सरदार तारा सिंह को जन्म दिन पर शाल ओढ़ाकर
सम्मानित करते श्री जय नारायण अरुण
नूरपुर के रहने वाले सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त मौला है। खालसा इंटर कॉलेज नूरपुर के प्रधानाचार्य होने के दौरान कई बार कार्यक्रम में उन्हें संचालन करते देखा। कार्यक्रम संचालन में वे हसीं की फुलझड़ी छोड़ते रहते। सबसे बड़ी बात यह होती कि सरदार होते भी वे सरदारोंं पर ही सबसे ज्यादा चुटकुले सुनाते । 1933 में जन्में सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त व्यक्ति हैं।
प्रधानाचार्य होते राष्ट्र पति द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। उनके प्रधानाचार्य होने के दौरान मैं नूरपुर जाता तो खालसा इंटर कॉलेज में जरूर जाता। स्कूल का समय होता या अवकाश का दिन वे कॉलेज में जरूर मिलते। मेरी कोशिश होती कि कॉलेज घूमूं और देखूं कि नया क्या बना है। प्रत्येक बार कुछ न कुुछ नया जरूर होता। तारा सिंह ने इस कॉलेज को बुलंदी तक पंहुचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मैने एक बार उनसे पढऩे के लिए सिखों का इतिहास मंगा लिया। बताता चलूं कि तारा सिंह की अपनी बहुत अच्छी लाइबे्ररी है। बहुत दुर्लभ पुस्तकें उनके पास हैं। लगभग एक माह बाद आए और पूछा कि पुस्तक पढ़ली। मैंने उन्हीं कि भाषा में जवाब दिया कि देखिए पहला बेवकूफ वह जो किसी को किताब पढऩे को दे और दूसरा वह जो पढ़कर लौटा दे। अब आप बन गए। मैं तो बनने से रहा। वे बिजनौर जब आते तो मेरे से मिलने आते और किताब मांगते नहीं चूकते। मेरा रटारटाया पुराना उत्तर सुनकर वह चले जाते। कई बार ऐसा हुआ। एक बार आए और बातों में लग गए। उन्होंने किताब नही मांगी और विदा लेकर चलने लगे। मैंने उन्हें रोका । मेज की दराज से किताब निकालर उन्हें दें दी। किताब काफी पहले पढ़कर मेज की दराज में रख्र छोड़ी थी कि उस दिन दूंगा जिस दिन वह नहीं मांगेंगे।
काफी दिनों बाद अभी तीन दिन पूर्व फोन आया । बोले कल में अपनी तेहरवीं का रिहर्सल कर रहा हूं। दुपहर में खाना है। जरूर आना। फिर बोले आओगे तो कुछ गिफ्ट तो लाओगे ही। सौ ग्राम मूंगफली जरूर लाना।
सवेरे मैंने दफ्तर के एक साथी से कहा कि अच्छी वाली ढाई सो ग्राम मूंगफली खरीद कर कहीं से बहुत सुंदर पैक कराकर लाओ। दफ्तर के और साथियों ने भी मेरी बात सुनी। कहा कुछ नहीं मुस्काराकर चुप हो गए। साथी बहुत सुंदर पैंकिग बनवाकर लाया।
तारा सिंह जी के बेटे ने नूरपुर धामपुर मार्ग पर एक कॉलेज चलाया हुआ है। तारा सिंह जी भी प्राय: वहीं मिलतें है। मेरी गाड़ी ने कॉलेज में प्रवेश किया तो सरदार जी सामने ही खड़े नजर आ गए। तपाक से गले मिले। बताया कौन -कौन आ गए हैं। मै पहली बार कॉलेज में आया था , सो उन्होंने पूरा कॉलेज घुमाया। कॉलेज के दोनों साइड की बिल्डिंग के बीच खाली जगह पर टीन का शेड डालकर असेंबली के लिए जगह बनाई हुई थी। लॉन बहुत ही खूबसूरत था। कॉलेज से सटाकर तारा सिंह जी ने मैरिज हाउस बनाया है। इस पर काम चल रहा है। यहीं भोजन की व्यवस्था थी। रास्ते में वे बतातें रहे । मै सुनता रहा। बहुत दिन से उन्हें सुना नही था।
इस दौरान कुछ उनके शिष्य भी मिले । पांव छूकर जन्म दिन की बधाई दी। वे सबसे हंसकर कहते -बधाई- वधाई गई भाड़ में ये बता गिफ्ट क्या लाया है? सरकार जी के विनोदी रवैये से परिचित सब कार्यक्रम का आनन्द लेते रहे। मुझे जल्दी लौटना था , सो खाना खाकर कॉलेज से सरकने लगा।
तारा सिंह मुझे अपनी पुस्तक मंथन रास्ते में लिए मिले। पूरे पूछने पर बोले मंथन कविताओंं की किताब है। मैने कहा मेरी कहां है? उत्तर दिया - ये अरूण जी के लिए है। अरूण जी उनके शिक्षक जगत के पुराने साथी और देश के जाने माने आर्य समाजी नेता हैं। इतने में एक ने संदेश दिया अरूण जी को फीना जाना था। दूसरे रास्ते से निकल गए। अब सरदार जी ने पुस्तक पर मेरा नाम लिखकर मुझे दे दी और मैं बिजनौर के लिए रवाना हो गया। पुस्तक अरुण जी को नही मुझे मिलनी थी। मुझे ही मिली जबकि तारासिंह अरूण जी को देना चाहते थे।
सम्मानित करते श्री जय नारायण अरुण
नूरपुर के रहने वाले सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त मौला है। खालसा इंटर कॉलेज नूरपुर के प्रधानाचार्य होने के दौरान कई बार कार्यक्रम में उन्हें संचालन करते देखा। कार्यक्रम संचालन में वे हसीं की फुलझड़ी छोड़ते रहते। सबसे बड़ी बात यह होती कि सरदार होते भी वे सरदारोंं पर ही सबसे ज्यादा चुटकुले सुनाते । 1933 में जन्में सरदार तारा सिंह बहुत ही मस्त व्यक्ति हैं।
प्रधानाचार्य होते राष्ट्र पति द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। उनके प्रधानाचार्य होने के दौरान मैं नूरपुर जाता तो खालसा इंटर कॉलेज में जरूर जाता। स्कूल का समय होता या अवकाश का दिन वे कॉलेज में जरूर मिलते। मेरी कोशिश होती कि कॉलेज घूमूं और देखूं कि नया क्या बना है। प्रत्येक बार कुछ न कुुछ नया जरूर होता। तारा सिंह ने इस कॉलेज को बुलंदी तक पंहुचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
मैने एक बार उनसे पढऩे के लिए सिखों का इतिहास मंगा लिया। बताता चलूं कि तारा सिंह की अपनी बहुत अच्छी लाइबे्ररी है। बहुत दुर्लभ पुस्तकें उनके पास हैं। लगभग एक माह बाद आए और पूछा कि पुस्तक पढ़ली। मैंने उन्हीं कि भाषा में जवाब दिया कि देखिए पहला बेवकूफ वह जो किसी को किताब पढऩे को दे और दूसरा वह जो पढ़कर लौटा दे। अब आप बन गए। मैं तो बनने से रहा। वे बिजनौर जब आते तो मेरे से मिलने आते और किताब मांगते नहीं चूकते। मेरा रटारटाया पुराना उत्तर सुनकर वह चले जाते। कई बार ऐसा हुआ। एक बार आए और बातों में लग गए। उन्होंने किताब नही मांगी और विदा लेकर चलने लगे। मैंने उन्हें रोका । मेज की दराज से किताब निकालर उन्हें दें दी। किताब काफी पहले पढ़कर मेज की दराज में रख्र छोड़ी थी कि उस दिन दूंगा जिस दिन वह नहीं मांगेंगे।
काफी दिनों बाद अभी तीन दिन पूर्व फोन आया । बोले कल में अपनी तेहरवीं का रिहर्सल कर रहा हूं। दुपहर में खाना है। जरूर आना। फिर बोले आओगे तो कुछ गिफ्ट तो लाओगे ही। सौ ग्राम मूंगफली जरूर लाना।
सवेरे मैंने दफ्तर के एक साथी से कहा कि अच्छी वाली ढाई सो ग्राम मूंगफली खरीद कर कहीं से बहुत सुंदर पैक कराकर लाओ। दफ्तर के और साथियों ने भी मेरी बात सुनी। कहा कुछ नहीं मुस्काराकर चुप हो गए। साथी बहुत सुंदर पैंकिग बनवाकर लाया।
तारा सिंह जी के बेटे ने नूरपुर धामपुर मार्ग पर एक कॉलेज चलाया हुआ है। तारा सिंह जी भी प्राय: वहीं मिलतें है। मेरी गाड़ी ने कॉलेज में प्रवेश किया तो सरदार जी सामने ही खड़े नजर आ गए। तपाक से गले मिले। बताया कौन -कौन आ गए हैं। मै पहली बार कॉलेज में आया था , सो उन्होंने पूरा कॉलेज घुमाया। कॉलेज के दोनों साइड की बिल्डिंग के बीच खाली जगह पर टीन का शेड डालकर असेंबली के लिए जगह बनाई हुई थी। लॉन बहुत ही खूबसूरत था। कॉलेज से सटाकर तारा सिंह जी ने मैरिज हाउस बनाया है। इस पर काम चल रहा है। यहीं भोजन की व्यवस्था थी। रास्ते में वे बतातें रहे । मै सुनता रहा। बहुत दिन से उन्हें सुना नही था।
इस दौरान कुछ उनके शिष्य भी मिले । पांव छूकर जन्म दिन की बधाई दी। वे सबसे हंसकर कहते -बधाई- वधाई गई भाड़ में ये बता गिफ्ट क्या लाया है? सरकार जी के विनोदी रवैये से परिचित सब कार्यक्रम का आनन्द लेते रहे। मुझे जल्दी लौटना था , सो खाना खाकर कॉलेज से सरकने लगा।
तारा सिंह मुझे अपनी पुस्तक मंथन रास्ते में लिए मिले। पूरे पूछने पर बोले मंथन कविताओंं की किताब है। मैने कहा मेरी कहां है? उत्तर दिया - ये अरूण जी के लिए है। अरूण जी उनके शिक्षक जगत के पुराने साथी और देश के जाने माने आर्य समाजी नेता हैं। इतने में एक ने संदेश दिया अरूण जी को फीना जाना था। दूसरे रास्ते से निकल गए। अब सरदार जी ने पुस्तक पर मेरा नाम लिखकर मुझे दे दी और मैं बिजनौर के लिए रवाना हो गया। पुस्तक अरुण जी को नही मुझे मिलनी थी। मुझे ही मिली जबकि तारासिंह अरूण जी को देना चाहते थे।