Sunday, July 3, 2022

नानौर के जंगल में है सीता मंदिर

 अशोक मधुप 

बिजनौर जनपदवासियों को यह पता भी  नही कि चांदपुर  बाष्टा क्षेत्र के नानौर के जंगल में  सीता मंदिर भी है। पुराने लोग कहते हैं कि सीता यहीं धरती में समाई थी।

इस मंदिर को , सीता मंदिर , सीता बनी और सीतामठ कई नाम से पुकारा जाता है।अब तो यह स्थान कुछ विकसित हो गया, किंतु अब से चालिस −पचास साल पहले यहां कुछ भी नही था। दिन में चरवाहे  पशु चराते और शाम को घार वापस हो जाते।




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बिजनौर जनपद के इतिहास पर आजतक कोई कार्य नहीं हुआ। जिला गजेटियर से अलग किसी ने कुछ नही किया। न कोई महत्वपूर्ण स्थल घूमा, नहीं कोई जानकारी करने की कोशिश की। इस बारे में कभी किसी जानकार से पूछा तो सबने कहा कि सर सैयद की किताब सरकशे  बिजनौर में जिले का इतिहास है। सच्चाई यह है कि सरकशे  बिजनौर सर सैयद की डायरी है। इसमें उन्होंने 1857 के विद्रोह के समय बिजनौर की तैनाती के दौरान की घटनांए  दर्ज की हैं। जनपद के इतिहास  और ऐतिहासिक स्थलों पर अभी  और खोज कार्य की जरूरत है −−−अशोक मधुप

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लेखक तीन −चार बार इस स्थान पर गया। अंतिम बार बिजनौर हलचल चैनल  चलाने के दौरान लेखक और उसके साथ आज के आज तक के जिला प्रभारी संजीव शर्मा  थे । हम  यहां कई घंटे रूके। लेखक ने हर बार महसूस किया कि मंदिर का द्वार छोटा  है किंतु गुंबद जितना ऊंचा है , गुंबद  उतना ऊंचा  मंदिर के अंदर से नजर नही आता। गुबंद में ऊपर चारों और एक निर्धारित ऊंचाई पर गोल −गोल रोशनदान बने थे।एक साईड में छोटा  द्वार भी है। लेखक ने पशु  चरा रहे लोगों से पूछा कि गुंबद में यह दरवाजा कैसा हैॽ क्या गुंबद खोखला है। उन्होंने हां कहा।गुंबद तक जाने का कोई रास्ता नही था।मेरे कहने पर श्री संजीव शर्मा मंदिर के किनारे की ईंट पकड़कर ऊपर चढ़ गए।मंदिर के कंगूरों से होते वे झुककर दरवाजे से अंदर चले गए।उन्होंने बताया कि ऊपर  कमरा  है। इसमें पांच− छह   आदमी आराम से रह सकतें हैं।छत में चारों ओर बने छेद रोशनी और हवा के   साथ − साथ चारों और देखने  और नजर रखने के लिए भी अच्छा  माध्यम थे। मंदिर के बीच में कोई मूर्ति आदि नहीं लगी थी।एक शिला थी। इस पर कुछ खुदा है। लगता था कि कोई शिलालेख हो।पास में एक कुआं भी था।  इसमें पेड़ उग आए थे। नीचे पुरानी मुगल काल की झामें की ईंट लगी थी। इनके ऊपर लखोरी ईं ट से चिनाई हुई थी। बाद में आज की ईंट से चिनाई  हुई है।  मंदिर भी ब्रिटिश  काल के पहले प्रयोग होने वाली लखौरी (छोटी) ईंट से बना था।

आसपास के लोग बताते हैं कि कभी यहां से होकर गंगा बहती थी। यहीं वाल्मीकि का आश्रम था। यहीं सीता जमीन में समाईं थी। जिला गजेटियर इसके बारे में ज्यादा कुछ नही कहता है।वह कहता है कि जनश्रुति है कि यहां  सीता भूमि में समाई थीं किंतु अनेक जगह के बारे में इस तरह की मान्यता है।

कुछ कहते हैं कि ये क्षेत्र कभी भूड़ का रेतीला जंगल था। जनपद के रेतीले जंगल में ही सीताबनी  नाम की घास  होती थी। बिजनौर जनपद के वन और वन्य संपदा के जानकार, भाकियू के वरिष्ठ नेता दिगंबर सिंह और पीतंबर सिंह ग्राम (बल्दिया), केलनपुर के भोपाल सिहं  दीवान जी आदि पुराने व्यक्ति  बताते हैं कि सीतावनी  तीन चार फिट लंबी घास होती थी। इसकी पत्ती पतली और लंबी होती थी।ये घर के आंगन में झाडू लगाने और पशुओं के नीचे बिछाने के काम आती थी।  वन संपदा के प्रसिद्ध  जानकार खान जफर सुलतान कहते हैं कि सीताबनी  घास में तीतर बहुत होती था। ये तीतर के छिपने के लिए सबसे बेहतर झाड़ी थी। वे कहते हैं कि इसमें हिरन भी होता था। जनपद से भूड़ खत्म हो गई तो ये घास भी गायब हो गई।

चांदपुर क्षेत्र के रहने वाले जनपद के इतिहास के बड़े जानकार प्रोफेसर खालिद अलवी कहते हैं कि चांदपुर के नानौर −दत्याना आदि  जंगल में  सीता बनी नामक झाड़ी ज्यादा होती थी। इसी की  वजह से इस स्थान को सीताबन कहा जाता  रहा होगा। हो सकता है कि सीतावन में बना मंदिर सीतामठ या  सीतावनी  या सीता  मंदिर  कहा  जाता रहा हो।     

मंदिर के  गुंबद का बना कमरा बताता है कि यह गुंबद उस समय के मंदिर में रहने वालों के लिए सुरक्षित जगह रही होगी। वे इसमें वन्य प्राणियों से भी  सुरक्षित होंते और एक दो हमलावर से भी।गुंबद के कमरे तक पंहुचने का  न  कोई  जीना है न स्पोर्ट। मंदिर के कंगूरों से होकर  कक्ष के द्वार तक जाया जा सकता है।द्वार से अंदर जाने का प्रयास करने वाला आदमी अंदर बैठे व्यक्ति के  आक्रमण का     

सीधे शिकार हो सकता है।यह भी हो सकता है कि यह स्थल गंगा पर नजर रखने के लिए प्रयोग होता हो। ऊपर गुंबद में बैठे व्यक्ति दिखाई भी नहीं पड़ते होंगे। मंदिर के बीच में लगी शिला को देखकर  लेखक को सदा लगा कि यह कोई शिला लेख  है।

अब मंदिर की देखरेख करने वालों मंदिर के पुराने अस्तित्व में काफी बदलाव कर दिया। मंदिर के बीच में शिवलिंग की स्थापना कर दी। शिलालेख साइड में लगवाई गई प्रतिमा के दीप या पूजन सामग्री प्रयोग करने के काम आने लगा।गुंबद के गोला छेद बंद कराकर द्वार  बड़ा कर  दिया गया। कुंए की  सफाई कर उसे  अब प्रयोग में लाया जाने लगा।

पर इस मदिर पर अभी खोज कार्य  होना चाहिए। पुरातत्व विभाग  को यहां आकर उसकी प्राचीनता और मंदिर में लगे  शिलालेख जैसे पत्थर की जांच करनी चाहिए।   

अशोक मधुप 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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