता के पक्ष में खड़े होकर कविता को हथियार बनाया और साबित किया कि एक सच्चा कवि वही है जो जनता की पीड़ा को अपनी आवाज़ बनाए।
आज जब समाज में असमानता, जातिवाद और सत्ता का दुरुपयोग फिर उभर रहा है, तो एदम गोंडवी की कविताएँ और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो उठती हैं। वे हमें याद दिलाती हैं कि कविता केवल शब्द नहीं, बल्कि परिवर्तन की चिंगारी है।
---निष्कर्ष में
अदम गोंडवी भारतीय जनकविता की वह मशाल हैं, जो अंधकार में भी रोशनी देती है। उनकी पंक्तियाँ आज भी चेतावनी की तरह गूंजती हैं —
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको" : अदम गोंडवी
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
अदम गोंडवी ने लिखा था
…. जितने हरामख़ोर थे क़ुर्बो-जवार में
परधान बनके आ गए अगली क़तार में
दीवार फाँदने में यूँ जिनका रिकॉर्ड था
वे चौधरी बने हैं उमर के उतार में
फ़ौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई
जो भी ज़मीन ख़ाली पड़ी थी कछार में
बंजर ज़मीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप
ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुख़ार में
जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुज़ार दें
समझो कोई ग़रीब फँसा है शिकार में
ख़ुदी सुक़रात की हो या कि हो रूदाद गांधी की ,
सदाक़त जिन्दगी के मोर्चे पर हार जाती है ।
फटे कपड़ों से तन ढ़ांके गुजरता हो जहां कोई
समझ लेना वो पगडण्डी ‘अदम’ के द्वार आती है ।
(अदम गोंडवी)
Monday, September 8, 2025
रिश्तों की गरिमा की पुनर्स्थापना का यक्ष प्रश्न
अशोक मधुप
−−−−−−−−
आज जगह – जगह रिश्तों का खून हो रहा है। हैं।हालत यह है कि बाप बेटी को मार रहा
है ।बेटी बाप को मार रही है ।पति-पत्नी को मार रहा है। पत्नी −पति की हत्याकर रही
है।भाई− बहिन को मारते नही झिझक रहा तो भाई की हत्या करते बहन के हाथ नही कांप
रहे।मां − बेटे और बेटी का हत्या कर रही है तो बेटा और बेटी मां को ही नही बाप की
भी हत्या कर रहे हैं।ऐसा लगता है कि भारत की परिवार व्यवस्था टूट चुकी है। रिश्तों
पर स्वार्थ हावी हो गया है।
−−−−−−−
आज समाज का सबसे दुखद और चिंताजनक पहलू यह है
कि जिन रिश्तों को सबसे पवित्र और मजबूत माना जाता है, वहीं रिश्ते टूट रहे हैं और हिंसा का
शिकार हो रहे हैं। समाचार पत्र और टीवी चैनल लगभग रोज़ाना ऐसी ख़बरें दिखाते हैं।हालत
यह है कि बाप बेटी को मार रहा है ।बेटी बाप को मार रही है ।पति-पत्नी को मार रहा
है। पत्नी −पति की हत्याकर रही है।भाई− बहिन को मारते नही झिझक रहा तो भाई की
हत्या करते बहन के हाथ नही कांप रहे।मां बेटे और बेटी का हत्या कर रही है तो बेटा
और बेटी मां को ही नही बाप की भी हत्या कर रहे हैं।ऐसा लगता है कि भारत की परिवार
व्यवस्था टूट चुकी है। रिश्तों पर स्वार्थ हावी हो गया है। व्यक्तिवाद ने समाज पर
अपना अधिकार कर लिया।
इन घटनाओं ने यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि
आखिर इंसान को इतना निर्दयी और क्रूर कौन बना रहा है? जिन संबंधों में विश्वास, अपनापन और प्रेम होना चाहिए, वहां नफरत, तनाव और हिंसा क्यों बढ़ रही है?लगता है कि भारतीय परिवार टूटने का असर यह हुआ है कि एकल परिवार अब अपने तक सीमित होने की जद्दोजहद
में है।पहले संयुक्त परिवार होते
है।सामूहिक चूल्हा होता था। सामूहिक खान − पान था। हमारे बचपन तक खाना रसोई के पास जमीन पर बैठकर जीमा जाता था।परिवार
के बुजुर्ग बच्चे साथ बैठकर भोजन करते थे। सब दुख− सुख के साथी थे।प्रायः जरूरत के
सामान सब घर के आसपास मिल जाते थे।धीरे – धीरे
परिवार की जरूरते बढ़ने लगीं। युवक रोजगार के लिए बाहर जाने लगे।धीरे− धीरे
उनके साथ पत्नी और बच्चे नौकरी वाले स्थान पर रहने लगे। आज आदमी अपने तक सीमित
होकर रह गया। व्यक्तिवाद हावी हो गया।
लगता है कि जैसे समाज ने सारे रिश्ते जंगल
बनाकर रहेंगे। हम आदि व्यवस्था से भी आदम की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।इन सब रिश्तों
को दोबारा कैसे जिंदा किया जाए इस पर विचार करना
होगा।पहले के समय में संयुक्त परिवार होते थे।
परिवार के बुज़ुर्ग विवादों को संभालते, बच्चों को संस्कार देते और छोटी-छोटी
गलतियों को समय रहते सुधार लेते। आज अधिकांश परिवार ‘न्यूक्लियर फैमिली’ यानी छोटे परिवार बन गए हैं। ऐसे में
पति-पत्नी के झगड़े सुलझाने वाला कोई नहीं
होता।माता-पिता और बच्चों के बीच पीढ़ीगत संवाद टूट गया है।अकेलापन और अवसाद घर कर जाता है।जब संवाद टूटता है तो ग़लतफ़हमियाँ बढ़ती हैं और
छोटी-सी बात हिंसा तक पहुँच जाती है।
पहले मोहल्ले और गाँव के लोग भी परिवार के
सदस्य जैसे होते थे। यदि किसी परिवार में कलह होती थी तो पड़ोसी हस्तक्षेप करके
सुलह करा देते थे। आज लोग एक-दूसरे से अलग-थलग हो गए हैं।‘निजता’ के नाम पर लोग किसी के मामलों में
बोलना नहीं चाहते।इस चुप्पी का नतीजा है कि छोटे विवाद हिंसक रूप ले लेते हैं।परिवारों
में हिंसा का एक बड़ा कारण आर्थिक तनाव भी है।महँगाई, बेरोज़गारी और आर्थिक असमानता ने लोगों
को चिड़चिड़ा बना दिया है।पिता बेरोज़गार बेटे पर गुस्सा निकालते हैं, बेटा अपमानित होकर पिता की हत्या तक कर
देता है।पति-पत्नी के बीच आर्थिक जिम्मेदारियों को लेकर झगड़े होते हैं जो कभी-कभी
खून-खराबे में बदल जाते हैं।शराब, ड्रग्स और अन्य नशे परिवारिक हिंसा की जड़ हैं। नशे में व्यक्ति का
विवेक खत्म हो जाता है और वह अपने ही परिवार को मारने तक से नहीं हिचकिचाता। भारत
में लगभग 30 प्रतिशत घरेलू हिंसा के मामलों में नशे को मुख्य कारण माना गया है।
आज के समय में शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी
या पैसा कमाना रह गया है। बच्चों को नैतिक शिक्षा, संस्कार और धैर्य सिखाने की परंपरा
कमजोर हो चुकी है।सम्मान और सहनशीलता की जगह ‘आत्मकेंद्रितता’ बढ़ रही है।लोग रिश्तों को बोझ समझने
लगे हैं।आपसी विश्वास और त्याग की भावना खत्म हो रही है।यही कारण है कि भाई-बहन, पति-पत्नी, माँ-बेटे जैसे पवित्र रिश्ते भी हत्या
जैसे अपराध तक पहुँच जाते हैं।
मोबाइल, टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने जीवन की
धारा को बदला है।युवा वर्ग आभासी (Virtual) दुनिया में ज्यादा जी रहा है।परिवार को
समय न देकर ‘फ्रस्ट्रेशन’ (तनाव) में डूब जाता है।अपराध आधारित
वेब सीरीज़ और हिंसक वीडियो गेम ने भी संवेदनाओं को कुंद कर दिया है।लोग वास्तविक
जीवन में भी गुस्से और हिंसा को सामान्य मानने लगे हैं।
आज मानसिक स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है।
डिप्रेशन, तनाव
और मनोविकृति से पीड़ित लोग अक्सर हिंसा की ओर बढ़ जाते हैं।कई बार माता-पिता
अवसाद में आकर अपने ही बच्चों की हत्या कर देते हैं।युवा अवसादग्रस्त होकर
माता-पिता पर हमला कर बैठते हैं।मानसिक रोगों की पहचान और इलाज की व्यवस्था की कमी
के कारण ऐसी घटनाएँ बढ़ रही हैं।परिवारों में संपत्ति विवाद हिंसा का बड़ा कारण
है।भाई-भाई की हत्या कर देते हैं।बेटे-बेटियाँ माँ-बाप की संपत्ति हथियाने के लिए
उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं।ज़मीन-जायदाद के झगड़े अक्सर खून-खराबे तक पहुँच
जाते हैं।
पारिवारिक हिंसा सिर्फ़ अपराध नहीं है, बल्कि समाज की चेतावनी भी है। यह हमें
बताता है कि हम रिश्तों के मूल्य, संस्कारों और आपसी संवाद को खोते जा रहे हैं। अगर समय रहते सुधार
नहीं किया गया तो परिवार जैसी संस्था ही कमजोर हो जाएगीहमें यह समझना होगा कि पैसा, आधुनिकता और तकनीक से ज़्यादा
महत्वपूर्ण मानवता, प्रेम और विश्वास है। यदि रिश्तों में करुणा, धैर्य और संवाद कायम रहेगा तो न बाप
बेटी को मारेगा, न
बेटी बाप को, न
पति पत्नी पर हाथ उठाएगा और न ही भाई-बहन, माँ-बाप, बेटे-बेटी हत्या तक पहुँचेंगे।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
−−−−−
Thursday, September 4, 2025
बेसिक शिक्षा में गुरू जी को क्लर्क मत बनाइए
अशोक मधुप
उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग में गुरू जी को क्लर्क बनाने का अभियान चल रहा है। इसे रोका जाना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को इसमें दख्ल देना चाहिए। गुरू की गरिमा बचाने के लिए उन्हें आगे आना चाहिए।नहीं रोका गया तो प्रदेश की बेसिक शिक्षा को पतन की और जाने से नही रोका जा सकेगा।
गुरूजी का पद समाज में सम्मान का पद है। गुरू जी शिक्षा की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। वह बच्चों को शिक्षा देने के साथ आदर्श, नैतिकता, मानवता के गुण विकसित करते हैं।इसीलिए गुरू को गोविंद से बड़ा दर्जा दिया गया है।दोहा है− गुरू गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाएं, बलिहारी गुरू आपने , गोविंद दियो बताए। गुरू सम्मान और गुरू परंपरा का पतन महाभारत काल से होना शुरू हुआ। जब गुरू राज दरबारी होने लगे। बाद में मुस्लिम काल और ब्रिटिश काल में उनकी जीविका की जिम्मेदारी सरकार ने संभाल ली। जो उन्हें अधोनत करती चली गई। इसके बावजूद समाज में आज भी गुरू जी का बड़ा सम्मान है। आदर है।आज की पीढ़ी भी अपने गुरू के चरण स्पर्श करते देखी जा सकती है। हालाकि समाज के पतन का असर सब क्षेत्र में आया है। इससे गुरू जी बचे रहें, यह कहना गलत होगा, फिर भी यहां अभी बहुत धर−भर है ।
पिछले कुछ साल से देखा जा रहा है कि निरीक्षण पर आने वाले विभागीय और प्रशासनिक अधिकारी बच्चों के सामने शिक्षकों का अपमान करते नहीं चूकते। छात्रों के सामने उनसे उल्टे− सीधे प्रश्न पूछते हैं। न बताने पर छात्रों के सामने उन्हें अपमानित करते हैं।सोचिए अपने सामने डांट और अपमानित हुए शिक्षक को उनके छात्र कैसे सम्मान देंगेॽशिक्षको से अलग बुलाकर भी तो पूछताछ हो सकती है।वेसे भी निरीक्षण में आए अधिकारियों को समझना चाहिए कि अब शिक्षक योग्यता के बल पर रखे जा रहे हैं। मैरिट पर उनका चयन हो रहा है। उनका सम्मान बनाये रखने की सबकी जिम्मेदारी है।
बेसिक शिक्षा को सुधारने की बात चलती है। बच्चों को स्कूल लाने के लिए मिड डे मील, छात्रवृति और ड्रेस आदि देकर उन्हें स्कूल लाने की बात की जा रही है।इनसे बच्चे स्कूल नही आएंगे। आएंगे तो सिर्फ परिषदीय स्कूलों में शिक्षा का माहौल बनाने से।माहौल बनाने पर कोई ध्यान नही दे रहा। शिक्षक को कामचोर, बेइमान , नाकारा बताने और अपमानित करने का काम हो रहा है। यदि शिक्षा को बेसिक शिक्षा को सुधारना होगा, तो गुरू का सम्मान बहाल करना पड़ेगा।
आज स्थिति यह है कि परिषदीय शिक्षक से पढ़ाई कम कराई जारही है,उससे पढ़ाई से ईतर ज्यादा कार्य लिए जा रहे हैं।जनगणना में शिक्षकों की डयूटी लगाई जाती है।पल्स पोलियो अभियान को कामयाब बनाने घरों से बच्चे बूथ तक बुलाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी जाती है। वोटर लिस्ट बनाने, उनके संशोधन और प्रदर्शन और चुनाव में शिक्षकों की डयूटी लगाई जाती है। एक शिक्षक ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि पिछले डेढ़ साल से डीबीटी के काम में उलझे हुए हैं।इसमें प्रत्येक छात्र की सूचनांए संकलित करनी होती हैं ।इसके लिए छात्र के अभिभावकों के आधार नंबर तथा अकाउंट नंबर से आधार और मोबाइल का लिंक होना जरूरी है।गांव के लोग त्रुटिपूर्ण आधार बनवाए हुए हैं ।इनके करेक्शन के लिए अभिभावकों को बैंक या ब्लॉक कार्यालय भेजना शिक्षक के काम में शामिल हो गया है।अभिभावक प्रायः अपनी दिहाड़ी छोड़कर नहीं जाते। अभिभावकों के आधार कार्ड ठीक कराने के लिए शिक्षकों पर दबाव बनाया जाता है। अक्सर शिक्षक अपनी जेब से किराया खर्च करके उन्हें आधार कार्ड ठीक कराने भेजते हैं ।ऐप ठीक से काम नहीं करता और शिक्षक परेशान होते रहते हैं।इसके अलावा कोरोना काल में जब स्कूल बंद थे तो उन दिनों के कन्वर्जन कॉस्ट का भुगतान करने के लिए एक −एक बच्चे के बैंक खाते आईएफएससी कोड आदि की डिटेल बनाकर बैंक में भेजनी पड़ती है।उन दिनों के मिड डे मील के खाद्यान का कैलकुलेशन करना पड़ता था कि कौन बच्चा कितने दिन विद्यालय में रहा। उतने ही किलोग्राम चावल और गेहूं की क्वांटिटी तैयार करके राशन डीलर को देनी होती है । सरकार द्वारा दिए गए एक राशन वितरण प्रपत्र पर 10−12 तरह की डिटेल्स प्रत्येक बच्चे की भरकर उन्हें देनी होती है। इसे दिखाकर वह राशन प्राप्त करते हैं।विद्यालय की पुताई कराना, पाठ्य पुस्तकें बीआरसी से या न्याय पंचायत केंद्र से उठाकर लाना उनकी डयूटी में शामिल हो गया है।रोजाना तरह− तरह की सूचनाएं विभाग द्वारा मांगी जाती हैं, वह तैयार करके भेजनी होती हैं।सड़क सुरक्षा सप्ताह हो या संचारी रोग पखवाड़ा, जल संरक्षण हो या भूमि संरक्षण ,टीवी के मरीज को गोली लेना हो या कितने अभिभावकों ने कोविड-19 की वैकसीन लगवाई, यह डाटा पता करना सब शिक्षक के जिम्मे है।बच्चों को लंबे समय से आयरन और अल्बेंडाजोल की गोली खिलाई जारही हैं। फिर भी गोली खिलाने के लिए एक दिन का प्रशिक्षण उन्हें बदस्तूर हर साल दिया जाता है।अभी प्रतापगढ़ के डीएम ने आदेश किया है कि गांव के टीबी मरीजों को उपचार होने तक परीषदीय शिक्षक उन्हें गोद लेंगे।डीएम का आदेश है।अब टीचर क्या −क्या करेॽ
होना यह चाहिए कि गैर शिक्षेतर कार्य के लिए संविदा पर व्यक्ति रखें जाए। उनसे कार्य लिया जाए।इससे बहुत से बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिलेगा, उधर शिक्षक सब चीजों से मुक्त होकर बच्चों को पढ़ाने के कार्य में लगेंगे। इससे इन विद्यालयों में शिक्षा का माहौल बन सकेगा। उत्तर प्रदेश के स्कूल शिक्षा महानिदेशक विजय किरन आनंद का एक आदेश सोशल मीडिया पर चल रहा है। इसमें इन्होंने जिला बेसिक शिक्षाधिकारियों से कहा है कि मानिटरिंग से पता चलता है कि परिषदीय स्कूल के शिक्षक अवकाश नही ले रहे।इससे लगता है कि आप उनकी उपस्थिति की सही से जांच नही कर रहे।यह स्वीकारीय नही है।आपको निर्देशित किया जाता है कि आप क्षेत्र के विद्यालयों का नियमित निरीक्षण करें।स्कूल से गैर हाजिर शिक्षकों की अनुपस्थिति लगांए।
अब इन महानिदेशक महोदय को कौन समझाए कि शिक्षक को साल में 14 आकस्मिक अवकाश मिलते हैं। उन्हें वह आड़े सयम के लिए संभाल कर रखता है। मजबूरी में ही ये अवकाश लिए जाते हैं।छोटी −मोटी बीमारी में भी वह डयूटी पर जातें हैं। गैर हाजरी लगने के डर से भयंकर बारिश भी उन्हें नही रोकती।
जब तक बेसिक शिक्षा में उच्च पद पर बैठे अधिकारी सही स्थिति नही समझेंगे, हालात में सुधार होने वाला नही हैं। गुरू को क्लर्क बनाने से काम नही चलेगा। अधिकारियों को उसका सम्मान कराना सिखाना होगा।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Sunday, August 31, 2025
एक सिंतबर के लिए अ हिंदुस्तानी गजल से मशहूर हुए दुष्यंत कुमार
अशोक मधुप
−−−−−
आज एक सिंतबर है प्रसिद्ध हिंदी गजलकार दुष्यंत कुमार की जन्मदिन है। बिजनौर के राजपुर नवादा गांव में एक सिंतबर 1933 में जन्मे दुष्यंत कुमार का मात्र 43 वर्ष की आयु में 30 दिसंबर 1975 को भोपाल में उनका निधन हुआ।
−−−−−
हिंदी साहित्यकार −गजलकार दुष्यंत कुमार हिंदी गजल के लिए जाने जाते हैं। वे हिंदी गजल के लिए विख्यात है किंतु उन्हें यह ख्याति हिंदी गजलों के लिए नहीं , हिंदुस्तानी गजलों के लिए मिली। संसद से सड़क तब मशहूर हुए उनके शेर हिंदुस्तानी हिंदी में हैं। हिंदुस्तानी हिंदी में उन्होंने सभी प्रचलित शब्दों को इस्तमाल किया। शब्दों को प्रचलित रूप में इस्तमाल किया।
वे अपनी पुस्तक साए में धूप की भूमिका में खुद कहते हैं “ ग़ज़लों को भूमिका की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; लेकिन,एक कैफ़ियत इनकी भाषा के बारे में ज़रूरी है। कुछ उर्दू—दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है।उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ’वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है।
—कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझकर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ’शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ,किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है,जिस रूप में वे हिन्दी में घुल−मिल गये हैं। उर्दू का ‘शह्र’ हिन्दी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है ।ठीक उसी तरह जैसे हिन्दी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ॠतु’ ‘रुत’ हो गई है।
—कि उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है। मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ। इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ।
—कि ग़ज़ल की विधा बहुत पुरानी,किंतु विधा है,जिसमें बड़े—बड़े उर्दू महारथियों ने काव्य—रचना की है। हिन्दी में भी महाकवि निराला से लेकर आज के गीतकारों और नये कवियों तक अनेक कवियों ने इस विधा को आज़माया है।”
ग़ज़ल पर्शियन और अरबी से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब हैं औरतों से अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ हैं माशूक से बातचीत का माध्यम। उर्दू के साहित्यकार स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी ने ग़ज़ल की भावपूर्ण परिभाषा लिखी हैं। कहते हैं कि, ‘जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते −भागते किसी ऐसी झाड़ी में फंस जाता हैं जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती हैं। उसी करूण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रगट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श हैं’।
दुष्यंत की गजलों की खूबी है साधारण बोलचाल के शब्दों का प्रयोग, हिंदी− उर्दू के घुले मिले शब्दों का प्रयोग । चुटीले व्यंग उनकी गजल की खूबी है।वे व्यवस्था और समाज पर चोट करते हैं। ये ही उन्हें सीधे आम आदमी के दिल तक ले जाती है। उनकी ये शैली उन्हें अन्य कवियों से अलग और लोकप्रिय करती है।
आम आदमी और व्यवस्था पर चोट करने वाले दुष्यंत कुमार के शेर, व्यवस्था पर चोट करते उनके शेर सड़कों से संसद गूंजतें है। शायद दुष्यंत कुमार अकेले ऐसे साहित्यकार होंगे , जिसके शेर सबसे ज्यादा बार संसद में पढ़े गए हों। सभाओं में नेताओं ने उनके शेर सुनाकर व्यवस्था पर चोट की हो।सरकार को जगाने और जनचेतना का कार्य किया हो।उन्होंने हिंदी गजल भी लिखी, पर वह इतनी प्रसिद्धि नही पा सकी, जितनी हिंदुस्तानी हिंदी में लिखी गजल लोकप्रिस हुईं।
उनके गुनगुनाए जाने वाले उनके कुछ हिंदुस्तानी हिंदी के शेर हैं−
−वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है।
−रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों।
−कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता ,
एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारों।
− यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसतें है,
खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा,
−गूँगे निकल पड़े हैं ज़बाँ की तलाश में ,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
−पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं ।
आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है ,
पत्थरों में चीख़ हरगिज़ कारगर होगी नहीं।
इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो,
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं ।
−सिर से सीने में कभी पेट से पाँव में कभी ,
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है ।
−मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
ये किसी की व्यक्तगत आलोचना है।
−ये जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा,
मैं सज्दे में नही था, आपको धोखा हुआ होगा।
−तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए,
छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं।
−हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं।
गजल
हो गई है पीर पर्वत सी पिंघलनी चाहिए,
अब हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Monday, August 25, 2025
आम जीवन सरल बनाने में मदद कीजिए
आम जीवन सरल बनाने में मदद कीजिए
अशोक मधुप
वरिष्ठ पत्रकार
सरकारों का काम आदमी के जीवन को सरल बनाना है।तकनीक के माध्यम से उसे ऐसी सुविधांए देना है कि वह परेशान न हो, किंतु भारत में हो इसके विपरीत रहा है। उन्हें अलग −अलग काम के लिए थोड़ी− थोड़ी बात के लिए परेशान किया जा रहा है। उनके जीवन को दुरूह किया जा रहा है।
आज सबसे बड़ी परेशानी हैं बैंको में जाकर खाते की केवाईसी कराने की।बैंकों की केवाईसी के नाम पर बैंक खाताधारक को परेशान किया जा रहा है।हालत यह है कि केवाईसी करानी है, इसकी उसे सूचना भी नही मिलती। उसे उसके लिए बैंक की ओर से मैसेज भी नही आता।
मेल आनी चाहिए। किंतु ऐसा हो नही रहा। वैसे प्रत्येक ट्रांजेक्शन के मैसेज आते रहते हैं। केबाईसी कराना है, इसका पता तब चलता है जब खातेधारक के चैक का भुगतान रोक दिया जाता है। वह पेमेंट नही कर पाता ।भुगतान रोकने के कारण चैक जारी करने वाले पर संबधित बैक या सस्थाएं चार सौ से आठ सौ रूपये तक का जुर्माना लगा देती है।मैंने पिछले साल ओरियंटल इंशोरेंस कंपनी को अपनी मेडिक्लेम पोलिसी के लिए चैक दिया। चैक बैंक गया तो भुगतान रूक गया। मैं बैंक गया। बैंक प्रबंधक ने खाता देखकर कहा कि खाता आपका जारी है। चैक का भुगतान कैसे रूका पता नहीं। उनके एक स्टाफ ने देखकर बताया कि खाता बंद किया हुआ है। बैंक प्रबंधक ने कहा कि अब सब कंप्यूटराइज है। हमें पता नही चलता और खुद जाता है। बैंक स्टाफ के पता है या नही । इससे खाताधारक को क्या लेना। मेरे से तो इंशोरेंस कंपनी ने चैक डिस ओनर होने के छह सौ रूपये अतिरिक्त वसूल लिए।मुझे तो फालतू का छह सौ रूपये का दंड़ पड़ गया।
अभी लाकर आपरेट करने बैंक जाना पड़ा तो बैंक स्टाफ ने कहा कि इसकी केवाईसी कराईये। हमने कहा कि अभी खाते की तो कराई है।उनका कहना था कि बैंक लॉकर की भी करानी है। लाँकर बैंक के खाते से जुड़ा है, यह बताने पर भी बैंक कर्मी नही माने।यदि आपके पास चार− पांच बैंक खाते हैं तो प्रत्येक दो साल से केवाईसी कराने जरूर जाना होगा।
अभी तक बैंक खाते चालू रखने के लिए केवाईसी करानी थी।अब बिजली विभाग के मैसेज आ रहे हैं, कि अपने कनेक्शन की ईकेवाईसी कराईए।आज जहां चारों ओर धोखे का जाल फैला है। ठग आपको फंसाने में लगे हैं, ऐसे में किस मैसेज को सही माना जाए, किसे गलत यह कैसे पता चले। अभी परिवहन विभाग का मैसेज आया है कि आधार आथोराइजेशन माध्यम से अपने ड्राइविंग लाइसैंस पर अपना मोबाइल नंबर अपडेट कराइए। समझ नही आ रहा कि क्या− क्या कराएं। हम पर ये सब करना नही आता।इसका मतलब ये की रोज जनसेवा केंद्र पर जाइये। लाइन में लगिए और पैसा भी दीजिए। लगता है कि कहीं ये जनसेवा केंद्र की आय बढ़ाने के लिए तो नही किया जा रहा।
अभी पिछले दिनों आदेश आया कि अपना आधार कार्ड प्रत्येक दस साल में अपडेट कराना है।मैं छोटे शहर में रहता हूं। यहां कि आबादी दो लाख के करीब है। पूरे शहर में आधार कार्ड अपडेट कराने का एक ही सैंटर है। मुख्य डाकघर। उसमें आधार कार्ड बनवाने वालों की सवेरे आठ बजे से लाइन लग जाती है।हम 75 साल से ऊपर के पति −पत्नी कैसे उस लाइन में लगें , ये कोई सोचने और बताने वाला नही है। दूसरे केंद्र का दरवाजा खुलने पर इस तरह धक्का−मुक्की होती है कि हम लाइन में लगे तो हाथ − पांव तुड़ाकर जरूर अस्पताल जांएगे।
केद्र सरकार / रिजर्व बैंक को आदेश करना चाहिए कि बैंक अपने यहां अतिरिक्त स्टाफ रखे। उसक कार्य सिर्फ खातेधारकों से समय लेकर उनके खातों की केवाईसे कराना हो।सरकार जिस तरह वोट बनवाती है। वोटर का वेरिफिकेशन कराती है। उसी तह से केवाईसी कराई जाए।इसके बैंक खाता धारकों को सुविधा होगी।केवाईसी कराने के लिए रखे जाने वाले युवाओं को रोजगार मिलेगा।यही काम राज्य की बिजली कंपनी कर सकती हैं। विभागीय मीटर रीडर माह में एक बार रीडिंग लेने उपभोक्ता के घर जाते हैं। वे ही उपभोक्ता से केवाईसी के पेपर लेले।मीटर रीडर को उपभोक्ता जानते हैं उन्हें पेपर देते किसी उपभोक्ता को परेशानी भी नही होगी।मीटर रीडर आफिस आकर इस कार्य में लगे स्टाफ को पेपर देकर केवाईसी कराए।हो यह रहा है कि संबधित विभाग बैंक/ बिजली अपना कार्य उपभोक्ता पर डाल उसके जीवन को कठिन बना रहे हैं, जबकि उन्हे अपने ग्राहकों को सुविधांए देनी चाहिए थीं। ऐसा ही आधार कार्ड अपडेट कराने के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए। हां इसके लिए उपभोक्ता से थोड़ा बहुत चार्ज लिया जा सकता है।अभी एक मैसेज आया कि आपका इन्कमटैक्स का रिटर्न स्वीकार कर लिया गया है। मैंने अभी रिटर्न भरा नही, सो ये मैसेज बेटे को भेज दिया कि शायद उसने रिटर्न भरा हो । उसका जबाब आया कि पापा इस मैसेज के लिंक पर क्लिक मत करना । ये गलत लगता है।
आज सबसे बड़ी समस्या है कि सही और गलत का कैसे तै हो।किसी न किसी तरह धोखे में लेकर रोज हजारों व्यक्ति रोज ठगे जा रहे हैं।इससे कैसे बचा जाए?ऐसे हालात में जीवन दुरूह होता जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों को आम आदमी का जीवन को सरल बनाने के लिए काम करना चाहिए।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Friday, August 15, 2025
वृद्धावस्था अभिशाप भी वरदान भी
वृद्धावस्था अभिशाप भी वरदान भी। ये अपके जीने का तरीका है कि आप उसे अभिशाप समझतें हैं या वरदान।अभिशाप समझेंगे तो जल्दी चल देंगे।वरदान समझेंगे तो आनंद लेंगे। ज्यादा जीवन जिएंगे।वृद्धावस्था में भी युवा जैसा भोगेंगे ।