केंद्र सरकार ने 2020 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) लागू कर दी। इसके हिसाब से पढाई में भी शुरू हो गई किंतु छात्र पर पढ़ाई का बोझ कम नही हुआ।स्कूल के बाद भी बच्चे का तीन−चार ट्यूशन पढ़ने पड़ते हैं।बस्ते का बोझ भी पहले जैसा ही है, वह भी कम नही हुआ।
केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत सभी राज्यों में लागू कर दी। अब कक्षा एक में एडमिशन की उम्र सीमा को लेकर जारी किया गया है।केंद्र द्वारा राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को लिखे पत्र में शिक्षा मंत्रालय (एमओई) के स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग ने 2020 में एनईपी लॉन्च होने के बाद से कई बार जारी किए गए अपने निर्देशों को दोहराया है। इन निर्देशों में कक्षा एक में दाखिले के लिए बच्चे की उम्र कम से कम छह वर्ष होनी चाहिए। इसी तरह का एक नोटिस पिछले साल भी जारी किया गया था.शिक्षा मंत्रालय की ओर से 15 फरवरी 2024 को जारी पत्र में कहा गया है कि नए शैक्षणिक सत्र 2024-25 के लिए जल्द ही एमडिशन प्रक्रिया शुरू होने वाली है। उम्मीद है कि राज्य/केंद्रशासित प्रदेश में अब ग्रेड- एक में प्रवेश के लिए आयु 6+ कर दी गई है।मार्च 2022 में केंद्र ने लोकसभा को सूचित किया था कि 14 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश जैसे असम, गुजरात, पुडुचेरी, तेलंगाना, लद्दाख, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा, गोवा, झारखंड, कर्नाटक और केरल में उन बच्चों के लिए एक प्रवेश की अनुमति है, जिन्होंने छह वर्ष पूरे नहीं किए हैं।पूर्व में केंद्र ने कहा था कि एनईपी शर्त के साथ न्यूनतम आयु को संरेखित नहीं करने से विभिन्न राज्यों में शुद्ध नामांकन अनुपात की माप प्रभावित होती है। एनईपी 2020 की 5+3+3+4 स्कूल प्रणाली के अनुसार, पहले पांच वर्षों में तीन से छह वर्ष के आयु समूह के अनुरूप प्रीस्कूल के तीन वर्ष और छह से आठ वर्ष के आयु समूह के अनुरूप कक्षा 1 और 2 के दो वर्ष शामिल हैं.केंद्र ने जारी निर्देश में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कक्षा एक में दाखिले के लिए न्यूनतम उम्र सीमा छह वर्ष अपनाने को कहा है।
केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति लागू करने के बाद भी छात्रों के बस्ते का बोझ कम नही कर सकी।कई बच्चों के बस्ते का बोझ उनके खुद के वजन से ज्यादा होता है।जबकि ऐसा नही होना चाहिए ।पीठ पर बोझ लदने से बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास रूक जाता है। शिक्षाविद और मनोवैज्ञानिक कई बार बस्तों के बोझ को लेकर चिंता जारी कर चुके हैं। पर इस पर रोक नही लगी।छात्र को होमवर्क देना तो रोजमर्रा का काम है। इसके लिए उसे दो से तीन घंटे चाहिए।स्कूल में पांच घंटे के बाद दो से तीन घंटे उसे होम वर्क करना है। इस तरह से छोटे स्तर से ही उस पर आठ नौ घंटे पढ़ाई का बोझ रहता है।यह उम्र बच्चे के खेलने− कूदने की है ताकि उसका समुचित शारीरिक और मानसिक विकास हो। हमारी पोती अमेरिका में पढती है। कक्षा पांच तक उसे कोई किताब नही दी जाती। बस स्कूल में ही क्रिटीविटी सिखाई जाती है। कहानी की पुस्तकें दो घर जाकर पढ़ने को दी जाती हैं ताकि बच्चे की रीडिंग की आदत बढ़े।बाकी कुछ नही।
दूसरा भारत का कितना ही मंहगा स्कूल हो, कक्षा पांच के बाद छात्र का टयूशन पढ़ना उसकी मजबूरी है। घर आकर होमवर्क में दो −तीन घंटे लगाने के बाद प्रत्येक विषय के टयूशन के लिए उसे एक घंटा देना ही होता है। इस ट्यूशन में आने −जाने में भी समय लगता है।पांच टयूशन हुए तो पांच घंटे टयूशन में लगेंगे।एक से दो घंटे आने− जाने में ।इस तरह से एक छात्र को पांच घंटे स्कूल में , एक से दो घंटा स्कूल से घर आने − जाने में, दो से तीन घंटे होमवर्क करने में, पांच घंटे टयूशन में और दो घंटे के आसपास उसे टयूशन आने – जाने में लगते हैं। इस प्रकार एक छात्र प्रतिदिन पढ़ाई पर 14 से 17 घंटे लगाता है। इसके पास खेलने के लिए उसे एक मिनट का भी समय नही।इसी भागदौड़ में वह बुरी तरह से थककर चकनाचूर हो जाता है।इस शिक्षा ने बच्चे को पढ़ाई के नाम पर मशीन बनाकर रख दिया।उससे बच्चे का मानसिक और शारीरिक विकास रूक गया। इसके लिए सोचने को न सरकार के पास समय है, न शिक्षाविद के पास।ये भी हो सकता है कि पढाई कें घंटो में पांच− पांच मिनट कम करके एक नया परियड बनाया जाए।उसमें छात्र को घर के लिए दिया होमवर्क स्कूल में ही पूरा कराया जाए।
देश में स्कूल बढ़िया बन रहे हैं। मोटी −मोटी फीस ली जा रही है। इसके बावजूद इनके भी छात्र टयूशन क्यों पढ़ रहे हैं। महंगे स्कूलों से तो अपेक्षा की जाती है कि ये विश्व स्तर की शिक्षा दें।दरअस्ल देश की शिक्षा के प्राइवेट सैक्टर में जाने के बाद कुकुरमुत्तों की तरह शिक्षण संस्थांए उग गईं।इन अधिकाशं का पढ़ाई−लिखाई से कोई लेना देना नही। इनका उद्देश्य तो ऐन− केन प्रकरेण अभिभावक से पैसा वसूलना है।सबने अपने कोर्स तै कर दिए। कहां से खरीदने हैं ये तै कर दिया। स्कूल ड्रेस ही नही, जूते मौजे,बैल्ट तक स्कूल बेचने लगे। वह भी बाजार से कई गुने मंहगे दामों पर। कोई देखने वाला नही कोई सुनने वाला नही।देखने में आ रहा है कि कुछ अभिभावक बच्चे काआईएएस और आईपीएस बनाने की इच्छा और इरादा बच्चे पर लाद देते हैं। कक्षा दस के बाद उन्हें आए एस और आईपीएस की तैयारी की कोचिंग देने वाले संस्थानों में भेज दिया जाता है।इन अभिभावकों के काफी बच्चे पढ़ाई का ये दबाव नही बर्दाश्त कर पाते । वे डिपरशेन में चले जाते हैं। कुछ आत्म हत्याएं तक कर लेते हैं।
ऐसे में सरकार को समान शिक्षा नीति बनाने पर भी सोचना होगा। ये भी सोचना होगा कि अभिभावक अपने वार्ड को सरकारी स्कूल में भेजते गर्व महसूस करें। ये माने की इनमें इनके बेटे – बेटी को प्राईवेट स्कूल से अच्छी शिक्षा मिलेगी।
शिक्षाविद और सरकार को अपनी शिक्षा नीति में फिर से विचार करने की जरूरत है।जरूरत है ऐसी शिक्षा की जिसमें बच्चे का समुचित विकास हो।छात्र पर बस्ते का बोझ कम से कम हो। स्कूल से आने के बाद के घर पर बच्चे को ट्यूशन की जरूरत ही न महसूस हो। बच्चों को घर पर टयूशन पूरी तरह से बंद हों। माध्यमिक स्तर तक छात्र को ऐसी शिक्षा मिले कि स्कूल के बाद उस पर पढ़ाई का दबाव न रहे। वह आराम से खेले −कूदे। हां उसमें कोई हाबी खेल, गायन, वादन, नृत्य आदि विकसित किया जाना चाहिए। एक चीज और स्कूली छात्रों को आत्म सुरक्षा भी इसी स्तर पर सिखा कर इतना निपुण बना दिया जाए कि वह विपरीत हालात का समय पड़ने पर मुकाबला कर सके।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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