अशोक मधुप
उत्तर प्रदेश सरकार का बच्चों के प्रति नजरिया समझ से परे है। भीषण गरमी को देखते हुए उसने घोषणा की है कि प्रदेश में कक्षा आठ तक के सभी स्कूल सुबह साढे दस बजे बंद कर दिए जाएं। भयंकर गरमी को देखते हुए उसकी यह बात समझ में आती है। होना भी यही चाहिए। 15 मई से 31 जून तक स्कूलों में अवकाश के पीछे तात्पर्य भी यही था कि बच्चों को भीषण गरमी से बचाया जा सके। सरकार का यह आदेश बच्चों के प्रति उसकी चिंता और संवेदनशीलता को प्रकट करता है। लेकिन सरकार का एक नया फरमान समझ से परे है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2009 में प्रदेश के सूखाग्रस्त घोषित 58 जिलों के परिषदीय स्कूलों के बच्चों को इस साल जून में भी मिड-डे-मील बंटेगा, इसलिए जून में स्कूल खुलेंगे। इन 58 जनपदों में मुरादाबाद मंडल के सूखाग्रस्त चारों जनपद शामिल हैं। अब वर्ष 2009 में सूखाग्रस्त घोषित जनपदों के बच्चों को उस साल के जून में मिड-डे-मील बांटने की बात तो समझ में आती है। लेकिन इस साल भी, जब फसल बहुत अच्छी हुई है, तब जून में बच्चों को मिड-डे-मील बांटने और उसके लिए जून में स्कूल खोलने की बात समझ में नहीं आती।
स्कूलों में बंटने वाले मिड-डे-मील की गुणवत्ता को लेकर पहले से सवाल उठते रहे हैं। फिर यह भी आदेश है कि स्कूल का प्रधानाध्यापक मिड-डे-मील स्वयं टेस्ट करेगा, उसकी गुणवत्ता परखेगा, तभी वह छात्रों में उसे बंटने देगा। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है। सचाई यह है कि मिड-डे-मील को खराब बताने वाले शिक्षक को एक तरफ इस योजना से जुड़ एनजीओ चलाने वाले धमकाते हैं, तो दूसरी तरफ अधिकारी उनका उत्पीड़न शुरू कर देते हैं। इतना ही नहीं, स्कूलों में मिड-डे-मील की जांच करने वाली टीम स्थानीय हो या प्रांतीय, उसके आने का पता पहले ही चल जाता है। जाहिर है, उस दिन का मिड-डे-मील बहुत अच्छा रहता है। एक सचाई यह भी है कि परिषदीय विद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति बहुत कम रहती है। इनमें आने वाले बच्चे गरीब परिवारों से होते हैं। दाखिला लेने के बाद ये सीधे परीक्षा देने आना ही पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें पेट भरने के लिए मजदूरी करनी होती है। ऐसी रिपोर्टें भी आई हैं कि इन स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति दर 30 से 40 प्रतिशत ही है, किंतु एनजीओ व अधिकारियों के दबाव में शिक्षकों को छात्रों की संख्या प्रतिदिन पूरी दिखानी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि महकमे के वरिष्ठ अधिकारियों को इनकी जानकारी नहीं है, वे सब कुछ जानते हैं, किंतु कुछ कर नहीं पाते। कमीशन की राशि उनके मुह बंद कर देती है।
जब मिड-डे-मील की हालत ऐसी है, तब एक मुटठी उबले चावल के लिए जून की जानलेवा गरमी में छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल बुलाना तुगलकी फरमान जैसा ही है। एक तरफ अप्रैल में ही साढे दस बजे तक स्कूल बंद करना और दूसरी ओर मिड-डे-मील के नाम पर बच्चों को जून में स्कूल बुलाना, दरअसल दिशाहीनता का ही सुबूत है। यदि सरकार बच्चों के प्रति इतनी ही हमदर्द है, तो वह जून माह के मिड-डे-मील की राशि मई में ही उन्हें नकद भुगतान कर सकती है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को इस गरमी में घर से बाहर निकलने नहीं देगा। ऐसे में, जून में स्कूल खोलने की बात गले नहीं उतरती। वैसे भी, इन स्कूलों में जब बच्चे आम दिनों में ही बहुत कम आते हैं, तब जून में तो वे आने से रहे। हां! जून में मिड-डे-मील बांटने के आदेश से कुछ अधिकारियों, एनजीओ, शिक्षकों और प्रधानों का भला जरूर हो जाएगा।
मेरा यह लेख अमर उजाला में 25 मई 2010 को संपादकीय पृष्ठ पर छपा है