Sunday, December 14, 2025

अमर उजाला की स्थापना के 25 साल पूरे होने पर अखबार में मेरा लेख

 12 दिसम्बर को अमर उजाला मेरठ 32वे साल में प्रवेश पर गया।इस गौरवशाली पल के लिए अमर उजाला प्रबधन को बधाई।


Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश

मेरा यह लेख अमर उजाला मेरठ के 25वें साल में प्रवेश पर मेरठ के सभी संसकरण में छपा है

सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित

अमर उजाला सदैव सत्य का पक्षधर रहा है। चाहे उसके पत्रकारों को एनएसए लगाकर जेल डालने का प्रयास किया गया हो या फिर सचाई को उजागर करने वाले पत्रकारों की हत्या की गई हो, अमर उजाला के कदम हर मुश्किल वक्त में निर्बाध रूप से आगे बढ़ते रहे। 24 वर्ष के स्वर्णिम सफर में समाज को जागरूक करने के साथ-साथ अमर उजाला अपने अंदर भी कई बदलाव लाया है। इस सफर में अमर उजाला को कई खट्टे-मीठे उतार चढ़ाव का भी सामना करना पड़ा है।

अमर उजाला मेरठ के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही उत्तरांचल के साथी उमेश डोभाल की वहां के शराब माफियाओं ने हत्या कर दी, तो एक रात आफिस से कार से घर लौटते समय ट्रक से टकराने पर डेस्क के साथी नौनिहाल शर्मा काल के गले में चले गए। अमर उजाला के गंगोह के साथी राकेश गोयल पर प्रशासन के विरुद्ध खबर लिखने पर एनएसए लगी। भाकियू के आंदोलन में स्वामी ओमवेश के साथ लेखक को भी एनएसए में निरुद्ध करने का प्रयास किया।

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सच के लिए दी कुर्बानी, किसी को मौत तो किसी को मिली जेल

हर मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरा उतरा अमर उजाला, दफ्तर में आग लगी तब भी अखबार का प्रकाशन नहीं होने दिया प्रभावित


बिजनौर में बरेली से अमर उजाला आता था। बरेली की दूरी ज्यादा होने के कारण समाचार समय से नहीं जा पाते थे। सीधी फोन लाइन बरेली को नहीं थी। कभी मुरादाबाद को समाचार लिखाने पड़ते तो कभी लखनऊ को। एक-दो बार दिल्ली भी समाचार नोट कराने का मौका मिला। ऐसे में तय हुआ कि बिजनौर को सीधे टेलीपि्रंटर लाइन से जोड़ा जाए। इसके लिए कार्य भी प्रारंभ हो गया। एक दिन श्री राजुल माहेश्वरी जी का फोन आया कि टीपी लाइन बरेली से नहीं मेरठ से देंगे। वहां से नया एडीशन शुरू होने जा रहा है।

मेरठ में कहां, क्या हो रहा है?, यह जानने की उत्सुकता थी तो मै और मेरे साथी कुलदीप सिंह एक दिन बस में बैठ मेरठ चले गए। मेरठ में वर्तमान आफिस की साइड में पुराना आफिस होता था। उसके हाल में एक मेज पर राजेंद्र त्रिपाठी बैठे मिले। राजेंद्र त्रिपाठी ने पत्रकारिता बिजनौर से ही शुरू की थी, इसलिए पुराना परिचय था। उन्होंने मेरठ के प्रोजेक्ट की पूरी जानकारी दी और पूरी यूनिट लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

12 दिसंबर 1986 का दिन आया और समाचार पत्र का पूजन के साथ शुभारंभ हुआ। बिजनौर के लिए समाचार पत्र नया नहीं था। पूरा नेटवर्क भी बना था सो परेशानी नहीं आई। बिजनौर में समाचार पत्र लाने-ले जाने के लिए बरेली की ही टैक्सी लगी। बिजनौर-बरेली रूट पर एंबेसडर गाड़ी लगी । इसका चालक लच्छी था। कई दिन उसके साथ अखबार मेरठ से लाना पड़ा। फरवरी 87 में हरिद्वार लोकसभा क ा उपचुनाव हुआ। चूंकि अमर उजाला का नेटवर्क पूरी तरह नहीं बना था, इसलिए मुझे उस चुनाव का कवरेज करने के लिए भेजा गया और मैने पूरे चुनाव के दौरान रुड़की और हरिद्वार से चुनाव कवरेज भेजी।

तब टाइपराइटर से अखबार छापा गया

अमर उजाला मेरठ को इन 24 साल में कई खट्टे-मीठे अनुभव का सामना करना पड़ा। पहले समाचार टाइप होते । उनके पि्रंट निकलते और उन्हे पेज के साइज के पेपर पर चिपकाया जाता था। अब यह काम कंप्यूटर करता है। समाचार के पि्रंट निकालने के लिए दो पि्रंटर होते थे। एक पि्रंटर खराब हो गया। उसे ठीक करने इंजीनियर दिल्ली से आया किंतु वह खराबी नहीं पकड़ पाया। उसने खराब प्रिंटर को सुधारने के लिए चालू दूसरे प्रिंटर को खोल दिया, जिससे चालू प्रिंटर भी खराब हो गया। ऐसे में समस्या पैदा हो गई कि कैसे अखबार निकले? तय किया गया कि खबरें टाइपराइटर पर टाइप करवाई जाएं। सो कुछ पुरानी खबरें , कुछ इधर-उधर से आए समाचार लगाकर अखबार निकाला गया। इस अंक की विश्ेष बात यह रही कि इसमें अधिकतर खबरें और उनके हैडिंग टाइपराइटर से टाइप किए थे।

आग भी नहीं रोक पाई संस्करण को

ऐसे ही एक रात शॉर्ट सर्किट से अमर उजाला मेरठ के कार्यालय में आग लग गई । करीब सौ कंप्यूटर जल गए। ऐसी हालत में अखबार निकालना एक चुनौती थी। किंतु अगले दिन का अंक पूर्ववत: निकला और अखबार पर इस घटना का कोई असर दिखाई नहीं दिया। अमर उजाला का विस्तार क्षेत्र कभी गाजियाबाद नोएडा दिल्ली, बुलंदशहर और पूरे गढ़वाल में था। प्रसार बढ़ने के साथ नए-नए संस्करण निकलते चले गए।

श्याम-श्वेत से रंगीन तक का सफर

24 साल में अमर उजाला में बहुत परिवर्तन आया आठ पेज का अखबार आज औसतन 20 पेज पर आ गया। श्याम-श्याम में छपने वाला अमर उजाला आज पूरी तरह रंगीन हो गया। पहले स्थानीय महत्वपूर्ण समाचार अंतिम पेज पर छपते थे और बाकी उसी के पिछले के पेपर पर छपती थी। इसके बाद पेज पांच से स्थानीय समाचार छपने लगे और अब ये पेज दो से शुरू होने लगे। अनेक प्रकार के झंझावात और परेशानी को झेलते हुए अमर उजाला मेरठ 25 साल में प्रवेश कर रहा है। किंतु वह अपने रास्ते से नहीं भटका। जनसमस्या उठाने से कभी मुंह नहीं मोड़ा। समय के साथ कदम से कदम मिलाने में कभी झिझक नहीं महसूस की। समाचार पत्र नए जमाने के तेवर और तकनीक से तालमेल बनाने के प्रयास हमेशा जारी रहे।

• अशोक मधुप

Sunday, December 7, 2025

कुमार साहनी

 कुमार साहनी (1940-2024) भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता के रूप में दर्ज हैं, जिन्होंने अपनी कलात्मक और बौद्धिक दृष्टि से फिल्मों को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि चिंतन और अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) या कला सिनेमा (Art Cinema) आंदोलन की प्रमुख हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने मुख्यधारा की व्यावसायिक फिल्मों से हटकर, गहन, काव्यात्मक, और अक्सर गूढ़ विषयों पर फिल्में बनाईं। साहनी को भारतीय सिनेमा का “विद्रोही कवि” या “दार्शनिक” कहा जाता है, जिनकी फिल्मों ने दशकों तक दर्शकों और आलोचकों दोनों को चुनौती दी और प्रेरित किया।

​प्रारंभिक जीवन और वैचारिक आधार

​कुमार साहनी का जन्म 1940 में अविभाजित भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे से फिल्म निर्देशन में शिक्षा प्राप्त की। FTII में, वह प्रख्यात फिल्म निर्माता ऋत्विक घटक के छात्र रहे, जिनकी गहरी वैचारिक समझ और कलात्मक स्वतंत्रता का प्रभाव साहनी के शुरुआती काम पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। साहनी ने केवल निर्देशन नहीं सीखा, बल्कि मार्क्सवादी विचारधारा, भारतीय शास्त्रीय संगीत, कला इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसने उनके सिनेमाई दर्शन की नींव रखी।
​स्नातक होने के बाद, साहनी को 1960 के दशक के अंत में फ्रांस जाने का अवसर मिला, जहाँ उन्होंने महान फ्रांसीसी निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसों के साथ काम किया। ब्रेसों की Minimalism (अतिसूक्ष्मवाद) और अभिनेताओं के उपयोग की विशिष्ट शैली ने साहनी के सिनेमा को और अधिक परिष्कृत किया। साहनी की कलात्मक दृष्टि ऋत्विक घटक के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थवाद और रॉबर्ट ब्रेसों के औपचारिक अनुशासन का एक अनूठा संगम थी।

​सिनेमाई शैली: कविता, प्रतीक और दर्शन

​कुमार साहनी की फिल्में उनकी अत्यंत व्यक्तिगत और काव्यात्मक शैली के लिए जानी जाती हैं। उनकी फिल्में कथावाचन के पारंपरिक रैखिक तरीके का पालन नहीं करतीं; इसके बजाय, वे प्रतीकों, इमेजरी, और एक विशिष्ट लय पर निर्भर करती हैं। उनकी फिल्मों में अक्सर धीमी गति, लंबा टेक (long takes), और एक ध्यानपूर्ण चुप्पी होती है जो दर्शकों को फिल्म के भीतर के दर्शन को समझने के लिए मजबूर करती है।
​साहनी ने भारतीय संस्कृति, इतिहास, मिथकों और लोककथाओं से प्रेरणा ली, लेकिन उन्हें एक आधुनिक और आलोचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। उनकी फिल्में सत्ता संरचनाओं, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं, और व्यक्ति की आंतरिक दुविधाओं पर सवाल उठाती हैं। उनकी शैली को अक्सर “विचारों का सिनेमा” कहा जाता है, जहाँ चरित्र और कथानक से अधिक महत्वपूर्ण वह विचार या अवधारणा होती है जिसे वह व्यक्त करना चाहते हैं।

​प्रमुख फिल्में और योगदान

​साहनी के करियर में फिल्मों की संख्या भले ही कम हो, लेकिन उनका महत्व बहुत अधिक है।

​’माया दर्पण’ (1972): यह साहनी की पहली फीचर फिल्म थी और इसे भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण शुरुआती कला फिल्मों में से एक माना जाता है। यह एक सामंती पृष्ठभूमि की महिला की निराशा और स्वतंत्रता की लालसा को एक स्तंभित, प्रतीकवादी शैली में दर्शाती है। इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता।

​’तरंग’ (1984): यह फिल्म साहनी के मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। यह पूंजीवाद और श्रमिक वर्ग के शोषण पर केंद्रित है, जिसे एक जटिल और परतदार तरीके से फिल्माया गया है।

​’ख्याल गाथा’ (1989): साहनी की यह कृति भारतीय शास्त्रीय संगीत (विशेषकर ख्याल गायकी) और उसके इतिहास पर एक अर्ध-वृत्तचित्र, अर्ध-काल्पनिक फिल्म है। यह भारतीय संस्कृति के सौंदर्यशास्त्र और उसकी निरंतरता पर गहन चिंतन प्रस्तुत करती है।

​’कस्बा’ (1991): यह फिल्म चेखव की कहानी पर आधारित है और एक छोटे शहर की नैतिकता के पतन को दिखाती है, जिसमें साहनी की विशेषता वाली सूक्ष्मता और सामाजिक आलोचना निहित है।

​’बवंडर’ (1996): यह उनकी अंतिम फीचर फिल्म थी, जो राजस्थान की एक महिला की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिसने सामंती व्यवस्था और यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

​विरासत और प्रभाव

​कुमार साहनी का काम भारतीय सिनेमा के छात्रों, गंभीर फिल्म प्रेमियों और निर्देशकों की पीढ़ियों के लिए एक पाठ्यपुस्तक जैसा है। वे उन निर्देशकों में से थे जिन्होंने सौंदर्यशास्त्र और राजनीति को एक साथ लाने की हिम्मत की। उनकी फिल्मों को समझना हमेशा आसान नहीं रहा, लेकिन उनकी कलात्मक ईमानदारी और समझौता न करने वाले दृष्टिकोण ने उन्हें एक पंथ का दर्जा दिया।
​साहनी ने केवल फिल्में नहीं बनाईं, बल्कि उन्होंने भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण लेख भी लिखे। उन्होंने हमेशा फिल्मों को एक व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ में देखा, जहाँ सिनेमा अन्य कला रूपों—संगीत, नृत्य, चित्रकला और साहित्य—से संवाद करता है।
​कुमार साहनी का निधन 2024 में हुआ, लेकिन उनका काम भारतीय सिनेमा को लगातार याद दिलाता रहेगा कि सिनेमा केवल एक उद्योग नहीं, बल्कि एक कला, एक दर्शन, और समाज को बदलने की शक्ति रखने वाला माध्यम भी है। वे सही मायने में भारतीय कला सिनेमा के एक स्तंभ थे।




Monday, December 1, 2025

बहुमुखी प्रतिभा का सशक्त चेहरा : फिल्म अभिनेता राकेश बेदी

 राकेश बेदी का जन्म 1 दिसंबर 1954 को दिल्ली में हुआ। वे एक भारतीय फ़िल्म, रंगमंच और टेलीविज़न अभिनेता हैं । उन्हें मुख्यतः मेरा दामाद, चश्मे बद्दूर (1981), और ये जो है ज़िंदगी (1984), श्रीमान श्रीमती (1995) और यस बॉस (1999-2009) जैसी फ़िल्मों में उनकी हास्य भूमिकाओं के लिए जाना जाता है।

बेदी ने अपनी पढ़ाई दिल्ली में पूरी की। उन्होंने दिल्ली के एंड्रयूजगंज स्थित केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाई की। स्कूल के दौरान, बेदी मोनो एक्टिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे। बेदी ने नई दिल्ली के थिएटर ग्रुप पिएरोट्स ट्रूप के साथ भी काम किया है और पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से अभिनय की पढ़ाई की है।
बेदी ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत 1979 में संजीव कुमार अभिनीत फ़िल्म हमारे तुम्हारे में एक सहायक अभिनेता के रूप में की और फिर 150 से अधिक फिल्मों और कई टीवी धारावाहिकों में अभिनय किया। उनकी कुछ सबसे यादगार भूमिकाएँ 1981 की फ़िल्म चश्मे बद्दूर में फारूक शेख और रवि बासवानी के साथ थीं और के. बालचंदर द्वारा निर्देशित एक दूजे के लिए और टीवी सिटकॉम श्रीमान श्रीमती (1995), यस बॉस (1999-2009) में मोहन श्रीवास्तव के रूप में, उनकी सर्वश्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक है और इसके लिए उन्हें बहुत सराहना मिली।
उन्होंने ज़ीक्यू पर एक विज्ञान शो, साइंस विद ब्रेनकैफे की मेजबानी की और मुंबई में थिएटर करना जारी रखा। विशेष रूप से, उन्होंने विजय तेंदुलकर के लोकप्रिय वन-मैन प्ले मसाज में 24 अलग-अलग किरदार निभाए। 2012 में, वह अपने पहले टेलीविजन ड्रामा डेली सोप, शुभ विवाह में दिखाई दिए। 2015 से, वह टेलीविजन शो भाबी जी घर पर हैं! में दिखाई देते हैं!


फिल्म और रंगमंच की दुनिया में राकेश बेदी अपनी सादगी, सहज अभिनय और स्वभाविक हास्य के बल पर दर्शकों के दिलों में विशेष स्थान बनाया। हिन्दी फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों में सक्रिय रहने वाले राकेश बेदी ने अभिनय को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे समाज और मनुष्य की भावनाओं को सहज रूप में व्यक्त करने का माध्यम बनाया। उनकी अभिनय यात्रा चार दशक से अधिक समय में फैली है, जिसमें उन्होंने हर प्रकार की भूमिका निभाई और अपनी अलग पहचान स्थापित की।


यद्यपि राकेश बेदी ने विविध भूमिकाएँ निभाईं, परन्तु हास्य कलाकार के रूप में उन्हें विशेष लोकप्रियता मिली। हिन्दी फ़िल्मों और धारावाहिकों में उनका हास्य कभी भी आक्रामक या असभ्य नहीं रहा, बल्कि सादगी से भरा, सरल और घरेलwपन लिये हुए रहा। उनके संवादों की प्रस्तुति, चेहरे की भाव-भंगिमाएँ और समयानुसार प्रतिक्रिया दर्शकों को सहज ही हँसा देती थी। इसी स्वाभाविकता ने उन्हें हिन्दी सिनेमा की हास्य परम्परा में एक सम्मानजनक स्थान दिय


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थ


फ़िल्मों के अलावा राकेश बेदी ने दूरदर्शन और बाद के निजी चैनलों पर प्रसारित अनेक धारावाहिकों में यादगार भूमिकाएँ निभाईं। उन्होंने ऐसे पात्रों को जीवंत किया जो आम भारतीय घरों में देखे-सुने जाते हैं। उन्होंने परिवार आधारित धारावाहिकों से लेकर सामाजिक विषयों पर केन्द्रित प्रसंगों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उनके अभिनय में अपनापन इतना अधिक था कि दर्शक उन्हें अपने ही घर का सदस्य समझने लगते थे।


राकेश बेदी का रंगमंच से विशेष लगाव रहा है। फ़िल्मों और धारावाहिकों के व्यस्त समय में भी उन्होंने नाटकों से दूरी नहीं बनाई। रंगमंच ने उनके अभिनय को माँजने का काम किया। मंच पर वे हर बार नई ऊर्जा, नया रूप और नया अनुभव लेकर आते हैं। उनका मानना है कि रंगमंच किसी भी कलाकार को नई दृष्टि देता है और निरन्तर अभ्यास करवाता है। उनकी अनेक नाट्य प्रस्तुतियाँ आज भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय है!

राकेश बेदी की अभिनय शैली बड़े स्वाभाविक ढंग से दर्शक को छू लेती है। वे पात्र को वही रूप देते हैं, जैसा वह कथानक में दिखता है—न अधिक, न कम। चरित्र निर्माण में उनकी सबसे बड़ी विशेषता है सूक्ष्म अवलोकन शक्ति। वे जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों का उपयोग अपनी भूमिकाओं में करते हैं, जिससे उनका अभिनय जीवंत हो उठता है। उनका चेहरा सहज ही भावना व्यक्त कर देता है और संवादों की प्रस्तुति में भी वे अत्यधिक सरलता बनाए रखते हैं।लम्बे समय से राकेश बेदी भारतीय फ़िल्म और मनोरंजन जगत का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने ढेरों फ़िल्मों, धारावाहिकों और नाटकों के माध्यम से जो योगदान दिया है, वह अत्यन्त मूल्यवान है। अनेक पुरस्कार और सम्मान उन्हें प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनके अनुसार सबसे बड़ा सम्मान दर्शकों का विश्वास और स्नेह है। वे नवोदित कलाकारों को हमेशा यह सीख देते हैं कि अभिनय केवल प्रतिभा नहीं, बल्कि निरन्तर अभ्यास और अनुशासन का विषय है


राकेश बेदी ने मनोरंजन जगत के संसार में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। वे उन कलाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने कला को बाज़ार की वस्तु नहीं बनने दिया, बल्कि उसे संस्कृतिमय और मानवीय स्पर्श प्रदान किया। उनकी विनम्रता, सहजता और दार्शनिक दृष्टि उन्हें सामान्य कलाकारों से अलग बनाती है। आज भी वे सक्रिय हैं और दर्शकों को उत्कृष्ट मनोरंजन प्रदान कर रहे हैं। निःसन्देह, राकेश बेदी भारतीय अभिनय जगत के उन स्तंभों में से हैं, जिनकी उपस्थिति ने मनोरंजन को सौम्यता और संवेदनशीलता के साथ समृद्ध किया है।

Tuesday, November 25, 2025

अयोध्या जी , बहुत सुलभ हैं रामलला के दर्शन



अशोक मधुप 

वरिष्ठ पत्रकार

रामलला के दर्शन के लिए यदि अयोध्या जी जा रहे हैं तो निश्चित होकर जाएं। ये मानकर जाए कि भगवान के घर जा रहे हैं। उनकी  शरण में जा रहे  हैं। बस फिर किसी चिंता की जरूरत नहीं। दर्शन के लिए किसी की सिफारिश मत कराइए। सीधे  जाइए। दर्शन करिए और 20 से 30 मिनट में दर्शन कर मंदिर से बाहर आ जाइए। हमारा  दावा है  विश्व के किसी भी धर्म के तीर्थस्थल से इससे ज्यादा सुलभ दर्शन कहीं संभव नही हैं। 

राम मंदिर आज हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ  बन गया है। प्रतिदिन 80 हजार से एक लाख भक्त  राम लला के  दर्शन कर उन्हें प्रणाम करते हैं। कई अवसर पर तो ये संख्या डेढ़  लाख से ज्यादा हो जाती है। आज दुनिया भर में बसे लगभग हर  सनातनी के मन में एक ही इच्छा है किसी तरह वह अयोध्या जाकर राम मंदिर के दर्शन कर सके। भगवान राम को शीष  नवाए।  हाल ही में हम पत्रकारों के एक सम्मेलन में अयोध्या जी में थे। रामलला के दर्शनों के लिए आ रही श्रद्धालुओं की भीड़ को देख मेरे एक साथी लखनऊ के  वरिष्ठ  पत्रकार दिनेश शर्मा ने कहा था कि अयोध्या जी  आने वाले समय में हिंदुओं का प्रमुख श्रद्धा का केंद्र होगा। यहां  प्रत्येक हिंदू −  सनातनी  आकर शीश नवाना अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाएगा। शीश  नवाकर अपने को कृतार्थ  मानेगा।

अयोध्या में राम मंदिर बनने  से पहले  कभी श्रद्धालुओं को  संकरी गलियों से गुजरने के बाद टेढ़े मेढ़े और उभर खाबड़ रास्तों से गुजरकर मंदिर तक पहुंचना होता था। आम श्रद्धालुओं के लिए ये यात्रा और कितनी दुरूह रहती होगी, यह समझते बनता है।  इस सबके बावजूद यहां आने वाले  श्रद्धालुओं का उत्साह और जोश देखते बनता था।अब  मंदिर परिसर बन गया। भव्य मंदिर बन गया। 25 नंवबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंदिर पर भव्य ध्वजारोहण करेंगे। भव्य  समारोह होगा। इस आयोजन के प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए दुनिया भर से हजारों प्रमुख व्यक्ति आ रहे है। उम्मीद है कि ध्वजारोहण के दिन अयोध्या में  वीवपीआई पी के एक सौ  के आसपास जेट आएंगे। 

अयोध्या आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु इस बात को लेकर आंशकित होता  हैं, कि इतनी भीड़ में दर्शन कैसे होंगे? पूजा कैसे होगी ? प्रसाद कैसे चढ़ेगा? सब चाहते हैं कि मंदिर आगमन की स्मृति फोटो के रूप में अपने पास सुरक्षित रखें। यहां स्थिति   अन्य मंदिर से बिल्कुल भिन्न  है। यहां  न पूजा की व्यवस्था है,  न प्रसाद चढ़ने का प्रबंध। यहां पूजन कराने वाले पुजारी भी  नही है। यहां  तो  बस  मंदिर आइए।  राम लला के दर्शन  करिए। प्रभु को शीश  नवाइए और बाहर आ जाइए। यहां प्रसाद लेकर जाने की जरूरत नही है। मंदिर की ओर से प्रत्येक श्रद्धालु को प्रसाद मिलता है। मंदिर परिसर में मोबाइल वर्जित है । परेशानी उन्हें होती है जो सुरक्षा कर्मियों की नजर बचाकर मोबाइल  मंदिर में लेकर जाना  चाहते हैं।  सुरक्षा जांच में मोबाइल पकड़ा जाता है। इन मोबाइल ले जाने वालों को लौटकर मंदिर के गेट पर आकर लॉकर  में फोन रखकर फिर दर्शन को जाना  पड़ता है। इस तरह इन्हें अन्य श्रद्धालुओं से एक डेढ़ किलोमीटर ज्यादा चलना होता है। मंदिर में अपना सामान करने के लिए  लॉकर की व्यापक व्यवस्था है, किंतु इस काम में लगभग  आधा घंटा लग जाता  है। अच्छा यह है कि अपना पर्स, लैदर की बैल्ट, मोबाइल और कैमरा  अपने कमरे पर छोड़ कर आए। अपनी आईडी और जरूरत के लिए रुपये अपनी जेब में रखलें । हमने ऐसा ही किया । इससे मंदिर के लॉकर में सामान जमा करने का हमारा आधे से एक घंटा बच गया।  हम दर्शन कर  20 से 25 मिनट में मदिर से बाहर आ गए। व्हील चेयर लेने वालों और दिव्यांग के लिए तो और सुविधा है।  उनका जाने का रास्ता अलग से है।  

भारत के उत्तर-प्रदेश राज्य में स्थित अयोध्या, जो पारंपरिक रूप से एक अलग त्वरित तीर्थ-नगर थी, अब आधुनिकता और भक्ति के संगम का उदाहरण बनती जा रही है। खास कर राम जन्मभूमि (जिसके अंतर्गत राम मंदिर का निर्माण हुआ) के बाद इस नगर में बड़े पैमाने पर विकास कार्य चल रहे हैं।   ये कार्य सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। यहां 15− 16 करोड़ के करीब यात्री अब प्रतिवर्ष  आने लगे हैं। आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ेगी ही। इस बढ़ती संख्या ने होटल, गेस्ट-हाउस, परिवहन-सेवाएँ, स्थानीय व्यापार व स्मृति-चिंतन (souvenir) उद्योग को गति दी है। अतः अयोध्या अब सिर्फ भक्ति-की जगह नहीं बल्कि एक सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था (हॉस्पिटैलिटी, रिटेल, परिवहन) का केन्द्र बनती जा रही है। इस प्रकार मंदिर-के पश्चात् अयोध्या की पहचान बदल रही है। अब अयोध्या  “भक्ति नगर” से “भक्ति + विकास नगर” की ओर  बढ़ रही है।विकास-यात्रा में पहुँचना और सहज अनुभव देना अहम है। इसलिए अयोध्या में कई बुनियादी संरचना-परियोजनाएँ लाई गई हैं।

एयर-कनेक्टिविटी के लिए महर्षि वाल्मीकि अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा का निर्माण हुआ है। इसमें आने वाले चरणों में टर्मिनल विस्तार व रनवे विस्तार भी शामिल है। अयोध्या में  रेलवे स्टेशन व आधुनिकीकृत सड़कें बनायी गई हैं। अयोध्या धाम रेलवे स्टेशन  विश्व का श्रेष्ठतक  रेलवे स्टेशन बनाने का  प्रयास है। यहां  यात्रियों के लिए तीन सौ के आसपास डार्मेट्री और कुछ रिटायरिंग रूम बनाये गए हैं। अन्य काम जारी है।

राम मंदिर के आसपास के तीर्थ स्थलों के  लिए  पैदल जाने के लिए मार्ग विकसित किया जा रहा है ।  इसे भक्ति पथ  नाम दिया गया यह मार्ग, रामपथ से निकलता हुआ मंदिर के आसपास श्रद्धालुओं के चलने-वाले हिस्सों को सजाता है एवं पैदल यात्रियों के लिए खास व्यवस्था करता है।  इसमें दुकानों-घरों को अलग रंग-रूप दिया गया है। भक्ति पथ वाले हिस्सों में ‘सफ़ेद एवं भोरका’ रंग के बजाय एक विशिष्ट सजावट का उपयोग हुआ है। भक्ति पथ मंदिर-मार्ग के उन हिस्सों को सूचीबद्ध करता है जहाँ पैदल-यात्रा अधिक होती है, अतः इस तरह से इसका उद्देश्य अभ्यागतों को आरामदायक एवं सुरक्षित चलने-वाले मार्ग देना है।

राम मंदिर तक पंहुच के मार्ग का नाम राम पथ दिया गया है।यह एक प्रकार से रिंग रोड जैसा है।इस मार्ग  को भव्य रूप दिया जा रहा। यह मार्ग लगभग 13 किलोमीटर लंबा है और प्रमुख रूप से सहादतगंज से लेकर नया घाट (या नायाघाट) तक जाता है। इस मार्ग के दोनों किनारों पर दुकानों-घरों की एकरूप रूप से मरम्मत एवं पेंटिंग की गई है। सभी को एक समान रंग-रूप में सजाया गया है। सड़क को चौड़ा किया गया है और मुख्य रूप से 40 फीट या उससे अधिक चौड़ाई वाला बना कर बनाया गया है ताकि भीड़-भाड़ व आने-जाने में आराम हो सके। लाईटिंग-सिस्टम, फावड़े-प्लांटर्स, पेड़-पौधे, फुटपाथ, मिडियन में धार्मिक प्रतीक-स्तंभ जैसी सुविधाएं लगाई गई हैं। स्थानीय प्रशासन ने श्रद्धालुओं के लिए इस मार्ग पर गोल्फ कार्ट  (इलेक्ट्रिक बग्गी)  चलाई है। इसका प्रतियात्री किराया 20 रुपया रखा गया है।इस किराए के से आप इस मार्ग के किसी भी स्थान तक  जा सकतें हैं।इन सरकारी गोल्फ कार्ट   के कारण ई−रिक्शा चालक भी मनमाने दाम नही वसूल कर पाते।

पुरानी परंपरा के हिस्से के रूप में 84 कोसी परिक्रमा मार्ग को श्रद्धा-परिक्रमा मार्ग नाम दिया गया है। इसे राष्ट्रीय राजमार्ग −  का दर्जा  (एनएच-227B) मिला है । इससे अयोध्या और आसपास के तीर्थस्थलों का जुड़ाव बढ़ा है। इसको भी भव्य रूप दिया  जा रहा है। इसके पुलों और फ्लाई ओवर के दोनों ओर भगवान राम के जीवन से संबधित झांकी बनाई  जा रही है । नगर के बीच से एक पंचकोसी प्रतिक्रमा के विकास पर भी काम चल रहा है।

इन परिवहन सुधारों से न केवल तीर्थ-यात्रियों की सहजता बढ़ी है बल्कि स्थानीय व्यापार-संवाद व रोजगार-अवसरों में भी इजाफा हुआ है। आधुनिक विकास सिर्फ बड़ी इमारतें या सड़कें नहीं बल्कि बेहतर जीवन-मान और पर्यावरण-संगत विकास भी है। अयोध्या में इस दिशा में कई कदम उठाए गए हैं। अयोध्या को ‘मॉडल सोलर सिटी’ घोषित किया गया है। ४० मेगावाट का सौर संयंत्र सरयू नदी के किनारे स्थापित किया गया है। इससे शहर की मांग की लगभग २५-३० प्रतिशत ऊर्जा पूरा हो रही है।  यहां ५५० एकड़ के “नव्या अयोध्या” टाउनशिप का विकास हुआ है, जिसमें स्मार्ट बिजली-डक्स, भूमिगत नाली-प्रणाली है। सरयू नदी के घाटों का सौंदर्यीकरण व लॉन्ग वॉक-वे बनाए गए हैं, जिससे पर्यटक अनुभव बेहतर हुआ है। सरयू घाट की आरती देखने को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रोड उमड़ती है। इस आरती को देखने का  अभी सही प्रबंध  नही है। उसे बनाने की जरूरत है।बड़े बड़े टीवी भी इसे देखने के लिए लगाए  जा  सकते  हैं। इनसे श्रद्धालु सरयू किनारे कहीं भी बैंच या फर्श  पर बैठकर आराम से आरती देख ले।   


मंदिर-के बाद अयोध्या में अब सिर्फ दर्शन तक सीमित नहीं रही बल्कि सांस्कृतिक और अनुभव-आधारित पर्यटन पर भी ध्यान गया है। नए संग्रहालय व सांस्कृतिक केंद्र  बनाएं जा रहे हैं। मंदिर परिसर के आस-पास संग्रहालय, रामायण अध्ययन संस्थान जैसी योजनाएं चल रही हैं। 

उत्सव व कार्यक्रम को रोचक बनाया जा रहा है। दीपोत्सव में लाखों दीये, ड्रोन-शो आदि का आयोजन हुआ है जो सिर्फ स्थानीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आकर्षण बना है। पारंपरिक हस्तशिल्प व पर्यटन-वस्तुओं को बढ़ावा मिल रहा है। इससे स्थानीय कारीगरों को नए −नए अवसर मिल रहे हैं। 

राम मंदिर के बाद अयोध्या में जो विकास गति पकड़ी है, वह सिर्फ पूजा-पथ नहीं बल्कि समृद्धि-पथ है। तीर्थयात्रा से बढ़कर यह अब अनुभव-और-उद्यम-नगर बनता जा रहा है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि यह विकास वैश्विक दर्जे का होने के साथ-साथ स्थानीय अनुभव-सक्षम और पर्यावरण-अनुकूल भी बने। 

अयोध्या का  प्राचीन समय नाम साकेत है। साकेत भगवान राम के समय का भव्य नगर । आज का  नगर उससे भी  विशाल आकार ले रहा है। भगवान राम के साकेत( अयोध्या  जी) पर महाकवि मैथिलीशरण गुप्त का काव्य   साकेत की ये पंक्तियां इस नगर का भव्य चित्रण करती हैं।−

देख लो, साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। 

केतु-पट अंचल-सदृश हैं उड़ रहे,कनक-कलशों पर अमर-दृग जुड़ रहे।

सोहती हैं विविध-शालाएँ बड़ी; छत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ी। 

गेहियों के चारु-चरितों की लड़ी, छोड़ती हैं छाप, जो उन पर पड़ी! 

स्वच्छ, सुंदर और विस्तृत घर बने,इंद्रधनुषाकार तोरण हैं तने। 

देव-दंपती अट्ट देख सराहते; उतरकर विश्राम करना चाहते। 

फूल-फलकर, फैलकर जो हैं बढ़ी, दीर्घ छज्जों पर विविध बेलें चढ़ी

पौरकन्याएँ प्रसून-स्तूप कर, वृष्टि करती हैं यहीं से भूप पर। 

फूल-पत्ते हैं गवाक्षों में कढ़े, प्रकृति से ही वे गए मानो गढ़े। 

दामनी भीतर दमकती है कभी, चंद्र की माला चमकती है कभी। 

सर्वदा स्वच्छंद छज्जों के तले,प्रेम के आदर्श पारावत पले। 

केश-रचना के सहायक हैं शिखी, चित्र में मानो अयोध्या है लिखी !

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ  पत्रकार हैं)

प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक राधेश्याम कथावाचक

 न्म: 25 नवंबर 1890, बरेली, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 26 अगस्त 1963 (लगभग 73 वर्ष की आयु)

भारतीय धार्मिक कथा परंपरा में अनेक वक्ताओं ने अपनी वाणी, विद्वता और मनोहर प्रस्तुति से जन-मानस को प्रभावित किया है, लेकिन जिन कुछ नामों ने कथा-शास्त्र को नयी गरिमा और व्यापक लोकप्रियता प्रदान की, उनमें राधेश्याम कथावाचक का नाम अत्यंत श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने केवल कथा सुनाई नहीं, बल्कि उसे जीवंत कर दिया। उनके कथन में अध्यात्म की गहराई, भक्ति की सुवास, साहित्य की मधुरता और संस्कृति की जड़ों से निकली निष्कपट सरलता एक साथ दिखाई देती है। वे कथा को मनोरंजन या प्रवचन मात्र नहीं, बल्कि भाव-जागरण, सामाजिक सुधार और आत्म-चिंतन का माध्यम मानते थे। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें अपने समय का अत्यंत प्रभावशाली कथावाचक बनाया।

राधेश्याम कथावाचक प्राचीन कथा परंपरा के समर्थक थे जिसमें रामायण, भागवत पुराण, शिवपुराण और देवी भागवत जैसी महान ग्रंथों का सरस वर्णन होता है। लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे शास्त्रों की विद्वता को सरल भाषा में ढालकर आम जन तक पहुँचाने में सर्वथा सक्षम थे। सामान्य जन वेद-पुराणों के गूढ़ सिद्धांत आसानी से नहीं समझ पाते, परंतु राधेश्याम जी उन्हें रोज़मर्रा के उदाहरणों, जीवंत उपमाओं और सहज संवाद शैली में खोलकर प्रस्तुत करते थे। इसीलिए उनकी कथाओं में न केवल बुजुर्ग, बल्कि युवा वर्ग भी बड़ी संख्या में सम्मिलित होता था।

कथावाचन की कला में स्वर, भाव और पात्र-अभिनय अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। राधेश्याम कथावाचक इन तीनों तत्वों में निपुण थे। उनका स्वर इतना मधुर और भावपूर्ण था कि कथा की प्रत्येक घटना सुनने वालों के हृदय पर सीधी छाप छोड़ती थी। वे किसी प्रसंग को केवल पढ़ते नहीं थे, बल्कि उसे पूरी आत्मा से जीते थे। जब वे राम वनवास का दृश्य सुनाते, तो ऐसा लगता मानो अयोध्या का समूचा वातावरण श्रोता सभा में उतर आया है। जब वे कृष्ण की बाल लीलाएँ वर्णित करते, तो बच्चे तक मंत्रमुग्ध हो जाते। कथा के विभिन्न पात्रों—जैसे कौशल्या, जनक, सीता, हनुमान, पात्र, गोपियाँ—के संवाद वे अलग-अलग आवाज़ और भाव से प्रस्तुत करते, जिससे दर्शकों को ऐसा लगता मानो वे स्वयं उस दृश्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हों।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का एक प्रमुख आकर्षण था उनका गहरी आध्यात्मिक अनुभूति से भरा हुआ दृष्टिकोण। वे केवल घटनाओं का वर्णन नहीं करते थे, बल्कि उनके भीतर छिपे चिरंतन संदेश को उजागर करते थे। उदाहरण के लिए, रामायण के प्रसंगों में वे बताते कि राम का चरित्र एक आदर्श पुरुष के रूप में क्यों महत्वपूर्ण है, उनकी नीतियाँ आधुनिक जीवन में क्या संदेश देती हैं, और कैसे उनके आचरण से वर्तमान सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। इसी प्रकार भागवत कथा में वे कृष्ण की लीलाओं में छिपे प्रेम, करुणा, समर्पण और धर्म-आधारित जीवन की शिक्षा पर विशेष बल देते थे। उनकी कथा में उपदेश नहीं, बल्कि अनुभूति होती थी; इसलिए लोग संदेश को सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे।

कथावाचन में उनका एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी था कि वे धार्मिक ग्रंथों को सामाजिक मूल्यों और राष्ट्रीय चेतना से जोड़ते थे। उनका मानना था कि कथा का लक्ष्य केवल भक्ति जगाना नहीं, बल्कि समाज को सजग, नैतिक और संस्कारित बनाना भी है। इसलिए वे कथा के माध्यम से नशा-मुक्ति, शिक्षा, स्त्री-सम्मान, परिवार की एकता, युवा-सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी सहजता से जोड़ देते थे। वे कहते थे कि धर्म वही है जो समाज को उन्नति की ओर ले जाए, और अध्यात्म वह है जो मनुष्य को विनम्र और संवेदनशील बनाए।

राधेश्याम जी की कथाओं की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहाँ भी उनका कार्यक्रम होता, वहाँ हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ग्रामीण क्षेत्र हो या महानगर, मंदिर हो या मैदान—हर जगह उनकी कथा सुनने वालों का उत्साह एक जैसा रहता था। वे मंच पर आते ही अपनी मधुर वाणी और सौम्य व्यक्तित्व से ऐसा वातावरण बना देते थे कि लोग कथा समाप्त होने तक अपनी जगह से हिलना भी नहीं चाहते थे। उनकी कथा की विशेषता यह भी थी कि वे दर्शकों के साथ गहरा संवाद स्थापित करते थे। वे बीच-बीच में श्रोताओं से प्रश्न पूछते, उदाहरण साझा करते और उन्हें आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करते।

उनके व्यक्तित्व का एक और अद्भुत पक्ष था उनकी सरलता और विनम्रता। लोकप्रियता के शिखर पर रहने के बावजूद वे स्वयं को एक साधारण कथाकार ही मानते थे। वे कहते थे कि “कथा मेरा नहीं, भगवान का काम है। मैं तो केवल माध्यम हूँ।” इस विनम्रता ने उन्हें और भी अधिक प्रिय बना दिया था। लोग उन्हें कथा-वाचक से अधिक एक सच्चे संत के रूप में देखते थे।

कथावाचन की परंपरा में राधेश्याम कथावाचक का स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने नई पीढ़ी के कथाकारों को प्रशिक्षित किया। वे अपने शिष्यों में कथा के शास्त्रीय स्वरूप के साथ-साथ उसकी सामाजिक और भावनात्मक संवेदना भरते थे। उनका जोर रहता था कि कथाकार केवल वक्ता न बने, बल्कि समाज के लिए एक पथ-प्रदर्शक हो। आज अनेक युवा कथाकार उनके मार्गदर्शन से प्रेरणा लेकर मंच पर सक्रिय हैं।

राधेश्याम कथावाचक की कथा का सबसे बड़ा आधार उनकी साधना और धार्मिक अनुशासन था। वे प्रतिदिन नियमित पूजा, ध्यान और शास्त्र अध्ययन करते थे। वे मानते थे कि कथाकार की वाणी तभी प्रभावशाली हो सकती है जब उसका जीवन भी उतना ही पवित्र और संयमित हो। उनके जीवन की यह अनुशासनप्रियता उनकी कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती थी। यही कारण था कि वे कथा सुनाते समय केवल ज्ञान नहीं बाँटते थे, बल्कि अनुभव की गहराई भी साझा करते थे।

उनके जीवन की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने कथा को आधुनिक तकनीक और मंचीय शैली के साथ भी जोड़ा। वे नई पीढ़ी की रुचियों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुति शैली में छोटे-छोटे बदलाव लाते, लेकिन कथा की शास्त्रीयता से कभी समझौता नहीं करते थे। उनके प्रवचनों की वीडियो रिकॉर्डिंग, ऑनलाइन प्रसारण और डिजिटल संग्रह आज भी लाखों लोगों तक पहुँच रहे हैं।

राधेश्याम कथावाचक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि कथा केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना है। यह मनुष्य के भीतर छिपे दिव्य गुणों को जगाने का माध्यम है। उनकी कथाएँ सुनकर असंख्य लोगों के जीवन में परिवर्तन आया—किसी ने नशा छोड़ा, किसी ने परिवार को संभाला, किसी ने सेवा का मार्ग चुना और किसी ने धर्म का सही स्वरूप समझा। यही एक महान कथावाचक की पहचान है कि उसकी कथा मंच पर समाप्त नहीं होती, बल्कि लोगों के जीवन में उतरकर अपना प्रभाव छोड़ती है।

आज भी राधेश्याम कथावाचक की विद्वता, आत्मीयता और आध्यात्मिक गहराई कथाकारों के लिए आदर्श है। उन्होंने कथा-वाचन को एक नया आयाम दिया, उसे समाजोसुधारक शक्ति से जोड़कर उसे जीवंत बनाया। उनका योगदान आने वाली पीढ़ियों तक प्रेरणा बनकर पहुँचेगा, क्योंकि उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कथा केवल इतिहास का बयान नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण का मार्ग भी है।

इस प्रकार, राधेश्याम कथावाचक भारतीय कथा परंपरा के उन दुर्लभ रत्नों में से एक हैं जिन्होंने अपनी वाणी, सरलता, आध्यात्मिक शक्ति, सामाजिक चेतना और अनोखी प्रस्तुति शैली से कथा को नया जीवन दिया। उनका जीवन संदेश देता है कि जब वाणी साधना से जुड़ती है, तो वह केवल सुनने वालों को आनंद ही नहीं देती, बल्कि उन्हें आंतरिक रूप से बदल देती है। यही राधेश्याम कथावाचक की अमूल्य विरासत है, और यही उन्हें भारतीय अध्यात्म और कथा-साहित्य की दुनिया में अमर बनाती है।

पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर, 1890 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में हुआ था। उनका जन्म बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था, उनके पिता का नाम पंडित बांकेलाल था।

उनके परिवार की आर्थिक स्थिति प्रारंभ में बहुत साधारण थी। उनके कच्चे घर में गरीबी थी, और बचपन में उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। हालांकि, उनके पिता को नाटकों, भजन-गायकियों की परंपरा की समझ थी, और इसी के चलते राधेश्याम को संगीत, गायन और नाटक की दुनिया में शुरुआती रूचि मिली।

बचपन से ही नाटकीय और लोक गायन-शैली के वातावरण में पले-बढ़े थे। बरेली में नाटक कम्पनियाँ (पारसी थिएटर कंपनियाँ) उनके इलाके के “चित्रकूट महल” नामक स्थान में रिहर्सल के लिए रुकती थीं, और राधेश्याम वहाँ के संगीत-रागों और गायन से काफी प्रभावित हुए।हारमोनियम बजाना और गायन उन्होंने अपने पिता और नाटक कंपनियों के कलाकारों से सीखा था।उनकी रामकथा (राधेश्याम रामायण) खास शैली में लिखी गई — लोक-नाट्य ढंग और “तर्ज़ राधेश्याम” नामक छंद में।उनकी लेखन शैली और संगीत समझ उनकी आत्म-अध्ययन, संगीत-अनुभव और लोक परंपरा के गहरे जुड़ाव से आई थी — वे मात्र कथावाचक नहीं, बल्कि नाटककार, पद्यकार और संगीतकार भी थे।


पंडित राधेश्याम कथावाचक का निधन 73 साल की आयु में 26 अगस्त, 1963 को हुआ था।राधेश्याम कथावाचक ने रामायण को खड़ी बोली में 25 खंडों में पद्य के रूप में लिखा, जिसे आज “राधेश्याम रामायण” के नाम से जाना जाता है और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय हुआ।उनके लेखन, कथावाचन और नाट्यकला में पारसी रंगमंच शैली का बहुत बड़ा असर था। उन्होंने अपने जीवन में करीब 57 पुस्तकें लिखीं और अनेक पुस्तकों का संपादन किया। कथावाचन और मंचीय काम में उनका लगभग 45 वर्षों का सक्रिय योगदान रहा।



Monday, November 24, 2025

टुन टुन

 उमा देवी खत्री, जिन्हें पूरा देश प्यार से टुनटुन के नाम से जानता है, हिंदी फिल्म जगत की पहली और अत्यंत लोकप्रिय महिला कॉमेडियन थीं। उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज़, अनोखी आवाज़, खास व्यक्तित्व और हास्य से भरे अभिनय से एक ऐसा मुकाम बनाया, जिसे आज भी कोई नहीं भूल सकता। वे केवल हंसी की दुनिया की सितारा ही नहीं थीं, बल्कि संघर्ष, आत्मविश्वास और प्रतिभा की मिसाल भी थीं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि कठिन परिस्थितियाँ भी यदि मन में दृढ़ निश्चय हो तो महान सफलता की राह रोक नहीं सकतीं।

उमा देवी का जन्म 11 जुलाई 1923 को उत्तर प्रदेश में हुआ। बचपन अत्यंत कठिनाइयों से भरा था। कम उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया और वे अनाथ हो गईं। गरीबी, अकेलापन और जीवन की संघर्षपूर्ण परिस्थितियों ने उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। लेकिन इन कष्टों के बीच भी उमा देवी के मन में संगीत और कला के प्रति गहरा प्रेम बना रहा। उनकी आवाज़ अत्यंत अनूठी थी—मधुरता और भारीपन का एक ऐसा संगम, जो पहली ही बार सुनने पर ध्यान खींच ले।

जीवन में संघर्ष करते हुए वे मुंबई पहुंचीं और फिल्मों में काम पाने का प्रयास किया। शुरुआती दिनों में उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्रतिभा और आत्मविश्वास के दम पर उन्होंने अपना रास्ता स्वयं बनाया। सबसे पहले उनका नाम उभरकर सामने आया एक गायिका के रूप में। 1947 में उनकी गायकी ने फिल्म जगत को चौंका दिया। “अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का” जैसे गीतों ने उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया। उस समय की महान गायिका लता मंगेशकर द्वारा उन्हें अत्यंत सम्मान दिया गया और माना जाता है कि लता जी ने उमा देवी को सम्मानपूर्वक यह समझाया कि उनकी आवाज़ का उपयोग एक सीमित दायरे में ही संभव है, और अभिनय की ओर बढ़ना उनके लिए बेहतर राह हो सकती है।

उसी समय से उमा देवी ने अभिनय को अपनी नई दिशा बनाया। उनका भारी-भरकम शरीर, अलग अंदाज़ और सहजता से किए गए हास्य ने उन्हें दर्शकों का सबसे चहेता कलाकार बना दिया। वे कॉमिक भूमिकाओं में इस तरह रच-बस जाती थीं कि कई बार दर्शक केवल उनकी एक झलक से ही हंस पड़ते थे। निर्देशक और कलाकार उन्हें सेट पर “टुनटुन” कहकर बुलाने लगे और यही नाम बाद में उनकी पहचान बन गया। उनका नया नाम टुनटुन फिल्म इतिहास में अमिट हो गया।

1950 और 1960 के दशक में टुनटुन उस दौर की लगभग हर बड़ी फिल्म में हास्य भूमिका में दिखाई देती थीं। वे गुरु दत्त, देव आनंद, दिलीप कुमार, किशोर कुमार, मेहमूद और राज कपूर जैसे सितारों के साथ काम कर चुकी थीं। “आर-पार”, “मिस्टर एंड मिसेज 55”, “अड़चनें”, “सीआईडी”, “दिल्ली का ठग” और “कश्मीर की कली” जैसी फिल्मों में उनके हास्य प्रदर्शन को दर्शक आज भी याद करते हैं। उनकी विशेषता केवल मज़ाक करना ही नहीं थी, बल्कि वे दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों में भी हास्य ढूंढ लेती थीं और उसे पर्दे पर इस तरह प्रस्तुत करती थीं कि किरदार जीवंत हो उठता था।

टुनटुन का हास्य कभी भी भद्दा नहीं होता था। वे शालीन, मधुर और स्वाभाविक अभिनय से हंसी पैदा करती थीं। महिलाओं के लिए हास्य भूमिका निभाना उस दौर में आसान नहीं था। समाज, फिल्म उद्योग और दर्शकों की दृष्टि में महिला कलाकारों के लिए एक तय दायरा था। लेकिन टुनटुन ने इस दायरे को तोड़ा और साबित किया कि चाहे अभिनय का कोई भी क्षेत्र हो—महिलाएं उसमें उत्कृष्टता प्राप्त कर सकती हैं। वे बताती थीं कि हंसाने वाला कलाकार लोगों के मन में सबसे गहरा असर छोड़ता है, क्योंकि वह दुखों के बीच मुस्कान पैदा करता है।

टुनटुन का निजी जीवन भी संघर्षों से भरा था, परंतु उन्होंने कभी इसे अपने करियर पर हावी नहीं होने दिया। वे एक समर्पित पत्नी और मां थीं। अपने परिवार के प्रति उनका प्रेम और जिम्मेदारी भी उतनी ही दृढ़ थी जितनी उनकी कला के प्रति समर्पण। काम के साथ वे हर परिस्थिति में अपने परिवार को सँभालती रहीं और अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी।

अपने लंबे करियर में टुनटुन ने लगभग 200 से अधिक फिल्मों में काम किया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि निर्माता-निर्देशक फिल्में लिखते समय विशेष रूप से हास्य दृश्यों में टुनटुन का चरित्र जोड़ देते थे। उनका नाम ही दर्शकों को थिएटर तक खींच लाने के लिए काफी होता था। 1990 के दशक तक वे फिल्म जगत से कुछ दूर हो गईं, लेकिन उनकी पहचान, लोकप्रियता और सम्मान में कभी कोई कमी नहीं आई।

24 नवंबर 2003 को टुनटुन का निधन हो गया। उनके जाने के बाद भारतीय सिनेमा ने एक ऐसे कलाकार को खो दिया, जिसने न केवल हंसी दी, बल्कि फिल्म जगत में महिलाओं के लिए हास्य भूमिकाओं का मार्ग भी प्रशस्त किया। वे एक ऐसी कलाकार थीं जिनका योगदान सिर्फ अभिनय तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने समाज को यह संदेश दिया कि संघर्ष किसी भी सपने को रोक नहीं सकता।

अंततः, उमा देवी खत्री ‘टुनटुन’ भारतीय फिल्मों की वह धरोहर हैं, जिन्होंने भारतीय सिनेमा में हास्य अभिनय को नए आयाम दिए। वे हंसी की रानी थीं—एक ऐसी रानी, जिसकी मुस्कान और आवाज़ आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है। उनका जीवन प्रेरणा है कि प्रतिभा, साहस और आत्मविश्वास से हर कठिनाई पर विजय पाई जा सकती है।




शिया धर्मगुरु कल्बे सादिक : शिक्षा, सुधार और एकता के प्रवर्तक

 कल्बे सादिक आधुनिक भारत के उन विशिष्ट धर्मगुरुओं में से रहे, जिन्होंने धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर समाज में एकता, शिक्षा और साम्प्रदायिक सौहार्द का अद्भुत संदेश दिया। वे शिया मुस्लिम समुदाय के प्रतिष्ठित विद्वान, चिंतक और सुधारक थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पहचान थी—समाज के हर वर्ग के लिए समान प्रेम और सेवा की भावना। वे धार्मिक उपदेशों को केवल किताबों तक सीमित नहीं रखते थे, बल्कि उन्हें जीवन में उतारकर दिखाते थे। इसी कारण वे देशभर में सम्मान और विश्वास के प्रतीक बने।

कल्बे सादिक का जन्म 22 जून 1939 को लखनऊ शहर के एक प्रतिष्ठित धार्मिक परिवार में हुआ। उनके पिता मौलाना कल्बे हुसैन एक प्रसिद्ध आलिम थे। घर का वातावरण धार्मिक, विद्वत्तापूर्ण और समाजसेवा के संस्कारों से भरा हुआ था। बचपन से ही कल्बे सादिक की रूचि अध्ययन, चिंतन और तर्कपूर्ण चर्चा में रहती थी। उन्होंने अरबी, फारसी, उर्दू, इतिहास, इस्लामी दर्शन और अन्य धार्मिक विषयों में गहन अध्ययन किया। बाद में इंग्लैंड से आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर वे एक प्रखर वक्ता और गहन विचारक के रूप में विकसित हुए।

धर्मगुरु होने के बावजूद उनका दृष्टिकोण आधुनिक, वैज्ञानिक और प्रगतिशील था। वे हमेशा कहते थे कि “यदि शिक्षा नहीं है तो धर्म का असली उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।” इसी विचारधारा के चलते उन्होंने शिक्षा को अपने जीवन का मुख्य साधन बना लिया। उन्होंने लखनऊ में तल्लीम-ओ-तरबिय्यत आंदोलन को नई गति दी और गरीब तथा वंचित बच्चों की पढ़ाई के लिए कई संस्थान स्थापित किए। टूटी पैर वाली कुर्सियों और बिना बिजली के कमरों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए उन्होंने आधुनिक स्कूल, कॉलेज और टेक्निकल संस्थान खड़े किए। उनकी यह सोच थी कि सिर्फ मदरसों की शिक्षा पर्याप्त नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान, गणित और तकनीक में भी मुस्लिम समाज को आगे आना होगा।

कल्बे सादिक केवल शिक्षा सुधारक ही नहीं थे, बल्कि सामाजिक सुधार के भी बड़े पैमाने पर प्रवर्तक थे। उन्होंने दहेज के खिलाफ बहुत मजबूत आवाज उठाई। वे मंचों से खुलकर कहते थे कि दहेज लेना या देना इस्लाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने अपने समुदाय में सादगीपूर्ण निकाह का अभियान चलाया और स्वयं भी अपने घराने में इसका पालन किया। वे सामाजिक बुराइयों को धार्मिक आदेशों के माध्यम से नहीं, बल्कि तर्क, करुणा और मानवीयता के आधार पर समझाते थे।

भारत में धार्मिक तनाव और साम्प्रदायिक संघर्ष लंबे समय से चुनौती रहे हैं। ऐसे समय में कल्बे सादिक हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे सशक्त चेहरों में से रहे। उनकी तकरीरों में हमेशा भाईचारे, राष्ट्रीय एकता और मानवीय मूल्यों का संदेश होता था। वे कहते थे कि “धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है। जो जोड़ता नहीं, वह धर्म नहीं।” उनकी सभाओं में सभी धर्मों के लोग शामिल होते थे और उनकी बातों से प्रेरणा लेते थे। वे राम और रहीम की एकता पर जोर देते थे और भारत की सांझी विरासत को एक अमूल्य धरोहर बताते थे।

कल्बे सादिक का व्यक्तित्व अत्यंत सरल, सौम्य और विनम्र था। वे बड़े से बड़े मंच पर भी सादगी भरा पहनावा रखते थे और सामान्य भाषा में जटिल धार्मिक विषयों को समझा देते थे। उनकी शैली में संयम, करुणा और गंभीरता का अनोखा मेल होता था। वे आलोचना से घबराते नहीं थे और न ही किसी विवाद में कठोरता दिखाते थे। उनकी वाणी में ऐसी मिठास थी कि कटु से कटु दिल भी पिघल जाता था।

स्वास्थ्य कमजोर रहने के बावजूद वे आखिरी समय तक समाजसेवा और शिक्षा के कार्यों में लगे रहे। उन्होंने गरीबों की सहायता, छात्रवृत्ति कार्यक्रमों और सामुदायिक स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया। उनका यह भी मानना था कि यदि समाज को आगे बढ़ाना है तो महिलाओं की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रयास किए और उनके लिए कई संस्थान स्थापित कराए।





कल्बे सादिक ने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि धर्म का उद्देश्य मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना है, न कि उसे दूसरों से अलग करना। वे धार्मिक श्रेष्ठता की जगह मानवीय श्रेष्ठता को महत्व देते थे। वे इस्लाम को ज्ञान, तर्क और प्रेम का धर्म मानते थे और उसकी व्याख्या आधुनिक संदर्भों में करते थे। उनकी यह विशेषता उन्हें सिर्फ एक धर्मगुरु नहीं, बल्कि एक समाज-सुधारक और मानवतावादी चिंतक के रूप में स्थापित करती है।

24 नवंबर 2020 को उनके निधन से देश ने एक अद्भुत व्यक्तित्व खो दिया। परंतु उनके विचार, उनके कार्य और उनकी शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। उनसे जुड़ी संस्थाएं आज भी हजारों बच्चों और गरीब परिवारों का जीवन बदल रही हैं। उनकी याद में आयोजित कार्यक्रमों में अक्सर एक ही बात दोहराई जाती है—“कल्बे सादिक ने इंसानियत का पैगाम दिया, और यह पैगाम कभी नहीं मिटेगा।”

अंततः, कल्बे सादिक का जीवन भारतीय मुस्लिम समाज ही नहीं बल्कि पूरे देश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। वे एक ऐसे नेता थे जिन्होंने शब्दों से ज्यादा कार्यों से यह साबित किया कि शिक्षा, भाईचारा और मानवता ही समाज को सही दिशा दे सकते हैं। उनका जीवन आज भी नई पीढ़ी के लिए एक प्रकाशस्तंभ की तरह है।