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Wednesday, August 25, 2021
Monday, August 23, 2021
नजीबाबाद के चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय
विश्वविद्यालय केम्पस में मुंशी अमन सिंह के नाम पर |
मुंशी अमन सिंह के नाम पर
नजीबाबाद के चौधरी अमन सिंह की जमीन में बना गुरूकुल विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार देश का जाना मना विश्वविद्यालय है। उसकी स्थापना 1902 में स्वामी श्रद्धानंद जी हरिद्वार से उत्तर में कांगड़ी गांव में तबके बिजनौर जनपद में की। आज इसका केम्पस हरिद्वार से चार किलोमीटर दूर दक्षिण में है।इसके तीन संभाग है। मुख्य केम्पस हरिद्वार( केवल पुरुषों के लिए है )। 2,कन्या गुरुकुल महाविद्यालय हरिद्वार/ केवल कन्याओं के लिए है -कन्या गुरुकुल महाविद्यालय देहरादून- केवल कन्याओं के लिए आज इसमें हजारों छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं इसका अपना बहुत बड़ा संकाय है किंतु यह भी नहीं जानते किसके लिए बिजनौर जनपद के नजीबाबाद के रहने वाले चौधरी अमन सिंह ने अपना 1200 बीघा जमीन का कागड़ी गांव और अपने पास एकत्र सम्पूर्ण राशि ₹11000 इसकी स्थापना के समय इस विद्यालय को दान की थी। मुंशी अमन सिंह की जगह हरिद्वार से सटे पहाड़ियों में स्थित कांगड़ी गांव में है । ऐसी ही जगह पहाड़ियों में महात्मा मुंशीराम का अपना गुरुकुल बनाने का सपना था। कांगडी उस समय बिजनौरं जनपद में होती थी। अब हरिद्वार जिला बनने के बाद यह हरिद्वार में चला गया। 19वीं शताब्दी में भारत में दो प्रकार की शिक्षापद्धतियाँ प्रचलित थीं। पहली पद्धति ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने शासन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित की गई सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की प्रणाली थी और दूसरी संस्कृत, व्याकरण, दर्शन आदि भारतीय वाङ्मय की विभिन्न विद्याओं को प्राचीन परंपरागत विधि से अध्ययन करने की पाठशाला पद्धति। अत: सरकारी शिक्षा पद्धति में भारतीय वाङ्मय की घोर उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी तथा पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान विज्ञान के अध्ययन पर बल दिया गया। इस शिक्षा पद्धति का प्रधान उद्देश्य मेकाले के शब्दों में 'भारतीयों का एक ऐसा समूह पैदा करना था, जो रंग तथा रक्त की दृष्टि से तो भारतीय हो, परंतु रुचि, मति और अचार-विचार की दृष्टि से अंग्रेज हो'। इसलिए यह शिक्षापद्धति भारत के राष्ट्रीय और धार्मिक आदर्शों के प्रतिकूल थी। दूसरी शिक्षा प्रणाली, पंडितमंडली में प्रचलित पाठशाला पद्धति थी। इसमें यद्यपि भारतीय वाङ्मय का अध्ययन कराया जाता था, तथापि उसमें नवीन तथा वर्तमान समय के लिए आवश्यक ज्ञान विज्ञान की घोर उपेक्षा थी। उस समय देश की बड़ी आवश्यकता पौरस्त्य एवं पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान का समन्वयय करते हुए दोनों शिक्षा पद्धतियों के उत्कृष्ठ तत्वों के सामंजस्य द्वारा एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना था। इस महत्वपूर्ण कार्य का संपन्न करने में गुरुकुल काँगड़ी ने बड़ा सहयोग दिया। गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम पिछली शताब्दी के भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में असाधारण महत्व रखने वाले आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया । महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30,000 रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और अविचल निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। किन्तु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे। इसी समय नजीबाबाद के धर्मनिष्ठ रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए और होली के दिन सोमवार, 4 मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तीव्र गति से होने लगा। 1907 ई. में इसका महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 ई. में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन १९१६ में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। आरम्भ से ही सरकार के प्रभाव से सर्वथा स्वतंत्र होने के कारण ब्रिटिश सरकार गुरुकुल कांगड़ी को चिरकाल तक राजद्रोही संस्था समझती रही। 1917 ई. में वायसराय लार्ड चेम्ज़फ़ोर्ड के गुरुकुल आगमन के बाद इस संदेह का निवारण हुआ। 1921 ई. में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। 1923 ई. में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया।… 24 सितंबर 1924 ई. को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 ई. को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया। 1935 ई. में इसका प्रबन्ध करने के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के अंतर्गत एक पृथक विद्यासभा का संगठन हुआ। अमन सिंह को सम्मान देने के लिए विश्व विद्यालय केम्पस में इनके नाम से अमन चौक बना हुआ है। विश्व विद्यालय का प्रवेश द्वार भी इनके नाम पर है।उसका नाम अमन द्वार है।अशोक मधुप
Sunday, August 22, 2021
अलीगढ़ का शराब कांड व्यवस्था जन्य है
Tuesday, August 17, 2021
चिकित्सक सिर्फ चिकित्सा कार्य ही करेंगे
Saturday, August 14, 2021
स्वामी रामदेव और एलोपैथिक चिकित्सकों में जवानी जंग
Friday, August 6, 2021
पूरा हिंदुस्तान आपका तो खालिस्तान की मांग क्यों ॽ
पूरा हिंदुस्तान आपका तो खालिस्तान की मांग क्यों ॽ
अशोक मधुप
हाल में केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक कार्यक्रम में कहा कि कुछ लोग खालिस्तान की मांग क्यों करते हैं जबकि पूरा हिन्दुस्तान उनका है। उन्होंने यह टिप्पणी उस समय की जब वह केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी के साथ ‘शाइनिंग सिख यूथ ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक के विमोचन में शामिल हो रहे थे। रक्षा मंत्री ने कहा,‘भारतीय संस्कृति को अतीत में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा था। अगर भारतीय संस्कृति आज कायम है तो यह सिख समुदाय के कारण है। सिख समुदाय का गौरवशाली इतिहास है । विडंबना यह है कि उनमें से बहुत से लोग उनका इतिहास नहीं जानते हैं। रक्षा मंत्री ने कहा,‘मैं कहूंगा कि अपने युवाओं को सिख समुदाय का इतिहास सिखाएं। यह देश सिख समुदाय के योगदान को कभी नहीं भूलेगा। कुछ लोग खालिस्तान की मांग करते हैं। आप खालिस्तान के बारे में क्यों बात करते हैं, जब पूरा हिंदुस्तान आपका है?’ उन्होंने कहा,‘इस साल हम गुरु तेग बहादुर की 400 वीं जयंती (प्रकाश पर्व) मना रहे हैं। गुरु तेग बहादुर के नाम पर शौर्य है, साहस है और उनका नाम और काम दोनों ही हमें प्रेरणा देते हैं। सिख समुदाय अपनी जाति, धर्म के बावजूद सभी के लिए लंगर की सेवा करता है। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी सिख धर्म के इतिहास और बलिदान की सराहना करते हैं।’ स्वतंत्रता संग्राम में सिख समुदाय का बहुत बड़ा योगदान था। जब हमें आजादी मिली और विभाजन की त्रासदी का सामना करना पड़ा, तो सिखों ने बहुत कुछ झेला।’
उन्होंने यह भी कहा कि सिख समुदाय ने राम मंदिर आंदोलन में बड़ा योगदान दिया।निहंग सिखों ने पहले इसके लिए आंदोलन किया।
मैं राजनाथ सिंह का यह बयान पढ़ रहा हूं तो मेरी आखों के सामने एक दृश्य आ जाता है।
24 अगस्त ।दिल्ली का एयरपोर्ट।
अफगानिस्तान से वहां बसे भारतीयों को लेकर एक विमान एयरपोर्ट पर उतरता है। विमान में अफगानिस्तान से आने वालों में अफगानी सिख भी हैं। सिख समाज अपने साथ गुरू ग्रंथ साहब के तीन पावन स्वरूप भी लाया है। गुरूग्रन्थ साहिब के स्वरूप को रिसीव करने के लिए केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी खुद एयरपोर्ट पहुंचे। उनके साथ केंद्रीय मंत्री पी मुरलीधारन भी मौजूद थे। अफगानी भारतीयों का स्वागत करने काफी संख्या में भाजपा कार्यकर्ता भी एयर पोर्ट आए हैं। केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियों को सिर पर रखकर रिसीव किया। नंगे पांव गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियों को सिर पर रखे वह एयर पोर्ट से बाहर आ रहे हैं। अलग तरह का दृश्य है। गुरू ग्रन्थ साहब का सम्मान का नजारा देखते ही बनता है।कोई किसी तरह का भेद भाव नहीं। जो व्यक्ति यह दृश्य देख रहा है, वह हाथ जोड़कर गुरू ग्रन्थ साहिब के स्वरूप को प्रणाम कर रहा है। नतमस्तक हो रहा है।ऐसे ही तो हिंदू समाज रामायण और गीता का सम्मान करता है।
इनके आगमन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहा,“हम अफगानिस्तान से मात्र अपने भाई-बहनों को ही नहीं लाये हैं बल्कि सिर पर रखकर गुरु ने साहिब भी लाये हैं
मैं सोच रहा हूं कि अफगानिस्तान से देश वापस लाने वाले हिंदू− मुस्लिम – सिख में कोई भेदभाव नहीं। सब भारत माता के लाल है। सब भारत मां के सपूत। देश का व्यवहार सबके प्रतिएक सा है।फिर खालिस्तान क्योंॽ
खालिस्तान के बारे में सोचता हूं कि आज सिख समाज पूरे भारत में कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है।खालिस्तान की मांग करने वालों के लिए ,उनकी आंख खोलने के लिए संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार के विचार काफी है। संघ प्रचारक इन्द्रेश कुमार पंजाब के Nangal (नंगल) और लुधियाना में हुए कार्यक्रमों में पूछा गया कि खालिस्तान के बारे में आपकी क्या राय है।उन्होंने बोलते हुए कहा था− "हिंदुस्तान ही खालिस्तान है" और "सारा खालिस्तान ही हिंदुस्तान है"।
उन्होंने स्पष्ट किया कि जब देश को और धर्म को आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत शीश देने वाले वीरों की आवश्यकता थी तब "पिता दशमेश" गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने "ख़ालसा पंथ" का सृजन करते हुए "संत-सिपाही" परंपरा की नींव डाली । इसमें हर जाति, वर्ण और क्षेत्र के लोग शामिल हुए ताकि धर्म बच सके। यानि खालसा पंथ लोगों को समाज को और राष्ट्र को जोड़ने के लिए आया था । दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने इस पवित्र शब्द का दुरूपयोग कर इस शब्द का प्रयोग भारत को तोड़ने के लिए और लोगों को बांटने के लिए इस्तेमाल किया और नाम दिया "खालिस्तान"।
तो ऐसा करने वालों को ये जरूर सोचना चाहिए कि वो "दशम पातशाह" की शिक्षाओं का अनुकरण कर रहे हैं या उसके विपरीत जा रहे हैं? उन्हें ये जरूर सोचना चाहिए कि उनके आचरण से पवित्र "खालसा" शब्द शोभित हो रहा है अथवा इस पवित्र शब्द दुरूपयोग हो रहा है?
इसके बाद उन्होंने प्रश्न करने वाले से कहा-
सतगुरु "नानक देव जी" की प्राकट्य स्थली 'तलवंडी साहिब' वर्तमान पाकिस्तान में है। चतुर्थ पातशाही "गुरु रामदास जी" की प्राकट्य स्थली चूना मण्डी, लाहौर में है । वह भी दुर्भाग्य से आज पाकिस्तान में आता है। दशम पातशाह "गुरु गोविंद सिंह जी" का प्रकाश बिहार के पटना साहिब में हुआ था तो जहाँ तक खालिस्तान का ही प्रश्न है तो मुझे आपसे इतना पूछना है कि जो खालिस्तान आप मांग रहे हो उसमें हमारे गुरुओं की ये प्राकट्य स्थली शामिल होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?उन्होंने आगे कहा- "करतारपुर साहिब" जहाँ गुरु नानक देव जी ज्योति-जोत में समाये थे वो आज पाकिस्तान में हैं। पंचम "गुरु अर्जुन देव" जी ने 'लाहौर' में शरीर छोड़ा था । दशम पातशाह "गुरु गोविंद सिंह जी" महाराज 'नांदेड़ साहिब', महाराष्ट्र में ज्योति-ज्योत में समाये थे। मुझे आपसे इतना ही पूछना है कि जो खालिस्तान आप मांग रहे हो उसमें हमारे गुरुओं के ज्योति-ज्योत में समाने की ये स्थली होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?
उन्होंने आगे कहा- "दशमेश पिता" ने जब "खालसा "सजाया था तो शीश देने जो पंच प्यारे आगे आये थे ।उनमें से एक 'भाई दयाराम' लाहौर से थे। दूसरे मेरठ के 'भाई धरम सिंह जी' थे। तीसरे जगन्नाथपुरी, उड़ीसा के 'हिम्मत सिंह जी' थे। चौथे द्वारका, गुजरात के युवक 'मोहकम चन्द जी' थे और पांचवें कर्नाटक के बीदर से भाई 'साहिब चन्द सिंह' जी थे । मेरा प्रश्न ये है कि उस खालिस्तान के अंदर इन पंच प्यारों की जन्म-स्थली होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए?
तो उन्होंने आगे कहा- सिख धर्म के अंदर पांच तख्त बड़ी महत्ता रखते हैं, इनमें से एक तख्त श्री पटना साहिब में है जो बिहार की राजधानी पटना शहर में स्थित है। 1666 में "गुरु गोबिंद सिंह जी" महाराज का यहाँ प्रकाश हुआ था और आनंदपुर साहिब में जाने से पहले उन्होंने यहाँ अपना बचपन यहाँ बिताया था । लीलाएं की थी। इसके अलावा पटना में गुरु नानक देव जी और गुरु तेग बहादुर जी के भी पवित्र चरण पड़े थे। एक और तख़्त श्री हजूर साहिब महाराष्ट्र राज्य के नांदेड़ में है। तो मेरा प्रश्न ये है कि ये सब पवित्र स्थल आपके खालिस्तान में होने चाहिए कि नहीं होने चाहिए?
उन्होंने आगे कहा- महाराजा रणजीत सिंह ने जिस विशाल राज्य की स्थापना की था, उसकी राजधानी लाहौर थी। उनके महान सेनापति हरिसिंह नलवा की जन्म स्थली और शरीर त्याग स्थली दोनों ही आज के पाकिस्तान में है, इसके अलावा अनगिनत ऐसे संत जिनका बाणी पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब में है वो सब भारत के अलग-अलग स्थानों में जन्में थे । मेरा प्रश्न है कि आपके इस खालिस्तान में ये सब जगहें आनी चाहिए कि नहीं आनी चाहिए?
प्रश्नकर्ता से उन्होंने कहा- इन सारे प्रश्नों के उत्तर तभी मिल सकते हैं और ये सारे ही स्थल तभी खालिस्तान के अंदर तभी आ सकते हैं जब आप और मैं ये मानें कि सारा "हिंदुस्तान ही खालिस्तान है" और "सारा खालिस्तान ही हिंदुस्तान है"।
मान लो अगर आपने खालिस्तान ले भी लिया तो क्या इन जगहों पर वीजा और पासपोर्ट लेकर आओगे जो आज तुम्हारे अपने है? आप तो बड़े छोटे मन के हो जो इतने से खालिस्तान मांग कर खुश हो रहे हो और मैं तो आपको खालिस्तान में पूरा अखंड हिंदुस्तान दे रहा हूँ। है हिम्मत मेरे साथ ये आवाज़ उठाने की?
संघ प्रचारक भारत के कुछ और प्रसिद्ध गुरूद्वारों का जिक्र नहीं कर पांए। उनकायहां करना जरूरी है।
देश के अन्य प्रसिद्ध गुरूद्वारे
देश के कुछ महत्वपूर्ण गुरूद्वारे हैं−गुरुद्वारा पौंटा साहिब,( हिमाचल प्रदेश )माना जाता है कि पौंटा साहिब पर सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह ने सिख धर्म के शास्त्र दसम् ग्रंथ या 'दसवें सम्राट की पुस्तक' का एक बड़ा हिस्सा लिखा था।स्थानीय लोगों का कहना है कि गुरु गोबिंद सिंह चार साल यहां रुके थे।
जम्मू कश्मीर का गुरुद्वारा मटन साहिब अनंतनाग भी विश्व प्रसिद्ध है। यह श्रीनगर से 62 किलोमीटर की दूरी पर है। बताया जाता है कि श्री गुरुनानक देव जी अपनी यात्रा के दौरान यहां 30 दिन ठहरे थे।
कनार्टक का गुरुद्वारा श्री नानक झिर साहिब, एक ऐतिहासिक जगह है। रोजाना लगभग चार से पांच लाख लोग इस गुरुद्वारे में माथा टेकने आते हैं।
उत्तरांचल का गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब सिखों का एक विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक पवित्र गुरूद्वारा है।यह गुरूद्वारा जिला उधमसिंह नगर के खटीमा क्षेत्र में देवहा जलधरा के किनारे बसा हुआ है । यह स्थान सिखों के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थानों में से एक है । गुरुद्वारे का निर्माण सरयू नदी पर किया गया है। और नानक सागर डेम पास में ही स्थित है। जिसे नानक सागर के नाम से जाना जाता है | यह वह स्थान है जहाँ सिक्खों के प्रथम गुरू नानकदेव जी और छठे गुरू हरगोविन्द साहिब के चरण पड़े । इस राज्य में तीन सिख पवित्र स्थानों में से एक है । अन्य पवित्र स्थानों में गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब और रीता साहिब हैं ।
दिल्ली के तो आठ गुरूद्वारे विश्व प्रसिद्ध हैं।
ये हैं−गुरूद्वारा बंगला साहिब,गुरुद्वारा शीशगंज, गुरूद्वारा रकाब गंज, गुरुद्वारा बाबा बंदा सिंह बहादुर, गुरुद्वारा माता सुंदरी,गुरूद्वारा बालासाहिब, गुरुद्वारा मोती बाग साहिब और गुरूद्वारा दमदमा साहिब प्रसिद्ध हैं।
इनके अलावा देश भर में और भी महत्वपूर्ण गुरूद्वारे हैं।विशेष बात यह है कि इन गुरूद्वारों में बड़ी तादाद में हिंदू भी जाकर माथा नवाते हैं।ऐसे में खालिस्तान बनने पर क्या होगाॽखालिस्तान के बाहर के गुरूद्वारों में तो बिना पास्पोर्ट औरा वीजा के जाना संभव नहीं होगा। फिर हिदूं भी गुरूद्वारों में जाते कतरांएगे। ऐसे में गलत मांग क्यों की जाएॽ
आज पूरा देश सब भारतवासियों का है, सबको सब जगह जाने की छूट है, फिर ऐसे रास्ते क्यों देखें, जे व्यवधान पैदा करें।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
छह अक्तूबर के प्रभासाक्षी और चिंगारी में मेरा लेख
मेरे बारे में लेख बिजनौर केसरी में लेख
मेरे बारे में बिजनौर केसरी में चार मई 2020 में लेख छपा। लिंक है−http://mail.bijnorkesari.com/news_show.php?show_id=774
आज अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस पर जानते है दैनिक अमरउजाला प्रभारी श्री अशोकमघुप जी के बारे मे
Other--2020-05-04
बिजनौर । लगभग 70 बसंत देख चुके श्री अशोक मधुप जी का जन्म 17 जुलाई सन 1950 मे कस्बा झालू मे हुआ जनपद बिजनौर के वरिष्ठ पत्रकारों में शामिल हैं मधुप जी सन 1971 में उन्होंने अपनी पत्रकारिता व कविता कि शुरू की थी कवि सम्मेलन में खूब गए
श्री अशोक मघुप जी की अभिव्यक्ति गद्य पद्य दोनो रूप मे समान भाव से होती है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी मधुप जी बिजनौर के एतिहासिक स्थलों व पुरातत्व महत्त्व की जानकारी का भण्डार है ।मुझे भी बहुत कुछ सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है सन 76 से अमर उजाला से जुड़े।इधर उधर घूमे।फिर अमर उजाला से जुड़ गए। अमर उजाला के साथ उनका लगभग 45 साल का सफर है
पत्रकारों की मान्यता है कि मघुप जी कि लेखनी ही इनकी लंबी आयु का राज है।
मधुप जी ने अपने जीवन में दर्जनों लोगों को पत्रकारिता के गुर सिखाए हैं मधुप जी तटस्थ विचारों के कुशल खिलाड़ी ही नहीं साहित्य सृजन के संस्कार से अनुप्राणित व्यक्ति भी हैं सरलता म मधुरता उनकी पहचान है।
अपने विचारों को साझा करते हुए बताया कि एक जमाना था जब अखबारों में चार पंक्ति की समाचार आने पर हाय-तौबा मचने लगती थी लोग कहते थे कि अखबार में छपा है,तो सही ही होगा उस दौरान मेरठ से लेकर बिजनौर तक कुछ ही समाचार पत्र होते थे समय दूरसंचार प्रणाली उतनी तेज नही होने के कारण लोग सूचना के लिए अखबार पर निर्भर थे।
आज इलेक्टानिक मीडिया के आने पर भी अखबारों की प्रासंगिता कम नहीं हुई है। लोग सुबह सवेरे उठते ही अमर उजाला अखबार की ओर झपटते हैं ।आम आदमी से लेकर खास आदमी जब प्रशासन नेताओं को अपनी बात कहते-कहते थक जाते हैं ।कोई परिणाम सामने नहीं आता है तब लोगों की आखिरी आस पत्रकार होते हैं।
आज भी लोग कहते हैं चलो अखबार में खबर छपा देते हैं। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकारिता की प्रासंगिकता न कभी कम हुई है न कभी कम होगी
मधुप जी मेरी नजर मे एक एसे पत्रकार है जिन्होने बड़े-बड़े नेताओं पदाधिकारियों के कृत्य को जनता के सामने लाकर उसे नेपथ्य तक ले जाने में भी अपनी भूमिका निभाई
बिजनौर मे कभी पत्रकारों को धमकियां भी मिली है लेकिन इस पवित्र पेशे को अच्छे लेखक पत्रकार अपनाने में आज लोग हिचक नहीं रहे हैं। इनके विरुद्ध दो बार रासुका लगाने के प्रयास हुए।तो एक बार सेना में विद्रोह फैलाने के प्रयास का भी मुकदमा हुआ।
मधुप जी बताते हैं पत्रकार बिना कोई सुरक्षा की परवाह किए सच को सामने लाने के लिए खाक छान देता है ।कभी कभी इसकी जान भी चली जाती है। पत्रकार की ताकत तो अपनी कलम ही होती है ।इसी के बल पर इनका मजमा लगता है कभी लोग ताली भी बजाते हैं कभी कोसते भी हैं।
आम जनता के बीच पत्रकार की पैठ ही असली ताकत होती है इसलिए पत्रकारों का दायित्व बनता है कि वह जनता के विश्वास में खरा उतरते रहे ।अपनी लेखनी को किसी भी शर्त पर गिरवी न रखें।
पत्रकार का काम केवल जानकारी देना नहीं बल्कि हर सभ्य कदम हर मानवीय मूल्य के साथ खड़े होने और जनहित के लिए लड़ने वाले एक योद्धा का साथ भी देने का है । इस लड़ाई में कभी वह जीतता भी है तो कभी हार भी जाता है
समाज की दो सबसे महत्वपूर्ण शक्तियां राजनीतिक और आर्थिक है।
यह वही शक्तियां हाथी के समान हैं । मिडिया एक अंकुश है।इसका लक्ष्य इस हाथी को सही रास्ते पर चलने को मजबूर करते रहना है ।पत्रकारिता में दबे कुचले वर्ग की भागीदारी भी आवश्यक है ।जब तक पत्रकार समाज के लोग सच्ची पत्रकारिता से नहीं जुटेंगे तबतक उनके सही दर्द को नहीं जाना जा सकता है
सभी पत्रकार बन्धुओं को अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस की हार्दिक बधाई
प्रस्तुति----------तैय्यब अली
आजादी की अलख जगाने के लिए लिया जाता था मेलों का सहारा
आजादी की अलख जगाने के लिए लिया जाता था मेलों का सहारा
बिजनौर। आजादी के आंदोलन में जिलेवासियों ने भी अपनी आहुति दीं थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर इसके बाद भी हुए हर आंदोलन में जिलेवासियों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। जिले में आजादी की अलख जगाने के लिए मेलों का सहारा लिया जाता था। गंगा स्नान मेले में उमड़ने वाली भीड़ में आजादी की अलख जगाई जाती थी। तब अंग्रेजों ने जिले में गंगा स्नान में आने वाली बैल गाड़ियों पर टैक्स लगा दिया था। लेकिन कांग्रेसियों के साथ आम आदमी के द्वारा गिरफ्तारी देने से अंग्रेज बैकफुट पर आ गए थे।
सूचना विभाग की पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक के अनुसार 1921 में अंग्रेजों के खिलाफ खिलाफत आंदोलन शुरू किया गया था, इसमे अंग्रेजों की बात न मानने का निर्णय लिया गया। जिले में इस आंदोलन की चिंगारी को ज्वालामुखी बनाने की जिम्मेदारी चौधरी चंदन सिंह और लाला ठाकुर दास ने संभाली थी। उनके अलावा सोती जगदीश दत्त, लतीफ बेग अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में भाग लेने को युवाओं को प्रेरित करने लगे। जिन लोगों के परिवार पहले अंग्रेजों के खिलाफ तलवार उठा चुके थे वे भी परिवार आंदोलन से जुड़ गए। इनमे ज्यादातर स्योहारा के परिवार थे। खिलाफत आंदोलन से जनता को जोड़ने पर अंग्रेजों ने सबसे पहले मिर्जा लतीफ बेग को गिरफ्तार किया था। जनता ने बड़ा जुलूस निकालकर उन्हें शानदार विदाई दी।
विश्वामित्र एडवोकेट व सोती जगदीश दत्त प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में भाग लेने के लिए जिले के प्रतिनिधि के तौर पर इलाहाबाद गए। वहां सभी प्रांतीय कमेटी के सदस्यों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया। बाद में जिले से चौधरी चंदन सिंह व महावीर त्यागी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। आंदोलन से प्रभावित होकर नेमीशरण जैन और रतनलाल जैन वकालत छोड़कर व अब्दुल लतीफ दरोगा की नौकरी छोड़कर जुड़ गए। 1922 में नेमीशरण जैन को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। उस समय कांग्रेस के जिला प्रमुख को जिले का प्रधानमंत्री कहा जाता था। नेमीशरण जैन की जगह रतनलाल जैन को प्रधानमंत्री बनाया गया।
आजादी को जन आंदोलन बनाने के लिए तब मेलों व त्यौहारों का सहारा लिया जाता था। आंदोलन को बड़े स्तर पर बढ़ाने के लिए गंगा स्नान के मेले को चुना गया, जिसमें भारी भीड़ लगती थी। मेला क्षेत्र तब जिला बोर्ड की व्यवस्था के अंतर्गत आता था। इस पर कांग्रेस का कब्जा हो गया। इस पर जिलाधीश यानि तब के डीएम ने नाराज होकर मेले में भीड़ को कम करने के लिए वहां आने वाली बैल गाड़ियों पर टैक्स लगा दिया तो कांग्रेसियों ने इसके खिलाफ आंदोलन किया। तमाम लोगों ने इसके विरोध में गिरफ्तारी दी, इस पर जिलाधीश पीछे हट गए और टैक्स खत्म कर दिया गया। फिर जब तक देश में अंग्रेेज रहे, तब तक जिलाधीश ने मेले का प्रबंध अपने हाथ में नहीं लिया।
15 अगस्त 2020 अमर उजाला में मेरा लेख