इस ब्लाँग पर दिए लेख लेखक की संपत्ति है। कृपया इनका प्रयोग करते समय ब्लाँग और लेखक का संदर्भ अवश्य दें।
Monday, April 5, 2010
महिलाओं को विधायिका में नहीं नौकरियों में आरक्षण मिले
महिला अर्थात आधी दुनिया को विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण देने पर देश में बबाल मचा है, राजनेताओं को चिंता है कि इससे उनकी परंपरागत सीट छिन जाएगीं ।उन्हें लोकसभा तथा विधान सभा आदि में अब नई सीट खोजनी होगी। कांग्रेस प्रसन्न है कि महिलाओं को विधायिका में आरक्षण देने का लाभ उसे मिलेगा , प्रश्न यह है कि इस आरक्षण के लागू होने से आम महिला को क्या मिलेगा, उसे तो इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। इससे तो महिलाओं को कम पुरूषों को ज्यादा लाभ होगा। महिलाओं को आगे लाने के लिए हमे उन्हें नौकरियों में आरक्षण देना होगा। आधी दुनिया को आधा हक। ३३ नही पूरा ५० प्रतिशत आरक्षण। आधी दुनिया को आधा हिस्सा न देकर हम उसका हक मार रहे हैं।
आज विधायिका में आरक्षण देने पर हो हल्ला हो रहा है,नेता परेशान है। पर स्थानीय निकाय और पचायतों में आरक्षण के समय कोई नही बोला। परेशानी थी, कुछ गलत हो रहा था तो तभी आवाज उठानी चाहिए थी। क्योंकि उस समय आरक्षण के पक्षधर नेताआे का कोई नुकसान नहीं हो रहा था। उनके कुछ प्यादे और घुडसवार ही उस समय पिट रह थे। तो वह चुप रहे । जब आग उनके घरों की और आ रही है , तो परेशानी है। पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण मिला है। किसी पुरूष सीट के महिला होने पर पुरूषों ने अपनी पत्नियों को चुनाव लड़ाया ,तो कहीं पुत्रवधु को मैदान में उतारा। ठीक उसी तरह जैसे भ्रष्टाचार के मामले सामने आने पर लालू यादव ने अपनी जगह अपनी पत्नी राबड़ी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। पंचायतो और स्थानीय निकाओं में महिलाओं के आरक्षण लागू होने से मात़्र इतना फर्क आया कि पति की कुर्सी पर अब पत्नी बैठ रही है। निर्णय पहले भी पुरूष ही करते थे, अब भी वहीं कर रहें हैं।
लोकसभा चुनाव के खर्च के बारे में चुनाव आयोग द्वारा खर्च की सीमा भले ही कुछ तै हो किंतु आज चुनाव बहुत मंहगा है। लोकसभा के चुनाव पर औसत दस करोड़ रूपया व्यय होता है तो विधान सभा में भी यह खर्च एक से दो करोड़ तक आता है। क्या इतना व्यय आम महिला कर सकती है। उसे तो परिवार के लिए रोटी रोजी जुटाने के लाले है। ऐसे में आम महिला को तो इस आरक्षण का लाभ मिलने वाला नहीं। चुनाव वही लडेंगी जिनके पास इतनी दौलत होगी। इस आरक्षण के लागू होने के बाद महिला सीटों पर राजनेतां अपनी पत्नी, बहन,पुत्रवधु और परिवार की अन्य महिलाओं को चुनाव लड़ाते रहेंगे। यही काम उद्योगपति करेंगे। आईएएस, आईपीएस अधिकारी सेवाकाल में खुद तो चुनाव लड़ नहीं पाते , वे अब अपनी पत्नियों को राजनीति में उतारेंगें। बिजनौर जनपद के एक सीनियर आईएएस अफसर आर के सिंह की पत्नी ओमवती चुनाव लड़ाकर कई बार विधायक और एक बार एमपी बन चुकी हैं। आजकल वह उत्तर प्रदेश सरकार में राज्यमंत़्री है। आर के सिंह के सेवा में रहतें ओमवती पति को अच्छे पदों पर रखवाने का सिंबल बनी। आज आर के सिंह सेवा में नहीं है किंतु ओमवती के लिए आने वाले प्रार्थना पत्रों पर वे ही सुनवाई करते और ओमवती की और से अधिकारियों को कार्रवाई के लिए निर्देशित भी करतें हैं। निर्णय वही करतें हैं।
ऐसा ही इस अध्यादेश के पारित होने से होगा। सत्ता में उद्योगपति की पत्नियां आकर इनके कार्यालयों में रूके काम की फाइले आगे बढ़वांएगी, उन पर मनचाहे निर्णय कराएंगी। उधर आई एएस ,पीसीएस अधिकारी की पत्नियों उनके अच्छे पोस्टिग में मददगार होगी,उनके खिलाफ चल रही फाइलों के निर्णय भी लंबित करांएगी।
उद्योगतियों की पत्नियों और आईएएस आईपीएस की पत्नियों के राजनीति में आने से एक नया समीकरण बनेगा। कार्यदायी संस्था में कार्य करने वालों की पत्नियां विधायिका में आकर नए समीकरण बनांएगी। अभी तक राजेनता अपने पूरे परिवार को राजनीति में लाकर परिवारवाद फैला रहे थे। अब उद्योंगपतियों का परिवार उद्योगों से निकल राजनीति में आएगा। कार्यदायी संस्था में बैठे व्यक्तियों की पत्नियां राजनीति में आएगीं। अब एक नई तरह की राजनीति शुरू होगी। प्रभाव की राजनीति, लाभ के पदों की राजनीति। का्र्यदायी संस्था में ज्यादा आय और ज्यादा सुख की नियुक्ति। सरकार चलाने वालों को अब और कई तरह के समझौते, गठबंधन करने होंगे। कार्यदायी संस्था के अधिकारियों और उद्योगपतियों की पहचान अब आगे चलकर विधायिका में हावी उनकी पत्नियों से ज्यादा होगी।
यह सब तो होगा किंतु विधायिका में महिलाओं को आरक्षण देने से आम महिला का कोई भला होने वाला नही है। इस मंहगाई में उसे धन चाहिए , और यह इस आरक्षण से उस तक नहीं आएगा। वह तभी आएगा, जब उसके आया के साधन बढ़े। नौकरियों में आरक्षण मिले । इससे उसे रोजगार के ज्यादा अवसर मिलेंगें। मंहगाईं के बोझ से दब रहे परिवार को जरूरत की चीजें उपलब्ध कराने में वह और ज्यादा मददगार हो।
महिलां जगत को हम आधी दुंनिया कहते है किंतु जब उसे हक देने की बात आती हैं तों हंगामा प्रारंभ हों जाता है। आज देश की आधी दुनिया को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने में राजनेता हंगामा कर रहें है। ५० प्रतिशत हिंस्सा देने की बात आएगी तो क्या होगा। आधी दुनिया को हम ३३ प्रतिशत हिस्सा देकर उसके हक में १७ प्रतिशत की कटौती कर रहे हैं। आधी दुनिया को आधी सींट मिलनी चाहिए। यह उसका हक है, खैरात नहीं।
महिलाओं को विधायिका में आरक्षण देने से उनका भला होने वाला नही है। उनके भले और उन्नति का रास्ता तभी प्रशस्त होगा, जब उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिले। वह भी कम नही पूरा ५० प्रतिशत। आधी दुनिया आधा पद।
लंबे समय से मांग उठती आ रही है कि महिला घरों से बाहर निकले। काफी तादाद में वह आगे आईं हैं किंतु आज भी मंहगाई उनके परिवार को जरूरत का सामान उपलब्ध नही होंने दे रही। आज परिवार को चलाने, बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए जरूरत है कि परिवार को चलाने में महिलांए बराबर की साझीदार बने और यह सभी संभव है जब उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिले। वह भी ३३ प्रतिशत नही पूरा ५० प्रतिशत। इसके बिना उसकी तरक्की की बात करना बेमानी और उसके साथ छल है।
जब महिला आगे बढ़ी या बढ़ाने की बात चली ,हर बार ऐसा ही हुआ
आधी दुनिया अर्थात गाडी के दूसरे पहिए को बराबरी का दर्जा देने की बात जब भी उठी है, तभी उसका विरोध हुआ है। महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की बात हर जगह मचों से उठती तो है, चर्चे होते हैं, दावे किए जाते हैं किंतु उन्हें जब अधिकार देने की बात आती है तो हंगामे होते हैं। सदन नही चलने दिए जाते ,विधेयक की प्रतियां फाड़ दी जाती है। ऐसा तब होता है जबकि उन्हें बराबरी का अधिकार नही दिया जा रहा। मात़्र ३३ प्रतिशत हिस्सा देने की बात हो रही है। बराबरी के अधिकार अर्थात आधी दुनिया को आधा हिस्सा देने की बात उठी तो हालत क्या होगा,यह इसी हंगामे को देखकर समझा जा सकता है।
हाल में महिलाआं कों विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में रखा गया तो हमारे नेताओं को यह बर्दा श्त नहीं हुआ। अपनी जगह राबडी को बिहार का मुख्यमत्री बनाने वाले लालू यादव और अपनी पुत्र वधू को राजनीति में उतारने में लगे मुलायम सिंह को यह बर्दाश्त नही हुआ।विधेयक की प्रस्तुति के समय राज्य सभा में हंगामा ही नही हुआ , अपितु विधेयक का विरोध करने वाले सदस्यों ने राज्य सभा में विधेयक की प्रतियां तक फाड़ डालीं। विधेयक लाने वाले और उसका समर्थन करने वाले दल ही इसे लेकर एकमत नही हैं। हरेक की अपनी ढपली और अपना राग है।किंतु वे ज्यादा खुलकर नही बोल रहे।
यत्र नार्यस्य पूजयंते रमयंते तत्र देवता वेदो में कहा गया है। किंतु यह सब उन नारों जैसा ही है जिन्हें हम अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग करते रहें हैं। हम जनता को रिझाने के लिए नारा लगाते हैं ,गरीबी हटाआंे किंतु वह हटती नहीं,दिन दूनी रात चौगुनी की तरह से तरक्की जरूर करती जाती है।
अंधिकांश राजनैतिक दल समाजवाद लाने और पूंजीवाद खत्म करने की बात करतें हैं किंतु न कभी समाजवाद आता है और न पूंजीवाद खत्म होता है। यह नारे लगते हैं और लगते रहेंगे किंतु इनसे कोई क्रांति या बदलाव आने वाला नही है।
वेदों में यह जरूर कहा गया हो कि जहां नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते है किंतु सच्चाई के धरातल पर सब इसके विपरीत है। वैदिक काल में महिलाओं को बड़ा सम्मान था, उन्हें बराबरी का दर्जा भी था, किंतु इतिहास और अन्य स्थानों पर कितनी विदुषिंयों का जिक्र आता है। कुछ प्रसिद्ध होने वाली जिन विदुषियों को हम जानतें हैं, उन्हें उंगलियों के पोरवों पर ही गिना जा सकता है।
जब भी नारी आगे बढ़ी उसे रोका गया। जब उसके हक की बात आइे उसको धोखा दिया गया। छला गया। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के समय गार्गी के प्रश्नों ने बौखलाएं याज्ञवल्कय कह ही उठते हैं, बस गार्गी और नही , अब एक शब्द भी जवान से निकाला तो सिर अलग हो जाएगा, गार्गी हक्की बक्की रह जाती है। शास्त्रार्थ में पराजय को पुरूष का अहम बर्दास्त करने का तैयार नहीं,इसी लिए वह शास्त़्रों की जगह शस्त्रों की भाषा बोलने लगा। राजा जनक की भरी सभा में गार्गी को इस प्रकार की उम्मीद नहीं थी। वह चुप हो जाती हैं। इस कहानी में कहीं ऐसा नही आता कि किसी ने याज्ञवल्कय की धमकी को गलत बताया हों । शास्त्रार्थ के निर्णायक जनक भी चुप रहते है।
विद्योतमा अपने समय की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी घोषणा थी कि जों विद्वान उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा , वह उससे शादी कर लेंगीं। उनकी प्रतिभा से परेशान एवं शास्त्रार्थ में परास्त विद्वान ऋषि मुनियों ने उससे अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक नितांत बेवकूफ से शास्त्रार्थ कराने का निर्णय लिया। उन्हें कालीदास नामक ऐसा व्यक्ति मिल भी गया जो उसी साख को काट रहा था, जिसपर कि यह बैठा था। उस समय के सारे विद्वान, ऋषि और मुनियों ने षड्यंत्र कर विद्योतमा को कालीदास से शास्त़्रार्थ पर परास्त करा दिया। विद्योतमा ने अपनी प्रतीज्ञानुसार परास्त होने वाले से विवाह कर दिया। इस कहानी में कोई विद्वान ऐसा नहीं मिलता, जिसने विद्योतमा के साथ हो रहे इस छल का विरोध किया हो। कोई ऐसा नही था जिसने कहा हो यह छल है,धोखा है, जो किया जा रहा है, वह शास्त्र और धर्म सम्मत नही है।
महाभारत काल की सबसे सुंदर नारी द्रोपदी थी। यह उसका सौंदर्य ही था कि उस समय के अधिंकाश बाहुबलियों ने उसे भोगना चाहा,चाहे स्वेच्छा से या बलपूर्वक। उन्हीं की भावनाओं का परिणाम हैं कि उसके सौंदर्य को, कलंकित करने उसके अहम को सरे आम नीचा दिखाने के लिए उसका भरे दरबार में चीरहरण किया गया। इससे पहले रामायण काल में उस समय की सर्वसुंदरी सुर्पनखा की नाक कान काट उसका अपमान किया गया तो कही सीता का हरण हुआ। हुआ उस नारी के साथ जिसे वेदों में पूजनीय कहा गया।
समय बदला किंतु नही बदला नारी के अपमान होने का सिलसिला। पुरूष की मौत पर नारी को सती होना पड़ा तो पतियों के मरने पर जोहर भी उन्हे की करना पड़ा। पतियों की दीर्घायु की कामना के लिए करवा चौथ का उपवास भी नारी के लिए ही आवश्यक किया गया। पुरूषों को कही शांस्त्रों में नहीं आया कि उसे पत्नी के मरने पर जलकर मर जाना चाहिए।
संपति में हमने बेटी को बराबर का हक नही दिया,तो मरने के बाद बेटों से ही तर्पण कराकर मोक्ष की बात भी हमने ही की। जहां बस चला ,हमने महिलाओं को छलां ।आधी दुनिया को धोखा दिया। उसे हमने कहीं नकाब पहनाकर परदे मे रखा तो कहीं घूंघट में दबाया।
उसकी अस्मिता की सुरक्षा के नाम पर बालपन ही में विवाह कर उसका बचपन हमने ही छीना। सती होने की परंपरा पर रोक लगी तो विधवा विवाह को हमने गलत बताया और महिलाओं की इस आधी दुनिया के लिए अलग से कानून बनाए।इस तरह के कानून पुरूषों के लिए कहीं नही बने। महाकवि तुलसीदास ने तो ढोल गंवार शुद्र,पशु, नारी। ये सब ताडन के अधिकारी बताकर इनके अस्तित्व को नकार दिया।
यह आज की बात नहीं महिलाओं के आगे लाने की बात जब भी हुई ,या वह अपने प्रयासों से आगे आई , उन्हें ऐसे ही छला गया। कभी अग्नि परीक्षा ली गई तो कभी किसी के कहने पर उसे वन में छुडवा दिया गया। उसकी पीड़ा उसकी भावना को कभी किसी ने नहीं समझा।
अशोक मधुप
हाल में महिलाआं कों विधायिका में ३३ प्रतिशत आरक्षण का विधेयक राज्य सभा में रखा गया तो हमारे नेताओं को यह बर्दा श्त नहीं हुआ। अपनी जगह राबडी को बिहार का मुख्यमत्री बनाने वाले लालू यादव और अपनी पुत्र वधू को राजनीति में उतारने में लगे मुलायम सिंह को यह बर्दाश्त नही हुआ।विधेयक की प्रस्तुति के समय राज्य सभा में हंगामा ही नही हुआ , अपितु विधेयक का विरोध करने वाले सदस्यों ने राज्य सभा में विधेयक की प्रतियां तक फाड़ डालीं। विधेयक लाने वाले और उसका समर्थन करने वाले दल ही इसे लेकर एकमत नही हैं। हरेक की अपनी ढपली और अपना राग है।किंतु वे ज्यादा खुलकर नही बोल रहे।
यत्र नार्यस्य पूजयंते रमयंते तत्र देवता वेदो में कहा गया है। किंतु यह सब उन नारों जैसा ही है जिन्हें हम अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रयोग करते रहें हैं। हम जनता को रिझाने के लिए नारा लगाते हैं ,गरीबी हटाआंे किंतु वह हटती नहीं,दिन दूनी रात चौगुनी की तरह से तरक्की जरूर करती जाती है।
अंधिकांश राजनैतिक दल समाजवाद लाने और पूंजीवाद खत्म करने की बात करतें हैं किंतु न कभी समाजवाद आता है और न पूंजीवाद खत्म होता है। यह नारे लगते हैं और लगते रहेंगे किंतु इनसे कोई क्रांति या बदलाव आने वाला नही है।
वेदों में यह जरूर कहा गया हो कि जहां नारियों की पूजा होती है वहीं देवता रमते है किंतु सच्चाई के धरातल पर सब इसके विपरीत है। वैदिक काल में महिलाओं को बड़ा सम्मान था, उन्हें बराबरी का दर्जा भी था, किंतु इतिहास और अन्य स्थानों पर कितनी विदुषिंयों का जिक्र आता है। कुछ प्रसिद्ध होने वाली जिन विदुषियों को हम जानतें हैं, उन्हें उंगलियों के पोरवों पर ही गिना जा सकता है।
जब भी नारी आगे बढ़ी उसे रोका गया। जब उसके हक की बात आइे उसको धोखा दिया गया। छला गया। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ के समय गार्गी के प्रश्नों ने बौखलाएं याज्ञवल्कय कह ही उठते हैं, बस गार्गी और नही , अब एक शब्द भी जवान से निकाला तो सिर अलग हो जाएगा, गार्गी हक्की बक्की रह जाती है। शास्त्रार्थ में पराजय को पुरूष का अहम बर्दास्त करने का तैयार नहीं,इसी लिए वह शास्त़्रों की जगह शस्त्रों की भाषा बोलने लगा। राजा जनक की भरी सभा में गार्गी को इस प्रकार की उम्मीद नहीं थी। वह चुप हो जाती हैं। इस कहानी में कहीं ऐसा नही आता कि किसी ने याज्ञवल्कय की धमकी को गलत बताया हों । शास्त्रार्थ के निर्णायक जनक भी चुप रहते है।
विद्योतमा अपने समय की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी घोषणा थी कि जों विद्वान उसे शास्त्रार्थ में हरा देगा , वह उससे शादी कर लेंगीं। उनकी प्रतिभा से परेशान एवं शास्त्रार्थ में परास्त विद्वान ऋषि मुनियों ने उससे अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक नितांत बेवकूफ से शास्त्रार्थ कराने का निर्णय लिया। उन्हें कालीदास नामक ऐसा व्यक्ति मिल भी गया जो उसी साख को काट रहा था, जिसपर कि यह बैठा था। उस समय के सारे विद्वान, ऋषि और मुनियों ने षड्यंत्र कर विद्योतमा को कालीदास से शास्त़्रार्थ पर परास्त करा दिया। विद्योतमा ने अपनी प्रतीज्ञानुसार परास्त होने वाले से विवाह कर दिया। इस कहानी में कोई विद्वान ऐसा नहीं मिलता, जिसने विद्योतमा के साथ हो रहे इस छल का विरोध किया हो। कोई ऐसा नही था जिसने कहा हो यह छल है,धोखा है, जो किया जा रहा है, वह शास्त्र और धर्म सम्मत नही है।
महाभारत काल की सबसे सुंदर नारी द्रोपदी थी। यह उसका सौंदर्य ही था कि उस समय के अधिंकाश बाहुबलियों ने उसे भोगना चाहा,चाहे स्वेच्छा से या बलपूर्वक। उन्हीं की भावनाओं का परिणाम हैं कि उसके सौंदर्य को, कलंकित करने उसके अहम को सरे आम नीचा दिखाने के लिए उसका भरे दरबार में चीरहरण किया गया। इससे पहले रामायण काल में उस समय की सर्वसुंदरी सुर्पनखा की नाक कान काट उसका अपमान किया गया तो कही सीता का हरण हुआ। हुआ उस नारी के साथ जिसे वेदों में पूजनीय कहा गया।
समय बदला किंतु नही बदला नारी के अपमान होने का सिलसिला। पुरूष की मौत पर नारी को सती होना पड़ा तो पतियों के मरने पर जोहर भी उन्हे की करना पड़ा। पतियों की दीर्घायु की कामना के लिए करवा चौथ का उपवास भी नारी के लिए ही आवश्यक किया गया। पुरूषों को कही शांस्त्रों में नहीं आया कि उसे पत्नी के मरने पर जलकर मर जाना चाहिए।
संपति में हमने बेटी को बराबर का हक नही दिया,तो मरने के बाद बेटों से ही तर्पण कराकर मोक्ष की बात भी हमने ही की। जहां बस चला ,हमने महिलाओं को छलां ।आधी दुनिया को धोखा दिया। उसे हमने कहीं नकाब पहनाकर परदे मे रखा तो कहीं घूंघट में दबाया।
उसकी अस्मिता की सुरक्षा के नाम पर बालपन ही में विवाह कर उसका बचपन हमने ही छीना। सती होने की परंपरा पर रोक लगी तो विधवा विवाह को हमने गलत बताया और महिलाओं की इस आधी दुनिया के लिए अलग से कानून बनाए।इस तरह के कानून पुरूषों के लिए कहीं नही बने। महाकवि तुलसीदास ने तो ढोल गंवार शुद्र,पशु, नारी। ये सब ताडन के अधिकारी बताकर इनके अस्तित्व को नकार दिया।
यह आज की बात नहीं महिलाओं के आगे लाने की बात जब भी हुई ,या वह अपने प्रयासों से आगे आई , उन्हें ऐसे ही छला गया। कभी अग्नि परीक्षा ली गई तो कभी किसी के कहने पर उसे वन में छुडवा दिया गया। उसकी पीड़ा उसकी भावना को कभी किसी ने नहीं समझा।
अशोक मधुप
Friday, April 2, 2010
बिन बिजली विकास?
मेरा यह लेख अमर उजाला में 30 मार्च को प्रकाशित हुआ है
किसी भी प्रदेश का विकास उस राज्य में मौजूद बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता से होता है। जाहिर है, इन सुविधाओं में बिजली और सड़क सबसे अहम हैं। नया-नया प्रदेश बने उत्तराखंड के औद्योगिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि वहां बिजली की निर्बाध आपूर्ति है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मांग के अनुरूप बिजली की उपलब्धता काफी कम है, इसी के कारण यहां लगे उद्योग आस-पास के राज्यों की ओर खिसक रहे हैं, या किसी तरह अपने काम चला रहे हैं। छोटे उद्योगांे की हालत तो बहुत ज्यादा खराब है।
उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी का आलम यह है कि जहां राज्य में इसकी मांग लगभग 9,000 हजार मेगावाट है, वहीं राज्य का अपना उत्पादन 3,300 से 3,500 मेगावाट के बीच है। यानी अपनी सामान्य जरूरत के लिए भी हमें 3,500 मेगावाट बिजली केंद्र से खरीदनी पड़ रही है। बावजूद इसके 3,000 मेगावाट की कमी से राज्य को जूझना पड़ रहा है। ऐसे में, प्रदेश के देहाती इलाकों को दिन भर में जहां चार-पांच घंटे विद्युत आपूर्ति हो पा रही है, वहीं कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो शेष शहरी क्षेत्र को मात्र बारह से चौदह घंटे बिजली मिल पा रही है। और अगर वह इतनी मिल भीरही है, तो वोल्टेज काफी कम मिलते हैंं। इससे या तो उपकरण चलते नहीं या फिर फुंक जाते हैं। पिछली सरकार में रिलांयस को दादरी मंे बिजली घर लगाने की अनुमति दी गई थी। अपेक्षा की गई थी कि यह इकाई 7,400 मेगावाट बिजली बनाएगी। लेकिन यह परियोजना राजनीति का शिकार हो गई।
हमारे पास अगर कुछ साधन हैं भी, तो उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। एक मेगावाट बिजली बनाने में करीब पांच करोड़ रुपये का व्यय आता है। प्रदेश का चीनी उद्योग लगभग 1,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है। लेकिन चीनी उद्योग द्वारा यह बिजली उस समय पैदा की जाती है, जब चीनी मिलों में पेराई का सीजन होता है। बाकी समय चीनी मिलें बिजली का उत्पादन नहीं करतीं। अब 1,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए हमें 5,000 करोड़ रुपये के आसपास खर्च करना पड़ेगा। यदि हम चीनी मिलों को ही पे्ररित करें कि वे साल भर बिजली उत्पादन करें, तो बिजली घर बनाने पर व्यय होने वाली राशि की बचत तो होगी ही, नए बिजली घर के लिए अतिरिक्त भूमि अधिगृहीत करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
हां, चीनी मिलों को 12 माह बिजली उत्पादन के लिए अपनी टर्बाइन में कुछ परिवर्तन करने होंगे। सीजन में यह टर्बाइन गन्ने की खोई से चलती हैं, शेष वक्त में ये कोयले से चलेंगी। यकीनन इस पर कुछ व्यय भी होगा, लेकिन यह बोझ चीनी मिलें स्वयं उठा लेंगी, यदि हम उनसे ‘ऑफ सीजन’ के लिए कुछ मंहगी दर पर बिजली लेने को तैयार हो जाएं। इसी तरह, बिजली उत्पादन के लिए हमे गैर परंपरागत साधनों के विकास पर भी बल देना होगा। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में नए विकास करने होंगे। इसका उत्पादन करने वाली कंपनियों को रियायत देनी होगी, ताकि इसके उपकरण सस्ते हों। फिलहाल वे बहुत ही महंगे हैं, और उत्पादन कम होने से उपभोक्ताओं को लंबा इंतजार करना पड़ता है। आज इनवर्टर का सौर ऊर्जा का पैनल ही 10,000 रुपये से ज्यादा का बैठता है।
बिजली चोरी भी एक बड़ी समस्या है। बिजली मंत्री के छापे मारने से यह प्रवृत्ति बंद नहीं होगी। इसके लिए हमें कठोर कदम उठाने होंगे। आज हम बिजली चोरी में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ तबादले या निलंबन की ही कार्रवाई कर पाते हैं। उनके विरुद्ध अपराधिक मुकदमे दर्ज करने पड़ेंगे। तभी तसवीर बदलेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
अशोक मधुप
किसी भी प्रदेश का विकास उस राज्य में मौजूद बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता से होता है। जाहिर है, इन सुविधाओं में बिजली और सड़क सबसे अहम हैं। नया-नया प्रदेश बने उत्तराखंड के औद्योगिक विकास के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि वहां बिजली की निर्बाध आपूर्ति है। लेकिन उत्तर प्रदेश में मांग के अनुरूप बिजली की उपलब्धता काफी कम है, इसी के कारण यहां लगे उद्योग आस-पास के राज्यों की ओर खिसक रहे हैं, या किसी तरह अपने काम चला रहे हैं। छोटे उद्योगांे की हालत तो बहुत ज्यादा खराब है।
उत्तर प्रदेश में बिजली की कमी का आलम यह है कि जहां राज्य में इसकी मांग लगभग 9,000 हजार मेगावाट है, वहीं राज्य का अपना उत्पादन 3,300 से 3,500 मेगावाट के बीच है। यानी अपनी सामान्य जरूरत के लिए भी हमें 3,500 मेगावाट बिजली केंद्र से खरीदनी पड़ रही है। बावजूद इसके 3,000 मेगावाट की कमी से राज्य को जूझना पड़ रहा है। ऐसे में, प्रदेश के देहाती इलाकों को दिन भर में जहां चार-पांच घंटे विद्युत आपूर्ति हो पा रही है, वहीं कुछ महानगरों को छोड़ दें, तो शेष शहरी क्षेत्र को मात्र बारह से चौदह घंटे बिजली मिल पा रही है। और अगर वह इतनी मिल भीरही है, तो वोल्टेज काफी कम मिलते हैंं। इससे या तो उपकरण चलते नहीं या फिर फुंक जाते हैं। पिछली सरकार में रिलांयस को दादरी मंे बिजली घर लगाने की अनुमति दी गई थी। अपेक्षा की गई थी कि यह इकाई 7,400 मेगावाट बिजली बनाएगी। लेकिन यह परियोजना राजनीति का शिकार हो गई।
हमारे पास अगर कुछ साधन हैं भी, तो उनका उपयोग नहीं हो पा रहा। एक मेगावाट बिजली बनाने में करीब पांच करोड़ रुपये का व्यय आता है। प्रदेश का चीनी उद्योग लगभग 1,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है। लेकिन चीनी उद्योग द्वारा यह बिजली उस समय पैदा की जाती है, जब चीनी मिलों में पेराई का सीजन होता है। बाकी समय चीनी मिलें बिजली का उत्पादन नहीं करतीं। अब 1,000 मेगावाट बिजली बनाने के लिए हमें 5,000 करोड़ रुपये के आसपास खर्च करना पड़ेगा। यदि हम चीनी मिलों को ही पे्ररित करें कि वे साल भर बिजली उत्पादन करें, तो बिजली घर बनाने पर व्यय होने वाली राशि की बचत तो होगी ही, नए बिजली घर के लिए अतिरिक्त भूमि अधिगृहीत करने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।
हां, चीनी मिलों को 12 माह बिजली उत्पादन के लिए अपनी टर्बाइन में कुछ परिवर्तन करने होंगे। सीजन में यह टर्बाइन गन्ने की खोई से चलती हैं, शेष वक्त में ये कोयले से चलेंगी। यकीनन इस पर कुछ व्यय भी होगा, लेकिन यह बोझ चीनी मिलें स्वयं उठा लेंगी, यदि हम उनसे ‘ऑफ सीजन’ के लिए कुछ मंहगी दर पर बिजली लेने को तैयार हो जाएं। इसी तरह, बिजली उत्पादन के लिए हमे गैर परंपरागत साधनों के विकास पर भी बल देना होगा। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में नए विकास करने होंगे। इसका उत्पादन करने वाली कंपनियों को रियायत देनी होगी, ताकि इसके उपकरण सस्ते हों। फिलहाल वे बहुत ही महंगे हैं, और उत्पादन कम होने से उपभोक्ताओं को लंबा इंतजार करना पड़ता है। आज इनवर्टर का सौर ऊर्जा का पैनल ही 10,000 रुपये से ज्यादा का बैठता है।
बिजली चोरी भी एक बड़ी समस्या है। बिजली मंत्री के छापे मारने से यह प्रवृत्ति बंद नहीं होगी। इसके लिए हमें कठोर कदम उठाने होंगे। आज हम बिजली चोरी में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ तबादले या निलंबन की ही कार्रवाई कर पाते हैं। उनके विरुद्ध अपराधिक मुकदमे दर्ज करने पड़ेंगे। तभी तसवीर बदलेगी।
(लेखक अमर उजाला से जुड़े हैं)
अशोक मधुप
Subscribe to:
Posts (Atom)