Wednesday, October 2, 2024

सरंक्षित हों तीर्थस्थल की हिन्दू वंशावलियों की पंजिका


अशोक मधुप

वरिष्ठ पत्रकार

हिंदू तीर्थस्थल धार्मिक मान्यताओं  और पूजन अर्चन के लिए विख्यात है।इन सब कार्य को इन स्थलों के ब्राह्मण पंडित कराते  हैं। ये  ब्राह्मण पंडित पंडा कहे जाते  हैं।ये  पंडा  सदियों से एक कार्य करते और कराते  आ रहे हैं। ये  पंडा अपने पास आने वाले यजमान( भक्तों )के परिवार का इतिहास अपनी बहियों में संजोते जा रहें   हैं। ये काम सदियों से अनवरत रूप से  जारी है। ये हिन्दू वंशावलियों की पंजिकाएं  एतिहासिक धरोहर हैं। आज इनके संरक्षण की आवश्यक्ता है।इनके संजोकर रखने की जरूरत   है।

हिंदू   परिवारों को  इस बारे में बहुत कम यान के बराबर जानकारी है। उन्हें पता भी नही कि इन स्थानों पर उनके परिवार का इतिहास संग्रहित है। सदियों से बहियों में  ये रिकार्ड व्यापारी के खाते की तरह लिखकर रखा  जा रहा है। अधिकतर भारतीयों व वे परिवार जो विदेश में बस गए  उनको आज भी पता नहीं कि इन तीर्थस्थल की पंडो की   बहियों में उनके परिवार की वंशावली दर्ज है। हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढ़ियों की विस्तृत वंशावलियां  इन पंडा के पास संग्रहित हैं।ये पंडा  आने वाले यजमान से उसके परिवार की जानकारी नोट करने के बाद उसके हस्ताक्षर कराकर बही में अपने  पास रखते हैं। ये पंडा ये  बहियां अपनी आने वाली अपनी पीढ़ी को  सौंपते  जाते  हैं। ये  बहियां जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं हैं।प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है। यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं। कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैंतो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं। किसी − किसी की  सात वंश या उससे भी ज्यादा की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से होना साधारण सी बात है।

शताब्दियों पूर्व से  हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार या किसी  पावन नगरी की यात्रा की1  तीर्थयात्रा के लिए या/  शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में किया होगा तो वे संबद्ध  पंडा के पास गए होंगे। ये पंडा  इन आने वालों के रहने खाने तक की वयवस्था करते हैं1 इन पंडाओं ने अपनी पंजिका में  वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहोंजन्म व मृत्युओं के विवरण दर्ज किया हुआ हैं।वर्तमान में धार्मिक स्थल पर  जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके  अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं।

आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है।  लोग एकल परिवारों को तरजीह दे रहे हैं,ये  पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवोंदादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहोंजन्मों और मृत्यु, परिवारों में हुए  विवाह  आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आएं। आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजीका को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है। साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है।

इन तीर्थ स्थल के पुरोहितों के पास देश और दुनिया भर के यजमानों का दशकों पुराना लिखित रिकॉर्ड वंशावली के रूप में मौजूद है। किसी यजमान के आने पर चंद मिनटों में ही संबंधित पुरोहित कंप्यूटर से भी तेज गति से वंशावली देखकर उनके पूर्वजों की जानकारी दे देते हैं। पितृ पक्ष के दौरान इन तीर्थ स्थल पर  आने वाले लोग अपने तीर्थ पुरोहितों के पास आकर वंशावली में अपने वंश के बारे में जरूर जानते हैं। ये पंडे  जनपद के  हसाब से  हैं। तीर्थ स्थल में पहने वालों को  पता है कि किस जनपद के पंडा  कौन हैं। किसी दूसरे के  यजमान को कोई अन्य पंडा  खुद क्रिया− कर्म  नही कराता। संबधित जिले के पंडा के पास उसे  भेज देता है।   

शताब्दियों से  हो रहा ये लेखन भोज पत्रों और ताम्र पत्रों के बाद   अब कागज की बहियों पर शुरू किया गया। तीर्थ पुरोहितों के पास सैकड़ों वर्ष पुरानी बहियां आज भी सुरक्षित हैं। तीर्थ पुरोहितों की बहियों में देश भर के राजाओंमहाराजाओंसाधुसंतोंराजनेताओं एवं आम लोगों के परिवारों के वंश लेखन बहियों में मौजूद हैं। अकेले हरिद्वार में 30 हजार से अधिक की संख्या में वंशावली की बहियां सुरक्षित और संरक्षित हैं। इन बहियों में लेखन करने के लिए अलग स्याही तैयार करके तीर्थ पुरोहित वही लेखन करते हैंजो काफी वर्षों तक सुरक्षित रहती है। इन वंशावलियों में जातियोंगोत्रोंउपगोत्रों का भी जिक्र रहता है। सबसे अहम बात इन बहियों में देखने को मिलती हैं कि तीर्थ पुरोहितों ने लेखन को भेदभाव से दूर रखा है। जहां राजाओं, महाराजाओं की वंशावलियां जिस क्रम में अंकित हैंउसी क्रम में तीर्थ नगरी में पहुंचने वाले अन्य श्रद्धालुओं की हैं। विभिन्न राजवंशों की मुद्रांएहस्त लेखनदान पत्रअंगूठे और पंजों के निशान बहियों में मौजूद हैं। यहां की वंशावलियों में देश की कई रियासतों के राजाओं के आने के उल्लेख दर्ज हैं।

अक्तूबर २००७ में हमें इंडियन वर्किग  जर्नलिस्ट की एक कांफ्रेस में बद्रीनाथ जाने का अवसर मिला। मेरे साथ गए मेरे दोस्त नरेंद्र मारवाड़ी भी थे। हम मारवाड़ी के साथ  बद्रीनाथ में,अजमेर के  महावर  वालों की धर्मशाला में चले गए। ये मारवाड़ी के परिवारवालों की धर्मशाला हैं1वहां पंडित जी से बात की।वंशानुक्रम के बारे में बताया  बात करते-करते पंडित जी ने अपनी बही खोलकर उनके गोत्र का विवरण खोला तो पता चला कि मारवाड़ी के पिता जी 41वर्ष पूर्व यहां यात्रा को आए थे। यात्रा को आने के बाद हुए उनके दो बच्चों का विवरण दर्ज नहीं थे। पंडित जी  ने बही देखकर   बताया कि  ९३ साल पूर्व उनके दादा जी बद्रीनाथ आए थे। दोनों के आने की तिथि तक वही में दर्ज थी। उनके हस्ताक्षर भी बही में मौजूद थे। मित्र को अपने बाबा का नाम ज्ञात था। यहां बही से उन्होंने अपने बाबा के पिता उनके भाईबाबा के दादा और उनके भाईयों आदि का विवरण नोट किया। पंडित जी ने अपनी वही में मित्र से अपने और उनके बच्चेभाई और भाइयों के बच्चों की जानकारी नोट की। नीचे तारीखमाह,सन डालकर हस्ताक्षर कराए।

सदियों से  चले  आ रहा इतिहास को  संजोकर रखना  एक दुरूह कार्य है।इस कार्य को ये पंडे  सुगमता से पीड़ियों से करते  चले  आ रहे  हैं। आज    इस  इतिहास को संजोने  और संरक्षण की जरूरत है। अच्छा  रहे कि इनका  कंप्यूटरीकरण  हो  जाए। बहियों को लेमिनेट करके भी  संरक्षित किया  जा सकता है। कैसे भी हो , ये  होना चाहिए, नही तो  समय के साथ ये  गलता और खराब होता  चला जाएगा।। ये काम इनके व्यक्तिगत स्तर से संभव नही। सरकार को अपने स्तर से कराना  होगा, तभी ये संभव हो  पाएगा।

 

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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