-आज हम शिक्षित होकर भी कम पढ़ों से ज्यादा गए बीते हैं। हम देश में हिंदू मुस्लिम में बटें खड़े हैं।कोई बीफ पार्टी दे रहा है, कोई पोर्क पार्टी। टी पार्टी देने की कोई बात नहीं कर रहा।
कल मुहर्रम है। बड़े -बड़े ताजिए निकलेंगे। उन्हें देखने और मर्सिया सुनने के लिए भीड़ उमड़ेगी किंतु उसमें एक ही तबका होगा। हिंदू तो दूर दूर तक नजर भी नहीं आंएगे । मुझे याद आता है बचपन। हम छोटे- छोटे थे। मेरी मां बहुत कम पढ़ी थी। कक्षां पांच तक। बह मुहर्रम के दिन बाजार से खील और बताशे खरीदती| मेरा हाथ पकडती | ताजिए के पास ले जाती। ताजिए पर प्रसाद चढ़ाती। हर ताजिए के नीचे इक सफेद चादर लगी होती। इस चादर में प्रसाद एकत्र होता रहता। ताजिए की देख रेख करने वाला इस प्रसाद में से मुट्ठी भरकर खील बताशे मां को दे देता। मां घर लाकर हमे प्रसाद के खील बताशे ख्रिलाती।
ये प्रसाद क्यों चढता था, क्या मान्यता थी म्रुझे अब लगभग 60 साल बाद याद नहीं। किंतु ताजियों पर प्रसाद चढ़ना आज भी याद है।
शहरों में भले ही ऐसा न हो किंतु मेरा मानना है कि गांव में कहीं न कहीं ये परंपरा आज भी जीवित होगी। काश आगे भी ऐसा हो।हम ताजियो पर प्रसाद चढांए और मुस्लिम हमारी भगवान राम की बारात में सहयोग करेें ।
हम एक दूसरे की रवायत का आदर करें। मीट खाने को कोई किसी को नही रोकता। रोकता है दूसरों की भावनाओं का अपमान करने से। आप कुछ भी करें किंतु आपके मिलने वाले , परिचित की आस्था को ठेस नहीं लगनी चाहिए। उनकी भावना का ख्याल रखा जाना चाहिए|
अशोक मधुप
www.likhadi.blogspot.com
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