Friday, October 31, 2025

अमृता प्रीतम : प्रेम, पीड़ा और मानवीय संवेदनाओं की कवयित्री




भारतीय साहित्य में अमृता प्रीतम का नाम स्त्री चेतना, संवेदना और प्रेम के सशक्त स्वर के रूप में अमर है। उन्होंने न केवल पंजाबी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि हिंदी साहित्य को भी नई दिशा दी। अमृता प्रीतम की रचनाओं में एक औरत की आत्मा बोलती है—जो समाज की बंदिशों के बावजूद अपनी पहचान और अपने प्रेम के लिए संघर्ष करती है। वह कवयित्री ही नहीं, बल्कि कहानीकार, उपन्यासकार, निबंधकार और विचारक भी थीं।


प्रारंभिक जीवन


अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता करतार सिंह हितकारी एक कवि और विद्वान थे, जबकि माता हरनाम कौर धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। अमृता का बचपन स्नेह और संस्कारों में बीता, परंतु जब वह 11 वर्ष की थीं, तभी उनकी माँ का निधन हो गया। इस घटना ने अमृता के भीतर गहरी संवेदना और अकेलेपन की अनुभूति भर दी, जो आगे चलकर उनके लेखन का स्थायी भाव बन गई।


साहित्यिक आरंभ और लेखन यात्रा


अमृता ने बहुत छोटी उम्र से ही लेखन आरंभ कर दिया था। 16 वर्ष की आयु में उनका पहला कविता संग्रह “अमृत लेहरां” प्रकाशित हुआ। प्रारंभिक रचनाओं में रोमानी भावनाएँ थीं, परंतु धीरे-धीरे उनमें सामाजिक यथार्थ और स्त्री अस्मिता की गूंज स्पष्ट होने लगी। विभाजन के दौर में उन्होंने जिस दर्द को देखा, उसे उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता “आज आखां वारिस शाह नूं” में उकेरा—


> "अज आख्या वारिस शाह नूं, कितों कबर विच्चों बोल..."

यह कविता भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान हुई मानवीय त्रासदी का करुण चित्रण है। इस एक कविता ने अमृता प्रीतम को अमर कर दिया।




प्रमुख रचनाएँ


अमृता प्रीतम ने 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें कविता, उपन्यास, आत्मकथा, कहानी संग्रह और निबंध शामिल हैं।

उनकी प्रसिद्ध कृतियों में —


कविता संग्रह: आखां वारिस शाह नूं, नागमणि, कागज़ ते कैनवास, संगम, सत्तावन वर्षों के बाद।


उपन्यास: पिंजर, धरती सागर ते सीमा, रसीदी टिकट, कोरे कागज, दूआरे, जिंदगीनामां।

इनमें “पिंजर” (1948) को विशेष प्रसिद्धि मिली। यह उपन्यास भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें एक स्त्री ‘पूरो’ की कहानी के माध्यम से अमृता ने स्त्री की पीड़ा, समाज की कठोरता और मानवीय करुणा का अद्भुत चित्रण किया है। इस उपन्यास पर बाद में एक लोकप्रिय फिल्म भी बनी।



स्त्री चेतना की स्वरधारा


अमृता प्रीतम भारतीय समाज की उन कुछ लेखिकाओं में से थीं, जिन्होंने औरत के भीतर की भावनाओं, उसकी स्वतंत्रता और उसकी पहचान को बड़ी निडरता से व्यक्त किया। उन्होंने प्रेम को केवल रोमांटिक दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता के रूप में देखा। उनकी कविताएँ और गद्य रचनाएँ पुरुष-प्रधान समाज में औरत की अपनी जगह की तलाश का दस्तावेज़ हैं।


निजी जीवन और प्रेम


अमृता प्रीतम का निजी जीवन भी उतना ही संवेदनशील और चर्चित रहा जितना उनका साहित्य। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने प्रीतम सिंह से विवाह किया, परंतु यह वैवाहिक जीवन बहुत सुखद नहीं रहा। विभाजन के बाद वे दिल्ली आ गईं और रेडियो में काम करने लगीं। धीरे-धीरे उन्होंने पारंपरिक रिश्तों से अलग होकर स्वतंत्र जीवन जीना चुना।


उनके जीवन में प्रसिद्ध कवि साहिर लुधियानवी का नाम गहराई से जुड़ा है। अमृता ने साहिर के प्रति अपने गहरे प्रेम को कभी छिपाया नहीं। उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में उन्होंने इस संबंध की अंतरंग झलकियाँ दी हैं। साहिर के प्रति उनके भावों को उन्होंने अपनी अनेक कविताओं में उकेरा। बाद के वर्षों में प्रसिद्ध चित्रकार इमरोज़ उनके जीवन में आए, जिन्होंने अमृता के साथ कई दशकों तक गहरी मित्रता और आत्मिक साझेदारी निभाई। अमृता ने कहा था—


> “इमरोज़ मेरा आज है, और साहिर मेरा बीता हुआ कल।”




साहित्यिक सम्मान और योगदान


अमृता प्रीतम को उनके साहित्यिक योगदान के लिए अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले। उन्हें 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1969 में पद्मश्री, 1982 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार और 2004 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। वह स्वतंत्र भारत की पहली प्रमुख पंजाबी महिला लेखिका थीं, जिन्हें इस स्तर पर मान्यता मिली।


उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट” भारतीय आत्मकथात्मक साहित्य की कालजयी कृति मानी जाती है। इसमें उन्होंने न केवल अपने जीवन का लेखा-जोखा दिया, बल्कि अपने समय, समाज और स्त्री की स्थिति पर गहरा विमर्श प्रस्तुत किया।


अंत समय और विरासत


अमृता प्रीतम का निधन 31 अक्टूबर 2005 को दिल्ली में हुआ। उनके साथ इमरोज़ अंत तक रहे। अमृता आज भी भारतीय साहित्य में एक प्रेरणा हैं—एक ऐसी स्त्री लेखिका, जिसने अपनी कलम से समाज की रूढ़ियों को चुनौती दी और प्रेम, मानवीयता तथा स्वतंत्रता के नए आयाम स्थापित किए।


निष्कर्ष


अमृता प्रीतम केवल एक कवयित्री नहीं, बल्कि एक युग थीं। उन्होंने अपने जीवन और लेखन दोनों में यह साबित किया कि स्त्री भी सोच सकती है, लिख सकती है और अपने दिल की बात कह सकती है। उनका साहित्य स्त्री के मौन को शब्द देता है, और उनकी कविताएँ आज भी हर संवेदनशील आत्मा में गूंजती हैं।

Wednesday, October 29, 2025

अस्थिर गठबंधन और युवा बनाम अनुभवी नेतृत्व की जंग बिहार विधानसभा चुनाव 2025:



अशोक मधुप

वरिष्ठ  पत्रकार 

बिहार का 2025 विधानसभा चुनाव राजनीतिक अस्थिरता, नए सिरे से बने गठबंधनों, और युवा बनाम अनुभवी नेतृत्व के बीच सीधे मुकाबले के कारण भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन चुका है। यह चुनाव न केवल राज्य के शासन की दिशा तय करेगा, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इस बार का चुनावी परिदृश्य पिछले चुनावों से कई मायनों में अलग है, खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बार-बार पाला बदलने ने इस जंग को और भी दिलचस्प बना दिया है। यह चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राजनैतिक भविष्य भी तै करेगा। 


बिहार की राजनीति हमेशा से ही गठबंधनों के टूटने और बनने के लिए जानी जाती है, लेकिन 2025 के चुनाव से पहले का घटनाक्रम अभूतपूर्व रहा।जनवरी 2024 में, जनता दल (यूनाइटेड) के नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेतृत्व वाले महागठबंधन को छोड़कर नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ मिलकर सरकार बनाई। इस बार एनडीए में प्रमुख रूप से बीजेपी, जदयू और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (एचएएम) शामिल हैं।

एनडीए गठबंधन विकास और सुशासन के पुराने एजेंडे पर भरोसा कर रहा है, साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय चेहरा एक बड़ा फैक्टर है। हालांकि, नीतीश कुमार के दल-बदल से उपजी विश्वसनीयता का संकट एनडीए के लिए एक चुनौती है। सीट बंटवारे को लेकर कुछ छोटे सहयोगियों में असंतोष की खबरें और मगध जैसे कुछ क्षेत्रों में पिछले चुनाव में एनडीए का कमजोर प्रदर्शन इस गठबंधन के लिए चिंता का विषय है। 

नीतीश कुमार के एनडीए में लौटने के बाद, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के युवा नेता तेजस्वी यादव महागठबंधन के एकमात्र और निर्विवाद नेता बन गए हैं। इस गठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, और वाम दल (CPI, CPI-ML) शामिल हैं। महागठबंधन का मुख्य फोकस तेजस्वी यादव के 'रोजगार और विकास' के वादे पर है। तेजस्वी, अपने पिता लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय के आधार को आर्थिक न्याय के साथ जोड़कर एक नया राजनीतिक विमर्श बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तेजस्वी यादव खुद को परिवर्तनकारी नेता के रूप में पेश कर रहे हैं, जो 'डबल इंजन' सरकार की कथित विफलता और पुराने जंगलराज के आरोपों का मुकाबला 'युवा और विजनरी' नेता की छवि से कर रहे हैं।

बिहार की राजनीति में जातिगत समीकरण हमेशा से ही निर्णायक रहे हैं। इस चुनाव में भी '4 C' (कास्ट, कैंडिडेट, कैश और कोऑर्डिनेशन) फैक्टर महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। जीतन राम मांझी (HAM) और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (VIP) जैसे छोटे क्षेत्रीय दल, जो क्रमशः मुसहर और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBC) के मतदाताओं पर प्रभाव रखते हैं, निर्णायक साबित हो सकते हैं। VIP, जो अब महागठबंधन में है, मिथिलांचल क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ के कारण गठबंधन को मजबूती दे सकता है।

 यादव-मुस्लिम (MY) समीकरण RJD का पारंपरिक आधार है, जबकि NDA कुर्मी-कोइरी के साथ मिलकर अगड़ी जातियों और दलितों के एक हिस्से को साधने की कोशिश कर रहा है।


यह चुनाव केवल गठबंधन की राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनहित के मुद्दों पर भी लड़ा जा रहा है। तेजस्वी यादव ने 10 लाख सरकारी नौकरियों का अपना पुराना वादा दोहराया है, जो राज्य के युवा मतदाताओं के बीच एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। एनडीए 'जंगलराज' के आरोपों को फिर से हवा दे रहा है, लेकिन तेजस्वी यादव ने इस बार इसे 'डबल जंगलराज' कहकर पलटवार किया है। वे  मौजूदा NDA सरकार पर कानून व्यवस्था बनाए रखने में विफल रहने का आरोप लगाया है।


 दोनों गठबंधन राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के विकास पर अपने-अपने दावों के साथ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। शुरुआती सर्वे (2025 की शुरुआत में) NDA को बढ़त दिखाते रहे हैं, लेकिन तेजस्वी की ताबड़तोड़ रैलियों और महागठबंधन के जमीनी प्रचार ने मुकाबला काँटे की टक्कर में बदल दिया है।

बिहार का चुनावी परिणाम बहुत हद तक काँटे की टक्कर में फंसा हुआ दिखता है, जहाँ जीत-हार का फैसला कुछ ही सौ वोटों के अंतर से हो सकता है (जैसा कि 2020 में हिल्सा जैसी सीटों पर हुआ था)।


 तेजस्वी यादव के लिए यह चुनाव उनकी राजनीतिक परिपक्वता और नेतृत्व की क्षमता की सबसे बड़ी परीक्षा है। तो  यह चुनाव नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत पर एक जनमत संग्रह भी होगा, जिनके बार-बार पाला बदलने की आलोचना हो रही है। एनडीए के भीतर, यह भाजपा की ताकत को भी परखेगा कि क्या वह अपने सहयोगियों पर निर्भरता कम करके खुद को राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित कर सकती है।

इस बार के चुनाव में पहली बार ‘जन सुराज पार्टी ‘ नामक एक नया राजनैतिक दल भी बिहार की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज करा रहा है।’जन सुराज पार्टी ‘ जैसे किसी नवगठित दल द्वारा अपने पहले ही चुनाव में राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करना ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। बड़ी बात यह है कि इस पार्टी के लगभग सभी उम्मीदवार शिक्षित,बुद्धिजीवी,पूर्व नौकर शाह,पूर्व आई ए एस,आई पी एस,वैज्ञानिक,गणितज्ञ तथा शिक्षाविद हैं जबकि चुनाव मैदान में कूदे अन्य पारंपरिक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के उम्मीदवारों की शिक्षा,उनके आचरण, चरित्र व योग्यता के विषय में कुछ अधिक बताने की ज़रुरत ही नहीं। बहरहाल इस नये नवेले राजनैतिक दल ‘जन सुराज पार्टी ‘ के संस्थापक व अकेले रणनीतिकार व स्टार प्रचारक वही प्रशांत किशोर हैं, जो नरेंद्र मोदी व भाजपा से लेकर देश के अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं के लिये एक पेशेवर के रूप में चुनावी रणनीति तैयार करने के बारे में जाने जाते हैं। देश के विभिन्न राजनैतिक दलों को अपनी रणनीति का लोहा मनवाने के बाद मूल रूप से बिहार के ही रहने वाले प्रशांत किशोर ने अपनी योग्यता का प्रयोग सर्वप्रथम अपने ही राज्य के विकास के लिये करने का निर्णय लिया और 2022 में बिहार की जनता को जागरूक करने व उन्हें उनकी व पूरे राज्य की बदहाली के मूल कारणों से अवगत कराने के मक़सद से बिहार में ‘जन सुराज अभियान’ चलने की घोषणा की। इस घोषणा के बाद ही उन्होंने राज्य में लगभग 3,000 किलोमीटर की पदयात्रा भी की। देखना  है कि बिहार की राजनीति में यह कितना   परिवर्तन लाने में सफल होते हैं। 


संक्षेप में, बिहार 2025 का चुनाव स्थिरता बनाम परिवर्तन, अनुभव बनाम युवा ऊर्जा, और पुराने जातिगत आधार बनाम नए आर्थिक विमर्श के बीच का संघर्ष है। मतगणना के दिन तक, राज्य की 243 सीटों पर अनिश्चितता का माहौल बना रहेगा।

अशोक मधुप

(लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

Wednesday, October 22, 2025

  कविता से तलवार का काम लेने वाला कवि अदम गोंडवी

 अदम गोंडवी भारतीय कवि थे। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा। मंच पर मुशायरों के दौरान जब अदम गोंडवी ठेठ गंवई अंदाज़में हुंकारते थे तो सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे। अदम गोंडवी की पहचान जीवन भर आम आदमी के शायर के रूप में ही रही। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बनाई थी। अदम गोंडवी कवि थे और उन्हें कविता में गंवई जिंदगी की बजबजाहट, लिजलिजाहट और शोषण के नग्न रूपों को उधेड़ने में महारत हासिल थी। वह अपने गांव के यथार्थ के बारे में कहा करते थे- "फटे कपड़ों में तन ढ़ाके गुजरता है जहां कोई/समझ लेना वो पगडंडी ‘अदम’ के गांव जाती है।"

भारतीय जनकवि अदम गोंडवी हिंदी साहित्य के उन विरल कवियों में से हैं जिन्होंने कविता को सत्ता या अकादमिक गलियारों से निकालकर सीधे जनता के बीच पहुंचाया। उन्होंने शब्दों को शस्त्र बनाया और अपने समय की सामाजिक असमानता, राजनीतिक भ्रष्टाचार और जातीय भेदभाव पर गहरी चोट की। एदम गोंडवी का नाम आते ही वह लोकभाषा में लिखी गई कविताएं याद आती हैं जो आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष को स्वर देती हैं।

जीवन परिचय

अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। उनका जन्म 22 दिसंबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के परसपुर ब्लॉक के आटा ग्राम में हुआ था। वे एक साधारण किसान परिवार से थे और बचपन से ही ग्रामीण जीवन की विषमताओं, गरीबी और जातिगत असमानताओं से परिचित थे। यही अनुभव बाद में उनकी कविताओं की आत्मा बने।

दम गोंडवी की औपचारिक शिक्षा बहुत आगे तक नहीं जा सकी, लेकिन उन्होंने जीवन के कठोर अनुभवों से सीखा। साहित्य और राजनीति दोनों में उनकी रुचि थी। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे और डॉ. राममनोहर लोहिया तथा बाबा नागार्जुन जैसे कवियों से प्रेरणा ली। उनका जीवन भले सादगी से भरा रहा, परंतु उनकी कविता ने सत्ता के गलियारों तक आवाज़ पहुँचाई।

1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यन्त कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया। 2007 में उन्हें अवधी/हिंदी में उनके योगदान के लिए शहीद शोध संस्थान द्वारा माटी रतन सम्मान से सम्मानित किया गया था। 18 दिसंबर 2011 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं।

कविता का स्वरूप और विषयवस्तु

अदम गोंडवी की कविताएँ जनजीवन की वास्तविकता का दस्तावेज़ हैं। उन्होंने शहरी चमक-दमक से दूर गांवों के भूले-बिसरे लोगों, दलितों, किसानों, मजदूरों और वंचित वर्ग की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी।

उनकी भाषा खड़ीबोली और अवधी का मिश्रण है — सहज, बोलचाल की और जनता से जुड़ी हुई। यही कारण है कि उनकी कविताएं पाठशालाओं की चारदीवारी से निकलकर जनसभाओं और आंदोलनों का हिस्सा बन गईं।

वे ‘कविता को जन के पक्ष में हस्तक्षेप का माध्यम’ मानते थे। उनके अनुसार,

> “कविता अगर अन्याय के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती, तो वह कविता नहीं, शृंगार मात्र है।”

सामाजिक चेतना और राजनीतिक व्यंग्य

एदम गोंडवी की रचनाओं में समाज की सच्चाई का नंगा चेहरा दिखाई देता है। उन्होंने गरीबी, भूख, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार को खुलकर चुनौती दी। उनकी कविताओं में गुस्सा भी है, व्यंग्य भी, और गहरी करुणा भी।

उनकी प्रसिद्ध कविता ‘चमारों की गली’ में भारतीय समाज की जातिवादी संरचना पर तीखा प्रहार किया गया है —

 “तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो,

इधर परधान साहब बेटियों को बेच देते हैं।”

यह कविता केवल एक गांव की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र का कटु यथार्थ बयान करती है।

एदम गोंडवी की कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। उनकी प्रसिद्ध काव्य-संग्रहों में प्रमुख हैं —

1. धरती की सतह पर

2. समर शेष है

3. संपूर्ण कविताएँ (संकलन)

उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताएँ हैं —

चमारों की गली,धरती की सतह पर,जाति पर व्यंग्य करती कविता ‘मुसलमान’, सामाजिक असमानता पर ‘जनता की भाषा में’, ‘संविधान क्या तुम्हें बचा पाएगा’,‘तुम्हारी सभ्यता’ ‘सवाल पूँछता है जनता

अदम गोंडवी की पंक्तियाँ सीधे हृदय को छूती हैं —

> “जो चुप रहेगी भाषा, वो कायर कहलाएगी,

जो सच कहेगी भाषा, वो बागी कहलाएगी।”

> “सच बोलना अगर गुनाह है तो मैं गुनहगार हूँ,

झूठ की मंडी में सच्चाई का कारोबार हूँ।”

> “मुसलमान और हिन्दू दो हैं ऐसे दर्द के साथी,

एक का जख्म राम कहे, दूजा खुदा पुकारे।”

---कविता में लोकधारा का प्रभाव

अदम गोंडवी की कविता में अवधी लोकधारा और भक्ति परंपरा का गहरा प्रभाव है। उनकी कविता में तुलसीदास की करुणा, कबीर की सच्चाई और नागार्जुन की जनपक्षधरता दिखाई देती है। वे ‘लोककवि’ इस अर्थ में हैं कि उनकी कविता जनता की ज़ुबान में बोलती है और जनता के पक्ष में खड़ी होती है।

--साहित्यिक योगदान और प्रभाव

अदम गोंडवी ने हिंदी कविता को वह आवाज़ दी जो जन आंदोलनों और सामाजिक बदलाव की मांग करती है। उनकी कविताएँ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और नई पीढ़ी के कवियों को जनपक्षधरता का मार्ग दिखाती हैं।

वे न पुरस्कार के भूखे थे, न प्रसिद्धि के। उन्होंने कहा था —

> “मुझे अपने शब्दों पर भरोसा है,

ये किसी पुरस्कार से ज़्यादा कीमती हैं।”

उनकी कविताएँ आज भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा हैं। वे हमें यह सिखाती हैं कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि संघर्ष का दस्तावेज़ भी है।

उपसंहार

अदम गोंडवी की कविताएँ भारतीय लोकतंत्र की अंतःकथाएँ हैं — वह लोकतंत्र जो आज भी गांवों, झोपड़ियों और खेतों में अधूरा है। उन्होंने जनता के पक्ष में खड़े होकर कविता को हथियार बनाया और साबित किया कि एक सच्चा कवि वही है जो जनता की पीड़ा को अपनी आवाज़ बनाए।

आज जब समाज में असमानता, जातिवाद और सत्ता का दुरुपयोग फिर उभर रहा है, तो एदम गोंडवी की कविताएँ और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो उठती हैं। वे हमें याद दिलाती हैं कि कविता केवल शब्द नहीं, बल्कि परिवर्तन की चिंगारी है।

---निष्कर्ष में

अदम गोंडवी भारतीय जनकविता की वह मशाल हैं, जो अंधकार में भी रोशनी देती है। उनकी पंक्तियाँ आज भी चेतावनी की तरह गूंजती हैं —

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको" : अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

अदम गोंडवी ने लिखा था

…. जितने हरामख़ोर थे क़ुर्बो-जवार में

परधान बनके आ गए अगली क़तार में

दीवार फाँदने में यूँ जिनका रिकॉर्ड था

वे चौधरी बने हैं उमर के उतार में

फ़ौरन खजूर छाप के परवान चढ़ गई

जो भी ज़मीन ख़ाली पड़ी थी कछार में

बंजर ज़मीन पट्टे में जो दे रहे हैं आप

ये रोटी का टुकड़ा है मियादी बुख़ार में

जब दस मिनट की पूजा में घंटों गुज़ार दें

समझो कोई ग़रीब फँसा है शिकार में

ख़ुदी सुक़रात की हो या कि हो रूदाद गांधी की ,

सदाक़त जिन्‍दगी के मोर्चे पर हार जाती है ।

फटे कपड़ों से तन ढ़ांके गुजरता हो जहां कोई

समझ लेना वो पगडण्‍डी ‘अदम’ के द्वार आती है ।

(अदम गोंडवी)