Tuesday, October 20, 2015

लुभाव


आज समाज में बाजारवाद हावी है। कंपनी अपने उत्पाद बेचने को नई- नई स्कीम ला रहीं हैं। बड़े टीवी के साथ छोटा टीवी फ्री में मिल रहा है। एक सामान खरीदने पर एक या दो पीस निशुल्क द‌िए जा  रहे हैं। त्योहारों पर छूट के नाम पर खूब माल बिक रहा है। सेल भी यहीं है। आन लाइन खरीदारी में मौसमी सेल भी यही है। सब    सामान बेचने का फंडा है। आज ही  ऐसा हो रहा है, ऐसा नहीं है।
 मेरे यहां कपड़ों पर प्रेस करने वाला काफी बुजुर्ग था । एक दिन मुझे कहीं कार्यक्रम में जाना था। कपड़ों  के साथ  रूमाल भी प्रेस कराना था।मैंने उससे बूझा - कभी तुमने लुभाव लिया है? वह अपने बचपन में लौट आया। कुछ सेकेंड बाद सोचकर  बोला - हां बाबू जी बहुत बार लिया है। जब बचपन में कुछ सामान लेने जाते थे, तो दुकानदार से लुभाव जरूर लेते थे। भले ही कितनी देर रूकना पड़े। कभी दुकान वाला हाथ पर कुछ परमल के दाने रख देता या लुभाव  के नाम पर एक- दो मूगफंली दे देता। कुछ रूककर  वह बोला- आपको लुभाव की कैसे याद आ गई? मैने कहा कि आज चार कपड़ों के साथ प्रेस के लिए एक लुभाव भी है। कपड़ो में रूमाल को देख वह खूब हंसा। उसके बाद मैं जब उसे कपड़े प्रेस को देता और उनके साथ रूमाल नहीं होता तो वह खुद  कहता - क्या बात है बाबू जी आज कपड़ों के साथ लुभाव नहीं है।
 मेरे बचपन के समय लुभाव का प्रचलन था। आप दुकान पर कुछ सामान खरीदने  जाते तो दुकानदार आपको   लुभाव के नाम पर कुछ न कुछ जरूर दे देता। कभी कुछ चने । तो कभी कुछ इलायची के दानें। उस समय ग्राहक को पटाए रखने का यह फंडा था। विशे षकर बच्चों को पटाने का । जहां से बच्चों को लुभाव मिलता ,बच्चे खरीदारी के लिए उसी दुकान पर जाते। धीरे - धीरे ये चलन में आ गया। सभी दुकानदार लुभाव देने लगे। बच्चे अब अपना हक समझ कर लुभाव मांगने लगे। लुभाने के लिए दी जाने वाली चीज लुभाव हो गई ।कई- कई बार ग्राहक ज्यादा होने पर दस- दस मिनट रूकना पड़ता। पर लुभाव लिए बिना हम दुकान से नहीं हटते।मैंने तो बचपन में बहुत लुभाव लिया है। पता नहीं आपको इसका सौभाग्य मिला या नहीं।
अशोक मधुप

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