Friday, January 21, 2022

कुरतुल एन हैदर का नहटौर

 जन्मदिन  पर विशेष 

कुरतुल एन हैदर का नहटौर

सूरदास का पद उधो मोही ब्रज बिसरे नाही ,उर्दू की प्रसिद्ध लेखिका कुर्तुलेन हैदर पर बिल्कुल सही बैठता है। ऐनी  आपा के नाम से प्रसिद्ध कुर्तुल एन हैदर पूरी दुनिया घूमी। लंदन रहीं।देश के बंटवारे के बाद  पाकिस्तान चली गईं।वहां भी रही पर उनका मन हिंदुस्तान और उसके बिजनौर जिले के कस्बे नहटौर में भटकता रहा।

मुंबई रही या नोयड़ा उनके दिल से नहटौर एक पल  के लिए भी नहीं गया।उन्होंने अपने नाविल कारे जहां दराज है ,में अपने परिवार का एक हजार साल का इतिहास संजोया है। तीन भाग में छपे इस विशाल उपन्यास में वह बताती हैं कि कैसे उनके पूर्वज एक हजार साल पहले नहटौर आकर बसे।वह इसमें अपने घर उसके आगे की झील, मुहल्ले का जिक्र करती है।नहटौर के बागात के किस्से कहतीं हैं।  

वह कहती हैं कि 1962 की बरसात में मुहल्ला सादात सैदरी नहटौर के वीरान खंडहर, पुश्तैनी मकान  बारिश की झड़ी में धड़ाधड़ गिरते जा रहे थे। दो सौ बरस पुराने बड़े दरबार नहटौर का  दूसरा फाटक गिरा और झील के किनारे खड़ी  बूढ़ी पिलखन बारिश और हवाओं की भेंट चढ़ गई। 

कुरतुलेन कहती हैं कि नहटौर वाले नहटौर को छोटा दिल्ली कहते थे।आइना अकबरी में अल्लामा अबुलफजल फरमाते हैं कि इलाके के जागीरदार युद्ध के समय मुगल फौज के सेनापति को छह सौ अस्सी घुड़सवार और एक हजार चार सौ  पैदल सिपाही देते थे। नहटौर वाले दानिशमंदान−ए नहटौर ( नहटौर के बुद्धिमान) कहलाते थे।

नहटौर से एक मील फासले पर कुर्तुलेन के परिवार की खानदानी जागीर सिंकदरपुर में इनके परिवार का कब्रिस्तान है। इनके परिवारवालों की अधिकतर कब्र इसी कब्रिस्तान में मौजूद हैं।   

उनके नजदीकी रहे नहटौर के पत्रकार एम. असलम  सिद्दीकी कहते हैं कि एनी आपा 

को नहटौर के बहुत लगाव था। जब  उन्हें ज्ञानपीठ अवार्ड दिया गया  तो   दूरदर्शन  ने  उनका इंटरव्यू करना  चाहा। इन्टरव्यू के लिए एनी आपा की शर्त थी कि इन्टरव्यू नहटौर में होगा।मजबूरन दूरदर्शन की टीम नहटौर आई और उनका इंटरव्यू किया।  एम. असलम कहते हैं कि इन्टरव्यू लेने वाली टीम झुंझलाती थी कि ये बारीक सी नदी ( गांगन )में क्या खोजती हैं। कभी गांगन के किनारे इंटरव्यू कराती हैं तो कभी गांगन में झांकते हुए। कभी अपने पुश्तैनी मकान के खंडहर में रिकार्डिंग कराती हैं।कभी खानदानी कब्रिस्तान में ।

एम. असलम बताते हैं कि एनी आपा

की तमन्ना थी कि उन्हें मरने के बाद नहटौर के खानदानी कब्रिस्तान में दफनाया जाए किंतु उनके देखरेख करने वालों ने उनकी  इस ख्वाइश  पर ध्यान नही दिया। उन्हें दिल्ली के जामिया कब्रिस्तान में दफनाया गया।

एम .असलम कहते हैं कि  एनी आपा ने कहा था कि उनकी मौत को खामोश रखा जाए। किसी को न बताया जाए। उनके भाई और भाई का परिवार पाकिस्तान में रहता है,  उसे भी उनकी मौत की जानकारी नही दी गई।

 कुरतुलेन हैदर ने  कारे जहां दराज में मसनवे माडे नामा नामक चैप्टर  में कहा है कि मुहल्ला सादात हैदरी  नहटौर में दरबारे उज्जाम का एक महल खड़ा  है। 1857 में इसमें 12 टोपी वालों ने आजाद सरकार कायम की थी। ..यह बारह टोपी सरकार  12 माह कार्यरत रहीं।इसने इस अवधि में गांव से मालगुजारी वसूली।इस कोठी के मैदान में अदालत लगती। बाहर से केथ के पेड़ तक एक मोटा रस्सा लटका दिया था।बारह टोपी वाले जिसे चाहते  उसे फिंरगी का जासूस बताकर फांसी दे देते।इस बारह टोपी सरकार  का बड़ा आंतक था। उधर  शेरकोट का माड़े खां आ गया।इससे यहां हिंदू −मुस्लिम फसाद हुए।

अंग्रेज फौज के आने की सूचना के समय नवाब महमूद खां के कमांडर माडे खां इस समय 12 टोपी सरकार के मेहमान थे। पिलखनों के नीच फौज के लिए खाना बनाने वाली देग खड़क रहीं थीं।

कुर्तुलेन हैदर कहती हैं कि इस समय आबपाशी के लिए नहर बनने का काम चल रहा था। नहटौर की भी गांगन नदी  से नहर निकाली गई।नहटौर धामपुर मार्ग पर पुल बनाने के लिए  उसका ढांचा  बनाया गया था। ये काम अधूरा था कि गदर शुरू  हो गया। गांगन किनारे पुल बनाने के लिए ईंट का बड़ा ढेर लगा था। माडे खां वह सारी ईंट मुहल्ला सादात उठवा लाया। उसने मुहल्ले के चारों और किलेबंदी की। एक अदद तोप मेन गेट  पर  तैनात कर दी।

कुर्तुलेन हैदर कहती हैं कि जंगे आजादी का जो हुआ सो हुआ किंतु बाकी ईंट कुछ आजादी के मतवालों ने  उठा लीं ।इनसे एक −दो के घर बन गए।

 एनी आपा कहती हैं कि 1767 में गंगा  पार से सिखों ने नहटौर  तक हमला किया। लूटमार की। संभल के अमीर खां लूटमार के  इरादे से फौज के साथ 1805 में नहटौर आया।एक रात और एक दिन नहटौर रूका। यह घटना मुहम्मद खानी और मार खानी गर्दी कहलाई।कस्बे के लोग खून खराबे के डर से इधर −उधर बिखर गए। खेत – खलियान और जंगलों में जा छिपे।अमीर खां के सिपाही जिस समय लूटमार करते मोहल्ला सादात की ओर आ रहे थे,उस समय उनके परिवार के इमाम बक्श  अपनी बीवी और  बच्चों  के साथ मुबारिजुल्लाह खां के मकबरे में जा छिपे। यही रात में इनकी बीवी ने एक लड़के को जन्म दिया।

कारे जहां  दराज है ,में लेखिका कहती है कि हमारी तरफ शिया सुन्नी में ज्यादा भिन्नता  नहीं है। खुद हमारी बिरादरी के नहटौर के कुछ घराने  शियाओं के हैं, इनमें आपस में शादियां  होती हैं।

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

[8:42 pm, 19/01/2022] Ashok Ji: परिचय

[8:42 pm, 19/01/2022] Ashok Ji: कुर्अतुल ऐन हैदर का जन्म 20 जनवरी 1927 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुआ था। नहटौर के रहने वाले उनके पिता सज्जाद हैदर यलदरम कुर्अतुल ऐन हैदर के जन्म के समय  अलीगढ़ विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार थे।पिता सज्जाद हैदर यलदरम खुद उर्दू के अच्छे लेखक थे । कुर्अतुल ऐन  की मां नज़र ज़हरा भी उर्दू की लेखिका थी।

 कुर्अतुल ऐन हैदर को लिखने का शौक और कला अपने परिवार से ही मिली। उन्होंने छह साल की उम्र से से  लिखना शुरू किया। उनकी पहली कहानी ‘बी चुहिया’ बच्चों की पत्रिका फूल में छपी । 17-18 साल की उम्र में 1945 में उनका पहला कहानी संकलन ‘शीशे का घर’ छपा।  बचपन में वह कहानियां लिखती थी फिर उपन्यास, लघु उपन्यास, सफरनामें लिखने लगी ।कुर्तुल एन हैदर ने लिखा।  पूरी उम्र  लिखा।जमकर लिखा।निधन की तारीख 21 अगस्त 2007 तक वे लगातार लिखाती रहीं।कुर्अतुल ऐन की प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनऊ से हुई। दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से भी अपनी शिक्षा हासिल की। पिता की मौत और देश के बंटवारे के बाद कुछ समय के लिए वह अपने भाई मुस्तफा के साथ पाकिस्तान चली गई । पाकिस्तान से  आगे की पढ़ाई के लिए वे लंदन चली गईं। साहित्य लिखने के अलावा वहां  उन्होंने अंग्रेजी में पत्रकारिता भी की। उन्होंने बीबीसी लंदन में काम किया। बाद में वे हिंदुस्तान आ गईं। विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में कैलिफोर्निया, शिकागो और एरीज़ोना विश्वविद्यालय से भी जुड़ी रहीं। काम के सिलसिले में उन्होंने खूब घूमना-फिरना किया। 

कुर्अतुल ऐन हैदर उर्दू में लिखती और अंग्रेज़ी में पत्रकारिता करती । उन्होंने लगभग बारह उपन्यास और ढेरों कहानियां लिखीं। उनकी प्रमुख कहानियां में ‘पतझड़ की आवाज, स्ट्रीट सिंगर ऑफ लखनऊ एंड अदर स्टोरीज, रोशनी की रफ्तार जैसी कहानियां शामिल हैं। उन्होंने हाउसिंग सोसायटी, आग का दरिया (1959), सफ़ीने- ग़मे दिल, आख़िरे- शब के हमसफर, कारे जहां दराज है जैसे उपन्यास भी लिखें।आख़िरे- शब के हमसफर  के लिए इन्हें 1967 में साहित्य अकादमी  और 1989 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।  साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें  1984 में पद्मश्री और  1989 में उन्हें पद्मभूषण से पुरस्कृत किया गया। कारे जहां दराज है,तीन भाग में उनके अपने परिवार का एक हजार साल का इतिहास है।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं)

20 जनवरी के चिंंगारी में प्रकाशित

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