मेरा यह लेख अमर उजाला में 30 मार्च को प्रकाशित हुआ है
किसी भी प्रदेश का विकास उस राज्य में मौजूद बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता से होता है। जाहिर है, इन सुविधाओं में बिजली और सड़क सबसे अहम हैं। नया-नया प्रदेश बने उत्तराखंड के औद्योगिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि वहां बिजली की निर्बाध आपूर्ति है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मांग के अनुरूप बिजली की उपलब्धता काफी कम है, इसी के कारण यहां लगे उद्योग आस-पास के राज्यों की ओर खिसक रहे हैं, या किसी तरह अपने काम चला रहे हैं। छोटे उद्योगांे की हालत तो बहुत ज्यादा खराब है।
उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी का आलम यह है कि जहां राज्य में इसकी मांग लगभग 9,000 हजार मेगावाट है, वहीं राज्य का अपना उत्पादन 3,300 से 3,500 मेगावाट के बीच है। यानी अपनी सामान्य जरूरत के लिए भी हमें 3,500 मेगावाट बिजली केंद्र से खरीदनी पड़ रही है। बावजूद इसके 3,000 मेगावाट की कमी से राज्य को जूझना पड़ रहा है। ऐसे में, प्रदेश के देहाती इलाकों को दिन भर में जहां चार-पांच घंटे विद्युत आपूर्ति हो पा रही है, वहीं कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो शेष शहरी क्षेत्र को मात्र बारह से चौदह घंटे बिजली मिल पा रही है। और अगर वह इतनी मिल भीरही है, तो वोल्टेज काफी कम मिलते हैंं। इससे या तो उपकरण चलते नहीं या फिर फुंक जाते हैं। पिछली सरकार में रिलांयस को दादरी मंे बिजली घर लगाने की अनुमति दी गई थी। अपेक्षा की गई थी कि यह इकाई 7,400 मेगावाट बिजली बनाएगी। लेकिन यह परियोजना राजनीति का शिकार हो गई।
हमारे पास अगर कुछ साधन हैं भी, तो उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। एक मेगावाट बिजली बनाने में करीब पांच करोड़ रुपये का व्यय आता है। प्रदेश का चीनी उद्योग लगभग 1,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है। लेकिन चीनी उद्योग द्वारा यह बिजली उस समय पैदा की जाती है, जब चीनी मिलों में पेराई का सीजन होता है। बाकी समय चीनी मिलें बिजली का उत्पादन नहीं करतीं। अब 1,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए हमें 5,000 करोड़ रुपये के आसपास खर्च करना पड़ेगा। यदि हम चीनी मिलों को ही पे्ररित करें कि वे साल भर बिजली उत्पादन करें, तो बिजली घर बनाने पर व्यय होने वाली राशि की बचत तो होगी ही, नए बिजली घर के लिए अतिरिक्त भूमि अधिगृहीत करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
हां, चीनी मिलों को 12 माह बिजली उत्पादन के लिए अपनी टर्बाइन में कुछ परिवर्तन करने होंगे। सीजन में यह टर्बाइन गन्ने की खोई से चलती हैं, शेष वक्त में ये कोयले से चलेंगी। यकीनन इस पर कुछ व्यय भी होगा, लेकिन यह बोझ चीनी मिलें स्वयं उठा लेंगी, यदि हम उनसे ‘ऑफ सीजन’ के लिए कुछ मंहगी दर पर बिजली लेने को तैयार हो जाएं। इसी तरह, बिजली उत्पादन के लिए हमे गैर परंपरागत साधनों के विकास पर भी बल देना होगा। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में नए विकास करने होंगे। इसका उत्पादन करने वाली कंपनियों को रियायत देनी होगी, ताकि इसके उपकरण सस्ते हों। फिलहाल वे बहुत ही महंगे हैं, और उत्पादन कम होने से उपभोक्ताओं को लंबा इंतजार करना पड़ता है। आज इनवर्टर का सौर ऊर्जा का पैनल ही 10,000 रुपये से ज्यादा का बैठता है।
बिजली चोरी भी एक बड़ी समस्या है। बिजली मंत्री के छापे मारने से यह प्रवृत्ति बंद नहीं होगी। इसके लिए हमें कठोर कदम उठाने होंगे। आज हम बिजली चोरी में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ तबादले या निलंबन की ही कार्रवाई कर पाते हैं। उनके विरुद्ध अपराधिक मुकदमे दर्ज करने पड़ेंगे। तभी तसवीर बदलेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
अशोक मधुप
2 comments:
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए !
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
मधुप जी नमस्कार!
आपने बहुत ही सही बिन्दु और आँकड़े इस लेख में प्रस्तुत किये हैं!
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