Tuesday, November 25, 2025

अयोध्या जी , बहुत सुलभ हैं रामलला के दर्शन



अशोक मधुप 

वरिष्ठ पत्रकार

रामलला के दर्शन के लिए यदि अयोध्या जी जा रहे हैं तो निश्चित होकर जाएं। ये मानकर जाए कि भगवान के घर जा रहे हैं। उनकी  शरण में जा रहे  हैं। बस फिर किसी चिंता की जरूरत नहीं। दर्शन के लिए किसी की सिफारिश मत कराइए। सीधे  जाइए। दर्शन करिए और 20 से 30 मिनट में दर्शन कर मंदिर से बाहर आ जाइए। हमारा  दावा है  विश्व के किसी भी धर्म के तीर्थस्थल से इससे ज्यादा सुलभ दर्शन कहीं संभव नही हैं। 

राम मंदिर आज हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ  बन गया है। प्रतिदिन 80 हजार से एक लाख भक्त  राम लला के  दर्शन कर उन्हें प्रणाम करते हैं। कई अवसर पर तो ये संख्या डेढ़  लाख से ज्यादा हो जाती है। आज दुनिया भर में बसे लगभग हर  सनातनी के मन में एक ही इच्छा है किसी तरह वह अयोध्या जाकर राम मंदिर के दर्शन कर सके। भगवान राम को शीष  नवाए।  हाल ही में हम पत्रकारों के एक सम्मेलन में अयोध्या जी में थे। रामलला के दर्शनों के लिए आ रही श्रद्धालुओं की भीड़ को देख मेरे एक साथी लखनऊ के  वरिष्ठ  पत्रकार दिनेश शर्मा ने कहा था कि अयोध्या जी  आने वाले समय में हिंदुओं का प्रमुख श्रद्धा का केंद्र होगा। यहां  प्रत्येक हिंदू −  सनातनी  आकर शीश नवाना अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाएगा। शीश  नवाकर अपने को कृतार्थ  मानेगा।

अयोध्या में राम मंदिर बनने  से पहले  कभी श्रद्धालुओं को  संकरी गलियों से गुजरने के बाद टेढ़े मेढ़े और उभर खाबड़ रास्तों से गुजरकर मंदिर तक पहुंचना होता था। आम श्रद्धालुओं के लिए ये यात्रा और कितनी दुरूह रहती होगी, यह समझते बनता है।  इस सबके बावजूद यहां आने वाले  श्रद्धालुओं का उत्साह और जोश देखते बनता था।अब  मंदिर परिसर बन गया। भव्य मंदिर बन गया। 25 नंवबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर पर भव्य ध्वजारोहण करेंगे। भव्य  समारोह होगा। इस आयोजन के प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए दुनिया भर से हजारों प्रमुख व्यक्ति आ रहे है। उम्मीद है कि ध्वजारोहण के दिन अयोध्या में  वीवपीआई पी के एक सौ  के आसपास जेट आएंगे। 

अयोध्या आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु इस बात को लेकर आंशकित होता  हैं, कि इतनी भीड़ में दर्शन कैसे होंगे? पूजा कैसे होगी ? प्रसाद कैसे चढ़ेगा? सब चाहते हैं कि मंदिर आगमन की स्मृति फोटो के रूप में अपने पास सुरक्षित रखें। यहां स्थिति   अन्य मंदिर से बिल्कुल भिन्न  है। यहां  न पूजा की व्यवस्था है,  न प्रसाद चढ़ने का प्रबंध। यहां पूजन कराने वाले पुजारी भी  नही है। यहां  तो  बस  मंदिर आइए।  राम लला के दर्शन  करिए। प्रभु को शीश  नवाइए और बाहर आ जाइए। यहां प्रसाद लेकर जाने की जरूरत नही है। मंदिर की ओर से प्रत्येक श्रद्धालु को प्रसाद मिलता है। मंदिर परिसर में मोबाइल वर्जित है । परेशानी उन्हें होती है जो सुरक्षा कर्मियों की नजर बचाकर मोबाइल  मंदिर में लेकर जाना  चाहते हैं।  सुरक्षा जांच में मोबाइल पकड़ा जाता है। इन मोबाइल ले जाने वालों को लौटकर मंदिर के गेट पर आकर लॉकर  में फोन रखकर फिर दर्शन को जाना  पड़ता है। इस तरह इन्हें अन्य श्रद्धालुओं से एक डेढ़ किलोमीटर ज्यादा चलना होता है। मंदिर में अपना सामान करने के लिए  लॉकर की व्यापक व्यवस्था है, किंतु इस काम में लगभग  आधा घंटा लग जाता  है। अच्छा यह है कि अपना पर्स, लैदर की बैल्ट, मोबाइल और कैमरा  अपने कमरे पर छोड़ कर आए। अपनी आईडी और जरूरत के लिए रुपये अपनी जेब में रखलें । हमने ऐसा ही किया । इससे मंदिर के लॉकर में सामान जमा करने का हमारा आधे से एक घंटा बच गया।  हम दर्शन कर  20 से 25 मिनट में मदिर से बाहर आ गए। व्हील चेयर लेने वालों और दिव्यांग के लिए तो और सुविधा है।  उनका जाने का रास्ता अलग से है।  

भारत के उत्तर-प्रदेश राज्य में स्थित अयोध्या, जो पारंपरिक रूप से एक अलग त्वरित तीर्थ-नगर थी, अब आधुनिकता और भक्ति के संगम का उदाहरण बनती जा रही है। खास कर राम जन्मभूमि (जिसके अंतर्गत राम मंदिर का निर्माण हुआ) के बाद इस नगर में बड़े पैमाने पर विकास कार्य चल रहे हैं।   ये कार्य सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। यहां 15− 16 करोड़ के करीब यात्री अब प्रतिवर्ष  आने लगे हैं। आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ेगी ही। इस बढ़ती संख्या ने होटल, गेस्ट-हाउस, परिवहन-सेवाएँ, स्थानीय व्यापार व स्मृति-चिंतन (souvenir) उद्योग को गति दी है। अतः अयोध्या अब सिर्फ भक्ति-की जगह नहीं बल्कि एक सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था (हॉस्पिटैलिटी, रिटेल, परिवहन) का केन्द्र बनती जा रही है। इस प्रकार मंदिर-के पश्चात् अयोध्या की पहचान बदल रही है। अब अयोध्या  “भक्ति नगर” से “भक्ति + विकास नगर” की ओर  बढ़ रही है।विकास-यात्रा में पहुँचना और सहज अनुभव देना अहम है। इसलिए अयोध्या में कई बुनियादी संरचना-परियोजनाएँ लाई गई हैं।

एयर-कनेक्टिविटी के लिए महर्षि वाल्मीकि अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा का निर्माण हुआ है। इसमें आने वाले चरणों में टर्मिनल विस्तार व रनवे विस्तार भी शामिल है। अयोध्या में  रेलवे स्टेशन व आधुनिकीकृत सड़कें बनायी गई हैं। अयोध्या धाम रेलवे स्टेशन  विश्व का श्रेष्ठतक  रेलवे स्टेशन बनाने का  प्रयास है। यहां  यात्रियों के लिए तीन सौ के आसपास डार्मेट्री और कुछ रिटायरिंग रूम बनाये गए हैं। अन्य काम जारी है।

राम मंदिर के आसपास के तीर्थ स्थलों के  लिए  पैदल जाने के लिए मार्ग विकसित किया जा रहा है ।  इसे भक्ति पथ  नाम दिया गया यह मार्ग, रामपथ से निकलता हुआ मंदिर के आसपास श्रद्धालुओं के चलने-वाले हिस्सों को सजाता है एवं पैदल यात्रियों के लिए खास व्यवस्था करता है।  इसमें दुकानों-घरों को अलग रंग-रूप दिया गया है। भक्ति पथ वाले हिस्सों में ‘सफ़ेद एवं भोरका’ रंग के बजाय एक विशिष्ट सजावट का उपयोग हुआ है। भक्ति पथ मंदिर-मार्ग के उन हिस्सों को सूचीबद्ध करता है जहाँ पैदल-यात्रा अधिक होती है, अतः इस तरह से इसका उद्देश्य अभ्यागतों को आरामदायक एवं सुरक्षित चलने-वाले मार्ग देना है।

राम मंदिर तक पंहुच के मार्ग का नाम राम पथ दिया गया है।यह एक प्रकार से रिंग रोड जैसा है।इस मार्ग  को भव्य रूप दिया जा रहा। यह मार्ग लगभग 13 किलोमीटर लंबा है और प्रमुख रूप से सहादतगंज से लेकर नया घाट (या नायाघाट) तक जाता है। इस मार्ग के दोनों किनारों पर दुकानों-घरों की एकरूप रूप से मरम्मत एवं पेंटिंग की गई है। सभी को एक समान रंग-रूप में सजाया गया है। सड़क को चौड़ा किया गया है और मुख्य रूप से 40 फीट या उससे अधिक चौड़ाई वाला बना कर बनाया गया है ताकि भीड़-भाड़ व आने-जाने में आराम हो सके। लाईटिंग-सिस्टम, फावड़े-प्लांटर्स, पेड़-पौधे, फुटपाथ, मिडियन में धार्मिक प्रतीक-स्तंभ जैसी सुविधाएं लगाई गई हैं। स्थानीय प्रशासन ने श्रद्धालुओं के लिए इस मार्ग पर गोल्फ कार्ट  (इलेक्ट्रिक बग्गी)  चलाई है। इसका प्रतियात्री किराया 20 रुपया रखा गया है।इस किराए के से आप इस मार्ग के किसी भी स्थान तक  जा सकतें हैं।इन सरकारी गोल्फ कार्ट   के कारण ई−रिक्शा चालक भी मनमाने दाम नही वसूल कर पाते।

पुरानी परंपरा के हिस्से के रूप में 84 कोसी परिक्रमा मार्ग को श्रद्धा-परिक्रमा मार्ग नाम दिया गया है। इसे राष्ट्रीय राजमार्ग −  का दर्जा  (एनएच-227B) मिला है । इससे अयोध्या और आसपास के तीर्थस्थलों का जुड़ाव बढ़ा है। इसको भी भव्य रूप दिया  जा रहा है। इसके पुलों और फ्लाई ओवर के दोनों ओर भगवान राम के जीवन से संबधित झांकी बनाई  जा रही है । नगर के बीच से एक पंचकोसी प्रतिक्रमा के विकास पर भी काम चल रहा है।

इन परिवहन सुधारों से न केवल तीर्थ-यात्रियों की सहजता बढ़ी है बल्कि स्थानीय व्यापार-संवाद व रोजगार-अवसरों में भी इजाफा हुआ है। आधुनिक विकास सिर्फ बड़ी इमारतें या सड़कें नहीं बल्कि बेहतर जीवन-मान और पर्यावरण-संगत विकास भी है। अयोध्या में इस दिशा में कई कदम उठाए गए हैं। अयोध्या को ‘मॉडल सोलर सिटी’ घोषित किया गया है। ४० मेगावाट का सौर संयंत्र सरयू नदी के किनारे स्थापित किया गया है। इससे शहर की मांग की लगभग २५-३० प्रतिशत ऊर्जा पूरा हो रही है।  यहां ५५० एकड़ के “नव्या अयोध्या” टाउनशिप का विकास हुआ है, जिसमें स्मार्ट बिजली-डक्स, भूमिगत नाली-प्रणाली है। सरयू नदी के घाटों का सौंदर्यीकरण व लॉन्ग वॉक-वे बनाए गए हैं, जिससे पर्यटक अनुभव बेहतर हुआ है। सरयू घाट की आरती देखने को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रोड उमड़ती है। इस आरती को देखने का  अभी सही प्रबंध  नही है। उसे बनाने की जरूरत है।बड़े बड़े टीवी भी इसे देखने के लिए लगाए  जा  सकते  हैं। इनसे श्रद्धालु सरयू किनारे कहीं भी बैंच या फर्श  पर बैठकर आराम से आरती देख ले।   


मंदिर-के बाद अयोध्या में अब सिर्फ दर्शन तक सीमित नहीं रही बल्कि सांस्कृतिक और अनुभव-आधारित पर्यटन पर भी ध्यान गया है। नए संग्रहालय व सांस्कृतिक केंद्र  बनाएं जा रहे हैं। मंदिर परिसर के आस-पास संग्रहालय, रामायण अध्ययन संस्थान जैसी योजनाएं चल रही हैं। 

उत्सव व कार्यक्रम को रोचक बनाया जा रहा है। दीपोत्सव में लाखों दीये, ड्रोन-शो आदि का आयोजन हुआ है जो सिर्फ स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण बना है। पारंपरिक हस्तशिल्प व पर्यटन-वस्तुओं को बढ़ावा मिल रहा है। इससे स्थानीय कारीगरों को नए −नए अवसर मिल रहे हैं। 

राम मंदिर के बाद अयोध्या में जो विकास गति पकड़ी है, वह सिर्फ पूजा-पथ नहीं बल्कि समृद्धि-पथ है। तीर्थयात्रा से बढ़कर यह अब अनुभव-और-उद्यम-नगर बनता जा रहा है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि यह विकास वैश्विक दर्जे का होने के साथ-साथ स्थानीय अनुभव-सक्षम और पर्यावरण-अनुकूल भी बने। 

अयोध्या का  प्राचीन समय नाम साकेत है। साकेत भगवान राम के समय का भव्य नगर । आज का  नगर उससे भी  विशाल आकार ले रहा है। भगवान राम के साकेत( अयोध्या  जी) पर महाकवि मैथिलीशरण गुप्त का काव्य   साकेत की ये पंक्तियां इस नगर का भव्य चित्रण करती हैं।−

देख लो, साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। 

केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे।

सोहती हैं विविध-शालाएँ बड़ी; छत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ी। 

गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी, छोड़ती हैं छाप, जो उन पर पड़ी! 

स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बने,इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तने। 

देव-दंपती अट्ट देख सराहते; उतरकर विश्राम करना चाहते। 

फूल-फलकर, फैलकर जो हैं बढ़ी, दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ी

पौरकन्याएँ प्रसून-स्तूप कर, वृष्टि करती हैं यहीं से भूप पर। 

फूल-पत्ते हैं गवाक्षों में कढ़े, प्रकृति से ही वे गए मानो गढ़े। 

दामनी भीतर दमकती है कभी, चंद्र की माला चमकती है कभी। 

सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले,प्रेम के आदर्श पारावत पले। 

केश-रचना के सहायक हैं शिखी, चित्र में मानो अयोध्या है लिखी !

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक राधेश्याम कथावाचक

 न्म: 25 नवंबर 1890, बरेली, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 26 अगस्त 1963 (लगभग 73 वर्ष की आयु)

भारतीय धार्मिक कथा परंपरा में अनेक वक्ताओं ने अपनी वाणी, विद्वता और मनोहर प्रस्तुति से जन-मानस को प्रभावित किया है, लेकिन जिन कुछ नामों ने कथा-शास्त्र को नयी गरिमा और व्यापक लोकप्रियता प्रदान की, उनमें राधेश्याम कथावाचक का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने केवल कथा सुनाई नहीं, बल्कि उसे जीवंत कर दिया। उनके कथन में अध्यात्म की गहराई, भक्ति की सुवास, साहित्य की मधुरता और संस्कृति की जड़ों से निकली निष्कपट सरलता एक साथ दिखाई देती है। वे कथा को मनोरंजन या प्रवचन मात्र नहीं, बल्कि भाव-जागरण, सामाजिक सुधार और आत्म-चिंतन का माध्यम मानते थे। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें अपने समय का अत्यंत प्रभावशाली कथावाचक बनाया।

राधेश्याम कथावाचक प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक थे जिसमें रामायण, भागवत पुराण, शिवपुराण और देवी भागवत जैसी महान ग्रंथों का सरस वर्णन होता है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे शास्त्रों की विद्वता को सरल भाषा में ढालकर आम जन तक पहुँचाने में सर्वथा सक्षम थे। सामान्य जन वेद-पुराणों के गूढ़ सिद्धांत आसानी से नहीं समझ पाते, परंतु राधेश्याम जी उन्हें रोज़मर्रा के उदाहरणों, जीवंत उपमाओं और सहज संवाद शैली में खोलकर प्रस्तुत करते थे। इसीलिए उनकी कथाओं में न केवल बुजुर्ग, बल्कि युवा वर्ग भी बड़ी संख्या में सम्मिलित होता था।

कथावाचन की कला में स्वर, भाव और पात्र-अभिनय अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। राधेश्याम कथावाचक इन तीनों तत्वों में निपुण थे। उनका स्वर इतना मधुर और भावपूर्ण था कि कथा की प्रत्येक घटना सुनने वालों के हृदय पर सीधी छाप छोड़ती थी। वे किसी प्रसंग को केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे पूरी आत्मा से जीते थे। जब वे राम वनवास का दृश्य सुनाते, तो ऐसा लगता मानो अयोध्या का समूचा वातावरण श्रोता सभा में उतर आया है। जब वे कृष्ण की बाल लीलाएँ वर्णित करते, तो बच्चे तक मंत्रमुग्ध हो जाते। कथा के विभिन्न पात्रों—जैसे कौशल्या, जनक, सीता, हनुमान, पात्र, गोपियाँ—के संवाद वे अलग-अलग आवाज़ और भाव से प्रस्तुत करते, जिससे दर्शकों को ऐसा लगता मानो वे स्वयं उस दृश्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हों।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का एक प्रमुख आकर्षण था उनका गहरी आध्यात्मिक अनुभूति से भरा हुआ दृष्टिकोण। वे केवल घटनाओं का वर्णन नहीं करते थे, बल्कि उनके भीतर छिपे चिरंतन संदेश को उजागर करते थे। उदाहरण के लिए, रामायण के प्रसंगों में वे बताते कि राम का चरित्र एक आदर्श पुरुष के रूप में क्यों महत्वपूर्ण है, उनकी नीतियाँ आधुनिक जीवन में क्या संदेश देती हैं, और कैसे उनके आचरण से वर्तमान सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। इसी प्रकार भागवत कथा में वे कृष्ण की लीलाओं में छिपे प्रेम, करुणा, समर्पण और धर्म-आधारित जीवन की शिक्षा पर विशेष बल देते थे। उनकी कथा में उपदेश नहीं, बल्कि अनुभूति होती थी; इसलिए लोग संदेश को सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे।

कथावाचन में उनका एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी था कि वे धार्मिक ग्रंथों को सामाजिक मूल्यों और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ते थे। उनका मानना था कि कथा का लक्ष्य केवल भक्ति जगाना नहीं, बल्कि समाज को सजग, नैतिक और संस्कारित बनाना भी है। इसलिए वे कथा के माध्यम से नशा-मुक्ति, शिक्षा, स्त्री-सम्मान, परिवार की एकता, युवा-सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी सहजता से जोड़ देते थे। वे कहते थे कि धर्म वही है जो समाज को उन्नति की ओर ले जाए, और अध्यात्म वह है जो मनुष्य को विनम्र और संवेदनशील बनाए।

राधेश्याम जी की कथाओं की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, वहाँ हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ग्रामीण क्षेत्र हो या महानगर, मंदिर हो या मैदान—हर जगह उनकी कथा सुनने वालों का उत्साह एक जैसा रहता था। वे मंच पर आते ही अपनी मधुर वाणी और सौम्य व्यक्तित्व से ऐसा वातावरण बना देते थे कि लोग कथा समाप्त होने तक अपनी जगह से हिलना भी नहीं चाहते थे। उनकी कथा की विशेषता यह भी थी कि वे दर्शकों के साथ गहरा संवाद स्थापित करते थे। वे बीच-बीच में श्रोताओं से प्रश्न पूछते, उदाहरण साझा करते और उन्हें आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करते।

उनके व्यक्तित्व का एक और अद्भुत पक्ष था उनकी सरलता और विनम्रता। लोकप्रियता के शिखर पर रहने के बावजूद वे स्वयं को एक साधारण कथाकार ही मानते थे। वे कहते थे कि “कथा मेरा नहीं, भगवान का काम है। मैं तो केवल माध्यम हूँ।” इस विनम्रता ने उन्हें और भी अधिक प्रिय बना दिया था। लोग उन्हें कथा-वाचक से अधिक एक सच्चे संत के रूप में देखते थे।

कथावाचन की परंपरा में राधेश्याम कथावाचक का स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने नई पीढ़ी के कथाकारों को प्रशिक्षित किया। वे अपने शिष्यों में कथा के शास्त्रीय स्वरूप के साथ-साथ उसकी सामाजिक और भावनात्मक संवेदना भरते थे। उनका जोर रहता था कि कथाकार केवल वक्ता न बने, बल्कि समाज के लिए एक पथ-प्रदर्शक हो। आज अनेक युवा कथाकार उनके मार्गदर्शन से प्रेरणा लेकर मंच पर सक्रिय हैं।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का सबसे बड़ा आधार उनकी साधना और धार्मिक अनुशासन था। वे प्रतिदिन नियमित पूजा, ध्यान और शास्त्र अध्ययन करते थे। वे मानते थे कि कथाकार की वाणी तभी प्रभावशाली हो सकती है जब उसका जीवन भी उतना ही पवित्र और संयमित हो। उनके जीवन की यह अनुशासनप्रियता उनकी कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती थी। यही कारण था कि वे कथा सुनाते समय केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे, बल्कि अनुभव की गहराई भी साझा करते थे।

उनके जीवन की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने कथा को आधुनिक तकनीक और मंचीय शैली के साथ भी जोड़ा। वे नई पीढ़ी की रुचियों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुति शैली में छोटे-छोटे बदलाव लाते, लेकिन कथा की शास्त्रीयता से कभी समझौता नहीं करते थे। उनके प्रवचनों की वीडियो रिकॉर्डिंग, ऑनलाइन प्रसारण और डिजिटल संग्रह आज भी लाखों लोगों तक पहुँच रहे हैं।

राधेश्याम कथावाचक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कथा केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना है। यह मनुष्य के भीतर छिपे दिव्य गुणों को जगाने का माध्यम है। उनकी कथाएँ सुनकर असंख्य लोगों के जीवन में परिवर्तन आया—किसी ने नशा छोड़ा, किसी ने परिवार को संभाला, किसी ने सेवा का मार्ग चुना और किसी ने धर्म का सही स्वरूप समझा। यही एक महान कथावाचक की पहचान है कि उसकी कथा मंच पर समाप्त नहीं होती, बल्कि लोगों के जीवन में उतरकर अपना प्रभाव छोड़ती है।

आज भी राधेश्याम कथावाचक की विद्वता, आत्मीयता और आध्यात्मिक गहराई कथाकारों के लिए आदर्श है। उन्होंने कथा-वाचन को एक नया आयाम दिया, उसे समाजोसुधारक शक्ति से जोड़कर उसे जीवंत बनाया। उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों तक प्रेरणा बनकर पहुँचेगा, क्योंकि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कथा केवल इतिहास का बयान नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का मार्ग भी है।

इस प्रकार, राधेश्याम कथावाचक भारतीय कथा परंपरा के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं जिन्होंने अपनी वाणी, सरलता, आध्यात्मिक शक्ति, सामाजिक चेतना और अनोखी प्रस्तुति शैली से कथा को नया जीवन दिया। उनका जीवन संदेश देता है कि जब वाणी साधना से जुड़ती है, तो वह केवल सुनने वालों को आनंद ही नहीं देती, बल्कि उन्हें आंतरिक रूप से बदल देती है। यही राधेश्याम कथावाचक की अमूल्य विरासत है, और यही उन्हें भारतीय अध्यात्म और कथा-साहित्य की दुनिया में अमर बनाती है।

पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर, 1890 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में हुआ था। उनका जन्म बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था, उनके पिता का नाम पंडित बांकेलाल था।

उनके परिवार की आर्थिक स्थिति प्रारंभ में बहुत साधारण थी। उनके कच्चे घर में गरीबी थी, और बचपन में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। हालांकि, उनके पिता को नाटकों, भजन-गायकियों की परंपरा की समझ थी, और इसी के चलते राधेश्याम को संगीत, गायन और नाटक की दुनिया में शुरुआती रूचि मिली।

बचपन से ही नाटकीय और लोक गायन-शैली के वातावरण में पले-बढ़े थे। बरेली में नाटक कम्पनियाँ (पारसी थिएटर कंपनियाँ) उनके इलाके के “चित्रकूट महल” नामक स्थान में रिहर्सल के लिए रुकती थीं, और राधेश्याम वहाँ के संगीत-रागों और गायन से काफी प्रभावित हुए।हारमोनियम बजाना और गायन उन्होंने अपने पिता और नाटक कंपनियों के कलाकारों से सीखा था।उनकी रामकथा (राधेश्याम रामायण) खास शैली में लिखी गई — लोक-नाट्य ढंग और “तर्ज़ राधेश्याम” नामक छंद में।उनकी लेखन शैली और संगीत समझ उनकी आत्म-अध्ययन, संगीत-अनुभव और लोक परंपरा के गहरे जुड़ाव से आई थी — वे मात्र कथावाचक नहीं, बल्कि नाटककार, पद्यकार और संगीतकार भी थे।


पंडित राधेश्याम कथावाचक का निधन 73 साल की आयु में 26 अगस्त, 1963 को हुआ था।राधेश्याम कथावाचक ने रामायण को खड़ी बोली में 25 खंडों में पद्य के रूप में लिखा, जिसे आज “राधेश्याम रामायण” के नाम से जाना जाता है और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय हुआ।उनके लेखन, कथावाचन और नाट्यकला में पारसी रंगमंच शैली का बहुत बड़ा असर था। उन्होंने अपने जीवन में करीब 57 पुस्तकें लिखीं और अनेक पुस्तकों का संपादन किया। कथावाचन और मंचीय काम में उनका लगभग 45 वर्षों का सक्रिय योगदान रहा।



Monday, November 24, 2025

टुन टुन

 उमा देवी खत्री, जिन्हें पूरा देश प्यार से टुनटुन के नाम से जानता है, हिंदी फिल्म जगत की पहली और अत्यंत लोकप्रिय महिला कॉमेडियन थीं। उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज़, अनोखी आवाज़, खास व्यक्तित्व और हास्य से भरे अभिनय से एक ऐसा मुकाम बनाया, जिसे आज भी कोई नहीं भूल सकता। वे केवल हंसी की दुनिया की सितारा ही नहीं थीं, बल्कि संघर्ष, आत्मविश्वास और प्रतिभा की मिसाल भी थीं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि कठिन परिस्थितियाँ भी यदि मन में दृढ़ निश्चय हो तो महान सफलता की राह रोक नहीं सकतीं।

उमा देवी का जन्म 11 जुलाई 1923 को उत्तर प्रदेश में हुआ। बचपन अत्यंत कठिनाइयों से भरा था। कम उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया और वे अनाथ हो गईं। गरीबी, अकेलापन और जीवन की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों ने उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। लेकिन इन कष्टों के बीच भी उमा देवी के मन में संगीत और कला के प्रति गहरा प्रेम बना रहा। उनकी आवाज़ अत्यंत अनूठी थी—मधुरता और भारीपन का एक ऐसा संगम, जो पहली ही बार सुनने पर ध्यान खींच ले।

जीवन में संघर्ष करते हुए वे मुंबई पहुंचीं और फिल्मों में काम पाने का प्रयास किया। शुरुआती दिनों में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्रतिभा और आत्मविश्वास के दम पर उन्होंने अपना रास्ता स्वयं बनाया। सबसे पहले उनका नाम उभरकर सामने आया एक गायिका के रूप में। 1947 में उनकी गायकी ने फिल्म जगत को चौंका दिया। “अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का” जैसे गीतों ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया। उस समय की महान गायिका लता मंगेशकर द्वारा उन्हें अत्यंत सम्मान दिया गया और माना जाता है कि लता जी ने उमा देवी को सम्मानपूर्वक यह समझाया कि उनकी आवाज़ का उपयोग एक सीमित दायरे में ही संभव है, और अभिनय की ओर बढ़ना उनके लिए बेहतर राह हो सकती है।

उसी समय से उमा देवी ने अभिनय को अपनी नई दिशा बनाया। उनका भारी-भरकम शरीर, अलग अंदाज़ और सहजता से किए गए हास्य ने उन्हें दर्शकों का सबसे चहेता कलाकार बना दिया। वे कॉमिक भूमिकाओं में इस तरह रच-बस जाती थीं कि कई बार दर्शक केवल उनकी एक झलक से ही हंस पड़ते थे। निर्देशक और कलाकार उन्हें सेट पर “टुनटुन” कहकर बुलाने लगे और यही नाम बाद में उनकी पहचान बन गया। उनका नया नाम टुनटुन फिल्म इतिहास में अमिट हो गया।

1950 और 1960 के दशक में टुनटुन उस दौर की लगभग हर बड़ी फिल्म में हास्य भूमिका में दिखाई देती थीं। वे गुरु दत्त, देव आनंद, दिलीप कुमार, किशोर कुमार, मेहमूद और राज कपूर जैसे सितारों के साथ काम कर चुकी थीं। “आर-पार”, “मिस्टर एंड मिसेज 55”, “अड़चनें”, “सीआईडी”, “दिल्ली का ठग” और “कश्मीर की कली” जैसी फिल्मों में उनके हास्य प्रदर्शन को दर्शक आज भी याद करते हैं। उनकी विशेषता केवल मज़ाक करना ही नहीं थी, बल्कि वे दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों में भी हास्य ढूंढ लेती थीं और उसे पर्दे पर इस तरह प्रस्तुत करती थीं कि किरदार जीवंत हो उठता था।

टुनटुन का हास्य कभी भी भद्दा नहीं होता था। वे शालीन, मधुर और स्वाभाविक अभिनय से हंसी पैदा करती थीं। महिलाओं के लिए हास्य भूमिका निभाना उस दौर में आसान नहीं था। समाज, फिल्म उद्योग और दर्शकों की दृष्टि में महिला कलाकारों के लिए एक तय दायरा था। लेकिन टुनटुन ने इस दायरे को तोड़ा और साबित किया कि चाहे अभिनय का कोई भी क्षेत्र हो—महिलाएं उसमें उत्कृष्टता प्राप्त कर सकती हैं। वे बताती थीं कि हंसाने वाला कलाकार लोगों के मन में सबसे गहरा असर छोड़ता है, क्योंकि वह दुखों के बीच मुस्कान पैदा करता है।

टुनटुन का निजी जीवन भी संघर्षों से भरा था, परंतु उन्होंने कभी इसे अपने करियर पर हावी नहीं होने दिया। वे एक समर्पित पत्नी और मां थीं। अपने परिवार के प्रति उनका प्रेम और जिम्मेदारी भी उतनी ही दृढ़ थी जितनी उनकी कला के प्रति समर्पण। काम के साथ वे हर परिस्थिति में अपने परिवार को सँभालती रहीं और अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी।

अपने लंबे करियर में टुनटुन ने लगभग 200 से अधिक फिल्मों में काम किया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि निर्माता-निर्देशक फिल्में लिखते समय विशेष रूप से हास्य दृश्यों में टुनटुन का चरित्र जोड़ देते थे। उनका नाम ही दर्शकों को थिएटर तक खींच लाने के लिए काफी होता था। 1990 के दशक तक वे फिल्म जगत से कुछ दूर हो गईं, लेकिन उनकी पहचान, लोकप्रियता और सम्मान में कभी कोई कमी नहीं आई।

24 नवंबर 2003 को टुनटुन का निधन हो गया। उनके जाने के बाद भारतीय सिनेमा ने एक ऐसे कलाकार को खो दिया, जिसने न केवल हंसी दी, बल्कि फिल्म जगत में महिलाओं के लिए हास्य भूमिकाओं का मार्ग भी प्रशस्त किया। वे एक ऐसी कलाकार थीं जिनका योगदान सिर्फ अभिनय तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि संघर्ष किसी भी सपने को रोक नहीं सकता।

अंततः, उमा देवी खत्री ‘टुनटुन’ भारतीय फिल्मों की वह धरोहर हैं, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में हास्य अभिनय को नए आयाम दिए। वे हंसी की रानी थीं—एक ऐसी रानी, जिसकी मुस्कान और आवाज़ आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है। उनका जीवन प्रेरणा है कि प्रतिभा, साहस और आत्मविश्वास से हर कठिनाई पर विजय पाई जा सकती है।




शिया धर्मगुरु कल्बे सादिक : शिक्षा, सुधार और एकता के प्रवर्तक

 कल्बे सादिक आधुनिक भारत के उन विशिष्ट धर्मगुरुओं में से रहे, जिन्होंने धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर समाज में एकता, शिक्षा और साम्प्रदायिक सौहार्द का अद्भुत संदेश दिया। वे शिया मुस्लिम समुदाय के प्रतिष्ठित विद्वान, चिंतक और सुधारक थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पहचान थी—समाज के हर वर्ग के लिए समान प्रेम और सेवा की भावना। वे धार्मिक उपदेशों को केवल किताबों तक सीमित नहीं रखते थे, बल्कि उन्हें जीवन में उतारकर दिखाते थे। इसी कारण वे देशभर में सम्मान और विश्वास के प्रतीक बने।

कल्बे सादिक का जन्म 22 जून 1939 को लखनऊ शहर के एक प्रतिष्ठित धार्मिक परिवार में हुआ। उनके पिता मौलाना कल्बे हुसैन एक प्रसिद्ध आलिम थे। घर का वातावरण धार्मिक, विद्वत्तापूर्ण और समाजसेवा के संस्कारों से भरा हुआ था। बचपन से ही कल्बे सादिक की रूचि अध्ययन, चिंतन और तर्कपूर्ण चर्चा में रहती थी। उन्होंने अरबी, फारसी, उर्दू, इतिहास, इस्लामी दर्शन और अन्य धार्मिक विषयों में गहन अध्ययन किया। बाद में इंग्लैंड से आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर वे एक प्रखर वक्ता और गहन विचारक के रूप में विकसित हुए।

धर्मगुरु होने के बावजूद उनका दृष्टिकोण आधुनिक, वैज्ञानिक और प्रगतिशील था। वे हमेशा कहते थे कि “यदि शिक्षा नहीं है तो धर्म का असली उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।” इसी विचारधारा के चलते उन्होंने शिक्षा को अपने जीवन का मुख्य साधन बना लिया। उन्होंने लखनऊ में तल्लीम-ओ-तरबिय्यत आंदोलन को नई गति दी और गरीब तथा वंचित बच्चों की पढ़ाई के लिए कई संस्थान स्थापित किए। टूटी पैर वाली कुर्सियों और बिना बिजली के कमरों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए उन्होंने आधुनिक स्कूल, कॉलेज और टेक्निकल संस्थान खड़े किए। उनकी यह सोच थी कि सिर्फ मदरसों की शिक्षा पर्याप्त नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान, गणित और तकनीक में भी मुस्लिम समाज को आगे आना होगा।

कल्बे सादिक केवल शिक्षा सुधारक ही नहीं थे, बल्कि सामाजिक सुधार के भी बड़े पैमाने पर प्रवर्तक थे। उन्होंने दहेज के खिलाफ बहुत मजबूत आवाज उठाई। वे मंचों से खुलकर कहते थे कि दहेज लेना या देना इस्लाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने अपने समुदाय में सादगीपूर्ण निकाह का अभियान चलाया और स्वयं भी अपने घराने में इसका पालन किया। वे सामाजिक बुराइयों को धार्मिक आदेशों के माध्यम से नहीं, बल्कि तर्क, करुणा और मानवीयता के आधार पर समझाते थे।

भारत में धार्मिक तनाव और साम्प्रदायिक संघर्ष लंबे समय से चुनौती रहे हैं। ऐसे समय में कल्बे सादिक हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे सशक्त चेहरों में से रहे। उनकी तकरीरों में हमेशा भाईचारे, राष्ट्रीय एकता और मानवीय मूल्यों का संदेश होता था। वे कहते थे कि “धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है। जो जोड़ता नहीं, वह धर्म नहीं।” उनकी सभाओं में सभी धर्मों के लोग शामिल होते थे और उनकी बातों से प्रेरणा लेते थे। वे राम और रहीम की एकता पर जोर देते थे और भारत की सांझी विरासत को एक अमूल्य धरोहर बताते थे।

कल्बे सादिक का व्यक्तित्व अत्यंत सरल, सौम्य और विनम्र था। वे बड़े से बड़े मंच पर भी सादगी भरा पहनावा रखते थे और सामान्य भाषा में जटिल धार्मिक विषयों को समझा देते थे। उनकी शैली में संयम, करुणा और गंभीरता का अनोखा मेल होता था। वे आलोचना से घबराते नहीं थे और न ही किसी विवाद में कठोरता दिखाते थे। उनकी वाणी में ऐसी मिठास थी कि कटु से कटु दिल भी पिघल जाता था।

स्वास्थ्य कमजोर रहने के बावजूद वे आखिरी समय तक समाजसेवा और शिक्षा के कार्यों में लगे रहे। उन्होंने गरीबों की सहायता, छात्रवृत्ति कार्यक्रमों और सामुदायिक स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया। उनका यह भी मानना था कि यदि समाज को आगे बढ़ाना है तो महिलाओं की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रयास किए और उनके लिए कई संस्थान स्थापित कराए।





कल्बे सादिक ने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि धर्म का उद्देश्य मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना है, न कि उसे दूसरों से अलग करना। वे धार्मिक श्रेष्ठता की जगह मानवीय श्रेष्ठता को महत्व देते थे। वे इस्लाम को ज्ञान, तर्क और प्रेम का धर्म मानते थे और उसकी व्याख्या आधुनिक संदर्भों में करते थे। उनकी यह विशेषता उन्हें सिर्फ एक धर्मगुरु नहीं, बल्कि एक समाज-सुधारक और मानवतावादी चिंतक के रूप में स्थापित करती है।

24 नवंबर 2020 को उनके निधन से देश ने एक अद्भुत व्यक्तित्व खो दिया। परंतु उनके विचार, उनके कार्य और उनकी शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। उनसे जुड़ी संस्थाएं आज भी हजारों बच्चों और गरीब परिवारों का जीवन बदल रही हैं। उनकी याद में आयोजित कार्यक्रमों में अक्सर एक ही बात दोहराई जाती है—“कल्बे सादिक ने इंसानियत का पैगाम दिया, और यह पैगाम कभी नहीं मिटेगा।”

अंततः, कल्बे सादिक का जीवन भारतीय मुस्लिम समाज ही नहीं बल्कि पूरे देश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने शब्दों से ज्यादा कार्यों से यह साबित किया कि शिक्षा, भाईचारा और मानवता ही समाज को सही दिशा दे सकते हैं। उनका जीवन आज भी नई पीढ़ी के लिए एक प्रकाशस्तंभ की तरह है।

सर छोटू राम : किसान आंदोलनों के आधार स्तंभ

 







सर छोटू राम भारतीय राजनीति के उन विरले नेताओं में गिने जाते हैं जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन किसानों, मजदूरों और ग्रामीण समाज के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें आधुनिक भारत का किसान मसीहा कहा जाता है। उनका व्यक्तित्व केवल एक नेता का नहीं बल्कि सामाजिक सुधारक, दूरदर्शी चिंतक और न्यायप्रिय प्रशासक का रहा। उनके विचारों और नीतियों ने उत्तर भारत के ग्रामीण समाज को नई दिशा दी और बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में ग्रामीण चेतना को मजबूत किया।

सर छोटू राम का जन्म 24 नवंबर 1881 को तत्कालीन पंजाब प्रांत के रोहतक जिले के गढ़ी सांपला गांव में हुआ। उनका मूल नाम राऊ रिचपाल था, जिसे बाद में छोटू राम के रूप में जाना गया। सामान्य कृषक परिवार में जन्म लेने के कारण उन्होंने बचपन से ही किसानों की कठिनाइयों को नजदीक से देखा। यही अनुभव उनके पूरे जीवन के आधार बने और यही कारण था कि उन्होंने पढ़ाई-लिखाई के बाद भी शहरों की चमक-दमक से दूर रहकर ग्रामीण भारत की समस्याओं को केंद्र में रखा।

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव और जिला मुख्यालय में पूरी की। आगे की उच्च शिक्षा के लिए वे दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज गए और फिर कानून की पढ़ाई के लिए आगरा और अलाहाबाद में अध्ययन किया। वे अत्यंत तेजस्वी, स्पष्टवादी और मेहनती विद्यार्थी थे। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने वकालत शुरू की, परंतु उनका मन हमेशा किसानों और मजदूरों की दुर्दशा पर चिंतित रहता था। इसी चिंता ने उन्हें राजनीति और सामाजिक सेवा की ओर मोड़ा।

राजनीति में प्रवेश के बाद उनका लक्ष्य बहुत स्पष्ट था—किसानों को साहूकारों और जमींदारों की शोषणकारी व्यवस्था से मुक्त कराना। उन्होंने यूनियनिस्ट पार्टी के माध्यम से पंजाब के ग्रामीण समाज को संगठित किया। उस समय किसानों पर अत्यधिक कर्जा होता था और सूदखोरी की वजह से उनकी जमीनें लगातार छीनी जा रही थीं। सर छोटू राम ने इस समस्या को जड़ से समझा और किसानों के लिए ऐतिहासिक कानून बनवाए। उनमें सबसे महत्वपूर्ण था—पंजाब राहत-ए-कर्ज अधिनियम। इस कानून ने किसानों को साहूकारों की पकड़ से काफी हद तक मुक्त कराया और उनकी जमीनों को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इसके अलावा उन्होंने पंजाब कृषि उत्पादक विपणन अधिनियम बनवाया, जिससे किसानों को अपने उत्पादों की बेहतर कीमत मिल सके। मंडियों की व्यवस्था को नियंत्रित कर उन्होंने बिचौलियों के शोषण पर रोक लगवाई। सर छोटू राम के प्रयासों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में नई ऊर्जा का संचार हुआ। उन्होंने किसान सभा, सहकारी समितियों और ग्रामीण विकास योजनाओं को बढ़ावा दिया। वे हमेशा जोर देते थे कि भारत की असली शक्ति गांवों में है और यदि गांव मजबूत होंगे, तो राष्ट्र भी मजबूत होगा।

सर छोटू राम ने केवल किसानों के आर्थिक हितों की ही नहीं, बल्कि उनके सामाजिक उत्थान की भी चिंता की। उन्होंने समाज में फैली छुआछूत, जातिगत भेदभाव और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई। वे शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा माध्यम मानते थे। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका मानना था कि शिक्षित किसान ही अपने अधिकारों और कर्तव्यों को बेहतर तरीके से समझ सकता है।

सर छोटू राम अत्यंत सादगीपूर्ण और उच्च नैतिक मूल्यों वाले व्यक्ति थे। सत्ता में रहते हुए उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाया। उनका जीवन अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी का उदाहरण रहा। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद उनके विरोधी भी उनकी सत्यनिष्ठा और दूरदर्शिता का सम्मान करते थे। ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक योगदान और प्रशासनिक दक्षता को देखते हुए उन्हें “सर” की उपाधि दी, परंतु उन्होंने हमेशा खुद को किसानों का सेवक ही माना।

उनका प्रभाव इतना व्यापक था कि उन्हें आज भी हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के ग्रामीण समाज में गहरी श्रद्धा से याद किया जाता है। उनकी नीतियों से लाभान्वित किसान उन्हें अपने पथप्रदर्शक के रूप में देखते हैं। कहा जाता है कि यदि सर छोटू राम का निधन 1945 में न हुआ होता, तो स्वतंत्र भारत की कृषि नीति और भी अधिक किसान-केंद्रित होती।

सर छोटू राम का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व वही है जो समाज के वंचित वर्गों को सशक्त बनाए, जो अपने पद का उपयोग सेवा और सुधार के लिए करे, न कि स्वार्थ के लिए। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे—विशेषकर आज के दौर में, जब किसान मुद्दे चर्चा के केंद्र में हैं।

अंततः, सर छोटू राम केवल एक नेता नहीं थे, बल्कि एक आंदोलन थे—ग्रामीण चेतना का, न्याय के संघर्ष का और भारत के किसानों को सम्मान दिलाने का। उनका जीवन देश के भविष्य के लिए प्रेरणा-स्रोत है और रहेगा।

Sunday, November 23, 2025

आर्य समाज नेता और सांसद प्रकाशवीर शास्त्री : धर्म, राष्ट्र और संस्कृति के तेजस्वी पुरोधा

 



प्रकाशवीर शास्त्री भारतीय राजनीति, धर्म और समाज-सुधार की उन दुर्लभ विभूतियों में से थे जिन्होंने अपने व्यक्तित्व, विद्वता और तेजस्वी वाणी के बल पर न केवल आर्य समाज को नई दिशा दी, बल्कि भारतीय संसद में भी भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की सशक्त आवाज बनकर उभरे। वे एक ऐसे नेता थे जिनका संपूर्ण जीवन वेद-मार्ग, राष्ट्र-सेवा और सामाजिक जागरण के लिए समर्पित रहा। विद्वान, संत, विचारक और कर्मयोगी — इन सभी विशेषणों को वे सही अर्थों में सार्थक करते थे।

प्रकाशवीर शास्त्री का जन्म 30 दिसंबर 1924 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के मवाना क्षेत्र के टिटोली गांव में हुआ। उनका मूल नाम प्रकाश चंद्र था। बचपन से ही उनमें अध्यात्म, अध्ययन और वाक्चातुर्य की अद्भुत प्रवृत्ति दिखाई देती थी। घर का वातावरण धार्मिक था और परिवार का झुकाव वैदिक परंपरा की ओर था। उन्हें संस्कृत और वेदों का अध्ययन कराने हेतु गुरुकुल भेजा गया, जहाँ उनकी प्रतिभा तेज़ी से निखरती चली गई। बाद में उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय और गुरुकुल कांगड़ी से उच्च शिक्षा प्राप्त की और संस्कृत साहित्य में “शास्त्री” की उपाधि के साथ वे एक सिद्धहस्त विद्वान के रूप में सामने आए।

आर्य समाज की सुधारवादी, तार्किक और वैदिक विचारधारा ने प्रकाशवीर शास्त्री को गहराई से प्रभावित किया। वे केवल अनुयायी नहीं रहे, बल्कि संगठन के अग्रणी चिंतक और प्रवक्ता बने।
उनकी प्रवचन शैली अत्यंत ओजस्वी थी। वेद, उपनिषद, संस्कृत साहित्य और तर्क—इन सभी विषयों पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि वे पूरे देश में आर्य समाज के सबसे प्रभावशाली वक्ताओं में गिने जाने लगे।

आर्य समाज के मंचों से उन्होंने—अस्पृश्यता के उन्मूलन,समानता, शिक्षा के प्रसार, नशाबंदी,स्वदेशी,और वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना जैसे मुद्दों पर प्रभावी अभियान चलाए। उनकी वाणी में सत्य और तर्क की ताकत थी, इसलिए वे आम लोगों से लेकर विद्वानों तक सब पर गहरा प्रभाव डालते थे।


सामाजिक सुधारों के योद्धा

प्रकाशवीर शास्त्री ने अपना अधिकांश जीवन समाज में व्याप्त कुरीतियों को चुनौती देने में लगाया। उन्होंने जाति-विभेद, अंधविश्वास, बाल-विवाह, पाखंड और वैदिक मार्ग से हटकर चली आ रही विकृतियों के खिलाफ लगातार आवाज उठाई।

उनका मानना था कि भारत की असली शक्ति उसकी संस्कृति है, और यह शक्ति तभी प्रकट होगी जब समाज शिक्षित, संगठित और नैतिक मूल्यों से संपन्न बनेगा।
वे युवाओं को वैदिक ज्ञान, वैज्ञानिक सोच और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।

राजनीतिक जीवन का आरंभ

उनकी लोकप्रियता, विद्वत्ता और समाज में प्रभाव के कारण उन्हें राजनीति में आने का निमंत्रण मिला, परंतु वे सत्ता से ज्यादा सेवा को महत्व देते थे। फिर भी, जब महसूस हुआ कि संसद देश की निर्णायक संस्था है और वहां भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवादी विचारधारा की सशक्त आवाज की आवश्यकता है, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा।वे 1967 में तीसरी लोकसभा के लिए चुने गए। शास्त्री जी आर्य समाज, वेद-धर्म और राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दों पर संसद में अत्यंत तार्किक, प्रभावी और निर्भीक ढंग से अपनी बात रखते थे।उनके भाषण न सिर्फ तथ्यपूर्ण होते थे, बल्कि उनमें वैदिक संस्कृति का ओज भी होता था। यही कारण है कि शत्रु-दल के नेता भी उनका सम्मान करते थे।


प्रकाशवीर शास्त्री ने संसद में—धर्मांतरण रोकने, कश्मीर नीति, शिक्षा सुधार, भारतीय भाषाओं के संवर्धन,गौ-रक्षा,और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण जैसे मुद्दों पर अपनी प्रभावी आवाज उठाई।

वे हिंदी के प्रबल समर्थक थे। उनका मत था कि भारत की पहचान उसकी मातृभाषा से है और शासन-प्रशासन में भारतीय भाषाओं का उपयोग बढ़ाना आवश्यक है। संसद में कई बार उन्होंने संस्कृत और हिंदी के पक्ष में ऐतिहासिक भाषण दिए, जिन्हें आज भी विद्वान लोग उदाहरण के रूप में उद्धृत करते हैं।

वेद-धर्म और भारतीयता के प्रचारक

शास्त्री जी ने देश के कोने-कोने में जाकर वैदिक धर्म और संस्कृत साहित्य के पुनर्जागरण का अभियान चलाया। वे कहते थे—
“भारत की आत्मा वेदों में है; यदि हम वेदों से दूर हो गए तो हमारी संस्कृति खो जाएगी।”उनकी प्रवचन शैली लोगों के मन में वैदिक आस्था का संचार करती थी। वे logic-based spirituality के पक्षधर थे—जहां धर्म अंधविश्वास नहीं, बल्कि ज्ञान और अनुशासन का मार्ग है।

लेखन और विचारधारा

प्रकाशवीर शास्त्री केवल वक्ता ही नहीं, उच्चकोटि के लेखक भी थे।
उनकी कई पुस्तकें, निबंध और भाषण आज भी आर्य समाज और वैदिक साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों में गिनी जाती हैं।

उनका लेखन—प्रखर तर्क,सरल भाषा, और गहरी राष्ट्रीय चेतना से भरा हुआ होता था।

असमय निधन पर शोक

1977 में अचानक उनका निधन हो गया। वे मात्र 52 वर्ष के थे। इतने कम जीवन में उन्होंने जितना काम किया, वह किसी बड़े आंदोलनकारी या आध्यात्मिक नेता के लिए भी प्रेरणा है। उनके जाने से भारतीय राजनीति, आर्य समाज और धर्म-सुधार आंदोलनों को अपूरणीय क्षति पहुँची।

प्रकाशवीर शास्त्री एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके व्यक्तित्व में धर्म, राष्ट्र, विद्या और सेवा चारों एक साथ प्रवाहित होती थीं।
वे आर्य समाज के अग्रणी नेता, तेजस्वी वक्ता, विद्वान संस्कृताचार्य, सामाजिक सुधारक और सशक्त सांसद थे।आज भी भारत की सांस्कृतिक चेतना, राष्ट्रवाद और वैदिक परंपराओं की चर्चा जब भी होती है, प्रकाशवीर शास्त्री का नाम सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। उनका जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि स्पष्ट विचार, उच्च चरित्र और समर्पण से कोई भी व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए महान कार्य कर सकता है। वे सचमुच भारत के तेजस्वी दीप थे, जिनकी ज्योति आज भी वैदिक सत्य और राष्ट्रभक्ति का प्रकाश फैलाती है।

Saturday, November 22, 2025

मुख्यमंत्री होकर भी अब उछल−कूद नही कर सकेंगे नीतीश कुमार


अशोक मधुप
वरिष्ठ पत्रकार
प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी का ये कथन  इस बार के बिहार के जनादेश पर सही उतरता है कि बिहार दुनिया को राजनीति सिखाता है। इस जनादेश ने जहां विपक्षी दलों को उनकी औकात बता दी,वहीं नीतीश कुमार को भी  बता दिया कि अगले पांच साल भाजपा के बिना गुजारा नही है। मुख्यमंत्री बने रहना है तो भाजपा को साथ लेकर चलना होगा। उसे नजर अंदाज कर मुख्यमंत्री नही रह सकते। इस बार आप  पाला नही बदल पाओगे।  भाजपा के दबाव में काम करना होगा।

बिहार में नई सरकार गठन को लेकर तस्वीर अब काफी हद तक साफ होती दिख रही है। एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश कुमार की ही ताजपोशी होगी, जबकि बीजेपी को दो डिप्टी सीएम दिए जाने की चर्चा तेज है।
इस बार भाजपा न सिर्फ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, बल्कि जेडीयू के बगैर भी वह एनडीए के अन्य सहयोगियों के साथ जादुई आंकड़े को पार कर गई । ऐसे में नीतीश कुमार के लिए भाजपा के साथ किसी तरह का बिहार में बार्गेनिंग करना अब सरल नहीं रह गया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से यह बार-बार दोहराया गया है कि चुनाव के बाद भी परिणाम चाहे जो भी आएं, गठबंधन के चेहरे नीतीश कुमार ही बने रहेंगे। जेडीयू की ओर से भी यह बात दोहराई गई है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। वैसे ये तय है कि ज्यादा सीट मिलने   के कारण नीतीश कुमार के मंत्री मंडल में भी भाजपा के मंत्रियों की संख्या भारी होगी।
बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की ऐतिहासिक जीत ने एक बार फिर बता दिया कि ये चमत्कार  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व, गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति की देन है। एनडीए की जीत के पीछे उनके 10 प्रमुख वादे पंचामृत गारंटी, रोजगार सृजन, ,महिलाओं के लिए योजनाएं, मुफ्त शिक्षा, कृषि सुधार तथा बुनियादी ढांचे का विकास आदि शामिल है। इस बार के चुनाव की विशेषता यह भी है कि  बिहार की 243 सीट में एनडीए गठबंधन को 202 ,महांगठबंधन को 35, एआईएमआईएम को पांच और अन्य को एक सीट मिली। भाजपा को 89 सीट मिली और वह प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। नीतीश कुमार की जदयू को 85 सीट मिली।  1951 के बाद बिहार में इस बार सबसे ज्यादा  67.13 प्रतिशत मतदान हुआ। ये मतदान  पिछले विधानसभा चुनाव से 9.6 प्रतिशत ज्यादा है। इस बार के मतदान में पुरुषों की हिस्सेदारी 62.98 प्रतिशत रही और महिलाओं की 71.78 प्रतिशत। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का मतदान 8.15 प्रतिशत ज्यादा रहा । ऐसा लगता   है कि एनडीए ने एकतरफा बिहार की महिलाओं का विश्वास जीता  है। महागठबंधन की करारी हार बताती है कि चुनावी रैलियों में भीड़ जरूर इकट्ठी हुई, भाषणों में तीखे हमले भी हुए, लेकिन विपक्ष जनता का विश्वास नही जीत सका। इन चुनावों की  बड़ी देन  चिराग पासवान का उभार रहा। उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे  भविष्य के निर्णायक खिलाड़ी हैं। सीटों पर उनकी मजबूत पकड़ ने यह बता दिया कि वे आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति को नए सिरे से लिखेंगे।
इस बार के चुनाव में पहली बार ‘जन सुराज पार्टी ‘ नामक एक नया राजनैतिक दल ने भी बिहार की राजनीति में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए।बड़ी बात यह है कि इस पार्टी के लगभग सभी उम्मीदवार शिक्षित,बुद्धिजीवी,पूर्व नौकर शाह,पूर्व आई ए एस,आई पी एस,वैज्ञानिक,गणितज्ञ तथा शिक्षाविद हैं, किंतु किसी को विजय  नही मिली। जन सुराज पार्टी ‘ के संस्थापक व अकेले रणनीतिकार व स्टार प्रचारक वही प्रशांत किशोर हैं, जो नरेंद्र मोदी व भाजपा से लेकर देश के अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं के लिये एक पेशेवर के रूप में चुनावी रणनीति तैयार करने के बारे में जाने जाते हैं। पार्टी की बुरी हार ने यह साबित कर दिया कि उनके दावों में कोई दम नही था।

इस बार ऐतिहासिक जीत के बाद बिहार की जनता को एनडीए से अपेक्षाएं भी बहुत हैं। देखना है कि एनडीए  सरकार उनकी अपेक्षाओं पर कैसे खरी उतरती है। एनडीए को सुशासन लाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए काम करने के साथ साथ राज्य में ऐसी भी व्यवस्था करनी होगी कि बिहार में तस्करी से शराब न आ सके। शराब बंदी पूरी तरह और सख्ती से लागू हो। कुल मिलाकर बिहार की जनता ने जो भारी मतदान किया वह जंगलराज, परिवारवाद तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ है। मतदान सुशासन, स्त्री सुरक्षा और पलायन रोकने के पक्ष में है। विपक्ष ने बिहार के जेन- जी को भड़काने का प्रयास किया लेकिन उसने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया। बिहार के चुनाव परिणाम साधारण  नहीं है। इनका परिणाम भारत के भविष्य के निर्माण की दिशा तय करने वाला है।इस चुनावी जनादेश को जनविश्वास की कसौटी से देखना होगा। विश्लेषकों द्वारा बिहार विधानसभा 2025 चुनाव में  राजग की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी तथापि महागठबंधन की इतनी करारी हार की आशंका किसी को नहीं थी,  राजग और महागठबंधन  के नेताओं को भी नहीं। इन परिणामों ने सभी को चौंकाया है। राजग की अप्रत्याशित जीत, भाजपा नीत मोदी सरकार तथा बिहार में नीतीश सरकार पर जनता के भरोसे की जीत है। बीस वर्ष बाद भी लालू के शासनकाल का जंगलराज जनता भूल नहीं पाई है । बिहार की जनता ने जातिवाद, परिवारवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीतिक को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है। गरीब, महिला, किसान और युवा मतदाता का नया समीकरण स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
बिहार के 2025 विधानसभा चुनाव न केवल एक राजनीतिक जीत है बल्कि लोकतांत्रिक पुनर्पुष्टि का संकेत हैं। एनडीए की जीत स्पष्ट और व्यापक है, जो महिलाओं, जातिगत गठजोड़, संगठनात्मक मजबूती और मजबूत कल्याण नीतियों के मिश्रण से संभव हुई। वहीं, विपक्ष को यह सोचना होगा कि उसका जनसंवाद आखिर कहाँ चूक गया और भविष्य में उसे कैसे समायोजित किया जाए। यह परिणाम बिहार की राजनीति के अगले अध्याय की शुरुआत हो सकती है — लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र अब और अधिक सक्रिय, उत्तरदायी और बहुआयामी होता जा रहा है। भविष्य में न सिर्फ पार्टियों की राजनीतिक रणनीतियाँ, बल्कि उनके विकास मॉडल और सामाजिक संकल्प भी इस मतदाता-जनादेश द्वारा परख की जाएँगी।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)