Wednesday, February 2, 2022

राजस्थान से आए राजपूतों ने नहटौर

राजस्थान से आए राजपूतों ने बसाया नहटौर

राजस्थान से आए राजपूतों ने नहटौर को बसाया।जानी मानी पत्रकार और लेखिका कुर्रतुल न हैदर अपनी पुस्तक कारें तहां दराज है, में कहती हैं कि नहटौर के त्यागी ब्राह्मणों के अनुसार उनके पुरखों ने मुसलमानों के आने से पहले राजपूत गृहयुद्धों के दौरान राजस्थान से अपना गांव त्यागकर  दिल्ली के नजदीक गांगन के किनारे एक नया ठौर बसाया था।यह बाद में नहटौर कहलाने लगा।

नहटौर के त्यागी ब्राह्मण परिवार के कुंवर ओंमेंद्र सिहं एडवोकेट  बताते हैं कि वे लोग रणथंभोर से आए।रणथंभोर किले पर अलाउद्दीन ने हमला किया। इस युद्ध में सर्वस्व होम की आंशका जान उनके पूर्वज उल्फतराय और एक  अन्य भाई को परिवार सहित  वहां से निकाल  दिया गया । कहा कि वंश बचा रहे,  इसलिए आप चले जाओ।

उत्फतराय ने  गांगन के किनारे के स्थान को उपयुक्त पाया। इसे उन्होंने नई ठौर (नया ठिकाना) नाम दिया। वे कहते है कि उनका

गोत्र मोनीष है। ये बिल्कुल ही अलग है।वे कहतें हैं कि वे ठाकुर हैं किंतु अपना स्थान त्यागने के कारण  त्यागी हो गए।वैसे वे राजा हमीर के वंशज हैं।

वे कहते हैं कि जब उनके पूर्वज उलफतराय नहटौर आए तो  उनकी कोठी की जगह उन्होंने डेरा डाला। कोठी के सामने उस समय गांगन बहती थी,  यह जगह उन्हें उपयुक्त लगी।नदी सामने थी। उन्होंने यहां रूकने का निर्णय लिए।यहीं छप्पर आदि डालकर रहने की व्यवस्था की। वे बताते हैं कि  दूसरे भाई ने तय किया कि जब तक हम अपने किले पर कब्जा नही करेंगे, घर में नहीं रहेंगे। वे बंजारे (बागडिए)हुए । ये सड़क किनारे रहकर लोहे का सामान बनाने का काम करते हैं। वे बताते हैं कि इस परिवार के कुछ लोग कुछ समय पहले उनके यहां आए थे।

कुंवर ओमेंद्र  सिंह बताते हैं कि उनके परिवार में उल्लू की पूजा होती है। वे बतातें हैं कि जहां उनका दीवान खाना है यहां कभी एक रात उल्लू आया। हमारी उस पीढ़ी की दादी ने उससे कहा कि हे उल्लू महाराज हम जैसे घर छोड़कर आएं हैं,  यदि वैसे ही हो जांए तो हमरें वंशवाले तुम्हारी पूजा करेंगे। उनके बाद मकान आदि बनने पर उल्लू की पूजा शुरू हो गई। वह अब तक जारी रही। अभी  एक पीढ़ी पहले पूजा बंद हुई। वैसे अब तक उल्लू उनके दीवान खाने में आता रहा। उसे पानी आदि की व्यवस्था की जाती थी। उल्लू की पूजा क्यों बंद हो गई,  वह ये नही बता पाते। वे कहते हैं कि वे राजपूत हैं किंतु त्यागियों में उनके शादी विवाह होते हैं।

वह बताते है कि हम जमींदार लोग हैं। खाने पीने के शौकीन।सैलानी रहे। अय्याशी की। वे साफगोई करते बतातें हैं कि उनके पूर्वजों ने  अंग्रेजों की गुलामी की ।इसी कारण खिताब लिए। औनरेरी मजिस्ट्रेट बने।

वह बताते हैं कि जब वह छोटे थे  तो पिताजी के साथ हाथी पर बैठकर जमींदारी में जाते थे।जिस गांव में जाते वहां उनके बैठने के लिए चारपाई डालकर दरी बिछा दी जाती।  पिताजी को के साथ− साथ उन्हें भी नजराना दिया जाता। पिताजी को नजराने में एक रूपया मिलता, तो उन्हें एक या दो पैसा।

 वे साफगोई में कहतें हैं कि लोग आते और उनके सामने बिछी दरी पर पैसा फेंकतें आगे  बढ़ जाते  जैसे आज हम फकीरों के सामने बिछे कपड़े पर डालते हैं।वे कहते हैं कि आज ख्याल  आता है, वह बड़ा अजीब सा  लगता है।

अशोक मधुप


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